Monday, September 30, 2024
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जब बनी थी बॉलीवुड की अपनी राजनीतिक पार्टी, किसको था ख़तरा, कौन डरा, किसने धमकाया, क्या हुआ अंजाम?

भारत में राजनीति और फ़िल्म जगत का बहुत ही गहरा नाता रहा है। कभी किसी नेता के यहाँ अभिनेताओं के जुटान की ख़बर आती है तो कभी किसी अभिनेता या अभिनेत्री के चुनाव लड़ने की ख़बर आती है। दक्षिण भारत में एमजीआर, जयललिता और एनटीआर जैसे फ़िल्मी सितारों ने राजनीति में लम्बी पारियाँ खेली और मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुँचे। हाल ही में सुपरस्टार रजनीकांत और कमल हासन ने भी राजनीति में एंट्री की घोषणा की है। ऐसे में, क्या आपको पता है कि भारतीय अतीत में फ़िल्मी सितारों ने ख़ुद की राजनीतिक पार्टी बनाई थी और उस समय सबसे बड़े स्टारों में से एक रहे देव आनंद को अध्यक्ष बनाया गया था। वो आपातकाल का दौर था। कॉन्ग्रेस सरकार की सख्ती और क्रूरता से तंग इन सितारों ने राजनीतिक पार्टी की स्थापना की थी। आगे जानिए क्या हुआ इनका भविष्य?

आपातकाल ख़त्म होने के बाद जनता सरकार का दौर आया।। 1977 में बनी जनता सरकार के पतन के बाद फिर से नए चुनाव का ऐलान हुआ। स्थान था मुंबई स्थित ताज होटल और तारीख थी 14 सितंबर, 1979 भ्रष्टाचारी नेताओं के ख़िलाफ़ अभियान की शुरुआत करने का दावा करते हुए देव आनंद ने नेताओं को ‘सबक सिखाने के लिए’ नेशनल पार्टी के स्थापना की घोषणा की। देव साहब अपनी ऑटोबायोग्राफी ‘रोमांसिंग विथ लाइफ’ में लिखते हैं, “जिस देश से हम प्यार करते हैं- उसके लिए, क्यों न हम एक राजनीतिक पार्टी बनाएँ? ऐसा इसीलिए किया गया ताकि भारत की बिगड़ती हुई राजनीतिक व्यवस्था को उसी तरह सुन्दर बनाया जा सके, जैसा हम अपनी फ़िल्मों को भव्य बनाने के लिए करते हैं।

पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी के साथ देव आनंद के अच्छे रिश्ते थे

इस पार्टी को कई बड़े-बड़े फ़िल्मी सितारों ने ज्वाइन किया। रामायण फेम रामानंद सागर, शत्रुघ्न सिन्हा, वी शांताराम, हेमा मालिनी, संजीव कुमार जैसी फ़िल्मी शख्सियतों ने इस पार्टी को ज्वाइन किया। देव आनंद के कई क़रीबी लोगों व उनके भाई द्वारा कई टीम बनाए गए ताकि पार्टी का संविधान व नीतियाँ तैयार की जा सके। चुनावी घोषणापत्र और मेम्बरशिप अभियान के लिए भी कमेटी बनाई गई। और ऐसा नहीं है कि इस पार्टी को ठंडी प्रतिक्रिया मिली। असल में फिल्मीं सितारों की लोकप्रियता का ऐसा प्रभाव था कि भारी संख्या में लोग नेशनल पार्टी से जुड़े। मीडिया द्वारा उस पार्टी को ख़ास तवज्जो नहीं दी गई और पत्रकारों ने इसे फ़िल्म प्रमोशन का एक जरिया माना। लेकिन, जो लोग वहाँ उस प्रेस कॉन्फ्रेंस में उपस्थित थे, उनका कहना था कि देव आनंद गुस्से से लाल थे और भ्रष्टाचार, ग़रीबी इत्यादि को मिटाने की बातें कर रहे थे।

देव आनंद के उस भाषण को देखने वाले पत्रकारों ने आज की राजनीतिक नेताओं से तुलना करते हुए दावा किया कि उनके भाषण में कई ऐसी चीजें थी जो आज पीएम नरेंद्र मोदी और दिल्ली के सीएम अरविन्द केजरीवाल कहा करते हैं। इस प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद मुंबई के शिवाजी पार्क में एक रैली भी हुई। इस रैली में जवाहरलाल नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित ने भी शिरकत की थी। आपको बता दें कि उस दौरान विजयलक्ष्मी पंडित अपनी भतीजी इंदिरा से ख़ासी ख़फ़ा थी। जब आपातकाल लगा था, तब वो अपनी बेटी के साथ लंदन में थीं और वहीं उन्हें ये समाचार प्राप्त हुआ। उनके घर पहुँचने पर उनकी निगरानी होने लगी थी और उनके फोन टेप किए जाने लगे थे। उनके क़रीबी लोगों ने भी आपातकाल के डर से उनसे मिलना-जुलना बंद कर दिया था।

