'इंडिया टुडे' ने जिस इंटरव्यू को प्रसारित नहीं किया उसके बीच से ही शायद ये तस्वीरें निकल कर आई हैं। इनमें जो भंगिमा है वो किसी खलनायक के 'आओ कभी हवेली पर' वाले रूप की ही याद दिलाती हैं।
किताबों में रुचि होने की वजह से हमें वाराणसी के साथ-साथ 'काशी का अस्सी' भी याद आ जाती है। एक वामी मजहब के लेखक की इस किताब को पढ़ने के बाद शायद ही कोई उर्दू भाषा से प्रेरित गाली होगी, जिसे सीखना बाकी रह जाता होगा।
अरबी अक्षर इस्तेमाल करने के बदले 1 नवम्बर 1928 को कमाल पाशा ने तुर्की वर्णमाला भी लागू कर दी और इसके साथ ही तुर्की ज़ुबान को अरबी में लिखना बंद करवा दिया।
वो इंडिया के लोग भारत में आकर, किसी और माहौल, किसी और भाषा में, किसी और विषय की बात कर रहे हैं। बेगुसराय की जनता अपना मत देने के लिए बटन दबाती है। दुआ है कि इस 'दबाने' में भी कहीं उन्हें अपने प्रत्याशी के विरोध के स्वर को दबाया जाना न समझ आ जाए!
दबी जबान में चर्चा हो रही है कि बंद कमरे में कुछ लोगों ने मफ़लर वाले के साथ वो कर दिया है जो कम्बल उढ़ा कर किया जाता है। कविराज विष-वास सोशल मीडिया पर इसपर कटाक्ष भी करते दिखे। यकीन नहीं होता, इतिहास खुद को दोहराता है, ऐसा सुना था, मगर इतनी समानताएँ?
पीठ पर गोली लगने की वजह से जेहादियों के हाथ मारे गए करकरे को सवालों से परे क्यों होना चाहिए? अगर इशरत जहां के आतंकियों के साथ मारे जाने पर भी जाँच आयोग बिठाए जाते हैं, तो साध्वी प्रज्ञा के आरोपों की जांच में दिक्कत क्या है?
आजादी के सात दशकों में हिन्दुओं के #मानवाधिकार छीनते रहने वालों का अट्टहास हर ओर तो सुनाई देता है! ऐसे अट्टहास हमें सुनाई इसलिए देते हैं क्योंकि उन्होंने यूनिवर्सिटी, समाचारपत्र, रेडियो, टीवी चैनल जैसे संसाधनों पर कब्ज़ा कर रखा है। मतदान इन मुट्ठी भर अभिजात्यों से...