Sunday, September 29, 2024
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अभिजित बनर्जी का ‘टैक्स बढ़ाएँगे’ बयान राहुल गाँधी की कमज़ोर नेतृत्व क्षमता दर्शाता है

कॉन्ग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी प्रधानमंत्री मोदी पर जिन आरोपों को सबसे ज्यादा लगाते हैं (राफेल और ‘गुण्डे’ हिन्दूवाद के सरासर झूठ के बाद), उनमें से एक सत्ता का केन्द्रीकरण है। उनके अनुसार मोदी सरकार में एक आदमी का ‘आई, मी, माइसेल्फ़’ है और वह हैं ख़ुद मोदी। उनके नए ‘चचा’ अरुण शौरी भी मोदी को आत्ममुग्ध (narcissistic) कहते हैं। इसी तरह अमित शाह को भी माइक्रोमैनेजमेंट के नाम पर तानाशाही फ़ैलाने और वन-मैन-शो के रूप में पार्टी चलाने का आरोप लगता रहा है।

आत्ममुग्धता और तानाशाही का जवाब तो मोदी-शाह ही देंगे, पर इस तथ्य में सच्चाई है कि मोदी-शाह बहुत सारे उत्तरदायित्व (और उन उत्तरदायित्वों से जुड़े अधिकार) अपने हाथ में रखते हैं- यह नेतृत्व करने का एक तरीका होता है, केन्द्रीयकृत तरीका, जहाँ प्रमुख नेता सबसे ज़रूरी कार्यों को अपने हाथ में रखता है।

दूसरा तरीका होता है नियुक्तिकरण (delegation of work)- जहाँ आप अलग-अलग लोगों को उनकी क्षमता और कार्य की आवश्यकता के हिसाब से नियुक्त कर देते हैं और आप एक फ़ासले से नज़र रखते हैं।

इन दोनों में से आप अपनी आवश्यकता के हिसाब से कोई भी एक तरीका पकड़ सकते हैं, कोई बुराई नहीं। पर यह तय है कि यदि आप एक कोई तरीका पकड़ने को किसी के ख़िलाफ़ चुनावी मुद्दा बना देंगे तो आप को इसका जवाब तो देना होगा कि वैकल्पिक तरीके में आप कितने पारंगत हैं।

बयान अभिजित का भले था, पर गलती राहुल गाँधी की थी

मैंने सोशल मीडिया पर देखा कि राजनीतिक टिप्पणीकार और डीयू के शिक्षक अभिनव प्रकाश ने लिखा था ‘(विशुद्ध) अकादमीशियन को टीवी डिबेट में नहीं भेजना चाहिए… अभिजित बनर्जी के बयान ने यह साबित कर दिया…’

मामला यह था कि टाइम्स नाउ के टीवी डिबेट में अभिजित यह सीधे-सीधे बोल आए कि राहुल गाँधी की चर्चित स्कीम ‘न्याय’ तभी लागू हो सकती है, जब मौजूदा करों की दरें बढ़ा दी जाएँ। उन्होंने महंगाई टैक्स को भी वापस लाने की वकालत कर दी। अभिनव प्रकाश के अनुसार लोगों ने उसमें से यह अर्थ निकाला कि यदि कॉन्ग्रेस वापस आई तो टैक्स बढ़ जाएँगे, और लोगों का यह सोचना कॉन्ग्रेस के लिए घातक साबित हो सकता है।

एक मिनट के लिए इस स्कीम के ख़ुद के फायदे-नुक़सान को भूलकर केवल इस बयान को देने के अभिजित के कृत्य के बारे में सोचिए। चुनाव के बीचों-बीच मध्यवर्ग की बदहाली के लिए अपने विरोधी को जिम्मदार ठहरा रही पार्टी की योजना का बचाव कर रहा इन्सान यह कहता है कि उसके नेता की सरकार आई तो मध्यम वर्ग पर और ज्यादा टैक्स लगाकर उससे ‘रेवड़ियाँ’ बाँटी जाएंगी!!

अभिजित बनर्जी की इस ‘गलती’ के लिए उन्हें नहीं, राहुल गाँधी को जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। एक नेता के लिए यह जानना बेहद ज़रूरी है कि उसकी टीम में कौन सा व्यक्ति किस कम के लिए सही है। जितना मैंने अभिजित बनर्जी के बारे में देखा-सुना-पढ़ा, उसके हिसाब से वह कॉन्ग्रेस को वामपंथी रेवड़ी-नॉमिक्स राह पर सलाह देने के लिए तो सही व्यक्ति थे, पर राजनीतिक रूप से टीवी डिबेट में उसका बचाव करने के लिए नहीं।

वह तो कॉन्ग्रेस के शायद आधिकारिक सदस्य भी नहीं हैं। एक सलाहकार ( consultant) को राहुल गाँधी ने चुनावी सरगर्मी के बीच इतनी विवादास्पद स्कीम के बचाव के लिए भेज दिया? बिना यह सोचे-समझे कि अभिजित बनर्जी को राजनीति का न इतना अनुभव होगा न ज्ञान कि वह जनता के बीच स्वीकार्य रूप से कॉन्ग्रेस की बता रख पाएँ?

राहुल गाँधी का अभिजित बनर्जी को भेजना न केवल यह दिखाता है कि उनमें महत्वपूर्ण नेतृत्व गुण ‘नियुक्तिकरण’ (delegtation skills) का अभाव है बल्कि यह भी दिखाता है कि या तो कॉन्ग्रेस में इस स्कीम का बचाव करने के लिए राजनीतिक रूप से कुशल लोग ही नहीं मिल रहे, और अगर मिल रहे हैं तो राहुल गाँधी शायद अपनी और कॉन्ग्रेस की स्थिति की गंभीरता को इतना समझ नहीं पा रहे हैं कि उन लोगों को मैदान में उतारें।

नियुक्ति करनी आपको आती नहीं, केन्द्रीकरण से आपको दिक्कत है

इसके अलावा एक सवाल राहुल गाँधी से किसी को भी पूछना चाहिए कि अगर सही लोगों की सही नियुक्ति करना आपको आ नहीं रहा है, और मोदी-शाह के सब काम खुद करने से आपको समस्या है तो देश चले कैसे? किसी न किसी को कम तो करना पड़ेगा न?

या वह इस देश को फिर से 10 साल के उसी पक्षाघात (paralysis) में झोंक देना चाहते हैं जहाँ उनके रक्षा मंत्री एंटनी को जब सही निर्णय लेना नहीं आता था तो वे पद छोड़ने की बजाय फाइलें दबा कर बैठे रहे और उनकी अकर्मण्य ईमानदारी की शेखी कॉन्ग्रेस बघारती रही?

लोकतंत्र का लहसुन: रावण से रा.टू होने तक मायावती का मनुवादी होना ज़रूरी है

मनुस्मृति उन लोगों ने तो बिल्कुल ही नहीं पढ़ी है जो A4 साइज पेपर पर मनुस्मृति लिखवा कर, मोटे काले बॉर्डर में प्रिंट लेकर, किसी भी किताब की जिल्द पर चिपका देते हैं, और उसमें आग लगा देते हैं। पढ़ना तो छोड़िए, एक सर्वेक्षण करा लिया जाए कि कितने घरों में यह किताब है जिसके नाम पर इस ‘वाद’ का मवाद बह रहा है, तो पता चलेगा कि यह ग्रंथ न तो प्रचलन में, न ही लोग इसके हिसाब से चलते हैं। 

साथ ही, स्मृति होने के कारण, और इस्लामी आतंकियों के पूर्वजों, यानी इस्लामी आक्रांताओं, द्वारा हमारी संस्कृति के निशान मिटाने हेतु तमाम पुस्तकालयों, ग्रंथागारों में आग लगाने के बाद, जो बचा है उसमें से दर्जनों श्लोक गायब हैं। दूसरी बात यह भी है कि लोग श्लोक वाले महाकाव्य, शास्त्र या ग्रंथों के श्लोकों को पढ़ते या समझते वक्त सबसे बड़ी गलती यह करते हैं कि उसके ऊपर और नीचे के श्लोकों से संदर्भ हटा कर, उसे सिर्फ एक श्लोक के तौर पर देखते हैं। 

यह बात एक सामान्य बुद्धि का व्यक्ति जानता है कि ‘रॉबर्ट ने चाकू उठा लिया, और गुस्ताव की तरफ देखने लगा’ में रॉबर्ट एक दरिंदा ही नजर आएगा, जबकि उससे पहले की दो लाइनों में गुस्ताव ने चाकू निकाल कर रॉबर्ट पर हमला करने की कोशिश की थी, और चाकू नीचे गिर गया था, जिसे रॉबर्ट ने आत्मरक्षा के लिए उठाया। इसके बाद पता चले कि फिल्म की शूटिंग चल रही थी। इसीलिए, संदर्भ बहुत ज़रूरी होते हैं। इसीलिए, जब भी आप पर कोई मनुस्मृति की बातें कहे तो श्लोक माँगिए, पन्ने माँगिए, उससे ऊपर और नीचे के संदर्भ माँगिए, उस समय के समाज का ब्यौरा माँगिए, उस समय किसका राज्य था यह माँगिए, और इन सारी चीज़ों के संदर्भ में श्लोक को समझने की कोशिश कीजिए। 