बाएँ से दाएँ: दिलीप कुमार, जवाहरलाल नेहरू, देव आनंद और राज कपूर

विजयलक्ष्मी पंडित का इस रैली में भाग लेना आश्चर्य वाली बात नहीं थी क्योंकि आपातकाल के बाद भी उन्होंने विपक्षी पार्टियों के प्रचार में अपना पूरा दम-ख़म झोंक दिया था। उन्होंने पूरे भारत का बृहद दौरा किया था ताकि इंदिरा गाँधी को हराया जा सके। मीडिया में पहले ही अफवाहों का दौर चल निकला था। पत्रकार इस उधेड़बुन में लगे थे कि किस दिग्गज नेता को कौन सा अभिनेता टक्कर देगा। चौधरी चरण सिंह के ख़िलाफ़ धर्मेंद्र के लड़ने की बात सामने आ रही थी। पटौदी परिवार के किसी व्यक्ति के भोपाल से और दारा सिंह के अमृतसर से लड़ने की ख़बर चल निकली थी। हालाँकि, इन अफवाहों से कुछ देर के लिए ही सही लेकिन कॉन्ग्रेस और जनता दल के नेताओं की पेशानी पर बल तो पड़े थे। तभी तो दोनों दलों के नेताओं ने नेशनल पार्टी को चुनाव से दूर रहने की चेतावनी दी थी।

फ़िल्म निर्माता आईएस जोहर ने तो ख़ुद को तत्कालीन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री राज नारायण के ख़िलाफ़ प्रत्याशी भी घोषित कर दिया था। उन्होंने एक इंटरव्यू में राज नारायण को जोकर बताते हुए ख़ुद की जीत का दावा किया था और ख़ुद को राज नारायण से भी बड़ा जोकर बताया था। लेकिन, नेशनल पार्टी का जितना ज़ोर-शोर से उद्भव हुआ, उतनी ही तेज़ी से पराभव भी। जैसा कि सर्वविदित है, फ़िल्म इंडस्ट्री के लोगों के कई व्यवसाय में रुपए लगे होते हैं, उन्हें शूटिंग के लिए स्थानीय सरकारों की अनुमति की ज़रूरत पड़ती है। कुल मिलाकर देखें तो फ़िल्म इंडस्ट्री के लोगों को अगर अपना व्यवसाय चलाना है तो उन्हें नेताओं की ज़रूरत पड़नी तय है। शायद, यही नेशनल पार्टी के पराभव का कारण भी बना। राज नारायण ने तो जोहर के हाथ-पाँव तोड़ने की बात तक कह दी थी।

अभिनेता और अभिनेत्री सरकार व नेताओं की धमकियों के कारण पीछे हटने लगे। उन्हें अपना हित नज़र आने लगा। जहाँ उनके लाखों-करोड़ों रुपए दॉंव पर लगे हों, वहाँ उन्हें नेताओं से दुश्मनी लेना सही नहीं लगा। नेताओं ने अपनी धमकियों में उन्हें परिणाम भुगतने की भी चेतावनी दी थी। यहाँ तक कि रामानंद सागर भी अलग हट लिए। अकेले पड़े देव आनंद के पास राजनीतिक सपनों को विराम देने के अलावा और कोई और चारा न बचा। ख़ुद देव आनंद के नेहरू और वाजपेयी से अच्छे रिश्ते थे। ख़ुद को एमजीआर से प्रेरित बताने वाले देव आनंद ने बाद में लिखा भी कि वह इंदिरा गाँधी के तौर तरीकों से नाराज़ थे। आपको बता दें कि जब पीएम वाजपेयी बस लेकर पाकिस्तान गए थे, तब उन्होंने देव आनंद को भी उस यात्रा का हिस्सा बनने के लिए बुलाया था।

तो ये थी एक पूर्ण रूप से बॉलीवुड की पार्टी के उदय और अस्त की कहानी। नेशनल पार्टी ऑफ इंडिया तो चली गई लेकिन कई अभिनेताओं-अभिनेत्रियों ने राष्ट्रीय व अन्य पार्टियों के जरिए चुनावी समर में क़दम रखा। शत्रुघ्न सिन्हा, सुनील दत्त और चिरंजीवी जैसे अभिनेता केंद्र सरकार में मंत्री बने। विनोद खन्ना, हेमा मालिनी और हाल ही में मनोज तिवारी भी राजनीति में सफल हुए। महानयक अमिताभ बच्चन ने भी राजनीति में हाथ आजमाया लेकिन विवादों के कारण उनकी पारी असफल रही। जया बच्चन सपा से जुड़ी। इसी तरह कई फ़िल्मी सितारों ने राजनीति से अपना वास्ता बनाए रखा लेकिन उत्तर भारतीय सितारों ने अलग राजनीतिक पार्टी नहीं बनाई।

