Sunday, September 29, 2024
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गुरदासपुर: BJP द्वारा सनी देओल पर भरोसा जताने के पीछे हैं ये 5 कारण, कॉन्ग्रेस खेमे में खलबली

जैसा कि सर्वविदित है, अस्सी और नब्बे के दशक में सुपरस्टार का रुतबा रखने वाले सनी देओल को भाजपा ने गुरदासपुर से टिकट दिया है। उनके भाजपा में शामिल होने के बाद ही यह तय हो गया था कि विनोद खन्ना की विरासत संभालने की ज़िम्मेदारी उन्हें दी जा सकती है। सनी देओल ने भाजपा में शामिल होने के बाद पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहार वाजपेयी के साथ अपने पिता और गुज़रे ज़माने के सुपरस्टार धर्मेंद्र के संबंधों का ज़िक्र किया। विकास को अपनी प्राथमिकता बताते हुए सनी ने अगले पाँच साल के लिए पीएम मोदी की ज़रूरत पर प्रकाश डाला। सनी देओल ने सुलझे हुए अंदाज़ में अपनी बातें रखीं। भले ही परदे पर वो चिल्लाने के लिए मशहूर हैं लेकिन असल ज़िंदगी या मीडिया में शायद ही हमने उन्हें किसी पर चिल्लाते देखा हो। वो शांति से बोलते हैं, मुस्कराहट के साथ अपनी बात रखते हैं और फ़िल्मी दर्शकों के एक बड़े वर्ग में अभी भी उतने ही लोकप्रिय हैं।

सनी देओल के सिनेमाई सफर के बारे में सभी को पता है और उनकी फ़िल्मों के डायलॉग्स अभी भी ख़ासे प्रसिद्ध हैं। उनकी स्क्रीन प्रजेंस सबसे ज्यादा दमदार होती आई है, यही कारण है कि दामिनी में उनके गेस्ट रोल को भी बढ़ाना पड़ा और उन्होंने फ़िल्म में जान डाल दी। भाजपा सनी देओल की इमेज को अब पंजाब में भुनाएगी। यहाँ सनी देओल के मैदान में उतरने से न सिर्फ़ गुरदासपुर बल्कि पूरे पंजाब में पार्टी उनके चेहरे का प्रयोग करेगी। सनी देओल की सबसे हिट फ़िल्म ग़दर में उन्होंने एक पंजाबी का ही किरदार अदा किया था। फ़िल्म पंजाब में इतनी लोकप्रिय हुई थी कि सिनेमाघरों को सुबह से ही इसे चलाना पड़ता था। अब ग़दर के 19 वर्षों बाद सनी देओल फिर से लोगों के बीच उसी अंदाज़ में लौटे हैं लेकिन माध्यम अब सिनेमा नहीं है, राजनीति है।

कॉन्ग्रेस गुरदासपुर में सनी देओल का काट ढूँढने में लग गई है। मुख्यमंत्री कैप्टेन अमरिंदर सिंह ख़ुद घटनाक्रम पर नज़र रखे हुए हैं। पार्टी की पंजाब में माँग है कि गुरदासपुर में प्रियंका चोपड़ा या प्रीति ज़िंटा को चुनाव प्रचार के लिए बुलाया जाए। प्रियंका ने सनी की फ़िल्म से ही बॉलीवुड में क़दम रखा था और प्रीति के साथ भी उनके अच्छे सम्बन्ध हैं, ऐसे में असमंजस में पड़ी कॉन्ग्रेस शायद ही ऐसा कोई सेलिब्रिटी ढूँढ पाए जो उनके लिए सनी के ख़िलाफ़ प्रचार करे। पंजाब विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रहे सुनील कुमार जाखड़ ने इस सीट को उपचुनाव में जीत तो लिया था लेकिन स्थानीय स्तर पर बड़ा क़द होने के बावजूद सनी देओल की उम्मीदवारी से उनके कैडर में बेचैनी है। आइए सबसे पहले देखते हैं भाजपा द्वारा सनी देओल को इस क्षेत्र से उतारने के पीछे रहे 5 कारण।

आतंक से पीड़ित रहे बॉर्डर इलाके में सनी की राष्ट्रवादी छवि

गुरदासपुर क्षेत्र भारत और पाकिस्तान की सीमा पर स्थित है। यहाँ अक्सर आतंकी हमले होते रहे हैं। भले ही नरेंद्र मोदी के सत्ता संभालने के बाद भारत के अंदरूनी शहरों में कोई आतंकी वारदात न हुई हो लकिन सीमावर्ती क्षेत्रों में हालात अभी भी बहुत अच्छे नहीं हैं। 2015 में दीनानगर पुलिस स्टेशन पर हमला हुआ था। इस हमले में 4 पुलिस के जवान व 3 नागरिकों की जान चली गई थी। 3 आतंकियों को भी मार गिराया गया था। इसी तरह 2016 में पठानकोट एयरफोर्स स्टेशन पर हमला हुआ। पुलवामा में हुए आतंकी हमले में गुरदासपुर के 1 जवान के वीरगति को प्राप्त हो जाने के बाद क्षेत्र के लोगों में आतंकियों व पाकिस्तान के प्रति ख़ासा रोष है। शहर के विभिन्न सामाजिक संगठनों ने पीएम मोदी के नाम खुला पत्र लिखकर आतंकियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की माँग की थी।

भारत द्वारा पाकिस्तान स्थित आतंकी कैम्पों पर एयर स्ट्राइक के बाद आमजनों के मन में रोष कम हुआ और वर्तमान सरकार में भरोसा भी जगा। इसके बाद लोगों में एक उम्मीद बँधी कि अगर कुछ ऐसा-वैसा होता है तो सरकार के पास जवाब देने के लिए इच्छाशक्ति है। गुरदासपुर के लोगों के बीच सनी देओल देओल को अपनी राष्ट्रवादी इमेज का फ़ायदा मिलेगा। ग़दर, इंडियन और द हीरो जैसी फ़िल्मों के कारण सनी की छवि एक राष्ट्रवादी की है जो भाजपा की विचारधारा से भी मेल खाती है। पाकिस्तान से सटे सीमा क्षेत्र में सनी की मौजूदगी से वहाँ की जनता ख़ुश होगी। भारत-पाकिस्तान (पाकिस्तान की हरकतों के कारण) तनाव के माहौल में गुरदासपुर में सनी की उपस्थिति से भाजपा को भी फ़ायदा होगा।

