Sunday, September 29, 2024
Home Blog Page 5337

मायावती ने मूर्ति बनवाने पर खर्च हुए ₹6000 करोड़ लौटाने से किया SC को साफ़ मना

बसपा सुप्रीमो मायावती ने मंगलवार (अप्रैल 2, 2019) को उत्तर प्रदेश में अपनी प्रतिमाओं और हाथी की मूर्तियों की स्थापना में खर्च को सही ठहराते हुए सुप्रीम कोर्ट के समक्ष हलफनामा दायर किया। इस हलफनामे में मायावती ने कहा कि ये लोगों की जनभावना थी कि उनकी मूर्तियाँ बने, बसपा के संस्थापक कांशीराम की भी इच्छा थी कि उनकी मूर्तियाँ बने। उन्होंने कहा कि दलित आंदोलन में उनके योगदान की वजह से मूर्तियाँ लगवाई गई हैं। मायावती का कहना है कि विधानसभा के विधायक चाहते थे कि कांशी राम और दलित महिला के रूप में मायावती के संघर्षों को दर्शाने के लिए मूर्तियाँ स्थापित की जाएँ। इसके साथ ही मायावती ने मूर्तियों और स्मारकों पर खर्च होने वाले रकम को भी लौटाने से मना कर दिया है।

गौरतलब है कि मायावती ने उत्तर प्रदेश में अपनी सरकार के कार्यकाल के दौरान नोएडा, ग्रेटर नोएडा और लखनऊ में कई पार्क बनवाए। इनमें मायावती, कांशीराम, भीमराव अंबेडकर और हाथियों की बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ बनवाई गईं हैं। इन पर तकरीबन ₹6000 करोड़ खर्च हुआ है। इसी बाबत सुप्रीम कोर्ट ने 8 फरवरी 2019 को मायावती द्वारा लगाई गई मूर्तियों पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि मायावती ने हाथियों और अपनी मूर्तियों को बनाने पर जो पैसा खर्च किया है, उसे वापस लौटाना चाहिए।

वैसे देश में मूर्तियों के नाम पर राजनीति का चलन नया नहीं है। राजनीतिक दल सत्ता में आने पर अपने-अपने हिसाब से चयनित नेताओं और विचारधारा वाले व्यक्तियों की मूर्तियाँ लगवाती आई हैं। इसी कड़ी में जब उत्तर प्रदेश में बसपा की सरकार आई तो मायावती ने भी पार्क और मूर्तियाँ बनवाईं थी और अब मायावती ने मूर्तियों पर खर्च की गई सरकारी रकम को न्यायोचित ठहराते हुए सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दायर किए गए हलफनामे में कहा है कि विधानसभा में चर्चा के बाद मूर्तियाँ लगवाई गईं और इसके लिए बाकायदा सदन से बजट भी पास कराया गया था। यहाँ पर अगर मायावती के द्वारा दिए गए तर्क पर गौर किया जाए, तो उनका ये तर्क सही लगता है। क्योंकि बिना सदन में बजट पास कराए किसी प्रकार की कोई मूर्ति या फिर पार्क बनाना संभव नहीं है।

हाँ, ये बात सही है कि आपने नियमों का पालन करते हुए ही पार्क या फिर मूर्तियों को बनवाया और इसे जनभावना बताया। लेकिन अगर आप वाकई में जनभावना का सम्मान करना चाहती हैं या फिर कांशीराम के प्रति आभार और सम्मान व्यक्त करना चाहती थी तो आप इन पार्कों और मूर्तियों की बजाए उनके नाम से कांशीराम अस्पताल, कांशीराम स्कूल या फिर कांशीराम कॉलेज की स्थापना करवा सकती थीं। इससे लोग स्कूल, कॉलेज और अस्पतालों का उपभोग कर सकते। इससे राज्य के शिक्षा व्यवस्था और स्वास्थ्य व्यवस्था में सुधार होता। इसके साथ ही मायावती दलितों को लेकर आरक्षण देने का काम कर सकती थी, जिससे उनकी स्थिति में सुधार हो पाता।

मायावती के द्वारा बनवाई गईं मूर्तियाँ

मायावती ने अपने हलफनामे में इस बात का भी जिक्र किया है कि इन मूर्तियों और पार्कों को बनाने में जो रकम खर्च की गई है, उसे लौटाने का सवाल ही नहीं उठता है। दरअसल, 8 फरवरी को केस की सुनवाई करते हुए चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने कहा था कि कोर्ट का विचार है कि मायावती को मूर्तियों पर हुए खर्च को अपने पास से सरकारी खजाने में अदा करना चाहिए। मगर मायावती ने अपने हलफनामे में इसे जमा करने से मना कर दिया। मायावती का रकम को वापस न करना इसलिए भी सही प्रतीत हो रहा है, क्योंकि मायावती ने ये सारी चीजें उस समय बनवाईं थीं, जब उनकी सरकार थी और इन मूर्तियों और पार्कों को बनाने पर जो रकम खर्च की थी, उसके लिए बाकायदा सदन से बजट पास करवाया गया था। इसलिए अब इस रकम को अपने पास से जमा कराना नामुमकिन सा लगता है।

इसके साथ ही मायावती ने सुप्रीम कोर्ट को भेजे जवाब में साफ कहा है कि पैसा शिक्षा, अस्पताल या फिर मूर्तियों पर खर्च हो, यह बहस का विषय है, इसे अदालत द्वारा तय नहीं किया जा सकता। हालाँकि मायावती की यह बात सही है, मगर यदि इन पैसों को मूर्तियों के बजाए शिक्षा व्यवस्था को दुरूस्त करने के लिए स्कूल- कॉलेज की स्थापना की जाती या फिर अस्पतालों का निर्माण किया जाता, पुरानी सड़कों का जीर्णोद्धार करने में खर्च किया जाता तो जनता इससे ज्यादा लाभान्वित होती।

पार्क में मूर्तियों से तो जनता का तो कोई भला होता हुआ नहीं दिख रहा है। ज्यादा से ज्यादा पार्क में घूमने गए लोग मूर्तियों के साथ सेल्फी ले लेते हैं। इससे ज्यादा तो उसकी कोई उपयोगिता दिखाई नहीं देती है। इनकी जगह अगर स्कूल या अस्पताल पर रकम खर्च की गई होती तो लोगों को इसका फायदा मिलता रहता और इनका नाम भी होता, क्योंकि ये स्कूल-कॉलेज होता तो इन्हीं के नाम पर। इसका एक फायदा ये भी मिलता कि लोगों के दिलों में इनके लिए जगह तो बनती ही, साथ ही इससे किसी को कोई आपत्ति भी नहीं होती।

इस मामले पर आज (अप्रैल 2. 2019) कोर्ट में सुनवाई होने वाली है। तो देखना होगा कि मायावती की तरफ से सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दायर किए गए हलफनामे पर कोर्ट किस तरह से सुनवाई करती है और क्या फैसला सुनाती है। बता दें कि, मायावती और उनकी पार्टी के चिन्ह हाथी की प्रतिमाएँ नोएडा और लखनऊ में बनवाई गई थीं। एक वकील ने इस मामले में याचिका दाखिल की थी। याचिका में कहा गया है कि नेताओं द्वारा अपनी और पार्टी के चिह्न की प्रतिमाएँ बनाने पर जनता का पैसा खर्च ना करने के निर्देश दिए जाएँ।

दंगों के नाम पर डराने वाली कॉन्ग्रेस का इतिहास 16000+ हिंदू-मुस्लिम-सिख के खून से लथपथ है