वर्तमान राजनीति को सर्कस कहने वाले चिदंबरम ख़ुद की ‘जोकर’ वाली भूमिका पर क्या कहेंगे

लोकसभा चुनाव सिर पर हैं और कॉन्ग्रेसी खेमे की हताशा और निराशा बेक़ाबू होती जा रही है। अपने ‘बिगड़े’ मानसिक संतुलन के चलते कब कौन क्या कह दें कुछ पता नहीं। ऐसी ही एक हरक़त कॉन्ग्रेस के पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने अपने एक आर्टिकल के माध्यम से की। अपने इस आर्टिकल में उन्होंने बीजेपी को घेरते हुए कई मुद्दों को शामिल किया।

शुरुआत करते हैं उन मुद्दों से जिन्हें इस आर्टिकल के ज़रिए पीएम मोदी की छवि को धूमिल करने का प्रयास किया गया। चिंदंबरम ने पहला वार ‘चौकीदार’ शब्द पर किया और कहा कि चौकीदार होना सम्मानजनक काम है जो कई शताब्दियों से चला आ रहा है। चौकीदारों के लिए दिन-रात सब एक समान होते हैं।

चौकीदार प्रधानमंत्री की चौकीदारी, बन गया वो दर्द जिसका कोई इलाज नहीं

अपने लेख में उन्होंने पीएम मोदी पर निशाना साधते हुए उनके द्वारा चौकीदार शब्द के इस्तेमाल का मखौल उड़ाया। उनके इस प्रकार मखौल उड़ाने को मैं उनका दर्द कहूँगी। कारण स्पष्ट है क्योंकि देश के इसी चौकीदार की चौकीदारी का नतीजा था कि एयरसेल-मैक्सिस डील में पिता-पुत्र (पी चिदंबरम और कार्ति चिदंबरम) के घोटालों का पर्दाफ़ाश हुआ। आरोप यह है कि पिता-बेटे ने यह घोटाला तब किया था, जब यूपीए सरकार में वित्त मंत्री थे सीनियर चिदंबरम। उन पर आरोप लगा था कि उन्होंने पद पर रहते हुए ग़लत तरीक़े से विदेशी निवेश को मंज़ूरी दी थी। उन्हें केवल 600 करोड़ रुपए तक के निवेश की मंज़ूरी का अधिकार था लेकिन उन्होंने 3500 करोड़ रुपए के निवेश को मंज़ूरी दी, जो बाद में घोटाले के रूप में उजागर हुई।

बता दें कि इस घोटाले का संबंध 2007 से है, जब कार्ति चिदंबरम ने अपने पिता के ज़रिए INX मीडिया को विदेशी निवेश बोर्ड से विदेशी निवेश की मंज़ूरी दिलाई थी। ऐसा करने से INX मीडिया को 305 करोड़ रुपए का विदेशी निवेश प्राप्त हुआ था। इस कड़ी में इस बात का ख़ुलासा भी हुआ था कि कार्ति ने ही INX मीडिया के प्रमोटर इंद्राणी मुखर्जी और पीटर मुखर्जी से पी. चिदंबरम की मुलाक़ात करवाई थी।

इसके अलावा चिदंबरम की पत्नी नलिनी चिदंबरम के तार शारदा चिटफंड घोटाले से भी जुड़े पाए गए हैं। इसके लिए उनके ख़िलाफ़ सीबीआई ने चार्जशीट दाखिल की थी। सीबीआई का कहना था कि शारदा चिटफंड घोटाले में नलिनी चिदंबरम ने साल 2010 से 2012 के बीच 1.4 करोड़ रुपए लिए थे।

यूपीए सरकार में चौकीदार तो कोई था नहीं इसलिए उस समय के ‘चोरों’ को आज का पीएम रूपी चौकीदार तो खलेगा ही।

सर्कस और राजनीति को जोड़ना कितना न्यायसंगत

कॉन्ग्रेस की चिड़चिड़ाहट का कारण केवल और केवल पीएम मोदी हैं। यह चिड़चिड़ाहट और बौखलाहट किसी न किसी रूप में सामने आती रहती है। इस बार यह झुंझलाहट पी. चिदंबरम के रूप में सामने है। अपने आर्टिकल में उन्होंने बीजेपी की ख़िलाफ़त में वर्तमान शासन व्यवस्था को सर्कस का नाम दे डाला और कहा कि रिंगमास्टर (पीएम मोदी) हैं लेकिन शेर और बाघ तो हैं ही नहीं। रिंगमास्टर अपने चाबुक का इस्तेमाल केवल मेमनों और खरगोश पर कर रहा है। चिदंबरम की यह टिप्पणी बेहुदगी का प्रमाण है।

