Monday, September 30, 2024
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हार्दिक पटेल के चुनावी सपने को झटका, सुप्रीम कोर्ट ने याचिका पर तुरंत सुनवाई से किया इंकार

कॉन्ग्रेस नेता और पाटीदार आंदोलन के अगुआ रहे हार्दिक पटेल के लोकसभा चुनाव लड़ने की उम्मीदों पर पानी फिर गया है। सुप्रीम कोर्ट ने हार्दिक पटेल को  झटका देते हुए लोकसभा चुनाव लड़ने की अनुमति देने वली याचिका पर जल्द सुनवाई करने से इंकार कर दिया है। कोर्ट ने कहा है कि याचिका पर नियमित क्रम में ही सुनवाई होगी।

कोर्ट के इस फैसले के बाद ये साफ हो गया है कि हार्दिक आगामी चुनाव में हिस्सा नहीं ले पाएँगे। बता दें कि, हार्दिक ने गुजरात हाईकोर्ट के उस फैसले के खिलाफ अपील की थी, जिसमें उनके चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी गई थी। हाई कोर्ट के फैसले पर रोक लगाने के लिए उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय से गुहार लगाई है। हार्दिक ने सुप्रीम कोर्ट से अपील की थी कि उनकी सजा को निलंबित रखा जाए और साथ ही अदालत इस याचिका पर जल्द से जल्द सुनवाई करे, ताकि वो चुनाव लड़ सकें। मगर हार्दिक को यहाँ भी राहत नहीं मिली। ‘रिप्रजेंटेशन ऑफ पीपल एक्ट 1951’ के मुताबिक अगर किसी शख्स को दो साल की सजा मिली है तो वो चुनाव नहीं लड़ सकता है।

नामांकन की आखिरी तारीख 4 अप्रैल है। इस फैसले से हार्दिक के साथ-साथ कॉन्ग्रेस पार्टी को भी झटका लगा है, क्योंकि 12 मार्च को कॉन्ग्रेस में शामिल हुए हार्दिक पटेल को पार्टी जामनगर से चुनाव लड़ाने की तैयारी में थी और हार्दिक ने भी जामनगर से कॉन्ग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने की तैयारी शुरू कर दी थी।

गौरतलब है कि हार्दिक को राज्य के महेसाणा जिले के विसनगर में 23 जुलाई 2015 को एक आरक्षण रैली के दौरान हुई हिंसा और तत्कालीन स्थानीय भाजपा विधायक ऋषिकेश पटेल के कार्यालय पर हमले और तोड़फोड़ के मामले में पिछले साल 25 जुलाई को एक स्थानीय अदालत ने 2 साल के साधारण कारवास की सजा सुनाई थी। उन पर जुर्माना भी लगाया गया था।

ऐसा लगता है राहुल के टुकड़े-टुकड़े गैंग वाले दोस्तों ने तैयार किया है घोषणापत्र: जेटली

कॉन्ग्रेस ने आज अपना चुनावी घोषणापत्र जारी किया। घोषणा पत्र को पार्टी ने ‘जन आवाज’ का नाम दिया। इस घोषणा पत्र में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भी अपनी प्रतिक्रिया दी। इस घोषणा पत्र को पढ़ने के बाद वित्त मंत्री ने इसमें मौजूद कई बातों को खतरनाक बताया। अरुण जेटली ने देशद्रोह के अपराध को खत्म कर देने वाली बात पर अपना मत रखा।

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा कि कॉन्ग्रेस पार्टी के घोषणा पत्र में कई बातें ऐसी हैं जिन्हें देखकर ऐसा लगता कि घोषणापत्र के कुछ बिंदु राहुल गाँधी के टुकड़े-टुकड़े गैंग वाले दोस्तों द्वारा तैयार किए गए हैं।

उन्होंने कॉन्ग्रेस पर निशाना साधते हुए कहा कि वे एकता के ख़िलाफ़ और देश को तोड़ने वाला काम करते हैं। उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर को लेकर गाँधी-नेहरू परिवार द्वारा जो ऐतिहासिक भूल हुई उसके लिए देश उन्हें कभी माफ़ नहीं कर सकता है।

जेटली ने देशद्रोह को अपराध श्रेणी से खत्म करने वाली बात पर कहा कि जो पार्टी इस तरह की बातें करती है वो देश के एक भी वोट पाने की हकदार नहीं हैं। कॉन्ग्रेस के घोषणापत्र को जेटली कहा कि इसमें माओवादियों और जेहादियों की रक्षा करने के लिए सीआरपीसी में बदलाव की बात हुई।

जेटली की माने तो कॉन्ग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में जम्मू-कश्मीर के लिए पूरा पेज लिख दिया है। लेकिन कश्मीरी पंडित के लिए एक जिक्र भी नहीं है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस के सेक्युलेरिज्म में कश्मीरी पंडितों के लिए आँसू नहीं है। उन्होंने कहा कि कॉन्ग्रेस का घोषणापत्र AFSPA को कमजोर करने की बात कर रहा है। बता दें इस घोषणा पत्र में सेना के अधिकारियों पर किसी सरकारी अनुमति के बिना मामला दर्ज़ होने की भी बात है। जिसपर वित्त मंत्री का तर्क है कि अगर ऐसा होता है तो किसी आतंकवादी को पकड़ने पर भी उनका संगठन बदसलूकी के आरोप लगाता है।

अरुण जेटली ने कॉन्ग्रेस पार्टी की न्याय योजना को एक धोखा बताया, क्योंकि घोषणा पत्र में साफ नहीं किया गया है कि इसके लिए बजट कहाँ से आएगा। वित्त मंत्री ने कहा कि उन्होंने राहुल गाँधी से ज्यादा बार कॉन्ग्रेस का घोषणा पत्र पढ़ा है। उनका कहना है कि इस घोषणा पत्र के साथ कॉन्ग्रेस पार्टी राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ नई नीतियाँ लेकर आई है जिसका मकसद सिर्फ़ देश को कमज़ोर बनाना है।

कॉन्ग्रेस ने घोषणा पत्र में सुरक्षा बलों पर लगाए यौन-शोषण सहित कई गंभीर आरोप

कॉन्ग्रेस पार्टी ने 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए अपना चुनावी घोषणापत्र 2 अप्रैल 2019 मंगलवार को जारी किया, जिसमें NYAY जैसे कई लुभावने वादों के साथ, जो अपने आप में संदिग्ध कि कैसे पूरा होगा और सम्भावना इस बात की ज़्यादा है कि उनकी यह योजना अर्थव्यवस्था को पंगु बना देगा, राहुल गाँधी की दृष्टि से जम्मू और कश्मीर शायद सबसे अस्थिर है, यह देखते हुए कि उन्होंने काफी हद तक अलगाववादियों के साथ कदमताल करने का फैसला किया है।

घोषणापत्र का एक हिस्सा देखिए, जो उनकी कश्मीर दृष्टि के बारे में है।

कॉन्ग्रेस के लोकसभा चुनाव घोषणा पत्र -2019 में कश्मीर के प्रति दृष्टिकोण

जहाँ तक कश्मीर का संबंध है। तमाम तरह के फैंसी शब्दों के बीच, कॉन्ग्रेस अपने घोषणापत्र में कुछ खतरनाक वादे करती है।

कश्मीर में सभी ‘हितधारकों’ के साथ संवाद

अपने घोषणापत्र में, कॉन्ग्रेस का कहना है कि उसका मानना है कि केवल संवाद ही आगे बढ़ने का रास्ता है और यह सभी स्टेक होल्डर्स के साथ बिना शर्त वार्ता की सुविधा के लिए 3 वार्ताकारों को नियुक्त करने का वादा करता है। इसने अपने घोषणापत्र में यह स्पष्ट किया है कि ये प्रस्तावित वार्ता हुर्रियत के अलगाववादियों के साथ नहीं की जाएगी जो इस समय जाँच के दायरे में हैं या यहाँ तक कि यासीन मलिक जैसे अलगाववादियों के साथ भी।

कॉन्ग्रेस की यह वार्ता बिना किसी “पूर्व शर्त” के होने जा रही है, जो ज़्यादा चिंताजनक है। इस दृष्टिकोण से तो कॉन्ग्रेस घाटी में आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले तत्वों से भी बातचीत करने को तैयार है।

घाटी में सुरक्षा बलों की तैनाती की समीक्षा की जाएगी

कॉन्ग्रेस ने घाटी में सुरक्षा बलों की तैनाती की समीक्षा करने का वादा किया है। कॉन्ग्रेस घाटी में सशस्त्र बलों की तैनाती को कम कर, उन्हें सीमाओं की तरफ ले जाएगी।

अब यह कोई रहस्य नहीं है कि कश्मीर घाटी आतंकवाद से कराह रही है और सेना का ‘ऑपरेशन क्लीन’ अभियान ने घाटी में आतंकवाद पर अंकुश लगाने में बहुत हद तक सफल रही है। इस कदम के साथ, कॉन्ग्रेस पार्टी यह सुनिश्चित कर रही है कि अब तक उदाहरण के लिए, बुरहान वानी और अहमद डार जैसे आतंकियों को बाहर निकालने और उन्हें उनके अंजाम तक पहुँचाने के रूप में हुई प्रगति पर अंकुश लगाया जाएगा। और एक तरह से कॉन्ग्रेस तुष्टिकरण की नीति को बढ़ावा देते हुए आतंकवादियों को नए सिरे से ऊर्जा हासिल करने और आतंकी हमला कर देश को लहूलुहान करने के लिए उन आतंकियों को पूरा समय देने जा  रही है।