गुजरात में जब नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री थे, तब हुए दंगों को लेकर अक्सर भ्रम फैलाने की कोशिश की जाती रही है। बड़ी चालाकी से इन सबके बीच में कॉन्ग्रेस के शासनकाल में हुए दंगों को भुला दिए जाते हैं। गुजरात में हुए एक दंगे की आड़ में उन हज़ारों लोगों को याद भी नहीं किया जाता, जो कॉन्ग्रेस शासित राज्यों में हुए दंगों में मौत की भेंट चढ़ गए। अक्सर कहा जाता है कि केंद्र और उत्तर प्रदेश में मोदी-योगी के आने के बाद सबसे ज्यादा
सांप्रदायिक हिंसक वारदातें हुई। लेकिन, अगर आँकड़ों की बात करें तो 2013 में जब यूपी में अखिलेश और केंद्र में मनमोहन की सरकार थी, तब वहाँ सबसे ज्यादा सांप्रदायिक वारदातें हुई थीं।

2017 में उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक हिंसा की 195 वारदातें हुईं जबकि 2013 में यह आँकड़ा 247 का था। उस समय न तो यूपी में योगी थे और न ही केंद्र में मोदी। लेकिन, कुछ विश्लेषक झूठ के आधार पर यह कहते नहीं हिचकते कि मोदी राज में ऐसी घटनाएँ बढ़ गई हैं। इसी तरह 2008-2017 के दशक की बात करें तो महाराष्ट्र में भी सबसे ज्यादा सांप्रदायिक हिंसक वारदातें 2009 में हुई थी। उस वर्ष वहाँ 128 ऐसी घटनाएँ हुईं थीं। उस समय केंद्र और राज्य दोनों ही जगहों पर कॉन्ग्रेस की सरकार थी। इसी तरह 2010 में वहाँ 117 और 2008 में 109 ऐसी वारदातें हुईं। जबकि 2014 से 2017 के बीच किसी भी वर्ष में सांप्रदायिक हिंसा के आँकड़े इतने नहीं गए। उलटा 2016 में यह आँकड़ा घट कर 68 और फिर 2017 में 46 पर पहुँच गया।

2013 में यूपी में ऐसी घटनाओं में 77 लोग मारे गए। महाराष्ट्र में 2008 और 2009 में सांप्रदायिक हिंसा के कारण क्रमशः 26 और 22 लोग मारे गए। 2015, 16 और 17 में ये आँकड़ा घटते-घटते क्रमशः 14, 6 और 2 पर पहुँच गया। 2014 से 2017 के बीच इन आँकड़ों में कमी आई। अब हम आपको हाल ही में यूपीए के शासनकाल में हुए उन दंगों के बारे में बताने जा रहे हैं, जिसमें भारी जान-माल की क्षति हुई। लेकिन कई पत्रकार आज भी गुजरात-गुजरात की रट लगाए बैठे हैं। इसके बाद हम पुराने समय में कॉन्ग्रेस के शासनकाल में हुए बड़े दंगों की बात करेंगे।

मुज़फ्फरनगर दंगा, यूपी (2013 )

2013 में यूपी के मुज़फ्फरनगर में हुए दंगों में जानमाल की भारी क्षति हुई थी। उस समय केंद्र में कॉन्ग्रेस की सरकार थी और राज्य में अखिलेश यादव (सपा) की सरकार थी। अगस्त-सितम्बर में हुए इन दंगों में 60 से भी अधिक लोग मारे गए थे और कई घायल हुए थे। सुप्रीम कोर्ट ने इस दंगे को लेकर तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को फटकार भी लगाई थी।

भरतपुर दंगा, राजस्थान (2011)

2011 में अशोक गहलोत के मुख्यमंत्रित्व काल में भरतपुर में हुए दंगों में 8 लोग मारे गए थे और क़रीब 25 लोग जख़्मी हुए थे। इस दंगे की जाँच सीबीआई को सौंपी गई थी। अशोक गहलोत फिर से राजस्थान के मुख्यमंत्री बने हैं। हैरत यह कि उनसे इस दंगे को लेकर सवाल नहीं पूछे जाते।

अब हम आगे कॉन्ग्रेस राज में हुए उन भीषण दंगों के बारे में बात करेंगे, जो इतने भयावह थे कि उनके सामने छिटपुट घटनाओं को दंगे का रूप देने वाले शर्म से अपना मुँह छुपा लें।

1993 बॉम्बे दंगा, महाराष्ट्र

इस दंगे में 900 के क़रीब लोग काल के गाल में समा गए थे। उस समय शरद पवार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे। दिसंबर 1992 और जनवरी 1993 में हुए इन दंगों को सबसे भीषण दंगों में से एक माना जाता है। तब केंद्र में नरसिम्हा राव के नेतृत्व में कॉन्ग्रेस की सरकार थी।

हैदराबाद दंगा, आंध्र प्रदेश (1990)

1990 में आंध्र प्रदेश की राजधानी हैदराबाद में हुए सांप्रदायिक दंगों में 200 से भी अधिक लोग मारे गए थे। उस दौरान आंध्र प्रदेश में कॉन्ग्रेस की सरकार थी। हैदराबाद दंगे के बारे में कहा जाता है कि तब एक भी दोषी को गिरफ़्तार नहीं किया गया था। तत्कालीन मुख्यमंत्री मारी चेन्ना रेड्डी ने कहा था कि ये दंगे उनकी अपनी ही पार्टी के प्रतिद्वंद्वियों द्वारा भड़काए गए हैं। इस दंगे में मारे गए और घायल लोगों में आधे से ज्यादा हिन्दू थे।

1984 सिख दंगा

1984 में दिल्ली और पंजाब में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद सिखों को चुन-चुन कर मारा गया था। इस दंगे में कई कॉन्ग्रेस नेताओं पर आज तक मुक़दमे चल रहे हैं। इस दंगे में 10,000 के क़रीब सिख मारे गए थे। पूरे भारतीय में शायद ही कभी इस तरह एकतरफा रूप से इतने लोगों को मारने की कोई अन्य घटना घटी हो। अकेले दिल्ली में हज़ारों सिखों को मार डाला गया था, उनकी बस्तियाँ जला डाली गईं थीं और महिलाओं तक को नहीं छोड़ा गया था।

मामला अभी तक कोर्ट में लंबित है। हालाँकि किसी से छिपा नहीं है कि इस दंगे को कॉन्ग्रेस नेताओं (याद कीजिए राजीव गाँधी का धरती डोलने वाला वाक्य) द्वारा अंजाम दिया गया था। विकीलीक्स के ख़ुलासे के मुताबिक, अमेरिका तक ने भी इस दंगे में पूर्ण रूप से कॉन्ग्रेस का हाथ माना था। अमेरिका ने माना था कि कॉन्ग्रेस और उसके नेता सिखों को घृणाभाव से देखते थे। सिख समाज आज तक उस दंगे के दंश को झेल रहा है जबकि कई आरोपित खुला घूम रहे हैं।

नेली दंगा, असम (1983)

फरवरी 1983 में इंदिरा गाँधी प्रधानमंत्री थीं और राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा था। ऐसे में 3000 से भी अधिक लोगों का दंगे में मारा जाना कॉन्ग्रेस सरकार की अक्षमता का परिचायक है। अनाधिकारिक आँकड़ों के मुताबिक़, इस दंगे में 10,000 के क़रीब लोग मारे गए थे। स्थानीय निवासियों और मुस्लिमों के इस ख़ूनी संघर्ष को रोकने में तत्कालीन सुरक्षा व्यवस्था नाकाम साबित हुई थी।

यह स्वतंत्र भारत का तब तक का सबसे बड़ा नरसंहार था। सरकारी तौर पर मृतकों के परिजनों को मुआवजे के नाम पर 5-5 हज़ार रुपए दिए गए थे। नेली नरसंहार के लिए शुरू में कई सौ रिपोर्ट दर्ज की गई थी। कुछ लोग गिरफ़्तार भी हुए लेकिन देश के सबसे जघन्य नरसंहार के अपराधियों को सजा तो एक तरफ, उनके ख़िलाफ़ मुकदमा तक नहीं चला। बंगाली विरोधी आंदोलन के बाद जो सरकार सत्ता में आई, उसने एक समझौते के तहत नेली नरसंहार के सारे मामले वापस ले लिए।