यूपीए की सरकार में कितने बाघ और चीते थे? इस बात का अंदाज़ा तो इसी बात से लग जाता है जब 2013 में कॉन्ग्रेस के राहुल गाँधी ने एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस में दागियों के चुनाव लड़ने संबंधी सरकारी अध्यादेश को सरासर बकवास करार दिया था और कह दिया था कि ऐसे अध्यादेश को फाड़कर फेंक देना चाहिए। जबकि यह अध्यादेश संसद में पास किया गया था और राहुल तब सिर्फ़ एक सांसद थे। इस बयान के बाद कई केंद्रीय मंत्रियों ने राहुल के ही सुर में सुर मिलाए थे, जबकि पहले वो पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पाले में थे।

मनमोहन सिंह का नाम आते ही एक बात और याद आ जाती है, जब उन्होंने स्वीकारा था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उनसे अधिक सक्षम सेल्समैन, इवेंट मैनेजर और कम्यूनिकेटर हैं। सिंह द्वारा इस बात को सहर्ष स्वीकार कर लेना कॉन्ग्रेस पार्टी को उनकी नाक़ामयाबियों का दर्शन कराना था। हालाँकि यह सर्वविदित है कि बतौर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपनी एक शांतचित्त और मौन धारण की छवि के लिए विख्यात थे। लंबे समय से प्रधानमंत्री पद पर रहने के बावजूद कुछ न कह पाना या हर मसले पर गाँधी परिवार का मुँह ताकना कितना कष्टकारी रहा होगा, इस बात का अंदाज़ा तो सत्ता से हटने के बाद उनके दिए गए इसी बयान से लगाया जा सकता है।

रोज़गार के नाम पर केंद्र को घेरने से पहले अपने समय को याद कर लेते तो यह सवाल ही न उठाते

अपने आर्टिकल में पी. चिदंबरम ने रोज़गार की बात उठाई जैसे उनके समय में रोज़गार का अंबार लगा हो। मोदी शासनकाल में कहीं भी रोज़गार को लेकर छंटनी का शोर नहीं सुना गया। कहीं नौकरी के लिए धरना-प्रदर्शन देखने को नहीं मिला जबकि यूपीए शासनकाल में एयर इंडिया के कर्मचारियों को हड़ताल करने तक की नौबत आ गई थी। इसी कड़ी में एयर लाइन के प्रबंधक ने 71 पायलटों को बर्खास्त कर दिया था जिसके बाद एयर इंडिया के पायलट भूख हड़ताल पर भी बैठ गए थे। तब देश के वित्त मंत्री  चिदंबरम साहब का ध्यान इस ओर नहीं था क्योंकि उस समय वो ख़ुद पैसा बनाने में व्यस्त थे।

यूपीए की विफलताओं के तमाम कारणों में बेरोज़गारी सबसे अहम मुद्दा था, जिसके ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन भी हुए। इसमें तत्कालीन सरकार (2011) को चेतावनी भरे लफ़्जों में कहा गया था कि अगर सरकार ने रोजगार नीति में सुधार नहीं किया तो भारत में मिश्र और लीबिया जैसे हालात पैदा हो सकते हैं।

किसानों को बरगलाना बंद करें, असलियत को स्वीकारें

पी. चिदंबरम ने अपने आर्टिकल के अंत में किसानों को टारगेट करके लिखा कि क्या केवल शेख़ी बघारने से किसानों की आय दोगुनी होगी। साथ ही किसानों की कर्ज़माफ़ी को भी मुद्दा बनाया। अब उन्हें कौन समझाए कि मध्य प्रदेश में कॉन्ग्रेस की सरकार बनने के बाद किसानों की कर्ज़माफ़ी की घोषणा की गई। एमपी सरकार द्वारा की गई किसानों की कर्ज़माफ़ी की घोषणा किसी मज़ाक से कम नहीं थी, जब इस बात का ख़ुलासा हुआ कि कर्जमाफ़ी के नाम पर किसानों को मात्र 13 रुपए और 15 रुपए के चेक थमाए गए, इस पर शिवपाल नामक एक किसान ने कहा था, “सरकार कर्ज़ माफ़ कर रही है तो मेरा पूरा कर्ज़ माफ़ होना चाहिए, 13 रुपए की तो हम बीड़ी पी जाते हैं।” इसके अलावा कर्ज़माफ़ी के नाम पर फ़र्ज़ी पतों और मृतकों के नाम पर भी कर्ज़माफ़ी का ख़ुलासा हुआ। इससे आहत होकर किसानों ने सामूहिक आत्महत्या करने तक की चेतावनी दे दी थी।

चिदंबरम जी, मैं आपको बताना चाहुँगी कि वर्तमान सरकार ने किसानों के लिए जो किया, वो पहले की सरकारों ने कभी नहीं किया। इसका सबूत आप उन योजनाओं के ज़रिए से जान सकते हैं, जिनके माध्यम से मोदी सरकार ने गाँवों की न सिर्फ़ तस्वीर बदल दी बल्कि आम जन-जीवन की बुनियाद को भी मज़बूत किया।