रावण, मायावती और लालू से लेकर अखिलेश और तमाम लाल सलाम वाले लम्पट पार्टियों तक, संदर्भ हटा दिया जाता है, कल्पना को सत्य की तरह इतनी बार बोला जाता है, बुद्धिजीवियों से इतनी बार बुलवाया जाता है कि आम जनता बिना शोध किए, बिना मेहनत किए, उसे सच मानकर अप्रैल 2018 में आंदोलन कर देती है और आंदोलन में बारह लोगों की जान ले लेती है। उसे न तो मनुस्मृति से कुछ लेना देना है, न ही इस बात से कि सरकार ने कभी भी आरक्षण हटाने की बात नहीं की थी। 

इसी तरीके से नए लोगों का जनाधार बनता है। इसके पीछे के व्यवस्थित इंतजाम इतने व्यापक होते हैं, कि आग लगाने की मशाल के पेट्रोल से लेकर, आग लगने के बाद हुई हिंसा के पैमाने को इस बात के सबूत मानने तक कि आंदोलन कितना सफल रहा, किसको क्या और कैसे कहना है, सब तय होता है। हिंसा ज़ायज ठहरा दी जाती है, क्योंकि तंत्र में शब्दों के धार से हमला करना एक अपेक्षित गुण माना जाता है। ऐसे ही आंदोलनों की नाजायज़ औलादें, लाशों पर पैर रख कर संसद तक पहुँचती है। ऐसी भीड़ें ही इन नाजायज़ बच्चों को जनती है जो बाद में इन्हीं के लिए बने संसाधनों को पत्थर से बने पर्स में, और पार्कों के पिलर पर बने हाथियों में खपा देते हैं। 

हज़ार के नोटों की मालाएँ याद हैं न आपको? दलित के गले में वो माला, नकली नोटों की भी हो, तो भी बहुत बड़ा संदेश देती है। वो दलितों के रीढ़ों के कशेरुकों को अपनी एड़ियों से चकनाचूर करके आगे बढ़ने वाली उस महाशक्ति का उदाहरण बनती है जो बताती है कि सर्वहारा की क्रांति का नेता रॉल्स रॉयस से चलता है, और दलितों की नेत्री भारत के सबसे अमीर नेताओं में से एक हो जाती है। 

समस्या ऐसे नेताओं की अमीरी नहीं है, समस्या यह है कि तुमने उन दलितों के लिए क्या किया? उत्तर प्रदेश और बिहार में समाजिक न्याय के मसीहाओं ने इन समाजों के लिए क्या किया है, इसका पता इसी से चलता है कि कॉन्ग्रेस जैसी पार्टियाँ आज भी ‘गरीबी हटाओ’ के वैरिएशन वाले नारे लेकर ही चल रही है। लालू की फैलाई बर्बादी और माया-मुलायम के राज में व्याप्त गुंडई से नेताओं के पेट तो इतने भर गए कि छींके तो नाक से सोने का चावल निकल आए, लेकिन गरीब के लिए आज भी एक वक्त चावल खाना एक लग्ज़री है। 

इन्होंने बहुत लहरिया लूटा, दशकों तक लूटा, बदल-बदल कर लूटा, कह-कह कर लूटा और अपने आप को अपने राज्यों में इन जातियों का एक मात्र मसीहा बताकर लूटा। लेकिन पावर, या सत्ता, समाज को हर 25-30 साल में रीसायकल करता है। एक पीढ़ी निकल जाती है, दूसरी पीढ़ी बाप के बनाए राज-पाट को जनाधार की बुनियाद पर नहीं, अपने बेटे या बेटी होने के बुनियाद पर उत्तराधिकार में पाती है। 

यहाँ एक सोशल डिसकनेक्ट पैदा होता है। अंग्रेज़ी शब्द इसलिए कह रहा हूँ कि आप मुझे गम्भीरता से लें। हें, हें , हें… ये जो डिसकनेक्ट है, जहाँ जनता आपके बाप को जानती है इसलिए आपको भी मानती है, वो ट्रान्जिशन वाले दौर में, जब बाप की उम्र ढलती है, और बेटे-भतीजों में सत्ता के एकाधिकार को लेकर ठनती है, प्रबल होकर दिखती है। फिर अखिलेश रूठ जाता है, तेज प्रताप लालू राबड़ी पार्टी की घोषणा कर देता है, मायावती बुआ बन जाती है…

ये जो ट्रान्जिशन का दौर होता है, ये वो साल होते हैं जब क्षत्रप के किले में दरार के लिए पहली चोट अपना ख़ून ही करता है। फिर दूसरी पीढ़ी का कोई रावण इस अवसर को भाँप कर, अपने आप को लालू-मुलायम-कांशीराम की तरह देखने लगता है। उसका मोडस ऑपरेंडाय, यानी कार्यशैली, पुरानी ज़रूर होती है लेकिन बेहतर संसाधनों के प्रयोग से वो बहुत तेज़ी से उभरता है।

अब वो स्वयं को एक आशा की तरह बेचने लगता है; वो आंदोलन कराता है; जेल जाता है; बीमार हो जाता है; बड़े नेताओं को अकारण ही भारत की सारी समस्याओं का जड़ मान लेता है। वो हर जगह एक ही बात, बार-बार बोलता है, और मीडिया का एक हिस्सा उसे उम्मीद की तरह भुनाने लगता है। दो सौ लोगों की मोटरसायकिलों में तेल भरवा कर वो रैली निकालता है। ग़रीबों के सब्जी के ठेलों पर दलितों का उत्पात होता है, झूठी ख़बर पर आग लगाई जाती है, घरों में घुस कर निजी दुश्मनी के कारण आंदोलन की आड़ में गोली मारी जाती है। फिर एक नेता हिट हो जाता है।

ये नेता पुराने लोगों को खटकने लगता है। दोनों के लिए लड़ाई अस्तित्व की हो जाती है लेकिन गरियाने के लिए किताब तो एक ही है, नए शब्द तो बुद्धिजीवियों ने गढ़े ही नहीं! फिर नया रावण रा टू प्वाइंट ज़ीरो बनने के लिए उसी नेत्री को मनुवादी कह देता है जिसकी पूरी राजनीति खाली पन्नों की फ़ोटोकॉपी पर मनुस्मृति लिख कर जलाने से शुरु हुई। 

‘वाद’ एक ही है, ब्राह्मण ही शत्रु है जिसके पास खेत के नाम पर कट्ठों में ज़मीन है, और पुरोहित का काम करके दक्षिणा से मिले पैसों या अन्न से घर चलाने की जद्दोजहद, लेकिन घेरना तो है ही किसी को। प्रचलित शब्द भी ब्राह्मणवाद है क्योंकि यही बार-बार लिखा और बोला गया है। किसी ने न तो प्रतिशत निकाला, न उनकी सामाजिक स्थिति पता करने की कोशिश की, पाँच हजार सालों के पाप उनके नाम कर दिए गए, जबकि उस काल की किताबों में ऐसा एक वाक़या नहीं है जो यह साबित कर सके। 

यह बात गलत नहीं है कि दलितों की स्थिति बहुत खराब है, और सवर्णों द्वारा बहुत ही घटिया स्तर के भेदभाव हुए हैं, हो रहे हैं, लेकिन इसके नाम पर राजनीति चमकाने वालों ने जब ब्राह्मण वोटों के लिए, ब्राह्मणों को साधना शुरु किया तब समझ में आने लगा कि राजनीति का अपना रंग होता है, उसकी अपनी आइडेंटिटी होती है, जो विचारधारा, धर्म, जाति और निजी दुश्मनी से भी परे होती है। कितने दलित नेता ब्राह्मण जाति के लोगों से दूर हैं, और कितनी रैलियों में वो ब्राह्मणों को गालियाँ नहीं देते? 