भागलपुर दंगा, बिहार (1987)

केंद्र में राजीव गाँधी के नेतृत्व में कॉन्ग्रेस की सरकार चल रही थी। बिहार में भी सत्येंद्र नारायण सिन्हा के नेतृत्व में कॉन्ग्रेस ही सत्तासीन थी। ऐसे में, बिहार के इतिहास का सबसे भीषण दंगा भड़का और हज़ार से भी अधिक लोग मारे गए। 50,000 से भी अधिक लोगों को अपना घर-बार छोड़ कर भागना पड़ा। इस दंगे के बाद ही लालू यादव ने मुस्लिम-यादव समीकरण को बुना और बिहार की गद्दी को जीतने में कामयाब रहे।

शहर में शांति बहाली के लिए तत्कालीन सिने स्टार सुनील दत्त और शत्रुघन सिन्हा को कई बार भागलपुर आना पड़ा था। गंभीरता को भाँपकर तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी भी आए थे पर उन्हें अस्पताल से ही लौट जाना पड़ा था। तब कर्फ्यू तोड़कर लोग तिलकामांझी चौराहे पर आ गए थे और उनके काफिले को रोक एसपी के तबादले को रद्द करने को सरकार को मजबूर कर दिया था। कॉन्ग्रेस इस घटना के बाद से बिहार की सत्ता पर कभी काबिज़ नहीं हो सकी।

गुजरात दंगा, 1969

2002 के गुजरात दंगों की चर्चा तो की जाती है लेकिन बड़ी चालाकी से 1969 में उसी गुजरात में हुए भीषण दंगों को याद तक नहीं किया जाता। कारण उस दौरान केंद्र और राज्य, दोनों में ही कॉन्ग्रेस की सरकार थी। इस दंगे में 500 के आसपास लोग मारे गए थे और लगभग इतने ही घायल भी हुए थे। हिन्दू दलितों और मुस्लिमों के इस संघर्ष को भड़काने में जमात उलेमा नामक मजहबी संगठन के नेताओं द्वारा भड़काऊ बयान का हाथ था।

1980 में यहाँ फिर सांप्रदायिकता की आग भड़की और 1992 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद भी हिन्दू-मुस्लिमों में हिंसक संघर्ष हुआ। इन दंगों को लेकर कॉन्ग्रेस नेताओं से सवाल नहीं पूछे गए!

मोरादाबाद दंगा, यूपी (1989)

मोरादाबाद में दूसरे मजहब वालों द्वारा एक दलित लड़की के अपहरण के बाद उपजे तनाव में 500 के क़रीब लोग मारे गए थे। हालाँकि, अनाधिकारिक आँकड़ों की बात करें तो इसमें 2500 से भी ज्यादा लोगों के मारे जाने की बात कही गई। राज्य में नारायण दत्त तिवारी के नेतृत्व में कॉन्ग्रेस सत्तासीन थी और केंद्र में राजीव गाँधी प्रधानमंत्री थे। ऐसे में, देश के सबसे बड़े राज्य और राजधानी दिल्ली से सटे इस क्षेत्र में हज़ारों लोगों का मारा जाना कॉन्ग्रेस नेतृत्व पर सवाल खड़े करता है और उन पर भी जिन्होंने इस दंगे को लेकर उतने सवाल नहीं पूछे, जितने गुजरात को लेकर पूछे गए।

इस तरह से कॉन्ग्रेस शासनकाल में कई भीषण दंगे हुए, जिनको लेकर उन पर सवाल नहीं दागे गए। भाजपा शासनकाल में देश अपेक्षाकृत शांत है और ऐसी घटनाओं में कमी आई है। अगर हम 2011-2013 की बात करें तो उस दौरान भी कॉन्ग्रेस शासित राज्य सांप्रदायिक हिंसा की चपेट में सबसे ज्यादा थे। उस दौरान कॉन्ग्रेस शासित महाराष्ट्र में 270 ऐसे मामले आए, जो देश में सबसे ज्यादा था। 2013 में तो देश में जितनी भी सांप्रदायिक हिंसा की वारदातें हुई, उनमें से 35% सपा शासित यूपी में हुई। इसीलिए, एक दो घटनाओं को बार-बार रट कर ये बस एक भ्रम फैलाया जाता है कि भाजपा के शासनकाल में सांप्रदायिक हिंसा की वारदातें बढ़ जाती हैं।

‘हेट पॉलिटिक्स’ के नाम पर जिन्होंने साधा BJP पर निशाना, वो केरल में बढ़ते अपराधों पर हमेशा क्यों चुप रहे?

कल लेखकों के गिरोह द्वारा भारतियों से एक अपील की गई। जिसमें कहा गया कि ‘हेट पॉलिटिक्स’ फैलाने वालों को भारत की जनता इस बार सत्ता से वोट आउट कर दे। ये थोड़ा सुनने में अजीब लग सकता है लेकिन ये सच है कि अब कुछ लेखकों द्वारा इस तरह के ‘जागरूकता अभियान’ भी चलाए जाने लगे हैं। हालाँकि अभी कुछ दिन पहले ये अपील 100 से ज्यादा फिल्ममेकर्स द्वारा भी की गई थी। लेकिन अब ये आवाज़ 200 लेखकों के बीच से उठी है। इन लेखकों में अरूंदती रॉय, अमिताव घोष, नयनतारा सहगल, टीएम कृष्णा जैसे बड़े नाम हैं।

आगामी लोकसभा चुनावों को मद्देनज़र रखते हुए सोमवार (अप्रैल 1, 2019) को 200 भारतीय लेखकों द्वारा इस अपील को अंग्रेजी, हिंदी, मराठी, गुजराती, उर्दू, बंग्ला, मलयालम, तमिल, कन्नड़, और तेलगु भाषाओं में निकाला गया। इस अपील में कहा गया कि ‘हेट पॉलिटिक्स’ को वोट आउट कर दिया जाए और ‘विभिन्न और समान भारत’ के लिए वोट किया जाए। हालाँकि इसमें ये कहीं भी स्पष्ट नहीं किया गया कि ‘विभिन्न और समान भारत’ को वोट करने से उनका अभिप्राय किस पार्टी को वोट देने से हैं। लेकिन हेट पॉलिटिक्स पर इस अपील में खुलकर बात हुई।

इस अपील में याद दिलाया गया कि हमारा संविधान नागरिकों को समान अधिकार देता है। चाहे फिर वो खाने का अधिकार को, इबादत का अधिकार हो, या फिर असहमति का अधिकार हो। लेखकों के इस गिरोह की यदि मानें तो पिछले कुछ वर्षों में समुदाय, जाति, लिंग और क्षेत्र विशेष के कारण नागरिकों के साथ मारपीट और भेदभाव हुआ है।

इनकी अपील के सार से अब तक आपको समझ आ चुका होगा कि लेखकों के इस विशेष समुदाय ने अपनी पूरी बात में सिर्फ़ भाजपा सरकार पर निशाना साधा है। और इनके द्वारा ऐसा किया भी क्यों न जाए, आखिर इनकी विचारधारा और भाजपा की विचारधारा में जमीन आसमान का फर्क़ है। कम से कम भाजपा अपने एजेंडे को लेकर क्लियर तो हैं, लेकिन इनकी चाल ही दो-मुँहे साँप जैसी है। इनका आरोप है कि आज अगर कोई सत्ता के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाता है तो उसे खतरा है कि कहीं वो झूठ और घटिया आरोपों में गिरफ्तार न कर लिया जाए।