विनोद खन्ना की अच्छी छवि और उनकी विरासत

विनोद खन्ना ने 1998, 1999 और 2004 में जीत दर्ज कर इस सीट पर हैट्रिक बनाई थी। विनोद खन्ना गुरदासपुर के राजनीतिक पटल पर 20 वर्षों तक सक्रिय रहे। पहली बार 1998 में 1 लाख से भी अधिक मतों के अंतर से जीत दर्ज करने वाले खन्ना ने 2014 में वही करिश्मा दुहराया। बीच में वो केवल 2009 में हारे लेकिन उनकी जीत का अंतर हमेशा कम ही रहा। लेकिन, यहाँ एक बात जानने लायक है कि विनोद खन्ना की गुरदासपुर में अच्छी छवि 2009 में उनके हारने के बाद बनी। हार के बावजूद उन्होंने क्षेत्र को नहीं छोड़ा, जैसा कि अन्य सेलिब्रिटी करते हैं। पटना में शत्रुघ्न सिन्हा से इसी चीज को लेकर लोगों की नाराज़गी है। ऐसा कई क्षेत्रों में हुआ है जब जीतने या हारने के बाद सेलेब्रिटीज इलाके में कभी गए ही नहीं। इससे वहाँ की जनता के बीच सेलेब्रिटीज को लेकर नेगेटिव छवि बनी। लेकिन, गुरदासपुर में मामला अलग है।

2009 में हारने के बावजूद विनोद खन्ना ने क्षेत्र के लिए कई बड़े कार्य किए और पुलों का निर्माण करवाया। उन्होंने जनता से संवाद बनाए रखा। यही कारण था कि जिस प्रताप सिंह बाजवा ने उन्हें 2009 में मात दी थी, उसी बाजवा को 2014 में उन्होंने परास्त किया। इसमें कोई शक नहीं कि बीमारी के कारण अगर उनकी असमय मृत्यु नहीं होती तो अभी गुरदासपुर से वे ही भाजपा उम्मीदवार होते। एक सेलिब्रिटी के प्रति गुरदासपुर की जनता के बीच बनी इस छवि का सनी देओल को फ़ायदा मिल सकता है। विनोद खन्ना वाला कनेक्शन यहाँ काम कर सकता है। लोगों को ये उम्मीद होगी कि सनी देओल जीतने के बाद विनोद खन्ना की तरह ही यहाँ बने रहेंगे, बाकी मुम्बइया सेलेब्रिटीज की तरह नहीं करेंगे।

जाट और दलितों को एक साथ साधने की कोशिश

सनी देओल पंजाबी जाट परिवार से आते हैं और क्षेत्र में जाट और गुज्जर, ये दोनों ही समुदायों के लोग विभिन्न धर्मों में बँटे हुए हैं। ये हिन्दू भी हैं, मुस्लिम भी हैं और सिख भी हैं। कॉन्ग्रेस ने जाखड़ से पहले 27 वर्षों तक यहाँ से सिख उम्मीदवार ही उतारा था। सनी देओल के पंजाबी या सिख जाट परिवार से होने के कारण ग्रामीण इलाकों में उन्हें फायदा मिल सकता है। ऐसी ख़बरें आ रही थीं कि पंजाब में अकाली दल के साथ रहने वाला जाट-सिख वोट अब बिखर रहा है और इसे साधने की भाजपा लगातार कोशिश कर रही है। विनोद खन्ना की मृत्यु के बाद हुए उपचुनाव में मिली हार ने भाजपा की आँखें खोल दी हैं और उसने ऐसा चेहरा लाकर रख दिया है जिसके सामने जाति और समुदाय की बातें शायद गौण हो जाएँगी।

गुरदासपुर में दलितों की अच्छी-ख़ासी जनसंख्या है। उपचुनाव में भाजपा को इनका साथ नहीं मिला था। कैप्टेन के धुआँधार प्रचार के कारण जाखड़ 1.99 लाख वोटों से जीतने में सफल रहे। लेकिन सनी देओल की फ़िल्मों की लोकप्रियता ग्रामीण इलाकों व निचले मध्यम वर्ग और ग़रीबों में अधिक रही है। इसी को देखते हुए भाजपा ने उन्हें उतारा है। उनके एक्शन स्टार की छवि यहाँ स्थानीय उम्मीदवारों पर भारी पड़ सकती है।

फेल हो गया भाजपा का स्थानीय उम्मीदवार वाला दाँव

ऐसा नहीं है कि भाजपा ने यहाँ से स्थानीय उम्मीदवार उतारने पर विचार नहीं किया। विनोद खन्ना की मृत्यु के बाद हुए उपचुनाव में उसने स्वर्ण सलारिया पर भरोसा जताया था जो स्थानीय उद्योगपति और नेता हैं। भाजपा ने उन पर भरोसा जताया लेकिन उन्हें इतनी बुरी हार मिली कि पार्टी सन्न रह गई। स्वर्ण सलारिया स्थानीय स्तर पर सक्रिय होने के कारण भी जाखड़ को टक्कर नहीं दे पाए। पंजाब कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष जाखड़ के सामने इस बार भाजपा ने स्थानीय उम्मीदवार के बदले क़द पर ध्यान दिया है और फलस्वरूप सनी देओल मैदान में हैं। वैसे सनी देओल के लिए यह क्षेत्र नया होगा और उन्हें यहाँ आकर सब कुछ नए सिरे से समझना पड़ेगा लेकिन जनता के बीच लोकप्रिय होने के कारण भाजपा को उम्मीद है कि सब कुछ युद्ध स्तर पर हो जाएगा।

दिवंगत अभिनेता विनोद खन्ना की पत्नी कविता खन्ना भी टिकट की दावेदार थी लेकिन भाजपा को यहाँ चेहरा चाहिए था क्योंकि केवल सहानुभूति लहर के सहारे प्रदेश कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष को टक्कर देना शायद संभव नहीं हो पाता। जाखड़ अनुभवी हैं और अनुभव के समाने सिर्फ़ सहानुभूति लहर के बलबूते लड़ने से शायद ही पार्टी के कैडर में नए सिरे से सक्रियता आती।

अब निकले कार्यकर्ता अपने घरों से

अंतिम और सबसे अहम कारण जो सनी देओल को गुरदासपुर से लड़ाने के पीछे है, वो है कार्यकर्ताओं की सक्रियता को फिर से जीवित करना। विनोद खन्ना की मृत्यु, प्रदेश में भाजपा-अकाली गठबंधन की बुरी हार और फिर उपचुनाव में मिली मात के बाद यहाँ भाजपा कार्यकर्ता घरों में बैठ गए थे। उन्हें लामबंद करना इतना आसान भी नहीं था। भाजपा ने एक तीर से दो निशाने साधे और इसका असर भी दिखने लगा। सनी देओल की एंट्री की ख़बर सुनते ही गुरदासपुर के कार्यकर्तागण अपने-अपने घरों से निकले और उन्होंने आपस में मिठाई बाँट कर खुशियाँ मनाईं। कॉन्ग्रेस को यह चिंता खाए जा रही है कि सनी देओल जब चुनाव प्रचार के लिए क्षेत्र में उतरेंगे तो आसपास की सीटों पर भी इसका पार्टी पर बुरा असर पड़ेगा।