इसीलिए लोकतंत्र में लहसुन का ज़ायक़ा आ जाता है। रावण जब रा.टू बनने निकलता है तो उसे पता है कि वोट कहाँ से आएँगे, और उसे यह भी पता है कि किसकी राजनीति पर उसे हमला करना है। उसके लिए नए विशेषण बनाने का समय नहीं होता। वो नए ‘वाद’ को लोकसभा चुनावों के पंद्रह दिन पहले नहीं गढ़ सकता। उसके लिए ये मौका डेस्पेरेशन वाला हो जाता है। और तब वह बोल देता है कि मायावती मनुवादी है। 

उसे यह साबित नहीं करना है, क्योंकि साबित करने की ज़रूरत नहीं है। ज़रूरत इसलिए नहीं है क्योंकि दलितों की स्थिति में कोई खास सुधार हुआ नहीं है। किसी भी दलित व्यक्ति को, जो सही मायनों में वंचित और पिछड़े हैं, बताने की आवश्यकता नहीं कि उसके जीवन में मायावती ने क्या बदलाव किए हैं। मायावती ने हाथी बनवाए, मुलायम पुत्र ने ज़मीन हथियाई और दलितों का जीवन वैसे ही चलता रहा, जैसे चलता रहा था। 

आशा बेचकर नेता बनना सबसे आसान है। इस उत्पाद को बेचना तब बेहद आसान हो जाता है जब लोगों में निराशा होती है। जब लोगों में निराशा होती है, और जब लोगों ने नेताओं को लगातार देख लिया हो, तो नई पीढ़ी यह सोचने लगती है कि किसी और को भी मौका देना चाहिए। यही वो ट्रान्जिशन का दौर होता है, जब सत्ताधीशों की नई पीढ़ी और वोटरों की नई पीढ़ी के बीच रावण भी अवतार लेकर किसी का भला करने की बात करने लगता है। 

आज मनुवाद फिर से चर्चा में है। मनुवाद का मतलब मनुवाद बोलने वालों को ठीक से पता नहीं, तो गाँव के ग़रीबों और वंचितों को क्या पता होगा। आप में से एक प्रतिशत भी लोग ऐसे नहीं होंगे जिनके घरों में मनुस्मृति रखी हो, और आपके पिता या दादा मनु की बात करते हों। फिर ये मनुवाद आता कहाँ से है? 

ये वहीं से आता है जहाँ से एकतरफ़ा संवाद के ज़रिए झूठों की उत्पत्ति होती है। अस्तित्व की लड़ाई करता व्यक्ति हर वो पैंतरा आज़माता है जिससे वो किसी भी तरह सत्ता पा सके। इसके लिए उसे फर्जी सेमिनार कराना पड़े, तो विलियम जोन्स सेमिनार कराता है और मैक्समूलर से लेकर तमाम तथाकथित विद्वानों की मदद से कल्पना को इतिहास बनाकर भारतीय जनता के लिए भारत के इतिहास के आधार पर रखकर चला जाता है। फिर एक बहुत बड़ी साज़िश के तहत आर्य और द्रविड़ पैदा होते हैं, फिर गोरे और काले चमड़ी के नाम पर नोआ और हैम की बातों के ज़रिए हमारे भीतर ज़हर भरा जाता है। 

इसलिए आपके फ़िल्मों में रहीम चाचा, फ़ादर दिस दैट हमेशा दरियादिल दिखते हैं, और ब्राह्मण हमेशा व्यभिचारी दिखाया जाता है, लाला हमेशा सूदखोर बताया जाता है। इस पूरे नैरेटिव में एक भी बार बदलाव नहीं आता, जबकि समाज में इसके उलट कुछ और ही चल रहा होता है। 

इसीलिए, लोकतंत्र में एक लहसुनतंत्र बनता है। इसकी कलियाँ एक साथ, बिना किसी गैप के, अपनी भीतरी सच को सफ़ेद लैमिनेशन से ढके, चिपकी एक बनी रहती हैं। ये सारे चोर, एक भाषा बोलते हैं। सारे लहसुन हर नैरेटिव में, हर भाषण में, हर रैली में, हर चर्चा में, हर पैनल डिस्कशन में, हर प्राइम टाइम में एक भाषा बोलते हैं। 

तब, सारे सामाजिक अपराध राजनैतिक हो जाते हैं। तब, सारे सामाजिक अपराध धार्मिक हो जाते हैं। तब सीट का झगड़ा बीफ का झगड़ा हो जाता है। तब, आतंकी भटके हुए नौजवान हो जाते हैं। तब, भीड़ हत्या के रिकॉर्ड से सिर्फ समुदाय विशेष के ही नाम निकाले जाते हैं। तब, किसी दलित की पिटाई के लिए हर सवर्ण ज़िम्मेदार हो जाता है। तब, कठुआ की पीड़िता के लिए पूरा हिन्दू समाज उत्तरदायी होता है, और गीता के बलात्कारियों पर चर्चा नहीं होती।

तब, सारी समस्या की जड़ में वो व्यक्ति हो जाता है जिसके होने का सच स्वीकारने पर दिक्कत है, लेकिन उसकी लिखी बातों के नाम पर मनुवाद फैलाकर लोग चुनाव जीत जाते हैं। तब दलितों की भीम आर्मी का रावण, दलितों की सबसे बड़ी नेत्री पर मनुवाद खींच कर फेंकता है और इकोसिस्टम लहालोट हो जाता है। 

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वायनाड से संसद की राह ‘जलेबी’ जैसी सीधी, यह समीकरण देख लीजिए राहुल G

उत्तरी केरल के वायनाड लोकसभा क्षेत्र से कॉन्ग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी के चुनाव लड़ने की घोषणा के बाद से ही यह पहाड़ी जिला राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में आ गया है। करीब एक हफ्ते के संशय के बाद कॉन्ग्रेस ने रविवार (मार्च 31, 2019) को औपचारिक रूप से घोषणा कर दी है कि राहुल गाँधी उत्तर प्रदेश में अमेठी के अलावा वायनाड से भी चुनावी मैदान में उतरेंगे। राहुल पहली बार किसी दक्षिण भारतीय राज्य से चुनाव लड़ने जा रहे हैं।

सोमवार को एनडीए ने भी केरल के वायनाड लोकसभा सीट पर अपने प्रत्याशी की घोषणा कर दी। बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने ट्वीट कर कहा कि तुषार वेल्लापल्ली को वायनाड सीट से प्रत्याशी बनाया गया है। बता दें कि तुषार भारत धर्म जन सेना (बीडीजेएस) के अध्यक्ष और केरल में एनडीए के संयोजक हैं। इसके साथ ही तुषार केरल के इजावा समुदाय के शक्तिशाली संगठन श्री नारायण धर्म परिपालन योगम (एसएनडीपी) के उपाध्यक्ष भी हैं।

राजनीतिक तौर पर मजबूती की बात करें तो केरल में सत्तारूढ़ वाम लोकतांत्रिक मोर्चा (एलडीएफ) ने इस क्षेत्र से भाकपा के पीपी सुनीर को चुनावी मैदान में उतारा है। वह अपने स्कूल के दिनों में सीपीआई के छात्र संगठन ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन में शामिल हुए थे और बाद में पार्टी के युवा संगठन ऑल इंडिया यूथ फेडरेशन के राज्य उपाध्यक्ष बने। राहुल के नाम के ऐलान के बाद वाम दलों में हलचल मच गई। वाम दलों ने इसे भाजपा के ख़िलाफ़ लड़ाई को कमजोर करने का प्रयास बताते हुए राहुल को हराने का दावा किया है। भाकपा महासचिव एस. सुधाकर रेड्डी ने राहुल गाँधी के इस फैसले पर ऐतराज जताया और साथ ही कहा कि इस चुनाव में वाम मोर्चा राहुल गाँधी को हराने के सभी प्रयास करेंगे।

यहाँ पर गौर करने वाली बात ये है कि इस सीट पर भाजपा की तरफ से उतारे गए प्रत्याशी तुषार वेल्लापल्ली वहाँ के लोकल प्रत्याशी हैं। तो जाहिर सी बात है कि उनकी उस क्षेत्र के लोगों पर अच्छी पकड़ होगी और इस वजह से उन्हें वहाँ के दक्षिणपंथियों का पूर्ण समर्थन मिलने की संभावना है। वहीं अगर बात करें, वाम दल की तरफ से उतारे गए कैंडिडेट पीपी सुनीर की, तो वो भी वहाँ के लोकल हैं। वहाँ के वाम राजनीति को समर्थन देने वाले वोटरों पर सुनीर की पकड़ मजबूत होगी, इसमें कोई दो राय नहीं। शायद यही वजह रही होगी कि उन्होंने राहुल गाँधी को हराने की चेतावनी भी दी थी।