इनका कहना है भारत को बाँटने के लिए नफरत की राजनीति यानि की हेट पॉलिटिक्स का इस्तेमाल किया गया है। वामपंथी विचारधारा से लबरेज़ लेखकों द्वारा हेट पॉलिटिक्स पर इस तरह की अपील थोड़ी हैरान करने से ज्यादा हास्यास्पद मालूम होती हैं। केरल जैसे राज्य में जहाँ इसी विचारधारा के लोगों का शासन है, वहाँ आए दिन भाजपा/ आरएसएस के कार्यकर्ताओं की निर्मम हत्याओं की खबरें आती हैं। तब वहाँ हेट पॉलिटिक्स पर लेक्चर देना किसी से भी संभव नहीं हो पाता और न ही कोई अपील हो पाती है। 2012 में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट बताती है कि केरल में सर्वाधिक 455.8 संज्ञेय अपराध दर्ज किए गए हैं। लेकिन फिर भी इनके लिए भाजपा ही हेट पॉलिटिक्स का पर्याय है।

इसके अलावा भाजपा नेतृत्व में महिलाओं, दलितों, अल्पसंख्यकों और आदिवासियों पर खतरे का हवाला देकर जनता से जिस तरह की अब अपील की जा रही हैं, उसको मद्देनज़र रखते हुए इन वामी गिरोह के लेखकों को याद दिलाना जरूरी है कि 2017 में नवभारत टाइम्स में छपी एक खबर के अनुसार पिछले एक दशक में केरल में बलात्कार के कुल 16,755 मामले सामने आए हैं। शायद अब ये संख्या और भी बढ़ गई है, लेकिन वहाँ की सरकार को वोट आउट करने की अपील एक भी बार इनमें से किसी भी बुद्धिजीवी से नहीं हुई क्योंकि वहाँ इन्हीं की विचारधारा का फैलाव है।

आज मंदिर जाने वाले लोगों पर, भगवा धारण करने वालों पर खूब सवाल उठाए जाते हैं। लेकिन केरल के चर्च में ननों के साथ होते उत्पीड़न पर एक टक चुप्पी साध ली जाती है। आखिर क्यों? शायद सिर्फ़ इसलिए क्योंकि तथाकथित सेकुलरों/कम्यूनिस्टों का प्रश्रय पाकर व्यक्ति किसी भी अपराध को करने के लिए उपयुक्त हो जाता है।

इन पर सवाल उठाने का मतलब आज प्रत्यक्ष रूप से सिर्फ़ लोकतंत्र पर खतरा बन चुका है। यदि आज आप सनातन धर्म को छोड़कर किसी भी धर्म का पालन करते हैं, तो आपको इस गिरोह का सहारा भी प्राप्त होगा और सहानुभूति भी, लेकिन वहीं अगर आप हिंदू धर्म पर अपनी निष्ठा दिखाते हैं। तब आप घोषित रूप से हेट पॉलिटिक्स का समर्थन करने वाला चेहरा बनकर उभरेंगे।

कॉन्ग्रेस के पतन के लिए पप्पू ने लगाया जोर: अखबार के शीर्षक पर बवाल, ‘अमूल बेबी’ अब भी प्रासंगिक

राजनीति के गलियारे में आरोप-प्रत्यारोप का दौर तो चलता ही रहता है, मगर चुनाव के समय ये कुछ ज्यादा ही देखने को मिलता है। अक्सर देखा गया है कि चुनावी समय में नेता लोग विपक्षी दल के नेताओं पर कुछ आरोप लगा देते हैं या फिर कोई विवादित बयान दे देते हैं। मगर जब से कॉन्ग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी ने अमेठी के साथ साथ-साथ केरल के वायनाड लोकसभा सीट से भी चुनाव लड़ने का ऐलान किया है, विपक्षी पार्टी भाजपा के साथ-साथ कॉन्ग्रेस के ‘अपने’ यानी कि वाम दल भी उनके खिलाफ हमलावर हो गए हैं। वाम दल के नेता भी राहुल गाँधी के इस फैसले से खफा हैं और उनके खिलाफ विवादित बयान दे रहे हैं।

बता दें कि केरल के पूर्व मुख्यमंत्री एवं कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेता वी एस अच्युतानंदन ने सोमवार (अप्रैल 1, 2019) को राहुल और कॉन्ग्रेस पर प्रहार करते हुए कहा कि उन्होंने पहले जो राहुल गाँधी को ‘अमूल बेबी’ कहा था, वह बात आज भी प्रासंगिक है। मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के संस्थापक सदस्यों में से एक 95 वर्षीय अच्युतानंदन ने अपनी एक फेसबुक पोस्ट में कहा कि अप्रैल 2011 में जब उन्होंने राहुल गाँधी को ‘अमूल बेबी’ कहा था, तो यह बेवजह नहीं था। राहुल ने राजनीति में जो बचपना दिखाया, उसकी वजह से उन्होंने ये बात कही थी और जब राहुल ने वायनाड से चुनाव लड़ने का फैसला किया है, तो उनकी बात आज भी सही ठहरती है। अच्युतानंद कहते हैं कि आज, जब राहुल अधेड़ उम्र के हो रहे हैं, तो भी उनका बचपना जारी है और वह भी ऐसे समय में जब देश भाजपा के रूप में सबसे बड़ी समस्या का सामना कर रहा है। इस समय जरूरत भाजपा से लड़ने की है।

‘सेकुलर’ दलों से हाथ मिलाने की बात कहने वाले राहुल गाँधी (जिनकी बात कॉन्ग्रेस में अंतिम मानी जाती है) ने दिल्ली में आम आदमी पार्टी से हाथ नहीं मिलाया। दक्षिण में राहुल ने वाम मोर्चा से ही लड़ने का फैसला ले लिया! ऐसे में अच्युतानंद का कहना है कि यह तो वैसे ही है जैसे किसी पेड़ की उस शाखा को काटना, जिस पर आप बैठे हैं। इसलिए उन्हें लगता है कि राहुल के बारे में उन्होंने जो सालों पहले ‘अमूल बेबी’ बोला था, वह आज भी वैसे ही लागू होता है।

वीएस अच्युतानंदन वाला बवाल अभी शांत भी नहीं हुआ था कि केरल से ही दूसरा बवाल खड़ा भी हो गया। वहाँ की सत्ताधारी सीपीएम के अखबार ‘देशाभिमानी’ में राहुल गाँधी को ‘पप्पू’ के नाम से प्रकाशित किए जाने को लेकर विवाद पैदा हो गया है। इस अखबार में ‘कॉन्ग्रेस के पतन के लिए पप्पू ने लगाया जोर’ शीर्षक से संपादकीय लिखा गया है। इसमें कहा गया है कि राहुल गाँधी ने उत्तर प्रदेश के अमेठी में हार के डर से वायनाड से चुनाव लड़ने का फैसला किया है।

अब नेताओं के बीच तो एक दूसरे को लेकर बयानबाजी चलती रहती है। राजनीति में तो ये सब एक आम बात है, मगर किसी अखबार का किसी राजनेता को लेकर इस तरह के विवादित शीर्षक ‘कॉन्ग्रेस के पतन के लिए पप्पू ने लगाया जोर’ लिखना कहाँ तक सही है? अखबार सूचनाएँ प्रदान करने का बहुत ही शक्तिशाली और प्रभावी संस्थान होता है, जो देश-समाज में घट रही घटनाओं की संपूर्ण व सटीक जानकारी देता है। ये अखबार के संपादक की जिम्मेदारी होती है कि अखबार में किसी तरह की कोई विवादित सामग्री का प्रकाशन न हो। अगर कोई नेता किसी के बारे में कुछ विवादित टिप्पणी करता है, तो ये उस नेता का निजी विचार होता है, इसलिए उस नेता की टिप्पणी को लेकर संपादकीय लिख देना संपादक के गैर-जिम्मेदराना रवैये को दर्शाता है।

हालाँकि, मामले को बढ़ता देख सीपीएम ने इसे संभालने की कोशिश करते हुए कहा कि असावधानी की वजह से यह भूल हुई है और अखबार के स्थानीय संपादक पीएम मनोज ने भी स्वीकार किया कि ये संदर्भ गलत था और असावधानी के कारण भूल हुई है। उन्होंने माना कि किसी राजनेता के प्रति गलत बात कहना उनकी राजनीति नहीं है और वो इसे आगे ठीक कर लेंगे।