गुरदासपुर के माहौल की बात करें तो भाजपा के स्थानीय दफ़्तर में फिर से जान लौट आई है, कार्यकर्ता उत्साह में हैं और पार्टी कैडर एक बार फिर से काम में लग गया है। कैप्टेन और जाखड़ के संयुक्त करिश्मा को भाजपा ने काटने की कोशिश की है और वो सफल होती भी दिख रही है। अब देखना यह है कि सनी देओल गुरदासपुर में कब लैंड करते हैं।

3 जजों की पीठ करेगी CJI गोगोई के मामले की जाँच, बड़ी कॉर्पोरेट साजिश की भी आशंका

सुप्रीम कोर्ट ने एक अभूतपूर्व निर्णय लेते हुए न्यायमूर्ति रंजन गोगोई के विरुद्ध उठे यौन प्रताड़ना मामले की जाँच के लिए न्यायमूर्ति बोबडे की अध्यक्षता में तीन सुप्रीम कोर्ट जजों का विशेष जाँच पैनल बनाने का निर्णय लिया है। यह आरोप एक बर्खास्त महिला कनिष्ठ कोर्ट असिस्टेंट ने लगाए हैं और गोगोई ने आरोपों में जरा भी सच्चाई होने से साफ इंकार किया है। जस्टिस गोगोई ने यह भी शंका जताई कि इन आरोपों के पीछे कोई बड़ी ताकतें हैं

सभी 27 जजों ने किया पैनल का समर्थन, कोई अंतिम तिथि नहीं

सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठता में दूसरे क्रमांक के जस्टिस बोबडे के अलावा पैनल में जस्टिस एनवी रमण और इंदिरा बनर्जी भी शामिल हैं। मंगलवार को इस पैनल ने आरोप लगाने वाली महिला और सुप्रीम कोर्ट के महासचिव संजीव कालगाओंकर को नोटिस जारी की और शुक्रवार को मामले की पहली सुनवाई के लिए अपने समक्ष उपस्थित होने का आदेश दिया। सुप्रीम कोर्ट के सभी जजों ने पैनल के गठन का समर्थन किया है और एकमत से मामले की तस्वीर साफ करने पर जोर दिया है। उस पैनल को कोई अंतिम तिथि नहीं दी गई है, यानि कि पैनल को मामले की तह तक जाने के लिए जितना भी समय चाहिए, उसके पास होगा।

वकीलों ने किया था जाँच का अनुरोध,  पैनल ने अभियोगी के रिकॉर्ड भी मँगाए

गत 20 अप्रैल को मुख्य न्यायाधीश गोगोई ने जस्टिस बोबडे को ही इस मामले से जुड़े निर्णय लेने का जिम्मा सौंपा था। टाइम्स ऑफ़ इंडिया की खबर के अनुसार माना जा रहा है उन्होंने ऐसा सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन और सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन की अंदरूनी जाँच सुप्रीम कोर्ट के जजों के पैनल से कराए जाने की माँग के जवाब में किया था। जस्टिस बोबडे और रमण ने मामले पर कोई भी टिप्पणी करने से मना कर दिया है

पैनल ने सुप्रीम कोर्ट के महासचिव कालगाओंकर को अपने साथ कोर्ट से बर्खास्त अभियोगी कर्मचारी महिला के सभी रिकॉर्ड लाने का निर्देश दिया है, जिनमें उनके 4 साल के सुप्रीम कोर्ट कार्यकाल के दौरान की सभी नियुक्तियों की जगहों के अभिलेख भी होंगे।

अधिवक्ता बैंस को मुहैया कराई सुरक्षा, साजिश के साक्ष्यों को माना गंभीर

इसके अलावा न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा, न्यायमूर्ति रोहिंटन फली नरीमन और न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता की खंडपीठ ने सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता उत्सव बैंस को भी सुना। बैंस ने हलफनामा दे कर दावा किया था कि जस्टिस रंजन गोगोई को फँसाने के लिए एक बहुत बड़ी कॉर्पोरेट साजिश की जा रही है, जिसमें शामिल होने के लिए उन्हें भी बड़ी रकम की पेशकश की गई थी। उन्होंने दावा किया था कि उनके पास इसके सबूत भी हैं।

आज बैंस खंडपीठ के सामने अपने सबूत सीलबंद लिफाफे में लेकर प्रस्तुत हुए। पीठ ने उनके द्वारा पेश सबूतों को गंभीर माना और उन्हें सुरक्षा मुहैया कराने को लेकर भी निर्देश जारी किए। इसके अलावा कोर्ट ने एक विशेष जाँच दल (एसआईटी) बनाने की भी बात की, जिसकी निगरानी वह स्वयं करेगा। जागरण की विशेष संवाददाता माला दीक्षित ने यह भी ट्वीट किया कि अदालत ने सीबीआई डायरेक्टर, दिल्ली पुलिस आयुक्त और डायरेक्टर आईबी को 12.30 पर चैम्बर में बुलाया है।

TCS, INFOSYS सहित IT सेक्टर कम्पनियों में बढ़ी 350 फीसदी भर्तियाँ

विभिन्न क्षेत्रों में नौकरियों की तलाश की खबरों के बीच आईटी सेक्टर से अच्छी खबर आई है। विपक्षी पार्टी लगातार मोदी सरकार को रोजगार को लेकर घेरती रहती है, मगर ये खबर मोदी सरकार की एक और बड़ी उपलब्धि को दर्शाता है और साथ ही विरोधियों को जवाब भी देता है, जो रोजगार को लेकर सरकार को निशाना बनाती रही है। फॉर्च्यून द्वारा इसी हफ्ते जारी किए गए रिपोर्ट के मुताबिक, वित्त वर्ष 2018-19 में प्रमुख आईटी कंपनियों टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज (टीसीएस) और इन्फोसिस ने इसके पिछले वित्त वर्ष की तुलना में 42,000 अधिक तकनीकी वर्करों को नौकरियों पर रखा है। दोनों कंपनियों की नई भर्तियों में 350 फीसदी से ज्यादा की वृद्धि दर्ज की गई है। अभी फिलहाल टीसीएस के कुल कर्मचारियों की संख्या 4.24 लाख और इंफोसिस का 2.28 लाख है।