अब यहाँ पर सवाल ये उठता है कि अगर राहुल गाँधी को वहाँ के वामपंथियों का भी वोट नहीं मिला, तो फिर वो किस आधार पर चुनाव जीतने का ख्वाब देख रहे हैं? राहुल गाँधी की इस समय हालत कुछ ऐसी हो गई है, जिससे वो न तो घर के दिख रहे हैं और न घाट के। वो इसलिए क्योंकि एक तरफ तो अमेठी में स्मृति ईरानी उन्हें कड़ी टक्कर दे रही हैं। और दूसरी तरफ कॉन्ग्रेस ने राहुल को जिस चाल के तहत वायनाड सीट से चुनाव लड़ाने का फ़ैसला लिया, अब वो उल्टा पड़ता दिख रहा है। देखा जाए तो राहुल की स्थिति को लेकर कॉन्ग्रेस दोनो ही सीटों पर डरी हुई है। कहीं राहुल का हाल ऐसा न हो जाए कि ‘चौबे गए छब्बे बनने दुब्बे बनकर आ गए।’

गौरतलब है कि वायनाड सीट 2008 में हुए परिसीमन के बाद अस्तित्व में आई है। वायनाड लोकसभा के तहत सात विधानसभा क्षेत्र आते हैं। इनमें से तीन वायनाड जिले के, तीन मल्लापुरम जिले के और एक कोझीकोड जिले से हैं। यहाँ 2009 में कॉन्ग्रेस के एमआई शाहनवाज़ ने जीत हासिल की थी। उन्होंने सीपीआई के उम्मीदवार को सीधी मात दी थी। 2014 में भी उन्होंने इस सीट से जीत हासिल की थी, मगर 2018 में उनके निधन के बाद से यह सीट खाली है। यहाँ पर 23 अप्रैल को मतदान होना है।

मोदी पर Eros Now की वेब सीरीज, सोनू निगम ने PM की लिखी कविता को दी आवाज़

नरेंद्र मोदी पर विवेक ओबेरॉय अभिनीत फ़िल्म के अलावा एक सीरीज भी आ रही है। 10 एपिसोड वाली इस सीरीज में प्रसिद्ध गायक सोनू निगम पीएम मोदी की लिखी कविता को अपनी मधुर आवाज़ से सँवारेंगे। इस सीरीज का ट्रेलर जारी किया जा चुका है और इसे सोशल मीडिया पर लोगों द्वारा काफ़ी पसंद भी किया जा रहा है। ‘ओ माय गॉड’ और ‘102 नॉट आउट’ जैसी अवॉर्ड विनिंग फ़िल्में डायरेक्ट कर चुके उमेश शुक्ला इस सीरीज के निर्देशक हैं। गुजराती नाटक ‘कांजी vs कांजी’ के निर्देशक के रूप में गुजराती थिएटर जगत में प्रसिद्धि कमा चुके शुक्ला इस से पहले कई फ़िल्मों भी कर चुके हैं।

इरोज द्वारा जारी किया गया सीरीज का ट्रेलर

फैसल ख़ान इस सीरीज में किशोर नरेंद्र मोदी की भूमिका में दिखेंगे। लोकप्रिय संगीत निर्देशक सलीम-सुलेमान ने इसका म्यूजिक तैयार किया है। सोनू निगम ने पीएम मोदी की कविता ‘श्याम के रोगन रेले’ की रिकॉर्डिंग भी पूरी कर ली है। निर्देशक शुक्ला ने बताया कि उन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) से नरेंद्र मोदी द्वारा रचित 10 कविताओं को संगीत के रूप में उतारने की अनुमति भी ले ली है। इस सबका प्रयोग आगामी सीरीज में किया जाएगा। इरोज नाउ के इस से जुड़े होने के कारण इस सीरीज को लेकर चर्चाएँ तेज़ हैं। बाजीराव मस्तानी, बजरंगी भाईजान, तनु वेड्स मनु और इंग्लिश इंग्लिश जैसी फ़िल्मों का निर्माण कर चुका इरोज सिनेमा की दुनिया में एक बड़ा नाम है।

सीरीज का दूसरा ट्रेलर

हर एक एपिसोड के ख़त्म होने पर आने वाले क्रेडिट्स में इन कविताओं का प्रयोग किया जाएगा। शुक्ला ने कहा कि सलीम-सुलेमान और सोनू निगम की जुगलबंदी के कारण इस गाने में चार चाँद लग गए हैं। इस वेब सीरीज को अप्रैल में रिलीज किया जाएगा। उमेश शुक्ला ने अंदेशा जताया कि उनकी ये सीरीज भी चुनाव आयोग के रडार पर आ सकती है क्योंकि चुनाव आयोग ने विवेक ओबेरॉय द्वारा मोदी पर बनाई जा रही बायोपिक को लेकर निर्माताओं से कमेंट माँगा है। लेकिन, शुक्ला ने कहा कि चूँकि वेब सीरीज थिएटर में और बॉक्स ऑफिस पर रिलीज नहीं होती, इसीलिए इस पर आचार संहिता लागू नहीं होगी।

अपनी फिल्म ‘ओ माय गॉड’ के बारे में बात करते हुए शुक्ला ने कहा कि उस दौरान भी उन्हें काफ़ी धमकियाँ मिली थीं और पूछा गया था कि वह ऐसी फ़िल्में भारत में कैसे बना सकते हैं? उन्होंने कहा कि नरेंद्र मोदी पर बन रही सीरीज पर एक वर्ष पहले ही कार्य शुरू कर दिया गया था। उन्होंने बताया कि इसकी शूटिंग पूरी की जा चुकी है और ये अब एडिटिंग की प्रक्रिया में है। सभी एपिसोड आधे से लेकर पौन घंटे तक के होंगे। उन्होंने कहा कि इसे जल्द से जल्द रिलीज़ करने की कोशिश की जा रही है।

इस सीरीज की शूटिंग गुजरात के सिद्धपुर और वडनगर में की गई है। यही वो जगहें हैं, जहाँ पीएम मोदी का बचपन गुजरा था। इस सीरीज में मोदी चायवाला से प्रधानमंत्री बनने तक के सफर को उकेरा गया है। इसमें उनके सन्यासी के रूप में कुछ वर्ष बिताने से लेकर आपातकाल के दौरान उनके द्वारा किए गए कार्यों को भी दिखाया जाएगा। विवेक ओबेरॉय की फ़िल्म और उमेश शुक्ल की सीरीज के अलावा अभिनेता परेश रावल भी मोदी की बायोपिक बनाने तैयारी में हैं। वो कई बार कह भी चुके हैं कि सिल्वर स्क्रीन पर नरेंद्र मोदी की भूमिका उनसे अच्छी कोई नहीं निभा सकता।

‘आतंकवाद से लड़ने’ के बजाय फलाने दिन-तारीख-समय पर फलाने व्यक्ति को मारना है: अजित डोभाल

राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार श्री अजित डोवाल ने हाल ही में मानव संसाधन विकास मंत्रालय के चीफ इनोवेशन ऑफिसर डॉ.अभय जेरे को एक साक्षात्कार दिया। लोकसभा टीवी द्वारा प्रसारित यह साक्षात्कार डोवाल का एनएसए बनने के बाद संभवतः पहला विस्तृत साक्षात्कार था। इसे हम दो हिस्सों में प्रकाशित कर रहे हैं।

प्रथम हिस्से के महत्वपूर्ण अंश:

‘बहुत महीन फर्क होता है सही निर्णय और गलत निर्णय में’

सवाल था कि बालाकोट के समय किसी भी मौके पर क्या उन्हें यह लगा कि इस निर्णय को लेना सही न रहा हो। डोवाल ने कहा कि सामान्यतः निर्णय का सही या गलत होना उसे ले लिए जाने और परिणाम आने के बाद ही समझ में आता है। और सही-गलत निर्णय लेने वालों की मानसिकता और क्षमता में कोई बहुत बड़ा अंतर नहीं होता। अतः ‘सही निर्णय’ लेने के लिए जरूरी मानसिक स्थिति को समझ कर उसका विकास करना सही निर्णय लेने की चिंता करने से अधिक आवश्यक है।

अपनी व्यक्तिगत निर्णय-प्रक्रिया के बारे में बात करते हुए अजित डोवाल ने कहा कि वे सबसे बुरी स्थिति को सबसे पहले दिमाग में स्पष्ट तौर पर कल्पित करते हैं। उसकी ‘कीमत’ के बारे में सोचते हैं- यहाँ तक कि लोगों की मृत्यु के खतरे को भी कीमत-बनाम-परिणाम के रूप में।

फिर वे उस worst-case-scenario के छोटे-छोटे हिस्सों में छोटे-छोटे सुधार करने के तरीके ढूँढ़ते हैं- (मसलन यदि 35 लोग  worst-case-scenario में मर रहे हैं तो इसे कम-से-कम कैसे किया जाए – यह सिर्फ उदाहरण के तौर पर दिया गया है, ताकि बात समझने में आसानी हो, डोवाल ने खुद नहीं कहा है।)