आज का भारत नया भारत है, जिसमें ग्रामीण और शहरी दोनों का विकास शामिल है। आज जो तस्वीर भारत की है, उसमें भारत का सशक्त रूप उभर कर दुनिया के सामने है। वो अलग बात है कि जिसकी आदत ही बिना सिर-पैर की बात करना हो तो उसे कुछ नहीं दिखाई देगा। सच तो यह है कि मोदी सरकार जब से सत्ता में आई तब से गाँधी परिवार और उनके प्रियजनों का सुख-चैन-नींद सब स्वाहा हो गया है। इसी का परिणाम है पी. चिदंबरम का यह आर्टिकल, जिसमें उनकी बेचैनी स्पष्ट नज़र आ रही है।

चुनावी मौसम में नेताओं के बदलते रंग, आम आदमी बन रेल यात्रा पर निकलेंगी प्रियंका गाँधी

ये बात तो जगज़ाहिर है कि नेताओं के लिए कुर्सी का मोह सर्वोपरि होता है और इसके लिए वो किसी भी हद तक जाने की जद्दोज़हद करते नज़र आते हैं। नेताओं का ये रंग खासकर चुनावी मौसम में खुलकर सामने आता है। जिन्होंने कभी गरीबी का मुँह नहीं देखा, जिन्हें जन्म से ही राज सुख मिला है और जिनका दिन एसी वाले कमरों में गुज़रता है, जो हमेशा महँगी गाड़ियों में ही घूमते हैं, ऐसे नेता अगर ख़ुद को आम आदमी बताते हैं या फिर दिखाने की कोशिश करते हैं तो अटपटा तो लगता ही है। ऐसा लगता है कि वो आम जनता के बीच जाकर, ख़ुद को आम आदमी बताकर, उन्हें ही बेवकूफ बनाते हैं। मगर ये कुर्सी कुछ भी करवा सकती है।

दरअसल, हम यहाँ पर बात कर रहें हैं कॉन्ग्रेस महासचिव पूर्वी उत्तर प्रदेश की प्रभारी प्रियंका गाँधी वाड्रा की। जो कि चुनावी रणनीति साधने में जुटी हुई हैं और इसके लिए वो खुद को आम जन साबित करने की भी पुरज़ोर कोशिश कर रही हैं। उत्तर प्रदेश में कॉन्ग्रेस की खोई हुई जमीन तलाशने के लिए पार्टी महासचिव प्रियंका गाँधी वाड्रा बोट यात्रा के बाद अब ट्रेन यात्रा करेंगी। प्रियंका गाँधी राज्य में कॉन्ग्रेस पार्टी को खड़ा करने के लिए ट्रेन यात्रा के माध्यम से लोकसभा चुनाव में प्रचार करेंगी। प्रियंका ट्रेन के ज़रिए दिल्ली से कानपुर तक की यात्रा करेंगी। इस दौरान वो क़रीब आधा दर्जन सीटों को साधने की कोशिश करेंगी।

बता दें कि प्रियंका ने कुछ दिनों पहले ही बोट यात्रा के ज़रिए प्रयागराज से वाराणसी तक की यात्रा कर हिंदू वोटरों को साधने की कोशिश की थी। इस दौरान उन्होंने गंगा पूजा तो की ही साथ ही गंगा जल पीकर भी जनता को बरगलाने की कोशिश की। इसके साथ ही प्रियंका ने प्रयागराज में हनुमान मंदिर और वाराणसी में काशी विश्वनाथ के दर्शन करने के बाद मिर्जापुर में विंध्यवासिनी माता के भी दर्शन किए। प्रियंका ये सब पैंतरा ख़ुद को आम जन साबित करने के लिए कर रही हैं। मगर हक़ीकत तो यही है कि सोने के पालने में पलने वाली राजकुमारी क्या जाने ग़रीबी और आम आदमी की तकलीफों को।

इतना ही नहीं प्रियंका हिंदू वोटरों को साधने के लिए अब अयोध्या जाने का भी कार्यक्रम बना रही हैं। आख़िरकार चुनावी माहौल में गाँधी परिवार को राम लला की भी याद आ ही गई। चूँकि चुनावी मैदान में राम मंदिर का मुद्दा गरमाया है, तो ऐसे में गाँधी परिवार को तो राम लला की याद आनी ही थी। काफी लंबे अरसे बाद गाँधी परिवार का कोई सदस्य अयोध्या में राम लला के दर्शन के लिए पहुँच रहा है। इसके लिए काशी में ज़मीन तैयार की गई है।

वैसे ग़ौर करने वाली बात तो ये भी है कि इस तरह की कोशिशें सिर्फ़ चुनाव के समय में ही क्यों नज़र आती है? क्यों सिर्फ़ चुनाव के समय में ही इनको आम आदमी की याद आती है और वो ख़ुद को आम जन दिखाने के लिए कई क़वायदें करते हैं। ख़ैर, ये तो सभी जानते हैं कि चुनावी मौसम के जाते ही ये किस तरह से अपना रंग बदलेंगे। चुनाव के बाद ना तो इनकी शक्लें दिखाई देंगी और ना ही ये आम आदमी वाला अवतार।

माँ के रुदन को नज़रअंदाज़ कर मासूम की हत्या करने वाले आतंकियों का कैसा मानवाधिकार?