मुंबई स्थित मुख्यालय वाली टीसीएस में 31 मार्च को समाप्त वित्त वर्ष में 29,287 कर्मचारियों की भर्तियाँ की गई, जबकि बेंगलुरू की इंफोसिस ने 24,016 सॉफ्टवेयर प्रोफेशनल्स को जॉब पर रखा। वित्त वर्ष 2018-19 में इन दोनों कंपनियों ने 53,303 नए कर्मचारियों को जोड़ा था, जबकि वित्त वर्ष 2017-18 में दोनों कंपनियों ने लगभग 11,500 नए कर्मचारियों की भर्तियाँ की थी। पिछले वित्त वर्ष में टीसीएस ने कुल 7,775 कर्मचारियों को जॉब पर रखा था, तो वहींं इंफोसिस ने कुल 3,743 कर्मचारियों की भर्तियाँ की थी।

विशेषज्ञों के अनुसार, 2019 में आईटी कंपनियाँ डेटा साइंस, डेटा एनालिसिस, सोल्यूशन आर्किटेक्ट्स, प्रोडक्ट मैनेजमेंट, डिजिटल मार्केटिंग, मशीन लर्निंग और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई), ब्लॉकचेन और साइबर सिक्युरिटी में विशेषज्ञता रखने वाले कर्मचारियों की नियुक्ति करेगी। टीमलीज सर्विसेज की रिपोर्ट में कहा गया है कि इस साल भारतीय आईटी उद्योग में करीब 2.5 लाख नई नौकरियाँ पैदा होने की संभावना है।

आईटी क्षेत्र के बड़े कंपनियों में शुमार टीसीएस, इंफोसिस और विप्रो अपने कर्मचारियों के भविष्य को बेहतर बनाने की तैयारी में है। इन कंपनियों ने अपने कर्मचारियों के लिए डिजिटल प्रौद्योगिकी क्षेत्र में कई आंतरिक प्रशिक्षण (इंटर्नल ट्रेनिंग) भी शुरू किए हैं।

मोदी की माँ की तस्वीरों से जूतों की कहानी तक, लिबरलों के धुआँ क्यों निकल रहा है

लिबरलों की जो ब्रीड है वो कई मायनों में आपको अचंभित करती है। खुद को स्वघोषित विद्वान मानते हैं, ब्रीड का नाम ही लिबरल है तो खुले विचारों के तो वैसे ही क्लेम करने लगते हैं, हर तरह के ‘वाद’ से परे बताते हैं खुद को, हर तरह के विचारों का सम्मान इनकी प्रस्तावना का हिस्सा है, लेकिन क्या ऐसा सच में है? बिलकुल नहीं, क्योंकि ये सारी परिभाषाएँ और परिमितियाँ तब ही सही होती हैं, जब एक लिबरल ब्रीड वाला, दूसरे लिबरल के बालों को जीभ से चाट रहा हो।

कहने का मतलब यह है कि इस ब्रीड की सारी ख़ासियतें इन पर ही जब लगाई जाएँ तो परिभाषाएँ एक तरफ, इनका आचरण दूसरी तरफ। दोनों में दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं। ये वैसे बॉलर हैं जो नाम के आगे स्पिनर लिखवाते हैं और गेंद की गति 120 से कम नहीं रहती। खेलने वाला यह सोचता है कि गेंद घूमेगी, और गेंद सीधी रहने से वो एलबीडब्ल्यू हो जाता है।

जैसे कि लिबरल ब्रीड का व्यक्ति जब असहिष्णुता का डिबेट शुरू करता है तो वो सिर्फ शब्द पकड़ लेता है। वो ऐसा इसलिए करता है कि इनके व्हाट्सएप्प ग्रुपों में कहा जाता है कि इसको चर्चा में लाना है। भले ही इनकी ब्रीड के पुरोधा लिफ़्टों में लड़कियों का मोलेस्टेशन करते पाए जाते हैं, दंगा फैलाने वाली बातें करते हैं, इन फैक्ट जिनके बाप दंगाई रह चुके हों, पार्टी के काडर दूसरी पार्टियों के लोगों को सरेबाजार काट देते हों, वैचारिक असहमति रखने वाले विरोधियों को नमक की बोरियों के साथ ज़िंदा दफ़ना देते हों, ये जिनके साथ खड़े होते हों, उनके राज्य में हर ज़िला साम्प्रदायिक दंगों से पीड़ित हो, और राजनैतिक हत्याओं का क़ब्रिस्तान बन चुका हो, लेकिन ये कहलाते लिबरल ही हैं।

कहलाने में कोई कमी नहीं रखते। इनके लिए किसी नेता के अपनी माँ के पैर छूना अपनी माँ को राजनीति में घसीटना हो जाता है। मैं मोदी द्वारा अपने पैतृक आवास पर, चुनावों में वोट देने से पहले अपनी माँ के पाँव छूने की तस्वीर की बात कर रहा हूँ। मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं। आज के दौर में जब तैमूर के नैपी देखने को बेताब ये लिबरल ब्रीड के लोग, मोदी की माँ की तस्वीर पर बौखला रहे हैं तो वो कुछ भूल रहे हैं, जो बहुत ही बुनियादी बात है।

चुनावों के दौरान हर रैली की लाइव कवरेज होती है, हर बड़े नेता की हर बात पर मीडिया नजर रखती है। चाहे ज़मानत पर बाहर घूम रहे राहुल गाँधी की ज़मानत पर बाहर घूम रही माता सोनिया गाँधी के नामांकन से पहले उनके आवास पर हो रहे हवन में शामिल ज़मीन डील के आरोपित रॉबर्ट वाड्रा और उनकी पत्नी प्रियंका गाँधी जो स्वयं जमीन मामलों में संलिप्त होने की आरोपित हैं, इन सबकी तस्वीर भी तो आई थी, वो तो बड़ा क्यूट मोमेंट था!

प्रियंका की नाक से लेकर राहुल के जनेऊ तक की तस्वीरों पर लिबरल ब्रीड स्खलित होता रहा, चरमसुख पाता रहा। दक्षिणपंथियों ने तो कभी नहीं कहा कि बहन और जीजा के साथ, भाँजे-भाँजी को राजनीति में खींच रहे हैं ज़मानत पर बाहर चल रहे घोटालों के आरोपित राहुल और घोटालों के आरोपित सोनिया। न तो लिबरलों की ब्रीड ने इस बात पर अपनी नग्नता दिखाई। उस समय तो वो स्वामिभक्ति दिखा रहे थे कि आह राहुल, वाह राहुल, कितने क्यूट डिंपल हैं!

यही अदा तो एक सितम है!