इस प्रक्रिया को करते हुए वह worst-case-scenario को उस स्तर पर ले आने की कोशिश करते हैं जहाँ निर्णय को लेने से होने वाला नुकसान, या उस निर्णय की ‘कीमत’, उससे होने वाले संभावित फायदे से कम हो जाए- यह उस निर्णय पर अमल करने की न्यूनतम शर्त होती है। बाद में वह इसमें और भी सुधार की जहाँ कहीं गुंजाईश हो, उसे करते रहते हैं।

इसके लिए वे जरूरी समय और तैयारी को आवश्यक मानते हैं। इसके अलावा उनके हिसाब से गुप्तचरों की दुनिया में तकनीकी और गुप्त सूचनाओं का भी आवश्यक स्तर पर होना महत्वपूर्ण होता है।

निर्णय लेने में होने वाले भय को लेकर उनका मानना है कि इस भय को भगाने का सबसे अच्छा तरीका अपने भय को विस्तारपूर्वक, स्पष्ट शब्दों में उल्लिखित करना होता है। उनके हिसाब से अधिकांश मामलों में ऐसा करने से हमें यह अहसास होता है कि हमारे भय का कारण असल में भय से बहुत छोटा है। जिन मामलों में ऐसा नहीं भी होता, वहाँ स्पष्ट रूप से भय को व्यक्त कर देने से उस स्थिति के बारे में क्या किया जा सकता है, यह समझ में आ सकता है।

बहुत महत्वपूर्ण निर्णयों- जैसे राष्ट्रीय सुरक्षा, में वह इस पर भी जोर देते हैं कि किसी एक योजना पर पूरी तरह निर्भर न रहा जाए, बल्कि वैकल्पिक योजनाएँ तैयार रखीं जाएँ। इसके अलावा वे हर बदलती परिस्थिति से निपटने के लिए लचीलेपन का होना जरूरी मानते हैं।

‘कठिन निर्णय लेने के लिए जरूरी है…’

डोवाल की ‘कठिन निर्णय’ की परिभाषा है – ऐसा निर्णय जिसके परिणाम एक बड़ी संख्या के लोगों को एक लम्बे समय के लिए प्रभावित करें। ऐसे निर्णयों में वह बताते हैं कि छोटी-सी चूक कई बार इतिहास की पूरी धारा पलट देती है।

ऐसे महत्वपूर्ण निर्णय के लिए उदाहरण वे प्रथम प्रधानमंत्री पण्डित नेहरू के कश्मीर के मामले को संयुक्त राष्ट्र में ले जाने का देते हैं। उनके अनुसार उस निर्णय के कारण ही पीओके को पाकिस्तान के चंगुल से मुक्त नहीं कराया जा सका और कश्मीर ही भारत की सभी आतंकवादी समस्याओं के मूल में है। अतः पण्डित नेहरू का वह निर्णय संयुक्त राष्ट्र के कश्मीर पर निर्णय के चलते भारत के दीर्घकालीन हितों के साथ साम्य में नहीं साबित हुआ।

इस उदाहरण को पकड़कर वे आगे समझाते हैं कि दीर्घकालीन, महत्वपूर्ण निर्णय लेने के लिए लक्ष्य की स्पष्टता अति आवश्यक है। इसके लिए वे एक ‘टेक्नीक’ भी बताते हैं, जो कि नेताओं से लेकर आम आदमी तक हर किसी के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकती है।

डोवाल लक्ष्य को एक कथन में परिवर्तित करने की सलाह देते हैं। और उस कथन से सभी विशेषण और क्रियाविशेषण हटा देने को कहते हैं। यानि केवल संज्ञा और क्रिया बचे। यानि आप का लक्ष्य कथन यह बताए कि क्या करना है, और किन चीज़ों के साथ करना है। किन चीज़ों की भूमिका है।

उसे वे यथासंभव सरल और लघु बनाने को कहते हैं, और व्यर्थ की दार्शनिकता हटाने को कहते हैं।

“यह मत कहिए कि ‘हमें आतंकवाद से लड़ना है’।” वह उदाहरण देते हैं, “यह एक अस्पष्ट और बहुत ही सामान्यीकृत कथन है- यह लक्ष्य नहीं हो सकता। यह तय करिए कि फलाने दिन-तारीख-समय पर फलाने व्यक्ति या गुट को मार गिराना है।”

वह लक्ष्य की स्पष्टता पर जोर देते हुए यह भी इंगित करते हैं सामान्यतः भारतीयों में यह बीमारी होती है कि हम अति दार्शनिकता, तर्क, चिंतन आदि में लक्ष्य को अस्पष्ट और निर्णय को कमजोर कर देते हैं।

‘निर्णय कब नहीं लेना चाहिए’

आगे डोवाल यह समझाते हैं कि निर्णय लेने के लिए क्या-क्या आवश्यकताएँ निर्णय लेने से पहले पूरी होनी चाहिए। सबसे पहले निष्पक्ष भाव से अपनी शक्तियों, दुर्बलताओं, परिस्थितियों, संसाधनों और संभावनाओं की ईमानदार विवेचना आवश्यक है।

वे साथ में यह भी आगाह करते हैं कि भय या क्रोध के वशीभूत होकर निर्णय लेना हमेशा हानिकारक होता है क्योंकि इनके प्रभाव में व्यक्ति तटस्थ नहीं रहता। भयभीत व्यक्ति को ‘मिशन’ की सफलता से अधिक चिंता अपने भय की वस्तु (मसलन अपनी जान) की होती है; वहीं गुस्से में अँधा इंसान अपने अहम् की पूर्ति के लिए मिशन की सफलता के लिए जरूरी संसाधन (मसलन अपनी जान) को दाँव पर लगा बैठता है। यानी कि दोनों ही, क्रोध और भय, लक्ष्य आधारित निर्णय के शत्रु हैं।

डोवाल बताते हैं कि कोई भी निर्णय लेने के पूर्व वे खुद से यह जरूर पूछते हैं कि क्या वे भयभीत या क्रुद्ध तो नहीं हैं। यदि उत्तर हाँ में होता है तो वे निर्णय लेने को तब तक के लिए टाल देते हैं जब तक वे इन भावों पर जय न प्राप्त कर लें।

‘निर्णय ही नहीं, सही विकल्प का चयन भी है जरूरी’

अपने लक्ष्य को तय कर लेने के बाद डोवाल का अगला कदम होता है अपने सामने मौजूद विकल्पों की समीक्षा, और सर्वश्रेष्ठ विकल्प का चुनाव। वह बताते हैं कि हालाँकि कठिन निर्णयों में विकल्प बहुत सीमित होते हैं, पर सर्वथा अभाव कभी नहीं होता। कई बार अपने अनुभव और ज्ञान से आप नए विकल्पों का ‘निर्माण’ भी कर सकते हैं।

गुप्तचरी में, डोवाल के अनुसार, हर विकल्प के साथ समय, मूल्य (आर्थिक व अन्य, यहाँ तक कि सैनिकों की जान के रूप में भी), और अवसर- यह तीन बाध्यताएँ या बंधन (constraints) होते हैं। हर विकल्प को इन तीन कसौटियों पर विश्लेषित कर यह तय करना होता है कि कम-से-कम कीमत पर लक्ष्य को पूरा करने के सबसे करीब कौन सा विकल्प है।

वे आगे बताते हैं कि अधिकांश समय निर्णय और लक्ष्य-निर्धारण भली-भांति कर लेने के बावजूद उस पर अमल करने के लिए गलत विकल्प का चुनाव असफलता का कारण बनता है। इसके अलावा कई बार असफलता का कारण यह भी हो जाता है कि सभी तरह के चुनाव सही कर लेने के बाद तैयारियों में मानवीय कमी रह जाती है- यानि हम अपना शत-प्रतिशत (100%) अपने लक्ष्य को नहीं देते। बाद में अहसास होता है कि यदि इसी चीज़ में अपना सौ फीसदी लगाते तो सफलता मिल सकती थी!

अंत में अजित डोवाल यह भी जोड़ते हैं कि कई बार लक्ष्य-निर्धारण और विकल्प का चुनाव सही होने पर भी मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं, और उस स्थिति में अपने निर्णय के साथ दृढ़ता के साथ खड़े होकर जो भी परिस्थिति आए, उसमें अपने निर्णय को सही साबित भी करना पड़ता है। वह ऐसी स्थिति की मिसाल के तौर पर शादी को देखते हैं। जैसे कई बार सही इन्सान से शादी करने पर भी जीवन में हर परिस्थिति सही नहीं बीतती, और कई बार हर परिस्थिति में अपने शादी के निर्णय को ही सही साबित करना पड़ता है, अपने अनुकूल परिणाम लाकर।

‘अजित डोवाल में अलग क्या है?’