जम्मू कश्मीर के बांदीपोरा इलाक़े में आतंकियों ने एक 12 वर्ष के बच्चे की हत्या कर दी। वैसे, यह आतंकियों के लिए कोई नई बात नहीं है, ख़ासकर इस्लामिक चरमपंथी आतंकियों के लिए। अगर हम पूरी दुनिया में कट्टर इस्लामिक आतंकवाद से पीड़ित क्षेत्रों में हुई घटनाओं को ध्यान से देखें तो पता चलता है कि इस तरह की नृशंस हत्याएँ करके वे लोगों को भयभीत करना चाहते हैं। चाहे पाकिस्तान स्थित पेशावर के एक स्कूल में घुस कर छोटे बच्चों को मार देने वाली घटना हो या मिलिट्री परेड पर आक्रमण कर के किसी बच्चे की जान ले लेना, आतंकियों के लिए यह एक आम बात है। क़दम-क़दम पर मानवाधिकार हनन करने वाले इन आतंकियों के मानवाधिकार की बात की जाती है। कुछ तथाकथित मानवाधिकार कार्यकर्ता यह मानते हैं कि अगर सेना को कोई चोट पहुँचे या किसी जवान की जान जाए तो यह उनका फ़र्ज़ है, लेकिन अगर उन्होंने कोई कार्रवाई की तो आतंकियों के मानवाधिकार की बात आ जाती है।

जिनमें मानव के कोई लक्षण ही न हो, उनका कैसा मानवाधिकार? इससे पहले कि हम इस पर आगे बढ़ें, एक नज़र में पूरी घटना को जान लेते हैं। आतंकियों ने 12 वर्ष के मासूम बच्चे को 9 घंटे बंदी बनाकर डर के साये में रखा और फिर गला घोंटकर उसकी हत्या कर दी। गुरुवार (मार्च 14, 2019) को उसे उसके चाचा के साथ अपहरण कर लिया गया था। शुक्रवार को 12 वर्षीय आतिफ़ का शव बरामद किया गया। इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित ख़बर के अनुसार, बच्चे की माँ ने आतंकियों से अपने बेटे को रिहा करने की भी अपील की थी लेकिन आतंकियों ने उनकी एक न सुनी। पूरी रात अल्लाह से अपने बेटे की सलामती माँगने वाली माँ को जब पता चला कि उसी अल्लाह के नाम पर जेहाद करने वाले आतंकियों ने उनके बेटे की हत्या की है, तो उनके होश उड़ गए।

वहीं दूसरी तरफ सुरक्षा बलों के पक्ष को देखिए। इसे समझने के साथ ही आपको पता चल जाएगा कि भारतीय जवान कश्मीर में किए गए हर ऑपरेशन्स में कैसे वहाँ के नागरिकों का ख़्याल रखते हैं। दरअसल, आतंकी किसी लड़की के बारे में पूछताछ कर रहे थे। जब आतंकियों को उस लड़की का कुछ अता-पता नहीं चला तो उन्होंने अब्दुल हामिद के पोते आतिफ़ को ही निशाना बना लिया। आतंकियों की जानकारी मिलते ही सुरक्ष बल के जवानों ने पूरे क्षेत्र को घेर लिया और मुठभेड़ शुरू हो गई। लेकिन, जवानों ने सबसे पहली प्राथमिकता वहाँ फँसे निर्दोष नागरिकों को बचाने को दी। एक-एक कर उन्होंने वहाँ फँसे सभी कश्मीरी नागरिकों को बाहर निकाला। लेकिन, वो बच्चा बेचारा आतंकियों के चंगुल में फँस गया।

सुरक्षा बलों ने बच्चे की सलामती के कारण फायरिंग रोक दी। जवानों ने बच्चे की सलामती को पहली प्राथमिकता माना। अल्लाह के नाम पर जेहाद करने वाले आतंकियों को मनाने के लिए मौलवी तक भी बुलाए गए, लेकिन दरिंदों ने किसी की भी एक न सुनी। उलेमाओं और मौलवियों के आग्रह तक को नज़रअंदाज़ करने वाले इन आतंकियों ने मुठभेड़ स्थल पर आकर रो-रो कर निवेदन कर रही माँ के क्रंदन पर भी कोई ध्यान नहीं दिया। बँधक बने अब्दुल हामिद ने किसी तरह अपने पोते को लेकर बाहर निकलने का प्रयास किया लेकिन वह अपने पोते को बचाने में सफल नहीं हो सका। उसे तो सुरक्षाबलों ने किसी तरह कवर कर के निकाल लिया, लेकिन आतिफ़ को बचाया न जा सका।