जब आपकी हर मूवमेंट पर मीडिया कैमरा लेकर दौड़ रहा हो, तो आपके पास छुपाने को बहुत कुछ नहीं रहता। दूसरी बात, मोदी के लिए इन बातों का महत्व है। आज के समय में जब लिबरल ब्रीड अपनी माँ-बाप को ओल्ड ऐज होम और वृद्धाश्रमों में भेजने की वकालत करता दिखता हो, जिनके लिए माता-पिता का उनको घरों में होना अपमान की बात हो, उनके लिए ऐसी तस्वीरें आँखों में सौ-सौ सुइयाँ चुभाने वाली तो लगेगी ही।

ये तस्वीर महज़ एक व्यक्ति का अपनी माँ के पैर छूने जैसा नहीं है। ये उन संस्कारों का मूर्त रूप है कि हम चाहे जो भी हो जाएँ, हर शुभ कार्य से पहले उस शक्ति का, उस माता-पिता का आशीर्वाद लेना न भूलें जिनके कर्म और शुभाशीषों ने हमें वो बनाया जो हम हैं। अगर, दिखावे के लिए ही सही, आशीर्वाद लिया जा रहा है, तो भी यह एक प्रतीक है, एक तरीक़ा है उन लाखों बच्चों में अपने माता-पिता के लिए सम्मान का भाव जगाने का।

यहाँ एक छोटी कहानी सुनाना चाहूँगा। दो युवा साधु थे, सामने नदी थी और एक युवती जिसे पार जाना था। युवती को तैरना नहीं आता था, और काफी डर रही थी। साधु ने अपने मित्र से कहा कि वो जा रहा है उसकी मदद करने। पहले साधु ने कहा कि स्त्री को छूने से ब्रह्मचर्य नष्ट हो जाएगा। दूसरे ने कहा कि मन में पाप न हो तो ब्रह्मचर्य क्योंकर नष्ट होगा। पहला अड़ा रहा कि वो तो मदद नहीं करेगा।

दूसरे ने युवती से अनुमति माँगी और उसे कंधे पर लेकर नदी को पार कर गया। युवती ने साधु का धन्यवाद किया और अपने रास्ते चली गई। दोनों साधु आश्रम पहुँचे। पहला साधु गुरु के पास गया और सारी बात बताई कि उसके साथी ने युवती को कंधे पर लाद कर नदी पार करा दी। गुरुदेव ने कहा, “तुम्हारे साथी ने तो युवती को वहीं पार करा दिया, और तट पर ही छोड़ आया, लेकिन तुम तो उसे अभी भी कंधे पर लिए चल रहे हो।”

उसी तरह, मोदी ने तो माताजी का आशीर्वाद लिया और चले गए, लेकिन लिबरल ब्रीड अभी भी उस तस्वीर को अपने वीआर हेडसेट का वालपेपर बनाए पागल हो रहा है। मोदी रैली में व्यस्त है, इंटरव्यू खत्म हो गया, लेकिन लिबरल ब्रीड कंधे पर लेकर घूम रहा है। लिबरलों के पोस्टर ब्वॉय लिंगलहरी कन्हैया की गरीब माँ पर खूब आहें निकलीं, कैमरा तो उसके घर में भी घुसा था, उसके घर का राजनीतिकरण हुआ कि नहीं?

अक्षय कुमार द्वारा लिए गए नॉन-पोलिटिकल इंटरव्यू में अपने कैनवस जूतों के बारे में बताने पर भी कई लोग मानसिक रूप से परेशान हो गए हैं और फिर चाय बेचने वाली बात को ले आए। ये बातें उनकी वैचारिक नग्नता का परिचायक हैं कि तुम चुनावों में मोदी की ही पिच पर घूमते रहो, मोदी आया, बैटिंग की, खूब धोया और निकल गया। तुम घास छू कर पगलाते रहो। तुम खेल को खेल के समय, उसके नियमों के मुताबिक़ मत खेलो, तुम उसे अपने पूर्वग्रहों के आधार पर, खेल की समाप्ति के बाद खेलो।

ज़ाहिर है कि विरोधियों की हालत फिर वैसी ही होगी, जैसी है। उन्हें सिर्फ नकारने के लिए और उनकी नग्नता पर ध्यान खींचने के लिए लोग याद करते हैं। यह समय चुनावी मुद्दों पर मोदी के बयानों के पोस्टमार्टम में जाता, तो एक डिबेट हो सकती थी। एक चर्चा का जन्म होता, जिस पर लोग राय रखते। लेकिन लिबरल गैंग और मीडिया गिरोह इस बात पर ज़्यादा ध्यान दे रहा है कि मोदी चाय बेचता था कि नहीं, उसके जूतों पर चॉक रगड़ता था कि नहीं।

अपनी माँ के पैर छूना कोई अवगुण नहीं, न ही गरीब परिवार में पैदा होना और उस गरीबी को आजीवन याद रखना। लोग तो थोड़ा पैसा या पद पाते ही अपने भूत को मिटाने की हर संभव कोशिश करते हैं। लेकिन मोदी उसे अपना संबल बना कर, दूसरों के लिए एक प्रतीक बन कर आया है कि हर व्यक्ति अपने जीवन में मेहनत, लगन, उत्साह और जीवटता से जो चाहे पा सकता है।

लिबरल ब्रीड भी मेहनत, लगन, उत्साह और जीवटता दिखा रही है, लेकिन उनका लक्ष्य एक व्यक्ति से घृणा है। समाज के लिए ऐसे लोग भी ज़रूरी हैं, ऐसे प्रतिमान भी समाज में होने चाहिए जिसे आम जनता देखे तो कहे कि आदमी मर जाए, लेकिन ऐसा घृणित जीवन जीना पसंद न करे।

पुलवामा से भी बड़े फिदायीन हमले की साजिश नाकाम, कश्मीरी छात्र हिलाल अहमद गिरफ्तार

भटिंडा की सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ पंजाब से एम एड कर रहे एक कश्मीरी छात्र को जम्मू कश्मीर की पुलिस ने मंगलवार (अप्रैल 23, 2019) को आतंकी गतिविधियों में शामिल होने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया है। इस छात्र का नाम हिलाल अहमद है और इस पर आरोप है कि ये पुलवामा हमले की तरह ही सीआरपीएफ के काफिले में घुसकर बम धमाका करने की प्लानिंग कर रहा था। कश्मीरी छात्र हिलाल अहमद की गिरफ्तारी की पुष्टि भटिंडा के एसएसपी नानक सिंह ने की है।

जानकारी के मुताबिक, हिलाल 30 मार्च 2019 को जम्‍मू-कश्‍मीर के बनिहाल में आत्‍मघाती कार बम हमले की योजना बनाने में शामिल था। बता दें कि आतंकवादियों की 30 मार्च 2019 को बनिहाल में पुलवामा हमले की तर्ज पर एक सेंट्रो कार में विस्‍फोटक भरकर सीआरपीएफ काफिले पर हमले की योजना थी। लेकिन आतंकवादी धमाके से पहले ही विस्‍फोटकों से भरी कार छोड़कर भाग गए।