अफस्पा (AFSPA) में संशोधन का प्रावधान

कॉन्ग्रेस ने सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम में संशोधन करने का भी वादा किया है जो कश्मीर जैसे अशांत क्षेत्रों में लागू है। कॉन्ग्रेस की मंशा है कि वह सिर्फ इसलिए यह कानून बदल देगा ताकि तथाकथित सुरक्षा और मानवाधिकार संतुलित रहे। इसका मतलब तो यही है कि कॉन्ग्रेस ने आसानी से यह साबित करने की कोशिश कर रही है कि सेना मानव अधिकारों के उल्लंघन में शामिल है। AFSPA की शक्ति और पहुँच को कम करना भी घाटी के लिए आने वाले समय में एक अप्रत्याशित आपदा को निमंत्रण ही है। कॉन्ग्रेस यहाँ यह भूल रही है कि आतंकी बहुल घाटी में असाधारण परिस्थितियों से निपटने में, सेना को असाधारण शक्तियों की ज़रूरत है। पर देश के शांतिपूर्ण माहौल से कॉन्ग्रेस को क्या? कॉन्ग्रेस का कश्मीर केंद्रित घोषणापत्र देखकर तो यही लगता है कि घाटी में आतंकवाद और आतंकवादियों को फिर से हवा देने की घोषणा कॉन्ग्रेस के घोषणापत्र में की गई है।

कॉन्ग्रेस ने भारतीय सशस्त्र बलों पर यौन-हिंसा का आरोप लगाया

कॉन्ग्रेस के कश्मीर में AFSPA में संशोधन के वादे के साथ ही, घोषणापत्र के अगले हिस्से में, कॉन्ग्रेस ने भारतीय सेना पर घाटी में यौन हिंसा जैसे जघन्य अपराधों का आरोप लगाकर, अलगाववादियों के सुर-में-सुर मिलाने की घोषणा कर दी है।

कॉन्ग्रेस के घोषणापत्र में कहा गया है कि सुरक्षा और मानवाधिकारों के बीच संतुलन बनाने के लिए AFSPA में संशोधन किया जाएगा। कॉन्ग्रेस सत्ता में आते ही AFSPA के तहत सुरक्षा बलों को मिलने वाली ‘यौन हिंसा और यातना के लिए प्रतिरक्षा’ को हटा देगा।

इस तरह से कॉन्ग्रेस का तात्पर्य है कि भारतीय सेना कश्मीर घाटी में निर्दोषों पर अत्याचार, महिलाओं का बलात्कार करती है। यह ठीक वही बात है जो पाकिस्तान द्वारा भारत के प्रति कश्मीरी आबादी में असहमति बढ़ाने एवं उन्हें भारत के खिलाफ उकसाने के लिए फैलाया जाता रहा है। यहाँ तक कि कश्मीरी आतंकवादियों और अलगाववादियों द्वारा आतंकवाद का औचित्य साबित करने के लिए भी यही लाइन इस्तेमाल की जाती है।

शेष भारत में कश्मीरियों के साथ दुर्व्यवहार करने के बारे में झूठ

पुलवामा हमले के बाद, वामपंथी-लिबरल नेटवर्क ने, ये झूठ फैलाने की पूरी कोशिश की थी कि कश्मीरियों पर शेष भारत द्वारा हमला किया जा रहा था। इस तरह के कई झूठ न केवल पुलिस बल्कि नागरिकों द्वारा भी खारिज किए गए थे। इस कहानी को लगभग उन आतंकवादियों को कवर देने के लिए तैयार किया गया था जिन्होंने 40 सीआरपीएफ सैनिकों के आत्मघाती हमले को अंजाम दिया था। अपने वीडियो में, अहमद डार ने भी “गौ-मूत्र पीने वालों” को मारने की कसम खाई थी, जिसका मूल अर्थ है कि वह हिंदुओं का सफाया करना चाहता था। कॉन्ग्रेस का यह घोषणा पत्र यह सुनिश्चित कर रहा है कि 40 सीआरपीएफ जवानों की हत्या पीड़ित कश्मीरियों द्वारा की गई थी।

कश्मीरी पंडितों का कोई जिक्र तक नहीं

पूरे घोषणापत्र में कॉन्ग्रेस ने इस बात का कहीं उल्लेख नहीं किया है कि कश्मीरी पंडित घाटी में लौट सकते हैं या नहीं। 1990 में, घाटी के कट्टरपंथियों ने जिनका बलात्कार किया, हत्या की और बचे-खुचे हिंदुओं को घाटी से निकाल बाहर किया था।

कॉन्ग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में सेना को बदनाम करने, जवानों पर आरोप लगाने के लिए अलगाववादी सुर अपना लिया, लेकिन कश्मीरी पंडितों के निष्काषन और उन पर अत्याचार के रूप में हुए एक ऐतिहासिक बर्बरता को ठीक करने के बारे में बात नहीं की है। कॉन्ग्रेस को याद होगा कि किस घाटी के मुस्लिम चरमपंथियों ने हिंदुओं का नरसंहार किया था, यह घोषणा पत्र अपने आप में कॉन्ग्रेस के कश्मीर के प्रति छिपे मंसूबों का खतरनाक दस्तावेज है।

हिन्दुओं का अपहरण और लव जिहाद: बंगाल बन रहा है पाकिस्तान की सस्ती फोटोकॉपी

पश्चिम बंगाल लोकतंत्र का खुला उपहास बन चुका है। लोकतंत्र का प्रहरी वहाँ डरा हुआ है, राज्य पुलिस हिन्दुओं पर होने वाली बदसलूकी पर FIR दर्ज करने से मना करने लगी है। क्या उसे अल्पसंख्यकों से डर लगने लगा है? अगर हाँ, तो फिर लोकतंत्र क्या धरना देने गया है? ममता बनर्जी को अपने नेता और व्यक्तिगत अधिकारियों को इनकम टैक्स की रेड से बचाने के लिए केजरीवाल मॉडल आधारित धरना प्रदर्शन से समय निकालकर अल्पसंख्यकों द्वारा चलाए जा रहे इस व्यापक धर्म परिवर्तन अभियान के खिलाफ सख्त कदम उठाने चाहिए, यह संविधान की सेक्युलर छवि पर प्रश्नचिन्ह है।

भारतीय पत्रकार चाहे पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान को शांति को नोबेल पुरस्कार दिलाए जाने की कितनी भी वकालत कर लें, लेकिन पाकिस्तान में हिन्दुओं के साथ होने वाले अमानवीय व्यवहार और जबरन धर्म परिवर्तन जैसी घटनाओं का कोई समाधान नहीं है। पाकिस्तान एक आतंकवादी मिजाज की सेना और मज़हब संचालित मशीनरी पर काम करता है, इसलिए उस देश से लोकतान्त्रिक मूल्यों की उम्मीद करना एक चुटकुले से ज्यादा कुछ नहीं है। लेकिन, भारत जैसे देशों में भी हिन्दुओं के साथ अक्सर बदसलूकी और जबरदस्ती धर्म परिवर्तन की घटनाएँ देखने को मिलती हैं। चिंता का विषय ये है कि इस देश में हिन्दुओं के साथ बदसलूकी, जबरन धर्म परिवर्तन और नाबालिग लड़कियों का निकाह करवा देना ऐसे समुदाय के लोगों द्वारा करवाया जाता है, जो अल्पसंख्यक माने जाते हैं। कहीं पश्चिम बंगाल पाकिस्तान की कियोस्क ब्रांच तो नहीं बनती जा रही है?

लड़कियों का अपहरण के बाद धर्म परिवर्तन करवाकर निकाह

अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा इस तरह का सबसे ताजा उदाहरण पश्चिम बंगाल से आया है, जिसकी ममता बनर्जी हर दूसरे दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर लोकतंत्र की हत्या करने का आरोप लगाती हैं। कोलकाता में एक व्यक्ति का आरोप है कि उसकी 2 बेटियों का जबरन हिन्दू से मुस्लिम मज़हब में मतांतरण कराने के बाद शादी करा दी गई है। इनमें से एक लड़की नाबालिग है।

अब यह पीड़ित पिता अपनी बेटियों के लिए न्याय माँग रहा है, लेकिन सवाल ये है कि न्याय दिलाए कौन? पीड़ित व्यक्ति ने बताया कि 31 मार्च को इस मामले में दूसरी बार उसने शिकायत दर्ज कराई है, लेकिन पुलिस की ओर से अभी तक इस मामले में कोई कार्रवाई नहीं की गई है। लड़कियों के पिता का दावा है कि पुलिस ने अभी तक FIR दर्ज नहीं की है। आखिर एक लोकतान्त्रिक देश में पुलिस को किसका डर हो सकता है?