शुक्रवार (22 मार्च) सुबह तक सुरक्षा बलों ने दोनों आतंकियों को मार गिराया। इस मुठभेड़ में वो मकान भी बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया, जिसमें आतंकी छिपे हुए थे। लड़की की तलाश में निकले आतंकियों द्वारा मारे गए निर्दोष बच्चे का शव भी झुलसी हुई स्थिति में बरामद किया गया। लाउड स्पीकर से ग्रामीणों ने भी बच्चे को छोड़ने की अपील की थी, लेकिन आतंकियों ने उनकी एक न सुनी। अली भाई और हुज़ैफ़ नाम के दोनों आतंकियों को 24 घंटे तक चली मुठभेड़ के बाद मार गिराया गया। ये सबक कश्मीर के मुट्ठी भर उन लोगों के लिए भी है, जो स्वेच्छा से आतंकियों को पनाह देते हैं, या फिर उनके प्रति सहानुभूति रखते हैं। आतंकी जब अपने मज़हब के बच्चों तक को नहीं बख़्श रहे, ऐसे में उनसे कुछ और की उम्मीद करना बेईमानी ही नहीं बल्कि मूर्खता भी है।

मासूम आतिफ़ की अंतिम यात्रा

यहाँ तीन बातें ग़ौर करने लायक है। पहली, आतंकियों ने मौलवियों और उलेमाओं की एक नहीं सुनी। दूसरी, आतंकी जिस घर में बैठ कर खा-पी रहे थे, उनके घर का ही चिराग छीन लिया। और तीसरी, सुरक्षा बलों ने नागरिकों की सलामती को पहली प्राथमिकता दी। इन तीनों बातों से उन कथित मानवाधिकार की बात करने वालों की पोल खुलती है, जो कश्मीर में आतंकियों से सहानुभूति जताते हैं। ये कैसा जेहाद है, जहाँ मस्जिद के लाउडस्पीकर से किए गए निवेदन का भी कोई स्थान नहीं है? यह कैसा जेहाद है, जहाँ एक निर्दोष बच्चे की गला घोंटकर निर्मम हत्या कर दी जाती है, वो भी तब जब उनकी माँ लगातार रो-रो कर उसे छोड़ने की अपील कर रही हों। क्या ये इंसान कहलाने के लायक भी हैं जिनके मानवाधिकार की बात की जाती है?

यहाँ एक और बात है, जिस पर ध्यान देना आवश्यक है। एसएसपी राहुल मलिक ने पत्रकारों से कहा कि आतंकी अली उक्त क्षेत्र में 2 वर्षों से सक्रिय था। कोई आतंकी अगर किसी समाज या क्षेत्र में 2 वर्षों से छिप कर रह रहा है तो ऐसा संभव ही नहीं है कि स्थानीय लोगों को इसकी भनक न हो। हो सकता है कि वहाँ कुछ ऐसे भी लोग हों, जिन्होंने उसे शरण दे रखी हो या उसे खाते-पिलाते हों। बच्चे की माँ ने रोते हुए आतंकियों को यह भी याद दिलाया कि वो लोग उनके यहाँ आकर खाना खा चुके हैं। हो सकता है कि घर आए लोगों को खाना खिलाना फ़र्ज़ हो लेकिन वहाँ कौन से स्थानीय लोग थे जिनकी सहानुभूति वाली छतरी तले वो आतंकी शरण लिए बैठे थे?

इन आतंकियों के लिए जेहाद की अपनी एक परिभाषा है। ये समय और अपने फ़ायदे के हिसाब से निर्णय लेते हैं, जिसमे नृशंसता से काम लिया जाता है। ये मस्जिद को तबाह कर सकते हैं, अपनी कौम के किसी बच्चे का गला दबा सकते हैं, मौलवियों-उलेमाओं के आग्रह को धता बता सकते हैं और ज़रूरत पड़ने पर अपने कुकृत्यों को सही साबित करने के लिए अल्लाह की दुआई भी दे सकते हैं। इन आतंकियों से सहानुभूति जताने वाले इस घटना को लेकर एकदम चुप हैं क्योंकि ये उनके अजेंडे में फिट नहीं बैठता। वो आतंकियों की निंदा करने की बजाय मारे गए उन आतंकियों की पारिवारिक पृष्ठभूमि की खोज करने वाले लोग हैं। एक बार उस मासूम आतिफ़ को भी याद कीजिए और सोचिए कि क्या अली जैसे आतंकियों का कोई मानवाधिकार होना चाहिए?