हिलाल अहमद पुलवामा में हुए धमाकों में भी टाडा के तहत नामजद है। उसका संबंध हिजबुल मुजाहिद्दीन की ब्रांच इस्लामी जमात तोलबा के साथ है और जम्मू-कश्मीर पुलिस काफी समय से उसकी तलाश कर रही थी। मंगलवार (अप्रैल 23, 2019) को सुबह जब जम्मू-कश्मीर पुलिस के डीएसपी इफ्तीकार की अगुआई में पुलिस केंद्रीय यूनिवर्सिटी पहुँची, तो यूनिवर्सिटी के प्रबंधक हैरान रह गए। इस दौरान पुलिस ने हिलाल अहमद की गिरफ्तारी के वारंट दिखाए, जिसके बाद प्रबंधकों ने उसे बुलाकर पुलिस के हवाले कर दिया।

इस बार पुलवामा से भी दोगुनी ज्यादा क्षमता वाला आईईडी लगाया गया था, जिसमें 100 जवानों को मारने का टारगेट था। मगर आखिरी वक्त पर सुरक्षाकर्मियों को देखकर हिलाल डर गया और विस्फोटकों से भरी कार छोड़कर फरार हो गया, जिससे वो अपनी साजिश में असफल हो गया। बता दें कि बनिहाल पुलिस ने 30 मार्च को ही आईपीसी की धाराओं 307, 120, 120ए, 121, 121ए, और विस्फोटक पदार्थ अधिनियम और गैरकानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम के तहत एफआईआर दर्ज कराई थी। गौरतलब है कि जम्मू कश्मीर के पुलमवामा में 14 फरवरी को आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद ने सीआरपीएफ के जवानों पर फिदायीन हमला किया था, जिसमें 40 जवान वीरगति को प्राप्त हो गए।

फैक्ट चेक: ‘आतंकी’ की ‘फर्जी’ फोटो वायरल करवा मुफ्ती-शेहला कर रहीं रहम की अपील, कश्मीर बंद का ढोंग

अलगाववादी ‘आतंकवादी’ नेता यासीन मलिक इन दिनों टेरर फंडिंग केस में NIA की ट्रांज़िट रिमांड पर तिहाड़ जेल में कैद है। दर्जनों हत्या के केस होने के बावजूद भी 30 सालों तक यासीन मलिक ने कभी अपनी शानो-शौकत में कमी नहीं आने दी थी। लेकिन मोदी सरकार के दौरान समीकरण कुछ उल्टे नजर आने लगे हैं।

यासीन मलिक को इस बार जब तिहाड़ का मुँह देखना पड़ा, तो तुरंत उसे महात्मा गाँधी जी याद आ गए। यासीन मलिक ने गिरफ्तारी के विरोध में खाना-पीना छोड़ दिया है। 2-3 दिन में ही यासीन मलिक की हालत पस्त हो गई, जिसके चलते 16 अप्रैल को यासीन मलिक को दिल्ली के राममनोहर लोहिया अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा था।

इस बीच सोशल मीडिया पर एक तस्वीर ‘वायरल’ की जा रही है, जिसके कारण JNU की फ्रीलांस प्रोटेस्टर शेहला रशीद से लेकर कश्मीर में महबूबा मुफ़्ती तक का दिल दुखा है और वो यासीन मलिक को इस फर्जी तस्वीर के अनुसार मिलने वाली यातनाओं के खिलाफ सरकार से रहम की अपील कर रही हैं।

सोशल मीडिया पर ‘वायरल’ की जा रही इस तस्वीर में यासीन मलिक की दयनीय हालत देखकर कश्मीर में महबूबा मुफ्ती, फारूख अब्दुल्ला और ताजा-ताजा नेता बनीं शेहला रशीद ने अश्रु बहाने शुरू कर दिए हैं। तीनों ने अलगाववादी ‘आतंकी’ नेता को न सिर्फ मानवीय आधार पर छोड़ने की अपील का कैंपेन शुरू कर दिया है, बल्कि सोशल मीडिया पर खुलेआम यासीन मलिक के पक्ष में माहौल भी बना रहे हैं। महबूबा मुफ्ती ट्वीट के जरिए या फिर मीडिया बाइट्स देते वक्त दिन में कई बार यासीन मलिक को छोड़ने की गुहार लगाती दिख रही हैं।

उधर अलगावावादी गिरोह हुर्रियत ने भी घाटी में बंद की घोषणा कर रखी है। हालाँकि, घाटी में इसका कोई असर देखने को नहीं मिल रहा है। आतंकवाद से सबसे ज्यादा प्रभावित इलाके अनंतनाग में उम्मीद से कहीं बेहतर वोटिंग हुई है। साफ है कि कश्मीरी नेता भले ही पाकिस्तानी प्रोपगैंडा फैलाने में व्यस्त हों, लेकिन स्थानीय लोग इससे ऊब चुके हैं।

क्या है तस्वीर का सच?

सोशल मीडिया पर दिखाई जा रही अलगाववादी ‘आतंकवादी’ यासीन मलिक की टूटी हुई हड्डी वाली तस्वीर वर्ष 2016 की है, जब आतंकवादी बुरहान वाणी के मारे जाने से नाराज अलगावादियों ने घाटी में उत्पात मचाने की कोशिश की थी। जेल जाते ही बीमार हो जाना यासीन मलिक और सजायाफ्ता कैदी लालू यादव का पुराना तरीका रहा है। इसलिए इस प्रकार की उनकी तस्वीरें देखकर एक बार जरूर सोचा जाना चाहिए कि यह आखिर किस समय की रही होगी। सोशल मीडिया पर अपनी जैसी मानसिकता के लोगों को द्रवित करने के लिए आतंकवादियों के नेता अक्सर ऐसी तस्वीरों का सहारा लेते हैं, ताकि देश के नामी संस्थानों में बैठे समान मानसिकता और विचारधारा वाले उनके अनुयायी और फ्रीलांस प्रोटेस्टर इनके पक्ष में माहौल तैयार करना शुरू कर दें।

यासीन मलिक की यह तस्वीर 2016 से भी पुरानी हो सकती है। ऐसा इसलिए क्योंकि पाकिस्तानी समाचार प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित खबर की वास्तविकता पर यकीन नहीं किया जा सकता है। लेकिन यह तो निश्चित है कि यह तस्वीर यासीन मालिक के इस बार यानी 2019 के अस्पताल दौरे की नहीं है।

यासीन मलिक को छोड़ने के इस कैंपेन की शुरुआत पाकिस्तान में बैठी यासीन मलिक की पत्नी मशाल मलिक ने की है, जो सोशल मीडिया पर भारत के खिलाफ कैंपेन चलाती रहती है। मशाल मलिक यासीन मलिक के स्वास्थ्य का बहाना बनाकर एंटी-इंडिया भावनाएँ भड़काने की कोशिश में लगी रहती है। कश्मीर में बैठे नेता मशाल के कैंपेन को आगे फैलाने में मदद कर रहे हैं। देखिए शेहला रशीद का ट्वीट, ताकि उनका दर्द समझने में सहायता मिले।