पिता की ओर से पुलिस को दी गई शिकायत के अनुसार, “मेरी दो बेटियाँ हैं। हाल ही में मुझे पता चला कि हमारे इलाके में कुछ मुस्लिम लड़के बालिग और नाबालिग दोनों तरह की लड़कियों को फँसाने की कोशिश कर रहे हैं। इसमें मेरी बेटियाँ भी शामिल हैं। शुरुआत में उन्होंने हिंदू बनकर मेरी बेटियों से मेलजोल बढ़ाने की कोशिश की। लेकिन जब मेरी बेटियों को आरोपित शहबाज और अहमद खान की असलियत का पता चला तो उन्होंने कोई भी संबंध रखने से इनकार कर दिया।”

अपनी नाबालिग लड़की का जिक्र करते हुए पीड़ित पिता ने कहा, “आरोपित युवक और उसके दोस्तों ने मेरी नाबालिग लड़की को धमकाना शुरू कर दिया। उसने धमकी दी कि वह मुझे, मेरी पत्नी और बेटे समेत परिवार के दूसरे को सदस्यों को जान से मार देगा। उसने मेरी नाबालिग बेटी पर इस्लाम अपनाने और शादी करने के लिए दबाव बनाया। जब उसने ऐसा करने से इनकार कर दिया तो आरोपित बार-बार उसे ऐसा करने की धमकी देता रहा।”

नाबालिग की करवाई गई शादी

FIR लिखवाने गए पिता का कहना है कि 11 मार्च को उनकी दोनों लड़कियाँ लापता हो गई थीं। काफी खोजबीन करने के बावजूद लड़कियों का पता नहीं चला। इसके बाद जोरबागान पुलिस स्टेशन के अधिकारियों ने उनकी एक बेटी को खोज निकाला। 12 मार्च को पीड़ित पिता ने एक और शिकायत (GD नंबर 935) दर्ज कराई। इसमें बेटी के लापता होने की गुहार लगाते हुए पुलिस से मदद माँगी गई। अब प्रश्न ये उठता है कि इतने संवेदनशील मामले में कोलकाता पुलिस ने इतने संवेदनशील मामले में FIR दर्ज क्यों नहीं की? क्या बंगाल में कोई महिला आयोग जैसी संस्था है, जो इस घटना पर तत्परता दिखाए? क्या उन्होंने प्रयास किया? अगर महिला आयोग को इसकी जानकारी है, तो उन्होंने इस मामले में अब तक क्या कदम उठाए हैं?

लड़कियों के पिता का कहना है कि उनकी एक बेटी के बरामद होने के बाद इस पूरे गिरोह का खुलासा हो गया है। उसे शहबाज अहमद खान के साथ शादी करने के लिए बाध्य किया गया। यहाँ तक कि उसका नाम भी बदल दिया गया। मुस्लिम निकाहनामे में उसकी उम्र 19 साल लिखी गई है, जबकि वह महज 17 साल के करीब है।

भले ही पुलिस ने नाबालिग लड़की को बरामद कर लिया हो लेकिन उसकी बड़ी बहन अभी तक घर नहीं लौटी है। पीड़ित पिता ने का कहना है कि छोटी बेटी ने घर लौटने के बाद सारी कहानी उन्हें बताई। उसने बताया कि दोनों बहनों को शादी करने के लिए धमकाया गया था। साथ ही उनसे कहा गया था कि अगर शादी नहीं की तो माता-पिता समेत परिवार के सदस्यों को मार देंगे और दोनों के चेहरे पर तेजाब फेंक देंगे। इससे दोनों घबरा गईं थीं। पिता का कहना है कि निकाह को कोलकाता के बुर्रा बाजार इलाके की ‘बड़ी मस्जिद’ में कराया गया।

नाबालिग का नहीं कराया मेडिकल

पश्चिम बंगाल में भरे धर्म निरपेक्ष लोकतंत्र के बीच अपनी दोनों बेटियों के लिए न्याय की लड़ाई अकेले लड़ रहे पिता की शिकायत है कि नाबालिग लड़की के बरामद होने के बाद उसका कोई मेडिकल चेकअप नहीं कराया गया। उसके साथ यौन उत्पीड़न किया गया है यह मेडिकल से स्पष्ट हो सकता है, लेकिन ऐसा नहीं किया जा रहा है।

धर्म परिवर्तन करवाने वाले गिरोहों पर राज्य सरकार को संज्ञान लेना चाहिए। अगर इस तरह की घटनाओं पर ममता बनर्जी अभी भी कोई सख्त कदम नहीं उठाती हैं तो हर दूसरे दिन होने वाली RSS कार्यकर्ताओं की हत्या, अल्पसंख्यकों की मनमानी और हिंसा ही पश्चिम बंगाल की पहचान बनकर रह जाएँगे। मीडिया को इन मुद्दों पर चुप नहीं रहना चाहिए, सवाल पूछने के शौकीनों को आज प्राइम टाइम बैठा कर ममता बनर्जी से पूछना चाहिए कि इस बड़ी तादाद में हिन्दुओं पर उनके राज्य में जुर्म क्यों हो रहे हैं और ये सब कब तक रुकने वाला है? ममता बनर्जी को इस मामले में डेडलाइन भी देनी चाहिए, ताकि देश में अल्पसंख्यकों के प्रति लोगों का नजरिया बदलने से बचाया जा सके और लोकतंत्र जीवित रहे।

पाकिस्तान को बड़ा झटका, विश्व बैंक ने रोका 20 करोड़ डॉलर का प्रोजेक्ट

पाकिस्तान इन दिनों लगातार आर्थिक संकट से जूझ रहा है। वो इन परिस्थितियों से उबरने की कोशिश कर रहा है, लेकिन इन बीच उस देश को एक और झटका लगा है। दरअसल, पाकिस्तान ने विश्व बैंक से बलूचिस्तान में जल संसाधन परियोजना के लिए 20 करोड़ अमेरिकी डॉलर कर्ज की माँग की थी, जिसके लिए विश्व बैंक ने मना कर दिया है।

बता दें कि पाकिस्तान में बलूचिस्तान का हाल बहुत ही खराब है। यहाँ पर रहने वाली 62 प्रतिशत आबादी को पीने का साफ जल उपलब्ध नहीं है। इसी के मद्देनज़र इस परियोजना की शुरुआत की गई, जिससे कि यहाँ के लोगों के पानी पीने की सुविधा उपलब्ध हो सके और साथ ही सिंचाई के लिए भी जल का भी प्रबंध हो सके। इसके जरिए लगभग 42,800 फार्म हाउस परियोजना को लाभ मिलने वाला है और साथ ही प्रांत की हाइड्रो-मौसम संबंधी निगरानी और नदी बेसिन सूचना प्रणाली को भी मजबूत किए जाने का प्रावधान है।

इस परियोजना के लिए विश्व बैंक ने तीन साल पहले एक समझौते पर दस्तखत किया था, जिसके तहत परियोजना की 20 करोड़ 97 लाख डॉलर की अनुमानित लागत में से विश्व बैंक ने 20 करोड़ डॉलर देने की बात कही थी। मगर किसी ने राष्ट्रीय जवाबदेही ब्यूरो (एनएबी) को इस परियोजना में होने वाले घोटाले की जानकारी दी। जिसके बाद एनएबी ने जाँच शुरू की और इसमें होने वाले भ्रष्टाचार के बारे में विश्व बैंक को बाताया। जिसके बाद विश्व बैंक ने कर्ज देने से फिलहाल मना कर दिया है।

विश्व बैंक के प्रवक्ता का कहना है कि बलूचिस्तान के लिए जल प्रबंधन एक प्राथमिकता है और विश्व बैंक प्रांत के लोगों के लिए इस महत्वपूर्ण संसाधन को विकसित करने के लिए सरकार के साथ काम करना चाहता है। इसलिए अगले 30 दिनों तक बलूचिस्तान सरकार के साथ काम करने की बात की गई है, ताकि इस पर नज़र रखी जा सके और परियोजना को बेहतर तरीके से संपादित करते हुए प्रांत में जल की व्यवस्था करवाई जा सके।

झूठ, प्रपंच और प्रलाप से भरा है कॉन्ग्रेस का नया घोषणापत्र, अपने निकम्मेपन को स्वीकारा पार्टी ने

कॉन्ग्रेस पार्टी का घोषणापत्र जारी किया जा चुका है। जैसा कि राहुल गाँधी के बारे में प्रचलित है, वो अक्सर झूठ बोलते हैं और अपने आँकड़ों को रह-रह कर बदलते रहते हैं। इसीलिए इस बार आलोचकों को पहले ही चुप कराने के लिए राहुल गाँधी ने पहली ही कह दिया कि उनके घोषणापत्र में झूठ के लिए कोई जगह नहीं है। असुरक्षा की भावना से घिरे राहुल गाँधी ने पहले ही इसका जिक्र कर दिया, क्योंकि उन्हें पता था कि उनके झूठ को पकड़ लिया जाएगा। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर रोज बड़ी संख्या में झूठ बोलने का आरोप लगाया। राहुल ने कहा कि उन्होंने घोषणापत्र तैयार करने वाले लोगों को पहले ही कह दिया था कि इसमें लिखी हर एक बात सच्चाई से भरी होनी चाहिए, इसमें झूठ के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए।

आख़िर क्या कारण है कि राहुल गाँधी को लोगों को ये भरोसा दिलाना पड़ रहा है कि उनके घोषणापत्र में झूठ नहीं है? क्या वजह है कि राहुल को चीख-चीख कर यह बताने की ज़रूरत पड़ गई कि वो नहीं बोलते, उनकी पार्टी झूठ के आधार पर कार्य नहीं करती और उनके घोषणापत्र में लिखी बातें सच है, झूठ नहीं है? अब इससे आगे बढ़ते हैं। इसके अल्वा राहुल गाँधी ने कहा कि किसानों के लिए अलग बजट की व्यवस्था की जाएगी। लेकिन, राहुल गाँधी का यह वादा खोखला है, क्योंकि इसके लिए उन्होंने किसी प्रकार के रोडमैप का जिक्र नहीं किया। किसानों के लिए अलग बजट का वादा करने वाले राहुल गाँधी को जानना चाहिए कि रेलवे बजट को आम बजट में क्यों मिला दिया गया?