धूर्त और मौकापरस्त हैं आलिया भट्ट की मम्मी… पाकिस्तान जाना चाहती हैं क्योंकि वहाँ का खाना अच्छा है

भारत में कुछ लोगों के भीतर पाकिस्तान के लिए अथाह ‘प्रेम’ समय-समय पर देखने को मिलता रहता है फिर चाहे दोनों देशों के मध्य परिस्थितियाँ कितनी ही गंभीर क्यों न हों। बीते दिनों पुलवामा हमले से बाद देश में पाकिस्तान को लेकर काफ़ी आक्रोश देखने को मिला। बच्चे-बच्चे के मन में पाकिस्तान के प्रति गुस्सा और नाराज़गी थी। ऐसे संवेदनशील माहौल में भी कुछ लोगों को देश की भावनाओं से तनिक भी फर्क़ नहीं पड़ा।

इस सूची में वैसे तो कई नाम हैं, जिन्होंने पाकिस्तान का समर्थन करके राष्ट्रभावना पर निशाना साधा। लेकिन हालिया नाम इसमें बॉलीवुड अदाकारा सोनी राज़दान का है। ‘सर’, ‘सड़क’ और ‘राजी’ जैसी फिल्मों में काम कर चुकीं सोनी राज़दान को आज भारत ने एक ऐसी पहचान दी है, जिसके बलबूते वो आए दिन विवादित बयान देकर चर्चा का विषय बन जाती हैं।

सोनी राज़दान की हाल ही में ‘नो फादर्स इन कश्मीर’ नाम की फिल्म आने वाली है। इसके प्रमोशन पर उन्होंने पाकिस्तान जाकर रहने तक की बात बोल डाली। सोनी राज़दान का कहना है कि जब भी वह कुछ बोलती हैं तो ट्रोल का हिस्सा बन जाती हैं। उन्हें देशद्रोही कहा जाता है। इसलिए कभी-कभी वह सोचती हैं कि उन्हें पाकिस्तान ही चले जाना चाहिए। वह वहाँ पर ज्यादा खुश रहेंगी। सोनी की मानें को पाकिस्तान का खाना भी बहुत अच्छा है।

सोनी राज़दान का इस दौरान यह भी कहना रहा कि वह अपनी मर्जी से पाकिस्तान में छुट्टियाँ भी मनाने जाएँगी। उनकी मानें तो उन्हें ट्रोलर्स के पाकिस्तान भेजने वाली बात से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता।

पाकिस्तान में सुकून-चैन और अच्छा खाना ढूँढने वाली सोनी रज़दान का यह बयान दर्शाता है कि उन्हें देश में क्या हो रहा है और देश में कैसी स्थितियाँ हैं, इससे कोई फर्क़ नहीं पड़ता। अपने पति महेश भट्ट की तरह उनका ज़हन भी पाक की नुमाइंदगी ही करता है।

इस बात में कोई दो-राय नहीं कि यदि वह देश और धर्म की भावनाओं के विरोध में जाकर बयानबाजी करेंगी तो ट्रोल का हिस्सा बनेंगी ही। इसके अलावा जरूरी है कि वह केवल छुट्टियाँ मनाने के लिहाज से ही नहीं बल्कि जीवन बिताने के लिहाज़ से भी पाकिस्तान में जाकर रहें। तभी शायद उन्हें इस बात का अंदाजा होगा कि जिस आतंक को पनाह देने वाली सरजमीं की तारीफों के वे पुलिंदे बाँध रही हैं, वो उन्हें कैसे इस तरह के विवादित बयान देने की छूट देता है।

मलाला जैसी तथाकथित प्रोग्रेसिव फेमिनिस्टों के उदाहरण हमारे सामने पहले ही आ चुके हैं, जिन्होंने पाकिस्तान का नागरिक होने के बावजूद भी पाकिस्तान में ‘हिंदू बहनों’ पर हुए अत्याचार पर सवाल तक नहीं उठाया। क्योंकि उन्हें मालूम था कि वहाँ पर पसरी मजहब और आतंक की कट्टरता उन्हें इसकी छूट नहीं देता है।

गलती सोनी राज़दान जैसे लोगों की नहीं है, गलती हमारे देश में निहित उदारता की है, जिसके कारण आज लोग आलोचना के नाम पर राष्ट्र भावना से खिलवाड़ करते हैं। यदि पाकिस्तान जैसा रवैया भारत में अपनाया जाता तो शायद इस तरह के बोल कभी भी बुलंद न हो पाते जो भारत में रहकर पाकिस्तान में खुशी को ढूँढते फिरते हैं। लेकिन हमारा देश सहिष्णु है और आगे की सोचता है। पाकिस्तान तो अपनी मौत खुद मरेगा – यह बात प्रधानमंत्री मोदी भी कह ही चुके हैं। तो हम वैसे तुच्छ देश की मानसिकता पर गौर ही क्यों करें! गौर तो सोनी राज़दान को करना चाहिए अपने शब्दों पर लेकिन…

जरा गौर कीजिए सोनी राज़दान के शब्दों को, जो उन्होंने अपने बयान में कहा, “मैं भारत के पूरी तरह हिंदू देश बनने के खिलाफ हूं। पाकिस्तान में मिला जुला कल्चर नहीं है, इसी वजह वह बेहतर देश नहीं बन सका।” अरे मैडम! जब वो बेहतर देश नहीं है तो वहाँ क्या घास छिलने जाएँगी आप? और सवाल यह भी कि अगर चली जाती हैं (जिसकी संभावना कम है, क्योंकि आप धूर्त हैं, मौकापरस्त हैं) तो क्या ऐसी ही बातें पाकिस्तान की बहुसंख्यक आबादी वाले समुदाय के बारे में बोल सकती हैं?

कॉन्ग्रेस का ‘हिन्दू आतंकवाद’ और बेशर्म राजदीप: PM मोदी के बयान से किया खिलवाड़, लोगों ने लगाई लताड़

राजदीप सरदेसाई ने एक बार फिर से अपना मोदी विरोधी रवैया दिखाया और वो भी झूठ के सहारे। प्रोपेगेंडा परस्त पत्रकारिता के पर्याय माने जाने वाले राजदीप ने पीएम मोदी के ‘हिन्दू आतंकवाद’ पर दिए गए बयान को ट्विटर पर न सिर्फ़ गलत तरीके से पेश किया बल्कि जनता को भी बरगलाने की कोशिश की। वैसे तो अपने अन्य वामपंथी झुकाव वाले पत्रकार साथियों की तरह राजदीप भी 2002 से ही नरेंद्र मोदी के विरोध में दुष्प्रचार चलाने में व्यस्त हैं लेकिन 2014 में मोदी के पीएम बनने के बाद उन्हें कुछ ज्यादा ही मिर्ची लगी हुई है। मोदी के शब्दों को अपने हिसाब से कुटिल ट्विस्ट देकर पेश करने वाले राजदीप के लिए यह सब नया नहीं है।

राजदीप सरदेसाई ने फैलाया झूठ

इस से पहले की हम राजदीप के करतूतों की चर्चा करें, ज़रूरी है कि हम यह जानें कि पीएम मोदी ने वास्तव में क्या कहा था? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महाराष्ट्र में एक विशाल जनसभा को सम्बोधित करते हुए कॉन्ग्रेस शासन काल में उछाले गए ‘हिन्दू आतंकवाद’ को लेकर पार्टी पर निशाना साधा। प्रधानमंत्री ने लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान वर्धा में आयोजित रैली में ये बातें कहीं। पीएम ने कॉन्ग्रेस पर निशाना साधते हुए कहा:

“वोट-बैंक की राजनीति के लिए एनसीपी और कॉन्ग्रेस किसी भी हद तक जा सकती हैं। इस देश के करोड़ों लोगों पर हिंदू आंतकवाद का दाग लगाने का प्रयास कॉन्ग्रेस ने ही किया है। सुशील कुमार शिंदे जब भारत सरकार में मंत्री थे, तो उन्होंने इसी महाराष्ट्र की धरती से हिंदू आतंकवाद की चर्चा की थी। कुछ दिन पहले कोर्ट का फैसला आया है और इस फैसले से कॉन्ग्रेस की साज़िश की सच्चाई देश के सामने आई है।”

“कॉन्ग्रेस ने हिन्दुओं का जो अपमान किया है, कोटि-कोटि जनता को दुनिया के सामने नीचा दिखाने का जो पाप किया है, ऐसी कॉन्ग्रेस को माफ़ नहीं किया जा सकता है। आप मुझे बताइए, जब आपने हिन्दू आतंकवाद शब्द सुना तो आपको गहरी चोट पहुँची थी कि नहीं। हज़ारों साल के इतिहास में हिन्दू कभी आतंकवाद करे, ऐसी एक भी घटना नहीं है। अंग्रेजी इतिहासकारों ने भी कभी ‘हिन्दू हिंसक हो सकता है’ इस बात का जिक्र तक नहीं किया।”

राजदीप सरदेसाई ने इस सीधे बयान को ग़लत तरीके से पेश करते हुए कहा कि पीएम ‘हम बनाम वो’ की बात कर रहे हैं। ज़ाहिर है, राजदीप का कुटिल इरादा दो सम्प्रदायों के बीच वैमनस्य को बढ़ावा देना था। राजदीप ने अपने ट्वीट में पीएम के बयान को कुछ इस तरह पेश किया, “राहुल गाँधी ने उस क्षेत्र से चुनाव लड़ने की हिम्मत नहीं की जहाँ ‘हम’ बहुमत में हैं, उन्होंने उस क्षेत्र को चुना जहाँ ‘हम’ अल्पसंख्यक हैं।” जबकि पीएम ने ऐसा कुछ कहा भी नहीं था। पीएम मोदी अक्सर ‘सबका साथ, सबका विकास’ की बातें करते हैं। उन्होंने अपनी कई सभाओं में कहा है कि इस सरकार में उनका भी उतना ही हक़ है, जिन्होंने राजग को वोट नहीं दिया था।

राजदीप ने ‘हम’ को जिस तरह से कोट के अंदर लिखा, उस से साफ पता चलता है कि वो मोदी की छवि कट्टरवादी और मुस्लिम विरोधी पेश करना चाह रहे थे। लेकिन सही समय पर लोगों ने सोशल मीडिया पर उनकी इस करतूत को पकड़ा और उन्हें जमकर लताड़ लगाई। असल में पीएम ने कॉन्ग्रेस पर भारत की पाँच हज़ार वर्ष से भी पुरानी संस्कृति का अपमान करने का आरोप लगाया। साथ ही उन्होंने कॉन्ग्रेस के इस ‘पाप’ की याद दिलाते हुए जनता से यह याद रखने को कहा कि ‘हिन्दू आतंकवाद’ जैसे शब्दों को किसने उछाला था? पीएम ने कहा कि कॉन्ग्रेस ने जिसे आतंकी कहा, वो शांतिप्रिय समाज अब जाग चुका है। उन्होंने ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ का जिक्र करते हुए कहा कि कॉन्ग्रेस ने पूरे विश्व को परिवार मानने वाले समाज को आतंकवादी बताया।

असल में प्रधानमंत्री मोदी ने कॉन्ग्रेस के ही दावों पर उसे घेरा। एक कॉन्ग्रेस नेता ने ही साफ़-साफ़ कहा था कि राहुल गाँधी के वायनाड से चुनाव लड़ने के पीछे वहाँ हिन्दुओं का ‘अल्पसंख्यक’ होना है। ख़ुद कॉंग्रेस के नेता ऐसे बयान दे रहे हैं। जबकि प्रधानमंत्री ने तो बस इतना पूछा कि आख़िर जब हिन्दुओं को आतंकवादी करार देने वाली कॉन्ग्रेस को अदालत से भी झटका मिल चुका है, तो ऐसे में राहुल के पास हिन्दू बहुल इलाक़े से लड़ने की हिम्मत क्यों नहीं है? राजदीप द्वारा सोशल मीडिया पर लोगों को निरक्षर समझ कर ऐसी हरकतें की जाती हैं लेकिन अब जागरूक लोग उन्हें सच्चाई का एहसास कराने में देर नहीं लगाते।

कैश में तमिलनाडु टॉप पर, शराब के मामले में महाराष्ट्र सबसे आगे: EC ने बिगाड़ दिया ‘काम’

आम चुनाव आने वाला है और आदर्श आचार संहिता भी लागू हो चुकी है। ऐसे में, चुनाव आयोग भी नियम-क़ानून के पालन के लिए सक्रिय नज़र आ रहा है। अब तक हुए छापों में कई राज्यों से कुल मिलकर ₹1400 करोड़ रुपए से भी अधिक की सामग्रियाँ ज़ब्त की गई हैं। संदिग्ध नकदी, अवैध शराब और नशीली दवाएँ सहित कई ऐसी चीजें भारी मात्रा में ज़ब्त की जा चुकी है, जो चुनाव के दौरान ग़लत तरीके से प्रयोग किए जाने वाले थे। वोटरों को प्रलोभन देने की ख़ातिर प्रयोग की जाने वाली इन सामग्रियों की सबसे बड़ी मात्रा गुजरात में ज़ब्त की गई। कुल ₹509 करोड़ की चीजें राज्य में ज़ब्त की गई, किसी भी राज्य से ज्यादा।

विभिन्न राज्यों में चुनाव आयोग द्वारा ज़ब्त की गई संपत्तियों और सामग्रियों में से सिर्फ कैश की बात करें तो 108.75 करोड़ रुपए के साथ तमिलनाडु सबसे ऊपर है। दूसरे स्थान पर 95.79 करोड़ रुपए के साथ आंध्र प्रदेश है। ज़ब्त हुए शराब की मात्रा के मामले में 18.07 लाख लीटर के साथ महाराष्ट्र टॉप पर है। इसके बाद 11.26 लाख लीटर के साथ यूपी का नंबर आता है। जबकि कीमत के मामले में 31.98 करोड़ रुपए की शराब के साथ यूपी टॉप पर है और 13.64 करोड़ की शराब के साथ महाराष्ट्र का नंबर बहुत नीचे है। मतलब महाराष्ट्र में पकड़ी गई शराब सस्ती है।

किस राज्य से कितनी मात्रा में और कितने मूल्य की सामग्रियाँ ज़ब्त की गई

हाल ही में गुजरात तट से 100 किलोग्राम वजन वाला मादक पदार्थ ज़ब्त किया गया, जिसकी क़ीमत ₹500 करोड़ के क़रीब बताई जाती है। आदर्श आचार संहिता लागू होने के बाद राज्य में यह सबसे बड़ी ज़ब्ती है। इसी तरह से दक्षिण भारतीय राज्य तमिलनाडु में भी ₹208.55 करोड़ की सामग्रियाँ ज़ब्त की गई। इनका प्रयोग मतदाताओं को प्रोभन देने के लिए किया जाने वाला था। आज जब पार्टियाँ जीतने पर किसी न किसी रूप में लोगों को पैसे देने की बात करती हैं, इस कारण चुनाव पूर्व प्रलोभन देने का चलन भी बढ़ा है। ऐसे में, वोटरों को अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए उन्हें मुफ़्त में चीजें वितरित की जाती है, जो आचार संहिता के विरुद्ध है।

इसी तरह से आंध्र प्रदेश में ₹158.61 करोड़, पंजाब में ₹144.39 करोड़ और उत्तर प्रदेश में ₹135.13 करोड़ मूल्य की सामग्रियों की ज़ब्ती की गई। चुनाव आयोग के एक अधिकारी ने बताया कि एक अप्रैल तक कुल ₹1,460.02 करोड़ के सामान की जब्ती हो चुकी है। चुनाव आयोग ने ऐसे कई अधिकारी और टीमें तैनात की है, जो उम्मीदवारों के ख़र्च पर नज़र रख रही है। ऐसे सैकड़ों अधिकारी चुनाव के दौरान कालाधन या अवैध धन के प्रवाह पर नज़र रखे हुए हैं। मोबाइल सर्विलांस टीमें भी तैनीत की गई है, जो त्वरित एक्शन लेते हुए कार्य करती हैं।

उमर अब्दुल्ला ने की कश्मीर के लिए अलग PM की माँग, मोदी ने विपक्ष से पूछा ‘आप सहमत हो?’

जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने देश में दो प्रधानमंत्रियों की माँग की है। एक जम्मू कश्मीर के लिए और एक शेष भारत के लिए। उमर अब्दुल्ला के इस बयान के बाद सियासी बवाल खड़ा हो गया और इसमें सबसे बड़ा मोड़ तब आया जब ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस पर कड़ी प्रतिक्रया दी। उमर अब्दुल्ला ने एक रैली को सम्बोधित करते हुए कहा कि वो वज़ीर-ए-आज़म और वज़ीर-ए-सदर वाली पुरानी व्यवस्था फिर से लागू करेंगे।

उमर अब्दुल्ला ने जनसभा को सम्बोधित करते हुए कहा:

“आज हमारे ऊपर तरह-तरह के हमले हो रहे हैं। हमारे ख़िलाफ़ कई तरह की साज़िशें हो रही हैं। कई ताक़तें लगी हुई हैं जम्मू-कश्मीर की पहचान मिटाने के लिए। कल की बात है जब अमित शाह साहब ने किसी इंटरव्यू में कहा कि हम 2020 तक जम्मू-कश्मीर से 35ए को खत्म कर देंगे। जम्मू-कश्मीर बाकी रियासतों की तरह नहीं है। बाकी रियासतें बिना शर्त रखे हिंदुस्तान में मिल गईं, लेकिन हमने शर्त रखी और मुफ़्त में नहीं आए। हम बिना शर्त मुल्क़ में नहीं आए। हमने अपनी पहचान बनाए रखने के लिए आईन (संविधान) में कुछ चीजें दर्ज कराईं और कहा कि हमारा संविधान और झंडा अपना होगा। उस वक्त हमनें अपना सदर-ए-रियासत और वजीर-ए-आजम भी रखा था, अब हम उसे भी वापस ले आएँगे।”

इस पर कड़ी प्रतिक्रया देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विपक्ष से पूछा कि क्या वे उमर अब्दुल्ला के बयानों से सहमत हैं? उन्होंने ,पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री शरद पवार और पूर्व मुख्यमंत्री एचडी देवेगौड़ा से पूछा कि क्या वो सभी अब्दुल्ला के इस बयान से सहमत हैं? दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केरीवाल का बिना नाम लिए मोदी ने पूछा कि क्या यू-टर्न बाबू अब्दुल्ला के इस बयान से सहमत हैं? उन्होंने विपक्ष को बेशर्म बताते हुए कहा कि जब तक मोदी यहाँ पर है, तब तक कोई भी भारत को विभाजित भी नहीं सकता।

https://platform.twitter.com/widgets.js

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस कड़ी प्रतिक्रिया के बाद सोशल मीडिया पर भी लोगों ने उमर अब्दुल्ला को घेरा और उन पर भारत को विभाजित करने के स्वप्न देखने का आरोप लगाया। बता दें कि हाल ही में जम्मू कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती ने भी आर्टिकल 35A को लेकर कुछ ऐसा ही विवादित बयान दिया था। उन्होंने केंद्र सरकार को धमकी भरे अंदाज में कहा था कि अगर इस आर्टिकल से छेड़छाड़ की गई तो देश वो देखेगा जो उसने कभी नहीं देखा। साथ ही उन्होंने कहा था कि उसके बाद कश्मीर के लोग तिरंगा छोड़कर कौन सा झंडा उठाएँगे, उन्हें नहीं पता।

उमर अब्दुल्ला ने पीएम की प्रक्रिया के बावजूद अपने स्टैंड पर कायम रहने की बात कहते हुए विपक्ष से बिना उनका समर्थन किए पीएम मोदी की आलोचना करने की अपील की। उन्होंने पीएम के उस वीडियो को रीट्वीट भी किया, जिसमे उन्होंने अब्दुल्ला को खरी-खरी सुनाया था। केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भी कश्मीर की दोनों नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी को ऐसे बयानों के लिए निशाने पर लेते हुए आर्टिकल 35A की प्रासंगिकता पर सवाल उठाए। बता दें कि जेटली इसे लेकर एक विस्तृत ब्लॉग भी लिख चुके हैं।

Make In India का कमाल, एक वर्ष में हुआ 6000 से भी अधिक रेलवे कोच का निर्माण

मेक इन इंडिया के अंतर्गत रेलवे कोच बनाने में भी भारत का मैन्युफैक्चरिंग उद्योग आसमान छू रहा है। रेलवे की इंडियन कोच फैक्ट्री (ICF), मॉडर्न कोच फैक्ट्री (MCF) और रेल कोच फैक्ट्री (RCF) ने मिलकर वित्त वर्ष 2018-19 में रिकॉर्ड संख्या में रेलवे कोच का निर्माण किया है। इस वर्ष कुल 6037 कोच बनाए गए, जो पिछले वित्त वर्ष में बनाए गए 4470 कोच की संख्या से कुल 35% ज्यादा है। पिछले वर्ष भी रिकॉर्ड कोच का निर्माण किया गया था। इस बार भारतीय रेलवे ने अपने उस रिकॉर्ड को ध्वस्त कर दिया है।

चेन्नई स्थित इंडियन कोच फैक्ट्री ने तो कोच बनाने के मामले में चीन को भी पीछे छोड़ दिया है। ये अब विश्व के सबसे बड़े रेलकार निर्माताओं में से एक बन गया है। इसने चीन के अग्रणी रेलकोच निर्माताओं को पीछे छोड़ते हुए इस बार इस वर्ष 2600 से भी अधिक रेलवे कोच का निर्माण किया। आपको बता दें कि ये सब रिकार्ड्स तब हासिल किए गए हैं जब रेलवे कई तरह की मुश्किलों का सामना कर रहा है और उसे कई अन्य तरह के कोच भी बनाने पड़ रहे हैं। उदाहरण के तौर पर वन्दे भारत एक्सप्रेस सहित अन्य आधुनिक तीनों के लिए अलग तरह के कोच बनाए जाते हैं।

रायबरेली स्थित मॉडर्न कोच फैक्ट्री ने भी इस वित्त वर्ष 1425 कोच का निर्माण कर एक नया रिकॉर्ड सेट किया। इस तरह से उसने लक्ष्य से ज्यादा कोच का निर्माण किया। पिछले वित्त वर्ष 2017-18 में भी फैक्ट्री ने 710 कोच बनाने का लक्ष्य रखा था लेकिन वर्षांत तक उसने उस से एक ज्यादा कोच का निर्माण किया। इस वर्ष 1422 कोच बनाने का टारगेट रखा गया था लेकिन फैक्ट्री ने उस से 3 अधिक कोच बना कर अपनी उत्पादन क्षमता से सबको प्रभावित किया। एमसीएफ ने एसी पैंट्री (हॉट बफेट) कार, अंडर स्लंग पॉवर कार, नॉन-एसी चेयर कार, आरडीएसओ (Research Designs and Standards Organisation, RDSO) के लिए ट्रैक रिकॉर्डिंग कार सहित विभिन्न प्रकार के रेलवे कोच का निर्माण किया।

इस तरह से एमसीएफ ने न सिर्फ़ ज्यादा संख्या में कोच बनाए बल्कि कई वैरायटी के भी कोच बनाए। न सिर्फ़ राष्ट्रीय बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्टार पर भी रायबरेली का एमसीएफ रेलवे कोच निर्माण के मामलों में नए मापदंडों को छू रहा है। ख़बर आई थी कि इस वर्ष अकेले जनवरी महीने में एमसीएफ ने 152 Linke Hofmann Busch (LHB) कोच का निर्माण किया। ये फैक्ट्री के लिए अब तक का सर्वाधिक उत्पादन है। इन आँकड़ों को देखकर अंदाजा लगाया जा रहा है कि वित्त वर्ष 2019-20 में ये रिकॉर्ड भी टूट जाएगा और इस से कहीं अधिक रेलवे कोच का निर्माण होगा।

70000 ‘बेचारे शांतिदूत’ असम से उड़नछू, पत्रकारिता का समुदाय विशेष अब देगा जवाब?