सवाल था कि अजित डोवाल के बारे में उन्हें जानने वाले कई सारी चीजें कहते हैं, कई सारी विशिष्टताएँ बताते हैं, जिनमें उनका तथाकथित एकाकीपन और टीम की बजाय अकेले गुप्तचर के तौर पर काम करना पसंद करना सबसे ज्यादा उभर कर सामने आता है।

जवाब में छद्म विनम्रता का नाटक न करते हुए डोवाल यह बिना लाग-लपेट के मान लेते हैं कि उनके गुप्तचर करियर से पहले के जीवन ने उनमें निश्चय ही कुछ विशिष्ट गुणों का विकास किया है, जिनका उनके करियर की सफलता में बड़ा योगदान रहा।

अपनी सबसे विशिष्ट चीज़ वह अकेले काम करने की प्रवृत्ति को मानते हैं। उन्होंने बताया कि उनके एकाकी स्वभाव और अकेले काम करने की ओर झुकाव को सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही तरीकों से देखा गया है। एकाकी इकाई के तौर पर काम करने के पीछे वह कारण यह बताते हैं कि एक गुप्तचर की तौर पर वह पूरी टीम की सभी परिस्थितियों को समझ पाने के बजाय अपनी खुद की सभी परिस्थितियों को समझ पाना और उनके अनुसार काम कर पाना और निर्णय ले पाना, ज्यादा आसान मानते थे।

उन्होंने बताया कि इसके अलावा एक और कारण था उनके अकेले काम करने का- गुप्तचरों के काम में खतरा बहुत ज्यादा होता है। और उन्हें यह पसंद नहीं था कि उनके कहने पर कोई खतरा मोल ले। अपने खतरे वह स्वयं उठाना पसंद करते थे। दूसरों को उनकी पसंद और इच्छा के हिसाब से क्या करना चाहिए, क्या खतरा उठाना चाहिए, ऐसा निर्णय लेने देना उन्हें ज्यादा सही लगता था।

डोवाल ने साथ में यह भी जोड़ा कि गुप्तचरी के क्षेत्र में हल्के से भी संशय के साथ काम करने वाले को असफलता का ही मुँह देखना पड़ता है- और वह अपने लिए तो पक्का पता कर सकते हैं कि उनके मन में लेशमात्र भी संशय न हो (वह गीता के श्लोक “संशयात्मा विनश्यति” को उद्धृत करते हैं) पर वह अपने साथ काम कर रहे किसी गुप्तचर के मन में संशय न होने को लेकर आश्वस्त नहीं हो सकते।

वह ऑपरेशन ब्लैक थंडर का उदाहरण देते हैं कि कैसे जब किसी-न-किसी को ऑपरेशन शुरू होने के पहले अन्दर जाकर आतंकियों की स्थिति के बारे में जानकारी एकत्र करनी थी तो उन्होंने अकेले ही जाना पसंद किया। (बता दें कि इस ऑपरेशन से पहले अजित डोवाल रिक्शा चालक बनकर स्वर्ण मंदिर के अन्दर घुसे थे और दो दिन में आतंकियों की संख्या और पोजीशन के विषय में अहम जानकारी जुटाई थी)

डोवाल ने बताया कि उस दौरान वे अकेले ज्यादा महफूज़ महसूस कर रहे थे। उनके अनुसार गुप्तचरी में अकेले होने का एक फ़ायदा यह भी होता है कि अगर आप गलती से पकड़े गए तो आपके झूठ को काट कर उससे अलग कह देने वाला कोई नहीं होता। इसलिए अगर अकेला गुप्तचर बहुत चालाक है तो वह पकड़े जाने पर भी गुप्त जानकारियाँ ज्यादा आसानी से दुश्मन के हाथ लगने से रोक सकता है और मौका मिलने पर दुश्मन को यथासंभव धोखा दे स्थिति अपने हक़ में पलट सकता है।

अपनी अगली खूबी वह अप्रत्याशित होना बताते हैं। उनके अनुसार उनके 75 वर्षीय जीवन में कभी भी काम करने का तय तरीका नहीं रहा, जिसे तड़ कर दुश्मन उनकी अगली चाल को भाँप जाए। वह हमेशा किसी भी कार्य को करने के लिए हमेशा नौसिखिए के अंदाज में जाते’ हैं। इससे उन्हें दो फायदे होते हैं- एक तो वह पहले से कुछ भी मान कर नहीं चलते, और दूसरा हर बार काम को करने का नया तरीका तलाशते रहते हैं। यहाँ वह कुछ पलों के लिए दार्शनिक हो कहते हैं, “जीवन का हर एक क्षण बचे हुए जीवन का पहला क्षण होता है और इसीलिए उसे बची हुई ज़िन्दगी की एक ताज़ा शुरुआत के तौर पर लेना चाहिए।”

अपनी गति को भी वह अपने गुप्तचर करियर की सफलता का श्रेय देते हैं- उनके अनुसार बेहतर होगा कि हमेशा तेजी से या तो हमला करो या पीछे हट जाओ। इससे सामने वाले को संभलने या पलटवार करने का मौका नहीं मिलता। वह यह भी बताते हैं कि कई बार द्रुत गति गुप्त सूचना लीक हो जाने या प्रक्रियात्मक गलती की भी भरपाई कर सकती है, बशर्ते आप दुश्मन से हमेशा एक कदम आगे चलने लायक तेज़ हों। उस स्थिति में हालाँकि आपकी जीत का अंतर भले ही सामान्य परिस्थिति के मुकाबले बहुत कम हो जाता है, पर कम से कम विजय मिल जाती है।

अंत में वह यह भी जोड़ते हैं कि ‘हर गुप्तचर के लिए वाक्पटु होना’ और ‘गुप्त सूचनाओं को गुप्त रख पाने में सक्षम होना’- दोनों ही अति आवश्यक हैं।

अभी के लिए इतना ही । इस साक्षात्कार का अगला भाग शीघ्र प्रकाशित होगा।

अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी पर आयकर विभाग ने कसा शिकंजा, ₹3.62 करोड़ की संपत्ति जब्त

जम्मू कश्मीर के अलगाववादी नेताओं में शुमार सैयद अली शाह गिलानी पर आयकर विभाग ने बड़ी कार्रवाई करते हुए दिल्ली की महंगी संपत्ति को सीज कर दिया है। आयकर विभाग के अधिकारियों ने सोमवार को दिल्ली के मालवीय नगर के खिड़की एक्सटेंशन स्थित प्रॉपर्टी को सीज कर दिया है।

पीटीआई के पास उपलब्ध आदेश की प्रति के मुताबिक, यह फ्लैट दक्षिण दिल्ली के मालवीय नगर में स्थित है और विभाग के कर वसूली अधिकारी (टीआरओ) ने 1996-97 से लेकर 2001-02 के बीच कथित तौर पर ₹3.62 करोड़ आयकर का भुगतान करने में विफल रहने पर इस घर को सील कर दिया। इसके अनुसार विभाग ने आयकर अधिनियम की धारा 222 के तहत यह कार्रवाई की और इसके अंतर्गत हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के नेता द्वारा संपत्ति के हस्तांतरण पर रोक रहेगी।

बता दें कि टीआरओ आयकर विभाग की प्रवर्तन कार्रवाई शाखा है और यह इरादतन कर न चुकाने के मामलों से निपटती है। अधिकारी बकाया कर के भुगतान के लिए संपत्ति जब्त कर सकते हैं और आगे उसकी नीलामी भी कर सकते हैं। इस संबंध में 29 मार्च को गिलानी के खिलाफ कार्रवाई का आदेश जारी किया गया था। इस आवास में गिलानी के दामाद की भी हिस्सेदारी बताई जा रही है। आयकर विभाग द्वारा गिलानी के खिलाफ शिकायत करने के बाद ईडी ने जाँच शुरू की।

गौरतलब है कि पिछले महीने यानी मार्च में प्रवर्तन निदेशालय ने अवैध रूप से 10,000 अमेरिकी डॉलर के विदेशी मुद्रा रखने के जुर्म में अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी पर ₹14.40 लाख का जुर्माना लगाया था। जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) के अध्यक्ष यासीन मलिक के खिलाफ भी इस तरह की कार्यवाही होने के आसार हैं

तेज प्रताप ने बनाया लालू-राबड़ी मोर्चा: खुद निर्दलीय लड़ने की भी दी धमकी, यादव कुनबा धराशाई!

पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के बाग़ी पुत्र तेज प्रताप यादव ने अपने माता-पिता के नाम पर एक अलग राजनीतिक मोर्चा बनाने की बात कही है। लालू यादव के बड़े बेटे ने राजद नेताओं पर पार्टी और परिवार को तोड़ने का आरोप मढ़ा है। प्रदेश अध्यक्ष रामचंद्र पूर्वे पर निशाना साधते हुए उन्होंने कहा कि कुछ नेता उनके भाई तेजस्वी को भड़का रहे हैं ताकि पार्टी टूट जाए। उन्होंने अपने छोटे भाई तेजस्वी को अपना हृदय बताते हुए उनकी तुलना अर्जुन से की। उन्होंने दावा किया कि पूर्वे उनके हर काम को रोकने के लिए तेजस्वी से उनकी शिकायत करते हैं। उन्होंने राजद के ऐसे नेताओं को स्वार्थी बताते हुए कहा कि उन लोगों ने पार्टी के कई उच्च पदों को कब्ज़ा लिया है। पटना में तेज प्रताप ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर अलग मोर्चा का ऐलान कर दिया है। उन्होंने कहा:

“मुझे दो सीट चाहिए जहानाबाद और शिवहर से, वहाँ से जो घोषित हुए हैं, वो पहले से हारे हुए हैं। दो बार, तीन बार चुनाव हारे हैं.. ये हमारे परिवार, भाई में लड़वाने वाले लोग हैं। आरएसएस के लोग, बजरंगदल के लोग लड़वा रहे हैं। हम ऐसे कैंडिडेट की माँग कर रहे हैं जो नौजवान और ईमानदार हैं। ऐसे लोग को कतई नजरअंदाज नहीं कर सकते। लालू और राबड़ी जी का आशीर्वाद हमेशा साथ है। मैंने पहले भी कहा है तेजस्वी मेरा अर्जुन है। निष्पक्ष लोगों को उम्मीदवार बनाएँगे। हम जरूरत पड़ी तो नया मोर्चा बनाएँगे। जरूरत पड़ी तो खुद निर्दलीय लड़ जाऊँगा। ये मेरा मोर्चा लालू-राबड़ी मोर्चा है। पार्टी में कुछ लोग डेरा जमाकर बैठे हैं। हमको जहानाबाद और शिवहर सीट चाहिए। लड़कर, जीतकर लेंगे। बेतिया से राजन तिवारी को लड़ाएँगे, हाजीपुर से लड़ाएंगे”

ज़ी न्यूज़ में प्रकाशित ख़बर के अनुसार, तेज प्रताप यादव ने कहा:

“ऐसे ही स्वार्थी लोगों के सफाए के लिए मैंने ‘लालू-राबड़ी’ मोर्चा बनाया है। यह मोर्चा ऐसे नेताओं का सफाया करेगा। तेजस्वी यादव समझदार हैं लेकिन उन लोगों की वजह से उनके आँखों पर पर्दा आ गया है। मेरी माँ राबड़ी देवी को भी सजग रहने की ज़रूरत है। मेरी बातें सभी लोगों को बाद में समझ आएँगी। जो लोग ख़ून-पसीने से पार्टी को सींचने का काम कर रहे हैं, उन्हें टिकट नहीं दिया गया। इसलिए तेजप्रताप यादव उनके लिए खड़ा हो गया है और पार्टी में अलग मोर्चे को तैयार कर रहा है।”

इंडिया का डीएनए 2019′ कार्यक्रम में बोलते हुए तेज प्रताप यादव ने दावा किया कि उन्होंने अपना हर उम्मीदवार चुनने से पहले जनता दरबार लगाया और आम लोगों की राय ली। इसके लिए उन्होंने हर क्षेत्र में घूमने का भी दावा किया। शिवहर और जहानाबाद लोकसभा क्षेत्रों के लिए राजद द्वारा घोषित उम्मीदवारों की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा कि उनके चयन में राजनीति की गई। सारण को अपनी पुश्तैनी सीट बताते हुए उन्होंने कहा कि उन्हें इस पर किसी भी बाहरी व्यक्ति का कब्ज़ा मंज़ूर नहीं है। उन्होंने इस सीट पर चुनाव लड़ने के लिए अपनी माँ पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी का नाम प्रस्तावित किया।

हम बता चुके हैं कि कैसे जहानाबाद से अपने क़रीबी चंद्र प्रकाश यादव को टिकट दिलाने की जुगत में लगे तेज प्रताप को पार्टी से निराशा हाथ लगी और तेजस्वी ने सुरेंद्र यादव के नाम पर मुहर लगा दी। इस बात से बौखलाए तेज प्रताप ने समर्थकों से नामांकन दाखिल का आदेश देकर एक तरह से बगावत का ही ऐलान कर दिया। इसी तरह शिवहर से भी वह अंगेश यादव को टिकट देना चाहते थे लेकिन वहाँ भी उन्हें निराशा ही हाथ लगी। गुरुवार (मार्च 28, 2019) को तेजस्वी यादव ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस का ऐलान किया था लेकिन ऐन वक़्त पर पार्टी के बड़े नेताओं को इसकी भनक लग गई और उन्होंने तेज प्रताप को किसी तरह मनाया।

तेज प्रताप यादव के इस क़दम से राजद संगठन और कार्यकर्ताओं में असमंजस का माहौल पैदा हो सकता है। जिस लालू परिवार को यादव वोटों को एकजुट रखने की धुरी माना जाता था, उसके बिखरने से संगठन पर नकारात्मक असर पड़ेगा। अगर सारण से तेज प्रताप अपने ससुर के ख़िलाफ़ हैं तो लालू परिवार का पारिवारिक कलह राजनीतिक सतह पर आ जाएगा और विरोधियों को आलोचना करने का नया मौक़ा मिल जाएगा। हालाँकि, तेज प्रताप का कोई जनाधार नहीं है और न ही संगठन में उन्हें वरिष्ठ नेताओं का साथ मिल रहा है। लेकिन फिर भी, लालू के कुनबे की एकजुटता से बिहार का राजनीतिक और चुनावी समीकरण का निर्णय होता आया है।

उधर लालू यादव भी पटना से दूर राँची में अपनी सज़ा पूरी कर रहे हैं। लालू के पटना में उपस्थित रहने मात्र से ही राजद में चीजें सही रहती थीं लेकिन उनकी अनुपस्थिति में जब परिवार दो फाड़ हो चुका है, कार्यकर्ताओं को लामबंद रखने में परेशानी आ सकती है। लालू ने जेल से ही टिकट वितरण सहित सारे निर्णय लिए, कन्हैया को टिकट न देने के पीछे भी उनका ही हाथ था। अब अपने परिवार को साथ रख कर चलने में नाकाम लालू यादव के कुनबे का क्या होता है, इसका निर्णय संभवतः अब राँची से ही होगा।

देखिए: 1 अप्रैल को ट्विटर पर राहुल गाँधी के बयानों ने ‘बनाया माहौल’

1 अप्रैल के ‘शुभ अवसर’ पर आज ट्विटर पर #Pappudiwas ट्रेंड कर रहा है। “न जाने क्यों” ट्विटर यूजर्स द्वारा आज ‘पप्पू दिवस’ हैशटैग पर राहुल बाबा को जमकर याद किया जा रहा है। उनके तरह-तरह के वीडियो क्लिप यूजर्स द्वारा शेयर किए जा रहे हैं और उनके कई पुराने बयानों को दोबारा से आज के दिन से जोड़कर प्रासंगिक बना दिया गया है। इस बीच कई मीम भी शेयर हो रहे हैं।

अगर आपको यकीन न हो रहा हो तो खुद ट्विटर पर इस हैशटेग को क्लिक करके देख लीजिए, आपको हर रूप में राहुल बाबा के ही दर्शन होंगे।

इस ट्रेंड में आपको राहुल के वो दिल की बात सुनाई पड़ेगी जिसमें उन्होंने बेहद सीरियस चेहरे के साथ कहा था- “This morning i woke up at night…”

और साथ ही वो किस्सा भी मिलेगा जिसे सुनाते हुए राहुल ने कॉन्ग्रेस पार्टी को खुद ही एनआरआई लोगों की पार्टी बता दिया था।

इस बीच ट्विटर पर राहुल का एक और बयान भी दोबारा से प्रासंगिक होता दिखा जिसमें उन्होंने स्वीकारा है कि उनके जैसा बेवकूफ़ इस देश में नहीं हैं।

इसके अलावा अभी हाल ही में राहुल बाबा एक जनसभा में पहुँचे थे जहाँ पर मौजूद लोगों को उन्होंने जमकर ज्ञान दिया। यह भी समझाया कि “दुनिया को अपनी स्थिति से मत देखो बल्कि दुनिया को अपनी स्थिति से देखो।” दरअसल वो यहाँ पर कहना क्या चाहते थे यह पक्का पता तो सिर्फ बाबा को ही होगा। शायद इसलिए आज के मौके पर इस छोटे से वीडियो को करीब 582 बार रीट्वीट किया गया।

एक ऐसा वीडियो भी शेयर हुआ जहाँ राहुल दिखा रहे हैं कि तालियाँ कैसी बजाई गईं। इसमें शायद वो संसद में बजी तालियों पर इशारा कर रहे हैं।