पहली बात, रेलवे बजट को ब्रिटिश राज के समय अलग से इसीलिए पेश किया जाता था क्योंकि उस वक्त देश की जीडीपी का सबसे बड़ा हिस्सा रेलवे पर ही निर्भर था। उस समय पूरे बजट का 84% हिस्सा रेलवे का ही हुआ करता था। रेलवे बजट को आम बजट में मिलाने से संसद का समय भी बचा। दूसरी बात, अलग बजट की स्थिति में कृषि क्षेत्र के लिए अलग बजट बनाने से अलग-अलग ‘Appropriation Bill’ बनाना पड़ेगा। रेलवे बजट के दौरान इसे तैयार करने में समय जाया हो जाता था। ये बात एक सरकारी कमेटी ने भी स्वीकारी थी। इसके अलावा आम बजट का आकार घट जाएगा, जो देश की अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा नहीं होगा। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राजग सरकार ने पहले ही कृषि क्षेत्र को मिलने वाले बजट के हिस्से में तीन गुना से भी अधिक की बढ़ोतरी की है, अतः, राहुल का वादा वास्तविकता से परे है।

अब एक ऐसे सवाल पर आते हैं, जिससे कॉन्ग्रेस भाग नहीं सकती। राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में हुए विधानसभा चुनावों ने पार्टी ने किसानों की क़र्ज़माफ़ी को बड़ा मुद्दा बनाया था और तीनो राज्यों में पार्टी की सरकार भी बनी। इसके बाद असली तमाशा शुरू हुआ, जिसमे पता चला कि क़र्ज़माफ़ी सिर्फ़ एक शिगूफ़ा था, जिसके लिए न तो कोई रोडमैप था और न ही कोई योजना। मध्य प्रदेश में आचार संहिता लागू होने से पहले ही उसका बहाना बनाकर किसानों को कहा आज्ञा कि क़र्ज़माफ़ी में देरी होगी। इसके अलावा कई किसानों का 1 रुपया का क़र्ज़ माफ़ किया गया। बाद में यह भी पता चला कि मार्च 2018 से अब तक, यानि एक वर्ष का ब्याज किसानों को ख़ुद देना पड़ेगा।

कॉन्ग्रेस के घोषणापत्र में क़र्ज़माफ़ी का जिक्र क्यों नहीं है? क्या कॉन्ग्रेस नई यह मान लिया है कि क़र्ज़माफ़ी फेल हो गई है? अगर नहीं, तो अच्छी योजनाओं को आगे बढ़ाया जाता है, उनपर और अधिक कार्य किया जाता है, उसे लेकर जनता के बीच जाया जाता है। कॉन्ग्रेस ऐसा करने से बच रही है। यह दिखाता है कि जिस मुद्दे को कॉन्ग्रेस ने अपना सबसे बड़ा मुद्दा बनाया था, उसपर अब ख़ुद उसे ही भरोसा नहीं रहा। या तो वो असफल हो गई है, नहीं तो पार्टी को उसकी वास्तविकता या धरातल पर उतरने की संभावना पर विश्वास नहीं रहा। कॉन्ग्रेस को जवाब देना पड़ेगा कि अगर क़र्ज़माफ़ी सफल हुई है तो उसे अपने घोषणापत्र में क्यों नहीं शामिल किया गया है?

कॉन्ग्रेस ने जॉब क्रिएशन पर कहा है कि ऐसे व्यापार जो जॉब्स पैदा करेंगे, उन्हें इफेक्टिव बेनिफिट देकर पुरस्कृत किया जाएगा। लेकिन, प्रधानमंत्री मोदी की ब्रेनचाइल्ड ‘स्टार्टप इंडिया’ और ‘मुद्रा योजना’ यही काम कर रही है। इंस्पेक्टर राज को ख़त्म करने के कारण नई कंपनियों का रजिस्ट्रेशन आसान हो गया है और लोगों को अपनी कम्पनी खोलकर अन्य लोगों को जॉब्स देने प्रोत्साहित किया जा रहा है। छोटे उद्योगों को बढ़ावा देने और स्किल डेवलपमेंट के लिए प्रोग्राम्स चल रहे हैं। ऐसे में, डायरेक्ट टैक्स बेनिफिट का कोई तुक नहीं बनता क्योंकि स्टार्टअप्स के लिए पहहले से ही टैक्स वगैरह में छूट का प्रावधान मोदी सरकार ने कर रखा है।

सिर्फ़ ’20 लाख जॉब्स दे देंगे’ कहने या लिख देने से जॉब्स पैदा नहीं हो जाते, उसके लिए आपको कुछ रोडमैप देना पड़ता है। इस मामले में कॉन्ग्रेस का घोषणापत्र फिसड्डी है और एक-एक लाइन की हज़ारों दावों और वादों की झड़ी है, अजय देवगन के ‘हिम्मतवाला’ की वन-लाइनर्स की तरह। इसमें वो सबकुछ है, जिसके बारे में कॉन्ग्रेस पार्टी ने पाँच दशक तक सोचा भी नहीं। साथ ही नेशनल सिक्योरिटी पर कॉन्ग्रेस ने एनएसए के पर कतरने की योजना भी बनाई है। एनएससी और एनएसए जैसी संस्थाएँ और पद संवेदनशील होते हैं, इसके कई क्रियाकलाप सीक्रेट होते हैं। ऐसे में, उसे नेताओं के बीच उतार देना क्या उचित होगा?

इसके अलावा पार्टी ने आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट, 1958 (AFSPA) में भी संशोधन करने की बात कही है। पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टेन अमरिंदर सिंह ख़ुद इससे छेड़छाड़ करने के विरोधी रहे हैं, ऐसे में क्या ऐसे संवेदनशील एक्ट में संशोधन कर भारतीय सुरक्षा एजेंसियों को पंगु बना दिया जाएगा? राष्ट्रीय सुरक्षा पर कॉन्ग्रेस का घोषणापत्र असंवदेनशील है, सुरक्षा से खिलवाड़ करने वाला है, एनएसए जैसे अधिकारियों को नेताओं के बीच खड़ा करने वाला है और मानवाधिकार की आड़ में सुरक्षा बलों को पंगु बनाने वाला है। यह भ्रामक है, चंद वोटों के लिए बिना किसी अध्ययन के हड़बड़ी में तैयार किया गया है। कॉन्ग्रेस ने मानवाधिकार के साथ यौन हिंसा का जिक्र कर सुरक्षा बलों को कठघरे में खड़ा करने का कार्य किया है।

कॉन्ग्रेस के मैनिफेस्टो में सुरक्षा बलों को लेकर भ्रामक बातें

विदेश नीति पर कॉन्ग्रेस के मैनिफेस्टो में कुछ भी नया नहीं है। इसमें वही सब बातें कही गई है, जिनपर कॉन्ग्रेस पिछले कार्यकालों में नाकाम रही और जिनपर मोदी सरकार द्वारा आगे बढ़ा जा रहा है। हाँ, कॉंग्रेसने शरणार्थी क़ानून को अंतरराष्ट्रीय संधियों के हिसाब से डिज़ाइन करने की बात कही है। इसपर सवाल उठ सकता है कि क्या अंतरराष्ट्रीय संधियों का आँख बंद कर के पालन करने के चक्कर में रोहिंग्या आतंकियों को भी शरणार्थी बना दिया जाएगा क्या? यह भाजपा सरकार की एनआरसी से कॉन्ग्रेस की घबराहट को दिखाता है। शरणार्थी क़ानून में क्या बदलाव किए जाएँगे और इसे कैसे डिज़ाइन किया जाएगा, इसपर ज्यादा कुछ नहीं कहा गया है।

रवीश कुमार जी वाह! KFC में बैठकर शाकाहार पर प्रवचन…

देसी और विदेशी भाषाओं में अपने फेसबुक पोस्ट का दैनिक अनुवाद करवाने के कारण देश और दुनिया में पत्रकारिता के सबसे बड़े मापदंड बन चुके सबसे निष्पक्ष पत्रकार और कॉन्ग्रेस नेता बृजेश पांडे के भाई श्री रवीश कुमार जी राष्ट्रीय चर्चा बने रहना खूब जानते हैं। रवीश कुमार पिछले दिनों ‘द वायर’ के स्टूडियो में बैठकर निष्पक्षता, गोदी मीडिया और एजेंडा पत्रकारिता पर चर्चा कर रहे थे तो लग रहा था, जैसे KFC रेस्टोरेंट में बैठकर शाकाहार पर प्रवचन कर रहे थे। ये मीडिया गिरोह की टुकड़ी वही ‘द वायर’ है, जो हर दूसरे दिन अपने ही देश को नीचा दिखाने वाले या फिर ‘हिंदू फोबिया’ से ग्रस्त आर्टिकल लाकर पब्लिसिटी बटोरता है, और फ़र्ज़ी आर्टिकल लिखकर लोकतंत्र का प्रहरी बनने की कोशिश करता है।

दिलचस्प बात ये है कि द वायर के फाउंडर सिद्धार्थ वर्धराजन भारत के नहीं बल्कि अमेरिका के नागरिक हैं और इनकी पत्नी हैं नंदिनी सुंदर। वही नंदिनी सुंदर, जिस पर छत्तीसगढ़ में आदिवासियों की हत्या का केस चल रहा था। हालाँकि, कॉन्ग्रेस की सरकार बनने के बाद सरकार ने वहाँ से वापस ले लिया था। उसी ‘द वायर’ के स्टूडियो में बैठकर रवीश कुमार निष्पक्षता पर नीति वचन सुना रहे थे और अक्सर अपने प्राइम टाइम शो में भी ‘द वायर’ की तारीफ करते देखे जाते हैं। वैसे यह तथाकथित लिबरल लॉबी का पुराना गुण है, जिसमें वह खुद एक दूसरे की तारीफ करते रहते हैं कि तुम मेरी तारीफ करना और बदले में समय आने पर मैं तुम्हारी तारीफ कर दूँगा, फिर दोनों फेमस हो जाएंगे। नॉट सो?