असम में जब एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर) का पहला ड्राफ्ट जारी हुआ तो भावनाओं और सहानुभूति का ऐसा सैलाब उमड़ा कि लगा मानों असम की सारी नदियों को मिलाकर भी उतना पानी नहीं होगा, जितना वामपंथी-(छद्म) उदारवादी गिरोह की आँखों से बह रहा था।

बात ही कुछ ऐसी थी- 40 लाख “यूनेस्को-सर्टिफाइड सबसे शांतिप्रिय मज़हब” के बाशिंदों को दरिंदे मोदी ने दरबदर करने की साजिश की थी! और संयुक्त राष्ट्र भी चुप बैठा था!! इसीलिए मजबूरन पत्रकारिता के समुदाय विशेष को रुदाली की तलवार भाँजते हुए फासिस्टों से लड़ना पड़ा…

इस दारुण कथा को जरा फ़ास्ट-फॉरवर्ड कर 2019 में आते हैं जहाँ असम सरकार सुप्रीम कोर्ट को यह बता रही है कि उनमें से 70,000 लोग उसे गच्चा देकर गायब हो चुके हैं, और सरकार उन्हें तलाश नहीं पा रही है- और यह संख्या आधी-अधूरी ही है क्योंकि यह जिस शपथ पत्र से आई है, उसे सुप्रीम कोर्ट ने नाकाफी और कोरम पूरा करने वाला बताया है।

(एक वाक्य में मामला यह है कि कोर्ट ने असम सरकार से पूछा था कि अब तक उसने कितने घुसपैठियों को पहचान कर निर्वासित कर दिया है। जवाब में सरकार ने आधा-तिहा शपथ पत्र दिया, जिसमें एक बात इन 70,000 के लापता होने की भी है।)

अब जरा सोचिए- 70,000 की संख्या अपने आप में डरावनी है, और सुप्रीम कोर्ट ने इसे अधूरा माना है। तो असली संख्या क्या होगी? 40 लाख लोगों को एनआरसी मामले में अपनी नागरिकता साबित करने की नोटिस जारी हुई थी। उनमें से 15% को भी मान लें तो यह संख्या है 6 लाख। आधा भी कर दें तो 3 लाख। और जरा कम कर दें तो 2 से 2.5 लाख।

2 से 2.5 लाख जो इस देश के नागरिक नहीं हैं, जिनकी इस देश में शुरुआत ही एक अपराध (घुसपैठ) से हुई, और जो चेन छिनैती और एटीएम डकैती से लेकर 1993 के बम धमाके और कश्मीर में पत्थरबाजी या दंतेवाड़ा की तरह सैनिकों की बस पर घात लगाकर हमला तक चाहे जो गुनाह करें, उन्हें मौका-ए-वारदात पर पकड़ने के अलावा उनकी कोई पहचान नहीं हो सकती।

कितना गंभीर है यह खतरा

2 से 2.5 लाख लोग जिन्हें पता है कि इस देश में उनकी कोई पक्की पहचान नहीं है और इसलिए वे जो चाहें करने के लिए स्वतंत्र हैं बशर्ते बस वे मौका-ए-वारदात पर पकड़े जाने से बच निकलें। इस वाक्य को बार-बार, तब तक पढ़िए जब तक इसका पूरा भावार्थ आपकी कनपटी की नसों में टपकन न बन जाए

आप कह सकते हैं कि क्या सबूत है कि वह ऐसा करेंगे ही। बिलकुल कहिए- और सबूत भी देखिए। इस लिंक पर जाइए। 1974 में एक महिला परफॉरमेंस आर्टिस्ट ने स्टूडियो के कमरे में खड़े होकर यह घोषणा की कि अगले 6 घंटे तक आगंतुक उसके शरीर के साथ कुछ भी कर सकते हैं- वह क़ानूनी कार्रवाई नही करेंगी। और लोगों ने जो-जो किया, वह यहाँ लिखा नहीं जा सकता- आप खुद पढ़ लीजिए। नहीं पढ़ना चाहते तो 6 घंटे बाद के उसके अनुभव यह थे, “मैं बलात्कृत महसूस कर रही हूँ, लोगों ने मेरे कपड़े फाड़ दिए, शरीर में गुलाब के काँटे घोंपे, सर पर बन्दूक तानी…”

कहने का तात्पर्य है कि कानून का डर ही है, जिससे इंसान के अंदर बैठे जानवर को क़ाबू में किया जा सकता है। जब कोई गुनाह करता है तो वो क़ानून का डर ही होता है जो उसे हर पल सताता है कि न जाने कब उसके दरवाज़े पर दस्तक होगी और पुलिस उसे पकड़ कर ले जाएगी। गुनहगार को पकड़ने की क़वायद में उसके सभी दस्तावेज़ों की खोजबीन शुरू हो जाती और अंतत: क़ानून के हाथ दोषी के गिरेबान तक पहुँच ही जाते हैं।

उस महिला कलाकार ने यही डर हटा कर देखा तो लोगों ने उसकी दुर्गति कर दी। और यही डर उन 70,000/ 2.5 लाख लोगों में से शायद अब ख़त्म हो चुका होगा।

इन लोगों के हिमायती लेंगे इनके गुनाह की जिम्मेदारी?

वापस आते हैं पत्रकारिता के समुदाय विशेष पर। इसलिए कि यही सोशल मीडिया से लेकर सड़क तक इस समूह के अधिवक्ता बन जाते हैं। और इसलिए बन जाते हैं क्योंकि यह घुसपैठिए ‘समुदाय विशेष’ से होते हैं।

अपनी “पर्सनल स्पेस”, “माह लाइफ, माह चॉइस” का गाना गाने वालों को रोहिंग्याओं और बंगलादेशियों के इस देश की “boundary violation” में कोई खोट नहीं दिखता, और अगर गलती से कभी कोई सरकार कहीं से जूते खाकर आए कुछ हिन्दुओं की ओर नागरिकता का राग गाए तो उसमें ‘थाम्पलदयिकता फैल लई ऐ’ का खटराग बजाने का मुहूर्त दिख जाता है

‘बेचारे रोहिंग्या’ का narrative बुनने वाले ‘विद्वज्जन’ इन 2.5 लाख ‘अदृश्य’ अवैध अप्रवासियों के द्वारा अगर कोई गुनाह किया जाता है तो उसकी गठरी अपने सर बाँधेंगे?

यह बिलकुल संभव है कि सारे-के-सारे 2.5 लाख /70,000 गायब अप्रवासी आपराधिक न हों- हो सकता है 10 से भी कम अपराधी हों।

पर अगर 5 अपराधी भी कानून से केवल इसलिए बच निकलें कि अपने राजनीतिक आकाओं के वोट बैंक को खाद-पानी देने के लिए उन्हें संरक्षण दिया गया तो यह कहाँ का न्याय है? या शायद ‘समुदाय विशेष’ (चाहे वह पत्रकारिता का हो या समाज का) के अन्याय अन्याय नहीं, अल्लाह का प्रसाद हैं जिन्हें श्रद्धा-भक्ति से ग्रहण कर लेना हिन्दू समाज की नियति है…