BJP ने नहीं दिया टिकट तो कॉन्ग्रेस में गए उदित राज; हटाया, लगाया, फिर हटाया ‘चौकीदार’

नॉर्थ वेस्ट दिल्ली से भाजपा के टिकट पर सांसद बने उदित राज कॉन्ग्रेस में शामिल हो गए हैं। भाजपा ने मंगलवार (अप्रैल 23, 2019) को उदित राज का टिकट काट दिया था। नॉर्थ वेस्ट सीट के लिए टिकट जारी करने में हुई देरी के बाद से ही उदित राज पार्टी से नाराज़ चल रहे थे। उन्होंने पहले ही ऐलान कर दिया था कि अगर उन्हें टिकट नहीं मिलता है तो वो भाजपा को ‘गुड बाई’ कह देंगे। टिकट काटने के बाद उन्होंने अपने ट्विटर अकाउंट से अपने नाम से ‘चौकीदार’ शब्द हटा लिया था। इसके बाद कल दोपहर तक उन्होंने फिर से अपने नाम में ‘चौकीदार’ लगा लिया। तब लोगों को लगा कि सब कुछ ठीक हो गया है और उदित राज मान गए हैं। लेकिन अब उनके कॉन्ग्रेस में शामिल होने की ख़बर आ रही है। वैसे उदित राज ने पहले ही बयान देते हुए कहा था कि उन्हें राहुल गाँधी और केरीवाल ने टिकट कटने को लेकर पहले ही आगाह किया था।

इससे पता चलता है कि वो शायद पहले से ही आम आदमी पार्टी और कॉन्ग्रेस के साथ संपर्क में थे। नॉर्थ वेस्ट दिल्ली से भाजपा ने पंजाबी गायक व सूफी संगीत के लिए प्रसिद्ध हंस राज हंस को अपना उम्मीदवार बनाया है। हंस राज हंस ‘सिली-सिली हवा’, ‘दिल टोटे-टोटे’ और ‘नित खैर मँगा’ जैसे चार्टबस्टर गानों के लिए ख़ासे लोकप्रिय हैं। हंस राज हंस को संगीत के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए पद्मश्री भी मिल चुका है। वाल्मीकि समुदाय से आने वाले हंस राज हंस कॉन्ग्रेस से भाजपा में आए हैं। उन्हें टिकट देने के लिए भाजपा ने उदित राज का टिकट काटा है। उदित राज के टिकट कटने के पीछे कई वजहें थी।

उदित राज लगातार विवादित बयान देकर चर्चा में रहे हैं। उन्होंने कॉन्ग्रेस में शामिल होने के बाद कहा कि उन्हें अब ख़ुशी का अनुभव हो रहा है। चूँकि कॉन्ग्रेस दिल्ली के सातों सीटों से उम्मीदवारों के नामों की घोषणा कर चुकी है, ऐसे में उदित राज के दिल्ली से चुनाव लड़ने की सम्भावना नहीं ही है। अब देखना है कि कॉन्ग्रेस में उन्हें कौन सा पद दिया जाता है।

नॉर्थ-वेस्ट दिल्ली से हंस राज हंस का मुक़ाबला कॉन्ग्रेस उम्मीदवार राजेश लिलोठिया से होगा। आम आदमी पार्टी से गठबंधन के विरोधी रहे लिलोठिया दिल्ली कॉन्ग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष भी हैं। आप से यहाँ गुगन सिंह लड़ रहे हैं जो 2017 में भाजपा छोड़कर आम आदमी पार्टी में शामिल हुए थे। जालंधर से ताल्लुक रखने वाले हंस राज हंस ने 2016 के अंत में भाजपा जॉइन की थी। उन्होंने कॉन्ग्रेस में शामिल होने के कुछ महीनों बाद ही उसे छोड़कर भाजपा जॉइन की थी। भाजपा में शामिल होने के बाद हंस राज हंस ने कहा था, “मेरी इमेज के हिसाब से जहाँ मेरी ड्यूटी लगाई जाएगी, वहाँ करूँगा। जहाँ मोदी जी हैं, कमजोरी नहीं हो सकती। वह बब्बर शेर हैं।

अतीक अहमद जाएँगे गुजरात के जेल में: 5 बार विधायक और एक बार के सांसद पर चला SC का ‘डंडा’

सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार (अप्रैल 23, 2019) को पूर्व सांसद और ‘गुंडा’ (मेनस्ट्रीम मीडिया ऐसे लोगों के लिए बाहुबली शब्द का इस्तेमाल करती है, जो निंदनीय है) अतीक अहमद व उसके साथियों द्वारा रियल एस्टेट डीलर मोहित जायसवाल के कथित अपहरण और अत्याचार के मामले में सीबीआई जाँच का आदेश दिया है। यह आदेश चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली बेंच ने दिया है। इसके साथ ही उत्तर प्रदेश के नैनी जेल में बंद अतीक को गुजरात के जेल में ट्रांसफर करने का भी आदेश है। अतीक अहमद को कुछ दिन पहले ही नैनी जेल लाया गया था।

सुप्रीम कोर्ट ने अतीक अहमद के खिलाफ सभी लंबित मामलों का जल्द निपटारा करने के साथ ही इस मामले में सभी गवाहों को संरक्षण देने के लिए भी कहा है। सर्वोच्‍च अदालत ने अतीक अहमद के खिलाफ लंबित 106 मामलों में उत्तर प्रदेश प्रशासन से चार हफ्ते में स्‍टेटस रिपोर्ट माँगी है। कोर्ट ने लापरवाही बरतने वाले जेल अधिकारियों को निलंबित किया और उसके खिलाफ मुकदमों की सुनवाई में तेजी लाने के लिए भी कहा है।

गौरतलब है कि अतीक अहमद पर आरोप है कि दिसंबर 2018 में देवरिया जेल में बंद रहने के दौरान अतीक ने अपने साथियों के द्वारा लखनऊ के आलमबाग क्षेत्र के निवासी मोहित जायसवाल को अपहरण करवा लिया और फिर जेल में ले जाकर उसके साथ मारपीट की गई। मोहित का आरोप है कि इस दौरान उनसे संपत्ति से जुड़े कई दस्तावेजों पर हस्ताक्षर भी करा लिए गए। राज्य सरकार ने भी इस घटना की पुष्टि की थी और कहा था कि उस दिन जेल में लगे सीसीटीवी कैमरों के साथ छेड़छाड़ की गई थी। 5 बार विधायक और एक बार सांसद रहे अतीक अहमद 11 फरवरी, 2017 से जेल में बंद हैं। अतीक के खिलाफ 1979 से 2019 तक कुल 109 केस लंबित है।