निष्पक्ष रविश कुमार और तथाकथित गोदी मीडिया

रवीश कुमार तथाकथित गोदी मीडिया जैसे बिल्कुल नहीं हैं, वह कभी साम्प्रदायिक बातें नहीं करते हैं, बल्कि वह तो हर समय अगड़ा-पिछड़ा ब्राह्मण-दलित करते रहते हैं। पिछले दिनों रवीश कुमार के वैचारिक साझेदारों ने तो पूरा रिकॉर्ड तोड़ दिया था। पुलवामा हमले में बलिदान हुए देश के जवानों के चिता की अग्नि अभी शांत भी नहीं हुई थी, तभी इन लोगों ने यह जानने की कोशिश शुरू कर दी थी कि कौन जवान किस जाति का है। वास्तव में रवीश कुमार हिंदू-मुस्लिम भी करते हैं, लेकिन उसकी एक शर्त है और वो ये कि जब कभी कोई हिंदू धर्म के विषयों की बात आए तो रवीश कुमार पर्यावरण पर चिंता जाहिर करते हैं।

उदाहरण के लिए इखलाक कांड पर रवीश कुमार जी बहुत विचलित हुए थे। लेकिन डॉ. नारंग हत्याकांड, दिल्ली के अंकित सक्सेना हत्याकांड, पश्चिम बंगाल में मालदा और हावड़ा के हिंदू विरोधी दंगे और तत्कालिक रामालिंगम द्वारा धर्म परिवर्तन ना करने पर जिहादी तत्वों द्वारा हत्या कर दिए जाने पर रवीश कुमार साइलेंट मोड में चले जाते हैं। अगर मजबूरन उस दिन उन्हें प्राइम टाइम करना भी हो, तो उस दिन उनकी रिपोर्टिंग का अंदाज़ ही जुदा हो जाता है, इस समय उन्हें पर्यावरण या गरीबी याद आ जाती है। ऐसे मौकों पर ‘बागों में बहार है?’ पूछने वाले रवीश कुमार ‘मैं ना बोलूँगा’ वाले सिद्धांत पर ही काम करते हैं।

रवीश कुमार और उनके लॉबी के दूसरे पत्रकार अपने एजेंडावादी पत्रकारिता के बचाव में कहते हैं, कि पत्रकार का काम है सरकार से सवाल करना। यह सही है कि भारत की जनता भोली-भाली है, लेकिन उसकी याददाश्त इतनी भी कमजोर नहीं है। कसम नीरा राडिया टेप केस की, 2014 से पहले रवीश कुमार कितना सरकार से सवाल पूछते थे? उस पर कुछ ना बोला जाए तो ही अच्छा है। वास्तव में 2014 में देश में मोदी सरकार बनते ही रवीश कुमार का जो कंफर्ट जोन था वह खत्म हो गया। आराम से स्टूडियो में बैठकर ‘कौन जात हो भाई?‘ वाला पत्रकारिता का मॉडल फेल हो गया और इसीलिए 2014 के पहले जो रवीश कुमार कहते थे बागों में बहार है, अब वह उजड़ा चमन में बदल चुके हैं। उस पर बौखलाहट का एक और कारण ये कि अब लगभग हर दर्शक के हाथ में इंटरनेट की सुविधा वाला मोबाइल फोन है,और वे प्रतिक्रिया करना चाहते हैं इसी वजह से सभी रवीश कुमार के दोहरे मापदंड वाली पत्रकारिता पर प्रश्न करते हैं।

निष्पक्ष रवीश

वैसे तो यह लाइन ‘निष्पक्ष रवीश’ ‘मीठा नमक’ और ‘खट्टा चीनी’ के समान विरोधाभासी शब्द लग रहा है और वास्तव में सच्चाई भी यही है। रवीश कुमार आजकल एक बात करते हैं कि सरकार राष्ट्रवाद के नाम पर मूल मुद्दों से ध्यान हटा रही है। पहली बात, दुनिया के जितने भी देश हैं उनके लिए राष्ट्रीय सुरक्षा उनका मूल मुद्दा होता है लेकिन, भारत में इससे क्यों बचा जा रहा है? उसका एक कारण है क्योंकि राष्ट्रवाद विपक्षी पार्टियों के लिए दुखती नस के समान है। राष्ट्रवाद की बात जब भी आएगी, लोगों को ध्यान में आने लगेगा JNU कांड के समय बिना कुछ सोचे समझे राहुल गाँधी का और अरविन्द केजरीवाल का JNU में चला जाना, मणि शंकर अय्यर के कुंठित बयानों की तो लंबी लिस्ट है ही, इसके अलावा संदीप दीक्षित द्वारा आर्मी चीफ को सड़क का गुंडा बताना, संजय निरूपम द्वारा सर्जिकल स्ट्राइक को फर्जीकल स्ट्राइक बताना। यही हाल अधिकांश राजनीतिक दलों का है। इसीलिए राष्ट्रवाद के मुद्दे से वह चुनाव में बचना चाहेंगे क्योंकि राष्ट्रवाद का जहाँ नाम लिया जाएगा, उतना ही जनता इन पार्टियों खिलाफ भड़केगी। इसलिए कॉन्ग्रेस सहित विपक्षी पार्टियाँ और उनके प्रति सहानुभूति रखने वाले पत्रकार भी राष्ट्रवाद के मुद्दे से भागने की कोशिश करते हैं।

रवीश कुमार आजकल बेरोजगारी की बात करते हैं। UP में जब 2017 में बीजेपी की सरकार बनी तो स्लॉटरहाउस (बूचड़खाने) सख्ताई से बंद किए जाने लगे। जिसके कारण लखनऊ के टुंडे कबाब की दुकान एक-दो दिन के लिए बंद हो गई, फिर क्या था! देश में कोहराम मच गया। रवीश कुमार और उनके लॉबी के पत्रकार और बुद्धिजीवी हो-हल्ला मचाने लगे कि सरकार लोगों के रोजगार छीन रही है। जीरो लॉस थ्योरी के प्रवर्तक कॉन्ग्रेस के वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल ने तो यहाँ तक कहा कि मोदी सरकार भारत का संस्कृति खत्म कर रही है। टुंडे-कबाब की दुकान के बंद होने से यह बात भी खत्म हो गई।

टुंडे-कवाब का रोजगार बंद हो जाने के कुछ समय बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक इंटरव्यू में स्वरोजगार का जिक्र करते हुए पकौड़ा बनाने वाले का उदाहरण दिया था। बुद्विजीवी गिरोहों में एक बार फिर कोहराम मच गया। रवीश कुमार और उनके लॉबी के पत्रकार प्रधानमंत्री के बयान का मजाक उड़ाने लगे कि पकोड़े तलने का बयान कैसे दिया। तब मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ है कि यह वही लोग थे जो टुंडे-कबाब को बोल रहे थे कि यह लोगों का रोजगार है, लेकिन पकोड़े के ऊपर मजाक उड़ा रहे हैं। बहुत देर बाद में समझ में आया शायद अंतर कबाब और पकोड़े के नेचर में हैं। असल में कबाब सेक्यूलर है और पकौड़ा कम्युनल, इसीलिए यह लोग कबाब बेचने को तो रोजगार मानते हैं, लेकिन पकौड़ा बेचने पर व्यंग्य कस रहे हैं। रोजगार पर याद आया कि मध्य प्रदेश में कॉन्ग्रेस की सरकार रोजगार के ऊपर बहुत अच्छे कार्य कर रही है, जैसे पशुओं को चराना। इसके अलावा शादियों में बैंड बाजा बजाना। रवीश कुमार जी ने पता नहीं इसके ऊपर कोई प्रोग्राम किया या नहीं?

इसके अलावा रवीश कुमार आजकल भारत की अर्थव्यवस्था पर भी काफी दिलचस्पी लेने लगे हैं। और खासकर 2014 के बाद से। यह वही रवीश कुमार और उनकी लिबरल लॉबी है, जिसने अभी डेढ़ साल पहले रेटिंग एजेंसी मूडीज द्वारा भारत की तारीफ करने पर मूडीज की प्रासंगिकता पर ही सवाल खड़ा कर दिया था। वह इतने पर ही नहीं रुके। चूँकी ‘मूडीज’ ने मोदी सरकार के कार्यकाल में भारत की आर्थिक नीतियों की तारीफ कर डाली थी, इसलिए ‘मूडीज’ को दंड भी देना था। लेकिन मूडीज कोई व्यक्ति विशेष तो है नहीं, यह तो एक संस्था है। लिबरल गिरोह में संकट फ़ैल गया कि अब किसे सजा दी जाए, तो यह तथाकथित बुद्धिजीवियों के लिबरल समर्थक ऑस्ट्रेलिया के क्रिकेट खिलाड़ी ‘टॉम मूडी’ को जा कर गाली दे रहे थे। शायद इस आधार पर कि रेटिंग एजेंसी मूडीज और टॉम मूडी का नाम समान है। यह तो इनके लिबरल समर्थकों का बौद्धिक स्तर। मूल बात थी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में रेटिंग एजेंसी मूडीज द्वारा भारत की तारीफ होने पर यह लोग उसकी प्रासंगिकता पर भी सवाल खड़े कर देते हैं। वहीं अगर किसी छोटे-मोटे छुटभैय्या अर्थशास्त्री या पेड कॉमेडियन द्वारा अगर मोदी की किसी नीति से असहमति या फिर आंशिक विरोधी हो, तो उसपर मीडिया का यही समुदाय विशेष आसमान सर पर उठा लेता है।