इस हैशटेग पर कुछ लोगों ने अपनी कलाकारी भी दिखाई और अमिताभ बच्चन के करोड़पति और राहुल के भाषण को मिला करके एक मैशअप तैयार कर दिया।

ऐसे अनेकों ट्वीट और पोस्ट आज के दिन सोशल मीडिया पर ट्रेंड कर रहे हैं। इनमें राहुल द्वारा जनता को किए ₹72000 का भी वादा है, जिसे सबसे छोटा अप्रैल फूल मैसेज बताया गया है।

ट्विटर पर कुछ लोगों ने राहुल को आज के दिन शुक्रिया भी कहा। इन लोगों का मानना है कि राहुल ने उन्हें इस दिन मुस्कुराने और हँसने की वजह दी है।

इसके अलावा कुछ लोगों ने यहाँ तक भी कहा कि अगर राहुल की बात को सुनकर पर कोई कंफ्यूजन हो जाता है तो इसमें गलती राहुल की नहीं हैं, कन्फ्यूज़ होने वाले की है।

सुकन्या समृद्धि योजना ‘ग़ैर-इस्लामिक’ घोषित: फ़तवा जारी, 200 से अधिक इस्लामिक जानकारों की सहमति

केंद्र की सुकन्या समृद्धि योजना को 200 से अधिक इस्लामिक जानकारों (मुफ्ती) ने ‘ग़ैर-इस्लामिक’ घोषित किया है। इस योजना के तहत बैंक में बालिकाओं के नाम पर उनके माता-पिता द्वारा खाता खुलवाया जाता है। शरिया के अनुसार यह योजना एक ग़ैर-इस्लामिक योजना है। जमीयत उलेमा-ए-हिंद (JUH) के मीडिया प्रभारी अजिमुल्लाह सिद्दीकी के अनुसार, सुकन्या समृद्धि योजना ब्याज पर आधारित है, इसलिए यह योजना ग़ैर-इस्लामी है।

मोदी सरकार ने 2015 में ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओं’ अभियान के तहत यह योजना शुरू की थी। सुकन्या समृद्धि योजना केंद्र सरकार की ख़ास योजना है। इस योजना के तहत 10 साल तक की बच्चियों का बैंक खाता मात्र 250 रुपए में किसी पोस्ट ऑफिस या कमर्शियल ब्रांच की अधिकृत शाखा में उनके माता-पिता द्वारा खुलवाया जाता है। इस योजना के तहत खुलवाए गए खातों में जमा राशि पर 8.6% सालाना ब्याज (वर्तमान दर) दिया जाता है। शरिया के अनुसार, इस योजना के तहत मिलने वाला ब्याज ही इसे ग़ैर-इस्लामी बनाता है।

हालाँकि, विभिन्न मोबाइल ऐप के माध्यम से वित्तीय लेनदेन, जैसे कि PayTM या यहाँ तक ​​कि एक मोबाइल ऐप के माध्यम से टैक्सी बुक करने को भी शरिया के अनुसार वैध माना जाता है। इसके अलावा यह भी स्पष्ट किया गया कि वैध वस्तुओं के विज्ञापन के लिए Google AdSense का उपयोग करना भी वैध है, जबकि Google AdSense के ज़रिए फिल्मों और अवैध कार्यक्रमों को बढ़ावा देना वैध नहीं है।

जमीयत उलेमा ए हिन्द के मीडिया प्रभारी अजीमुल्लाह सिद्दीकी ने बताया कि इस हफ़्ते की शुरुआत में संगठन द्वारा आयोजित तीन दिवसीय सम्मेलन में बच्चियों के लिए चलाई जा रही छोटी बचत योजना पर एक प्रस्ताव पारित किया गया। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के कमाल फारुकी ने कहा कि बैंक के पास पूँजी के माध्यम से ब्याज अर्जित करना ‘ग़ैर-इस्लामी’ है।

दारुल उलूम देवबंद का ‘फतवा विभाग’ अक्सर ‘ग़ैर-इस्लामिक’ घोषित करने के लिए चर्चा में रहता है। पिछले साल इसने सीसीटीवी कैमरों को ‘ग़ैर-इस्लामिक’ घोषित किया था। इससे पहले, ऐसी ख़बर आई थी कि उन जगहों में ‘निकाह’ आयोजित नहीं किया जाएगा, जहाँ संगीत और नृत्य हो रहा या डीजे बज रहा हो। यह इस्लाम के ख़िलाफ़ है, इस तरह के निक़ाह का बहिष्कार किया जाएगा। दारुल उलूम देवबंद ने दुकानदारों द्वारा चूड़ियाँ पहनने को लेकर भी मुस्लिम महिलाओं के ख़िलाफ़ फ़तवा जारी किया था क्योंकि अजनबी पुरुषों द्वारा महिलाओं का हाथ छूना ‘एक बड़ा पाप’ है।

देवबंद के मौलवियों ने एक बार जीवन बीमा के ख़िलाफ़ भी फतवा जारी किया था, क्योंकि उन्होंने दावा किया था कि जीवन और मृत्यु अल्लाह के हाथ में है और कोई भी बीमा कंपनी किसी व्यक्ति की लंबी उम्र की गारंटी नहीं दे सकती है।

इसके अलावा कुछ दिनों पहले दारुल उलूम देवबंद से जुड़े एक मौलवी ने फुटबॉल देखने वाली महिलाओं के ख़िलाफ़ फ़तवा जारी किया, क्योंकि पुरुषों को नंगे घुटनों में खेलते हुए देखना महिलाओं के लिए मना है।

अतीत में फेसबुक और व्हाट्सएप जैसी सोशल मीडिया वेबसाइटों पर स्वयं और परिवार की तस्वीरें पोस्ट करने के ख़िलाफ़ भी फतवे जारी किए गए थे। नए साल के जश्न और डिजाइनर बुर्के भी इसी फतवे में शामिल थे।

15 साल की मुस्लिम लड़की को भगवान कृष्ण के रूप में तैयार करने और गीता का पाठ करने के ख़िलाफ़ भी फ़तवा जारी किया गया था। एक देवबंद उलेमा ने कथित तौर पर भगवान कृष्ण के रूप में तैयार लड़की पर अपनी नाराज़गी व्यक्त की थी और इसे इस्लाम विरोधी तक करार दिया था।

20 किलो की ‘कंकाल’: पति और सास की हैवानियत, दूधमुँहे बच्चों पर भी नहीं खाया तरस

30 मार्च को केरल के कोल्लम में तुषारा नाम की एक 27 वर्षीय युवती को दहेज के कारण भूख से तड़पा-तड़पा कर मार दिया गया। इस मामले में रोंगटे खड़े कर देने वाली बात यह है कि जिस समय युवती की मौत हुई, उस वक्त उसका वजन केवल 20 किलो था। महिला की अस्पताल में मौत के बाद पुलिस ने मामले की जाँच शुरू कर दी।

पुलिस के अनुसार महिला के पति (चंदूलाल) और सास (गीतालाल) द्वारा उसे दहेज के लिए प्रताड़ित किया जाता था। जिसके चलते दोनों ने तुषारा को खाना भी देना बंद कर दिया था। लंबे समय से महिला को केवल भीगे चावल और चीनी का पानी दिया जा रहा था। आज (अप्रैल 1, 2019) राष्ट्रीय महिला आयोग ने इस मामले से जुड़ी खबरों का संज्ञान लेते हुए केरल के पुलिस महानिदेशक को इस मामले में सख्त और तत्काल कार्रवाई करने के लिए एक पत्र भी जारी किया है।

पुलिस की मानें तो महिला का शरीर कंकाल जैसा दिखने लगा था, जिसमें मुश्किल से ही कोई मांस बचा था। रिश्तेदारों के आरोप हैं कि उसे इस प्रकार प्रताड़ित करने के पीछे दहेज मुख्य कारण था।

तुषारा की माँ विजयलक्ष्मी का कहना है कि उनकी बेटी को पिछले पाँच साल से परेशान किया जा रहा था और घर के किसी सदस्य से भी नहीं मिलने दिया जाता था। तुषारा की माँ कहती हैं कि उन्होंने पुलिस में इस बात की सूचना इसलिए नहीं दी थी क्योंकि उन्हें डर था कि वे लोग उसे मार देंगे। चंदूलाल के पड़ोसी का आरोप है कि महिला पर मानसिक और शारीरिक रूप से अत्याचार किया जाता था।

यहाँ बता दें कि महिला का विवाह 2013 में हुआ था। शादी के समय महिला के घरवालों ने कुछ सोने के गहने, रुपए लड़के के परिवार वालों को दिए थे और 2 लाख रुपए बाद में देने का वादा किया था। महिला के दो बच्चे हैं, एक की उम्र तीन साल है और एक की डेढ़ साल है।