VIDEO: जब राह चलते काले कुत्ते को दिख गया कॉन्ग्रेस का झंडा, फिर गुस्से में उसने…

सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने एक वीडियो शेयर किया है। इस वीडियो को शेयर करते हुए लोग कह रहे हैं कि आदमी तो छोड़िए, जानवर भी अब कॉन्ग्रेस से तंग आ चुके हैं। दरअसल, इस वीडियो में एक अकेले कुत्ते को कॉन्ग्रेस का झंडा दिख जाता है। इसके बाद वो कुत्ता उस झंडे को नोच डालने के लिए बेचैन हो उठता है। वीडियो में साफ़ दिख रहा है कि कुत्ता झंडे को उखाड़ने की कोशिश कर रहा है और अंततः वह झंडे के कपड़े को अपने मुँह से नोचकर अलग कर देता है। इसके बाद कुत्ते ने उस झंडे को ज़मीन पर घसीट कर गन्दा भी किया। लोग इस वीडियो को देख ख़ूब मज़े ले रहे हैं। आप भी देखिए।

वीडियो के अंत में देखा जा सकता है कि कुत्ते ने कॉन्ग्रेस के झंडे को सीढ़ियों पर यूँ ही छोड़ दिया और फिर निकल गया। एक यूजर ने लिखा कि आजकल भारत में कुत्ते भी होशियार हो गए हैं। ये तो थी सोशल मीडिया पर मज़ाक की बातें। अगर गम्भीरतापूर्वक कहें तो राजनीतिक दलों को अपने झंडों का ध्यान रखना चाहिए। इन्हें इधर-उधर यूँ ही नहीं छोड़ना चाहिए और लगाना भी चाहिए तो उचित ऊँचाई देख कर।

LS चुनाव 2019 में रचा इतिहास: BJP ने वो कर दिखाया जो आज तक सिर्फ कॉन्ग्रेस ही करती आई थी

भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में ऐसा पहली बार हो रहा है, जब भाजपा कॉन्ग्रेस से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ रही है। 2019 का लोकसभा चुनाव कई मायनों में अहम है और ये पिछले सारे चुनावों से अलग भी है। जहाँ पहले कॉन्ग्रेस का ही चारो तरफ़ दबदबा होता था और दक्षिण से लेकर उत्तर-पूर्व तक कॉन्ग्रेस के साथ गठबंधन के लिए क्षेत्रीय दल बेचैन रहते थे, वहीं अब पार्टी को गठबंधन में सीटें ही नहीं दी जा रही है। यूपी में कॉन्ग्रेस को महागठबंधन से निकाल बाहर किया गया और बिहार में काफ़ी मशक्कत के बाद जूनियर पार्टनर के रूप में रखा गया। इसके विपरीत भाजपा को हर राज्य में सहयोगी मिले हैं और पहले के दिनों में विरोधियों ने उस पर जो ‘अछूत’ का ठप्पा लगाया था, वो अब हट गया है। नरेंद्र मोदी को 2014 में मिले स्पष्ट जनादेश ने सब कुछ बदल कर रख दिया है।

भारतीय जनता पार्टी आज दुनिया की सबसे बड़ी लोकतान्त्रिक पार्टी बन गई है। भाजपा द्वारा इतनी बड़ी संख्या में उम्मीदवार उतारना पार्टी की बढ़ती पहुँच, स्वीकार्यता और प्रभाव का परिणाम है, तो कॉन्ग्रेस का कम सीटों पर चुनाव लड़ना यह बताता है कि पार्टी में अब पुराना दम-खम नहीं रहा। अभी तक घोषित हुई उम्मीदवारों की सूची पर गौर करें, तो भाजपा ने अब तक 437 सीटों पर अपने उम्मीदवारों के नामों का ऐलान किया है, जबकि कॉन्ग्रेस ने 423 सीटों के लिए उम्मीदवारों के नामों की सूची जारी की है। चूँकि अब इक्के-दुक्के सीटों पर ही उम्मीदवारों के नामों का ऐलान बाकी है, ये तय हो गया है कि भाजपा इस बार कॉन्ग्रेस से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ रही है।

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हमेशा से कॉन्ग्रेस को पैन-इंडिया पार्टी माना जाता रहा है और जनसंघ से निकली भाजपा को राष्ट्रीय स्तर का पार्टी नहीं समझा जाता था। 1998 और 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में पार्टी की जीत के बावजूद दक्षिण भारत, बंगाल और उत्तर-पूर्व में पार्टी की स्थिति कमज़ोर होने के कारण इसे काऊ बेल्ट या हिंदी बेल्ट की पार्टी कहकर चिढ़ाया गया। आज स्थिति ये है कि पश्चिम बंगाल में भाजपा के ग्रोथ रेट ने सबको मात दे दी है और उत्तर-पूर्व की सभी राज्यों से कॉन्ग्रेस को सत्ता से बेदखल करने में भी भाजपा सफल हुई है। तमिलनाडु में सत्ताधारी पार्टी अन्नाद्रमुक के रूप में दक्षिण भारत में एक अहम सहयोगी मिला है।

हिंदी बेल्ट में भाजपा पहले से कहीं और मज़बूत होकर उभरी है। कॉन्ग्रेस के नेताओं का कहना है कि भाजपा के कई सहयोगी दल अलग हो गए हैं। देखा जाए, तो कश्मीर में पीडीपी और आंध्र में टीडीपी ऐसी अहम पार्टियाँ रहीं जिन्होंने राजग गठबंधन से किनारा किया, लेकिन बिहार में जदयू और महारष्ट्र में शिवसेना जैसे पुराने सहयोगियों के वापस आ जाने या साथ बनाए रहने से भाजपा को मज़बूती मिली है। 1999 में भाजपा ने 339 सीटों पर चुनाव लड़ा था, जिसमें 182 सीटों पर जीत मिली थी। वहीं, 2004 में भाजपा ने 364 सीटों पर चुनाव लड़ा था। इस दौरान कॉन्ग्रेस ने 414 सीटों पर चुनाव लड़ भाजपा को पीछे छोड़ दिया था।

2014 के पिछले आम चुनाव में भी भाजपा ने कॉन्ग्रेस से कम सीटों पर ही चुनाव लड़ा था। उस चुनाव में भाजपा ने 428 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे, जबकि कॉन्ग्रेस ने 464 उम्मीदवारों को टिकट दिया था। 2009 में दोनों दलों के उम्मीदवारों की संख्या में ज्यादा अंतर नहीं था। उस वक़्त भाजपा ने 433 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे, तो कॉन्ग्रेस ने 440 उम्मीदवारों को टिकट दिया था।