देश बाद में, पहले एजेंडा

फरवरी 2019 में हुए पुलवामा आतंकी हमले के समय भी रवीश की रिपोर्टिंग अपने एजेंडे पर ही चल रही थी। जब देश के 40 से अधिक जवान बलिदान हो गए हों, उस देश में सबका आक्रोशित होना स्वभाविक है। उसके उपरांत सामान्य देशवासी सोशल मीडिया पर अपनी नाराजगी व्यक्त कर रहे थे। उसे रवीश कुमार ने उन्माद बताया। जब 6 फुट का CRPF का जवान अपने घर 200 ग्राम के मांस के बंडल में पहुँच रहा है, उसकी स्थिति को देखकर जो लोग दुखी हैं, उनको रवीश कुमार अपने प्राइम टाइम में उन्मादी बता रहे हैं। इस पर तो कुछ बोलना ही शेष नहीं रह जाता और यह वही रवीश कुमार हैं, जो JNU कांड के समय अफजल गुरु का फोटो लेकर नारे लगाने वालों के बचाव में अपनी स्क्रीन काली कर रहे थे।

इसके बाद IAF द्वारा बालाकोट एयर स्ट्राइक की घटना के बादविंग कमांडर अभिनंदन का पाकिस्तान के द्वारा पकड़े जाने के बाद देश में बहुत सारे लिबरल खुश हुए थे। इनका मानना था कि अगर लोकसभा चुनाव तक विंग कमांडर अभिनंदन की वतन वापसी नहीं होती है तो विपक्ष और मीडिया गिरोह के लिए यह बड़ी जीत थी क्योंकि मोदी सरकार को घेरने के लिए इसी मीडिया गिरोह ने ’56 इंच की सरकार’ पर खूब कटाक्ष किया था। लेकिन भारत सरकार की वैश्विक कूटनीति ने अपना असर दिखाया। पाकिस्तान को मात्र 72 घंटे के अंदर विंग कमांडर अभिनंदन को रिहा करना पड़ा। अब चूँकि इसका क्रेडिट मोदी सरकार को जाता, तो फिर पाक ऑकुपाइड पत्रकारों ने एक दूसरी योजना शुरू की जिसके अंतर्गत इमरान खान को धन्यवाद देना तय हुआ।

रवीश कुमार ने भी अपने प्राइम टाइम शो में कहा कि अगर लोग इस पर इमरान को धन्यवाद नहीं दे रहे हैं तो यह दुखद है। यानी, सिर्फ इस वजह से कि इस बड़ी जीत के लिए नरेंद्र मोदी को तारीफ न मिल जाए, ये लोग इमरान खान की तारीफ करने के लिए तैयार हो गए। सवाल ये है कि आखिर किस मुँह से कोई भारतीय पाकिस्तान की तारीफ करने को राजी हो सकता है? भारत ने 1971 के युद्ध में पाकिस्तान के एक लाख से अधिक जवान रिहा किए, लेकिन पाकिस्तान ने हमारे एक कैप्टन सौरभ कालिया को पकड़ लिया और उनके साथ उस तरह का सलूक किया, जैसा शायद ही कोई इंसान करता हो।

पाकिस्तान ने कैप्टेन सौरभ कालिया के कान के पर्दे फाड़ डाले, उनके जिंदा रहते ही उनके हाथ के नाखून नोचे गए, तड़पा-तड़पा कर उन्हें मारा गया, जिससे समझ नहीं आया कि पाकिस्तान की आर्मी कोई प्रोफेशनल आर्मी है या फिर दो पैरों पर चलने वाले कोई जानवरों का समूह! कोई जिंदा इंसान की तरह इस तरह हैवानियत कैसे कर सकता है। वह इमरान खान जो खुद पाकिस्तान में तालिबान खान के नाम से मशहूर है, जिनके साथ पाकिस्तान की हिंदू लड़कियों को टारगेट करने वाले मियाँ मिट्ठू के साथ इमरान खान की फोटो वायरल हो ही रही है। आजकल उसी इमरान खान के लिए नोबेल शान्ति पुरस्कार तक की माँग की गई, वो भी सिर्फ मोदी विरोध के नाम पर।

NDTV: एजेंडा तू न गई मेरे मन से

वास्तव में यदि देखा जाए, तो रवीश कुमार मात्र एक प्रोडक्ट हैं, मुख्य फैक्ट्री तो NDTV है। जिसमें इस तरह के प्रोडक्ट बन रहे हैं, जिनकी तारीफ भारत का सबसे बड़ा दुश्मन हाफिज सईद करता है। जिस चैनल के एक पत्रकार निधि सेठी ने अभी हाल ही में पुलवामा हमले पर बलिदान हुए जवानों का मजाक उड़ाया। वास्तव में NDTV से ज्यादा भारत का पक्ष तो कई बार लगता है कि पाकिस्तान का जिओ न्यूज़ ले लेता होगा। 26/11 हमले के बाद जिओ न्यूज के रिपोर्टर कसाब के गाँव गए थे और उस पर प्रोग्राम किया था। जिसके बाद पाकिस्तान चाह कर भी 26/11 हमले में अपनी भूमिका को नकार नहीं पाया और एक तरफ NDTV पाक ऑकुपाइड पत्रकार बरखा दत्त थी, जो बुरहान वानी को हेड मास्टर का बेटा बता रही थी। अब आप तय कीजिए, क्या रवीश कुमार KFC रेस्टोरेंट में बैठकर शाकाहार पर प्रवचन करते हैं या नहीं करते हैं?

अदृश्य शत्रु हमारे जैसा ही दिखेगा, बोलेगा, रहन-सहन करेगा, ‘नज़र’ रखना जरूरी: अजित डोभाल

राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल ने हाल ही में मानव संसाधन विकास मंत्रालय के चीफ इनोवेशन ऑफिसर डॉ अभय जेरे को एक साक्षात्कार दिया था। लोकसभा टीवी द्वारा प्रसारित यह साक्षात्कार डोवाल का एनएसए बनने के बाद संभवतः पहला विस्तृत साक्षात्कार था। इसे हम दो हिस्सों में प्रकाशित कर रहे हैं। पहला हिस्सा आप यहाँ पढ़ सकते हैं

दूसरे हिस्से के महत्वपूर्ण अंश:

‘जिसकी योजना न बना के चले हों…’

अगला सवाल था कि अजित डोवाल को अजित डोवाल क्या किसी एक घटना ने बनाया, और क्या उन्होंने चैतन्य रूप से अपनी उस मानसिकता का निर्माण किया, जिसके बारे में उन्होंने थोड़ी देर पहले बताया था। जवाब में डोवाल ने कहा कि पहली बात तो उनके चरित्र, मन और मानसिक स्थिति का निर्माण किसी एक घटना या कारण से नहीं हुआ। दूसरे, इसे चैतन्य रूप से, किसी योजना के तहत नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि जिस चीज़ की हम योजना पहले ही बना चुके हैं, उसका हमारे मन पर न्यूनतम प्रभाव होता है।

असल में मन का निर्माण और विकास उन चीजों से होता है जो हमारी योजना का हिस्सा नहीं होतीं। वह मिसाल अपने बचपन की देते हैं कि मिलिट्रीमैन पिता के पुत्र होने के बावजूद वो थोड़े से बिगड़े हुए और हद से अधिक संवेदनशील बच्चे थे क्योंकि बचपन से वह अपनी बहनों और बुआओं के प्यारे रहे। ऐसे में उन्हें हॉस्टल के जीवन से तालमेल बिठाने में शुरू में दिक्कत हुई। साथ ही यह अहसास भी हुआ कि यहाँ उनकी माँ बचाने नहीं आ सकतीं और वह अपने लिए खुद जिम्मेदार हैं। उस अहसास ने उन्हें स्वतंत्र स्वभाव का बनाया और एकांत को उनका मित्र। और सालों बाद जाकर यह एकान्तप्रियता और स्वातंत्र्य उन्हें गुप्तचर जीवन में सफल होने में सहायक बने।

अगली जो चीज उन्होंने योजना से नहीं की बल्कि हो गई और बाद में बहुत उपयोगी निकली, वह था मुक्केबाजी में चयन। डोवाल के अनुसार उनके स्कूल में हर छात्र का चयन एक खेल में होता था। उनके टीचर ने उन्हें मुक्केबाजी के लिए चुना। बकौल डोवाल, “मेरे सर ने कहा कि तुम हार नहीं मानते, मैदान नहीं छोड़ते। चाहे तुम दोस्तों से लड़ाई में कितनी भी बुरी तरह पिट जाओ, तुम हमेशा उठ कर एक बार फ़िर लड़ने जाने की कोशिश करते हो। और एक मुक्केबाज के लिए यही सबसे बड़ा गुण होना चाहिए। स्कूल में तुमसे भी ज्यादा कस कर मुक्का मार सकने वाले बहुतेरे छात्र हैं, पर उन्हें जब पलट कर 1-2 मुक्के पड़ेंगे तो वे बिलबिलाकर रिंग से बाहर निकल भागना चाहेंगे- जो कि तेरे साथ बिलकुल नहीं है।”

डोवाल के अनुसार मुक्केबाजी ने उनमें चोट सहने की क्षमता के अलावा धैर्य का भी विकास किया। और यह उनके तब काम आया, जब वो 7-7 साल तक पाकिस्तान में और उत्तर-पूर्व में तैनात रहे। इस दौरान वो बड़ी आसानी से इतने समय तक बैठकर योजना के आगे बढ़ने का इंतजार कर पाए। डोवाल ने पाक या उत्तर-पूर्व में दुश्मन के हाथों प्रताड़ित किए जाने की ओर भी हल्का-सा इशारा करते हुए कहा कि दुश्मन जितना चाहे उतना उन्हें प्रताड़ित कर लेता, लेकिन वो धैर्यपूर्वक समय बीतने की प्रतीक्षा करते थे। उन्होंने कहा, “मैंने यह सीखा कि आप पिट-पिटा कर भी अंत में विजेता बन कर उभर सकते हो।”

परिस्थितिजन्य बनाम ‘सही’ निर्णय के सवाल पर उन्होंने कहा कि यह ‘बनाम’ एक false-binary होगा; यानि हर बार ऐसा जरूरी नहीं कि चैतन्य होकर जो ‘सही’ निर्णय लिया जाए, उसमें परिस्थिति का सहयोग न हो। असल में कई बार तो परिस्थिति इतनी महत्वपूर्ण हो जाती है कि ‘सही’ और ‘गलत’ केवल आपकी प्रतिक्रिया भर बचती है, और परिणाम परिस्थितियों के हाथ में चला जाता है।

‘इलेक्ट्रॉनिक्स: ताकत भी, कमजोरी भी’

साक्षातकर्ता डॉ जेरे ने जब उन्हें बताया कि बहुत से छात्रों और युवाओं ने तकनीक की भविष्य के युद्धों में भूमिका के बारे में पूछा है तो डोवाल ने कहा कि पारंपरिक युद्ध तो अब जान-माल की कीमत के कारण और नाभिकीय हथियारों के प्रसार के चलते, लगभग नगण्य हो चुके हैं। ऐसे में आने वाला युद्ध क्षेत्र तकनीकी युद्धभूमि पर ही लड़ा जाना है।

डोवाल ने साफ़ किया कि पारंपरिक युद्ध न केवल बेवजह का विनाश करते हैं बल्कि उनसे इच्छित राजनीतिक और सामरिक परिणाम पाना भी मुश्किल होता जा रहा है। उन्होंने सोवियत रूस की तालिबान के हाथों और अमेरिका की वियतनाम के हाथों हार का उदाहरण दिया। उन्होंने बताया कि कैसे विषम परिस्थितियों में अक्सर पारंपरिक रूप से ताकतवर सेनाएँ (रूस-अमेरिका) ‘कमज़ोर’ शत्रु (तालिबान-वियतनामी) से पार न पाकर अपने सामरिक लक्ष्य (आतंकवादियों का सफाया या वियतनाम को कम्युनिस्ट देश बनने से रोकना) पूरे नहीं कर पाईं।

आधुनिक और आगामी युद्ध-शैली को डोवाल ने चौथी पीढ़ी का युद्ध बताया, जिनमें शत्रु ‘अदृश्य’ होगा, और उसे देखने-पहचानने में सक्षम होना ही सबसे महत्वपूर्ण युद्ध-कौशल। ऐसे में गुप्त सूचनाओं का महत्व पहले से बढ़ जाता है। यह अदृश्य शत्रु हमारे जैसा ही दिखेगा, बोलेगा, रहन-सहन करेगा। लेकिन तब भी इसे 130 करोड़ की आबादी में तलाश पाने में गुप्त सूचना की महती भूमिका पर डोवाल ने जोर दिया।

साइबर को उन्होंने सीमाविहीन युद्धक्षेत्र की संज्ञा दी और कहा कि यहाँ पर एक बार घुसपैठ कर लेने पर यदि हम चाहें तो दुश्मन की विद्युत, आर्थिक, नागरिक उड्डयन, संचार आदि सभी क्षमताओं को एक ही झटके में ध्वस्त कर सकते हैं।

और इसीलिए इलेक्ट्रॉनिक्स एक ही समय पर दुश्मन के खिलाफ हमारा सबसे बड़ा हथियार भी है, और हमारी सबसे बड़ी कमजोरी भी।

‘फ़िल्में नहीं देखता, मॉल कभी गया नहीं, सामाजिक जीवन शून्य है’

एक छात्र का सवाल था कि जैसे उड़ी फ़िल्म में युवाओं का सर्जिकल स्ट्राइक में तकनीकी सपोर्ट द्वारा योगदान था, उस तरह क्या असल में भी छात्र और युवा महत्वपूर्ण सामरिक योगदान देते हैं। डोवाल ने जवाब में हालाँकि फ़िल्म पर टिप्पणी करने से मना कर दिया पर इसकी पुष्टि की कि सरकार, गुप्तचर एजेंसियाँ और डीआरडीओ युवा वैज्ञानिकों के शोधों और उनके द्वारा विकसित की जा रही उपयोगी नई टेक्नोलॉजी का स्वागत करते हैं। उन्होंने बताया कि हाल ही में उनके संज्ञान में आईआईटी मद्रास द्वारा विकसित की जा रही एक संभावित रूप से उपयोगी ड्रोन तकनीक आई है, और उन्होंने डीआरडीओ से उस तकनीक का विकास कर रही टीम का संपर्क कराया है।

उन्होंने यह साथ में जोड़ा कि ज्यादातर गुप्तचर एजेंसियाँ ज्यादा पसंद यह करतीं हैं कि अपने काम की टेक्नोलॉजी वे अपने आप से विकसित करें क्योंकि यह ज्यादा सुरक्षित उपाय है। पर अगर बाहर से कोई तकनीक लेनी ही पड़ती है तो हमेशा उसमें महत्वपूर्ण और अच्छे-खासे बदलाव कर दिए जाते हैं ताकि अविष्कारकर्ता की एजेंसी के तंत्र में संभावित तकनीकी घुसपैठ को रोका जा सके। साथ ही अविष्कारकर्ता को कभी यह पता नहीं होता कि वह जो तकनीक बेच रहा है, उसका अन्ततोगत्वा उपयोग कौन और कैसे करेगा।

अपने आधुनिक तकनीक से निजी सम्बन्ध के बारे में अजित डोवाल ने खुलासा किया कि न ही उनके पास कभी मोबाईल रहा, और न ही उन्होंने कभी इंटरनेट का प्रयोग कंप्यूटर पर किया है। वह इलेक्ट्रॉनिक संचार जैसे ईमेल, सोशल मीडिया आदि से भी दूर रहते हैं। कारण उन्होंने यह बताया कि उन्हें इस क्षेत्र से होने के कारण पता है कि इन उपकरणों में सामरिक सेंध कितनी आसान है। इसी में उन्होंने यह भी जोड़ा कि उन्होंने न कभी किसी पिक्चर हॉल में फ़िल्म देखी है न ही कभी किसी मॉल में कदम रखा है। यहाँ कारण यह था कि जब तक वह आईबी में थे, तब तक उनकी ड्यूटी का तकाजा यह था कि वे सार्वजनिक स्थलों पर, परिवार के साथ आदि कम-से-कम दिखें। और जब तक वह रिटायर हुए (2005), तब तक इन सब की इच्छा ही नहीं बची। अतः उन्होंने फ़िल्में केवल कभी-कभार टीवी पर ही देखी हैं।

युवाओं द्वारा अपने विचार जानने और अपने नाम से ‘उड़’ रही सामग्री पर उन्होंने बताया कि उन्होंने सार्वजनिक बयान बहुत कम दिए हैं। 2005 में रिटायर होकर 2009 में उन्होंने ‘विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन’ नामक थिंक-टैंक बनाया और कुछ किताबें व शोध पत्र लिखे, कुछ भाषण दिए। बस इतना ही उनके द्वारा दिए बयान हैं। 2014 से वह एनएसए हैं और बहुत कम मौकों पर सार्वजनिक तौर पर उन्होंने कुछ बोला है।

उन्होंने यह भी कहा कि फिलहाल उन्हें जो कहना होता है, वह प्रधानमंत्री से सीधे कहते हैं। और लोग भी कहते हैं और प्रधानमंत्री उसके आधार पर निर्णय लेते हैं। देशहित में यही है कि देश प्रधानमंत्री की आवाज़ और उनके निर्णय, उनके विचार सुने, प्रधानमंत्री के सलाहकारों के नहीं।

‘अपनी पहचान देश से जोड़ो’

अंत में देश के छात्रों और युवाओं के नाम सन्देश में डोवाल ने उनसे आग्रह किया कि वे अपनी पहचान देश की पहचान से जोड़ें क्योंकि यह मानव का स्वभाव है कि जिस चीज़ से उसकी पहचान जुड़ जाती है, वह चीज़ की रक्षा वह स्वयंस्फूर्त हो करने लगता है। वह स्वामी विवेकानंद का संस्मरण सुनाते हैं कि कैसे एक बार एक जापानी जहाज पर यात्रा के दौरान स्वामीजी ने देखा कि एक भारतीय जापान को गाली दे रहा था क्योंकि उसे किसी कारणवश एक समय का भोजन नहीं मिल रहा था। एक जापानी ने उसे अपना एक वक्त का खाना देने की पेशकश की, और साथ में धमकी भी दी कि यदि उस भारतीय को जापानी ने जापान के विरुद्ध एक भी शब्द बोलते सुन लिया तो उसे उठा कर जहाज से पानी में फेंक देगा। डोवाल ने भारतीयों से भी अपने देश के प्रति ऐसी ही प्रचण्ड लगन उत्पन्न करने का आग्रह किया।

प्रिय फेसबुक, चोरों को चौधरी नहीं बनना चाहिए

कल सुबह से सोशल मीडिया पर एक खबर नाच रही है, और हमारे भोले-भाले तथाकथित ‘राईट-विंग’ वाले उस पर ख़ुशी में नाच रहे हैं, जबकि उन्हें कायदे से दुश्चिंता में डूब जाना चाहिए।

खबर यह है कि फेसबुक ने हिंदुस्तान में 1,000 से अधिक पेजों, ग्रुपों आदि को हटा देने की घोषणा की। इनमें से दो-तिहाई से अधिक (687/1023) पर फेसबुक ने कॉन्ग्रेस आईटी सेल से जुड़े होने का आरोप लगाया, 15 को फेसबुक ने भाजपा आईटी सेल का मुखौटा बताया, और 321 पर अनचाहे सन्देश भेजने (spamming) का आरोप था।

इस पर ‘राष्ट्रवादियों’ की सेना ने ऐसे जश्न मनाना शुरू कर दिया है जैसे मार्क जुकरबर्ग ने फेसबुक मुख्यालय को कैलिफोर्निया की सिलिकॉन वैली से उठाकर भाजपा मुख्यालय के बेसमेंट में फोटोकॉपी वाले के बगल में लगा दिया है।

जबकि सच्चाई ठीक उलटी है- कॉन्ग्रेस/वामपंथियों को टिपली मारकर यह या तो दक्षिणपंथियों के मुँह पर हथौड़ा मारने का मंच तैयार हो रहा है, और या फिर उससे भी चिंताजनक (क्योंकि देश भाजपा-कॉन्ग्रेस से ज्यादा जरूरी है) निहितार्थ यह होगा कि फेसबुक हिंदुस्तान के चुनावों और राजनीतिक संवाद का चौधरी बनना चाहता है।

पेज हटाने के पीछे के कारण प्रश्नवाचक

कॉन्ग्रेस के पेजों को ‘अप्रमाणिक व्यवहार’ (Inauthentic behavior) के नाम पर हटाया। साथ ही इस शब्द से फेसबुक का तात्पर्य क्या है, इसके उदाहरण के तौर पर जिन पोस्ट्स के कारण कॉन्ग्रेस-समर्थक एकाउंट्स को बंद किया है, उनमें से कुछ दिखाए।

यह पोस्ट्स कॉन्ग्रेस के भाजपा के खिलाफ राजनीतिक दुष्प्रचार का हिसा जरूर हैं, पर इनमें ‘फेक न्यूज़’ (जिसे कि रोकना फेसबुक से अपेक्षित है) जैसा कुछ नहीं है- राहुल गाँधी ने ₹72,000 देने का वादा बिलकुल किया था (हालाँकि इसमें कोई दो-राय नहीं कि कॉन्ग्रेस के भीतर ही इस बात को लेकर कोई स्पष्टता नहीं कि यह राशि किसे, कब, कैसे दी जाएगी, पर यह नीतिगत विफलता है, फेक न्यूज़ नहीं)।

यह भी तथ्य है कि मोदी और जेटली समेत पूरी-की-पूरी भाजपा इस अजीब योजना के खिलाफ हैं- यह तथ्य कहना किसी भी प्रकार से ‘Inauthentic behavior’ कैसे हो गया?

और कॉन्ग्रेस के ये फुटकर पेज हटाने की सीढ़ी पर खड़े होकर फेसबुक ने इसी बहाने भाजपा के समर्थक बड़े-बड़े पेजों पर भी झाड़ू चला दी। The India Eye नामक एक ही हटाए हुए फेसबुक पेज का उदहारण लें तो 20 लाख से ज्यादा followers वाले इस एक पेज का हटना दक्षिणपंथियों के लिए ज्यादा नुकसानदेह साबित हुआ, बजाय कॉन्ग्रेस के कमज़ोर 600+ पेजों के हट जाने के।

इसके अलावा फेसबुक ने मीडिया आउटलेट्स को भी निशाना बनाने की कोशिश की। खबरिया पोर्टल My Nation का पेज हटने की बात कुछ मीडिया रिपोर्ट्स से लेकर स्वराज्य पत्रिका से जुड़े रहे रक्षा विश्लेषक अभिजीत अय्यर-मित्रा ने कही।

पर इसी मुद्दे पर खुद My Nation की खबर में अपने पेज के हटाए जाने का जिक्र नहीं है। इसके अलावा My Nation से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार सुरजीत दासगुप्ता ने भी सोशल मीडिया पर इस बारे में कुछ नहीं बोला है।

दण्ड जनता या चुनाव आयोग को देना चाहिए, फेसबुक कौन होता है?  

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने विश्वासमत हारने के बाद के अपने मशहूर भाषण में कहा था कि पार्टियाँ बनेंगी-बिखरेंगी, सरकारें आएँगी-जाएँगी, पर यह देश जीवित रहना चाहिए, इस देश का लोकतंत्र जीवित रहना चाहिए। और कॉन्ग्रेस के पेजों का इस तरह से, इस गलत आधार पर सफाया इस देश के लोकतंत्र के लिए कतई सही नहीं है।

कॉन्ग्रेस बेशक भाजपा के खिलाफ दुष्प्रचार कर रही है, पर वह सामान्य राजनीतिक संवाद का हिस्सा है- सभी पार्टियाँ, और भाजपा कोई अपवाद नहीं है, अपनी योजनाओं को बढ़ा-चढ़ाकर दिखातीं हैं और विरोधियों पर कीचड़ उछालतीं हैं। दुनिया के सबसे बड़े, जीवंत लोकतंत्र में रहने की यह बहुत छोटी-सी कीमत है।

और अगर उसकी नीतियाँ गलत हैं तो यह आने वाले चुनावों में जनता तय कर देगी। अगर वह चुनाव के नियमों का उल्लंघन कर रही है तो उसे सजा सुनाने के लिए चुनाव आयोग और अदालत है, और अदालत की बात न मानने वालों के लिए पुलिस और सेना हैं।

इन सबके बीच में फेसबुक को चौधराहट फैलाने के लिए किसने आमंत्रित किया है? फेसबुक को जिस चीज़ पर असल में अपनी तरफ से रोक लगाने का प्रयास करना चाहिए, यानि तथ्यात्मक रूप से फर्जी फेक न्यूज़, उसमें तो वह लगातार नाकाम साबित हो रही है। और अब वह इसे छुपाने के लिए (और या फिर हिंदुस्तान की सियासत में अपना दखल बढ़ाने के लिए?) हमारे देश के राजनीतिक संवाद की पुलिसिंग कर रही है।

कॉन्ग्रेस प्रत्याशी पर PNB का ₹116 करोड़ का कर्जा, बैंक ने चुनाव आयोग से लगाई गुहार

कॉन्ग्रेस द्वारा लोकसभा चुनाव के लिए गलत प्रत्याशियों का चयन, पार्टी की गंभीरता पर लगातार सवाल उठा रहा है। बीते कुछ दिनों पहले दूसरी पार्टी की प्रत्याक्षी घोषित हो चुकीं तनुश्री को टिकट देकर कॉन्ग्रेस की सोशल मीडिया पर खूब हँसी उड़ी थी। और अब मणिपुर में अपने उम्मीदवार को लेकर पार्टी को शर्मिंदगी का सामना करना पड़ रहा है।

दरअसल, आउटर मणिपुर से कॉन्ग्रेस पार्टी के उम्मीदवार के जेम्स पर पंजाब नेशनल बैंक ने आरोप लगाया है कि उनपर बैंक के ₹100 करोड़ बकाया है, जिन्हें लौटाने में वो अब तक असफल रहे हैं। बैंक ने मुख्य निर्वाचन अधिकारी को पत्र लिखकर इसकी शिकायत की है। बैंक के अनुसार साल 2017 में जेम्स ने नॉर्थइस्ट रीजन फिन सर्विसेज लिमिटेड नाम की एक फर्म के निदेशक और निजी गारंटर के तौर पर ₹100 करोड़ उधार लिए थे।

बैक की शिकायत है कि जेम्स ने बिना बैंक को बताए ही फर्म से इस्तीफ़ा दे दिया, जो कि नियमों के उल्लंघन में आता है। बैंक का आरोप है कि जेम्स ने अपने पद से इसलिए इस्तीफ़ा दिया है क्योंकि वह कर्ज़ लेने की बात को छिपाना चाहते थे।

चुनाव आयोग को पत्र लिखते हुए बैंक ने जेम्स के चुनाव न लड़ने पर प्रतिबंध लगाने की माँग की है। साथ ही बैंक जेम्स को जान-बूझकर कर्ज न चुकाने वाले ‘डिफॉल्टर’ की सूची में भी डालने वाला है। बैंक का कहना है कि कर्ज़ न चुकाने से उनका अकॉउंट एनपीए में बदल गया है। लेकिन उसके तीन साल बाद भी कर्ज नहीं चुकाया जा सका।

बैंक द्वारा दी जानकारी के अनुसार अब जेम्स पर कुल ₹116 करोड़ बकाया है। बैंक की इस शिकायत पर मुख्य निर्वाचन अधिकारी ने एक्शन लेते हुए आउटर मणिपुर के लोकसभा क्षेत्र के रिटर्निंग अधिकारी को मामले में लगे आरोपों पर जाँच करने को कहा है। बता दें कि जेम्स का पहले राजनैतिक बैकग्राउंड नहीं रहा है। वो फाइनेंस सर्विसेज के पूर्व अधिकारी रह चुके हैं।