हाल ही में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने भी एक रैंडम वीडियो ट्वीट कर दावा किया था कि कुछ हिन्दू किसी समुदाय विशेष वाले को मार रहे हैं। अगर आपसी झगड़े जिसका धर्म से कोई लेना-देना न हो, उनमे भी धर्म निकाला जा सकता है तो फिर अल्लाह के नाम पर कथित जेहाद करने वाले आतंकी, जो पग-पग पर अपना धर्म बताते चलते हैं और जिन्हें बचाने के लिए भी उनके धर्म का सहारा लिया जाता है, उनके धर्म की बात क्यों नहीं की जाती? अरविन्द केजरीवाल ने इस पर फ़िलहाल कुछ ट्वीट नहीं किया है। किसी ने किसी को एक झापड़ लगा दिया तो उसमे धार्मिक कोण निकाल कर उसे राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया जाता है। यहाँ एक निर्दोष मासूम की हत्या हो गई और इतनी ख़ामोशी क्यों पसरी है?

RLD ने क्यों चुनाव आयोग से कहा, हेमा मालिनी के विज्ञापनों पर रोक लगाई जाए

हेमा मालिनी के ब्रांड प्रचार विज्ञापनों के खिलाफ रालोद चुनाव आयोग पहुँच गया है। उत्तर प्रदेश के मुख्य चुनाव अधिकारी एल वेंकटेश्वरलु को लिखे पत्र में रालोद प्रवक्ता अनिल दुबे ने यह माँग रखी है।

आपको बता दें कि उत्तर प्रदेश के मथुरा लोकसभा क्षेत्र की वर्तमान सांसद और आगामी लोकसभा चुनावों में इसी सीट से प्रत्याशी हेमा मालिनी जानी-मानी अभिनेत्री और नृत्यांगना भी हैं, और इसी नाते केंट नामक आरओ वॉटर प्यूरीफायर बनाने वाली कंपनी ने उन्हें इस उत्पाद के प्रचार के लिए अनुबंधित किया हुआ है।

अपने पत्र में हेमा मालिनी को दिखाने वाले केंट के विज्ञापनों का जिक्र करते हुए अनिल दुबे ने इन्हें चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन बताया है। उन्होंने यह भी माँग की कि या तो इन विज्ञापनों पर रोक लगाई जाए, या इनके प्रसारण का खर्च हेमा मालिनी के चुनावी खर्च में शामिल कर दिया जाए।

उत्तर प्रदेश के मुख्य चुनाव अधिकारी एल वेंकटेश्वरलु से संपर्क कर मीडिया ने इस मामले की प्रगति जाननी चाही तो उन्होंने आश्वासन दिया कि मामले का जल्दी-से-जल्दी निपटारा कर दिया जाएगा।

अयोध्या विवादित ढाँचा मस्जिद नहीं, घर या मंदिर को जबरन छीनकर अल्लाह का घर नहीं बनाया जा सकता: महमूद मदनी

अयोध्या में चल रहे मंदिर-मस्जिद विवाद में मस्जिद पक्ष को गहरा झटका लगा है। जमीयत उलेमा-ए-हिन्द के महासचिव मौलाना महमूद मदनी ने बयान दिया है कि अयोध्या के विवादित ढाँचे को मस्जिद नहीं माना जा सकता। मदनी ने यह भी कहा कि श्रीराम देश की बहुसंख्यक आस्था के प्रतीक हैं। कट्टरपंथियों द्वारा श्रीराम के अनादर के बारे में उन्होंने दोटूक कहा कि इसकी इजाज़त कतई नहीं दी जा सकती।

मदनी के अनुसार किसी के घर या मंदिर को जबरन छीनकर अल्लाह का घर नहीं बनाया जा सकता। बीबीसी गुजराती के एक कार्यक्रम में अहमदाबाद में मदनी ने यह बयान दिया। साथ ही उन्होंने किसी को सेक्युलर, किसी को कम्युनल का ‘सर्टिफिकेट’ बाँटने पर भी आपत्ति जताई। उनके अनुसार हर पक्ष का अपना एक नजरिया होता है।

किसी भी पक्ष की ‘हार’ न हो, इसलिए महमूद मदनी ने आपसी बातचीत द्वारा इस मामले का हल निकालने का भी सुझाव दिया। गौरतलब है कि उच्चतम न्यायलय ने भी लगभग 60 साल से अदालत में चल रहे इस मामले को एक बार फिर बातचीत के सुपुर्द कर दिया है। साथ ही मध्यस्थता के लिए सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस कलीफुल्ला की अध्यक्षता में एक मध्यस्थता पैनल का भी निर्माण मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने किया है।

सामान्यतः मौलाना मदनी प्रधामंत्री नरेन्द्र मोदी के विरोधी माने जाते हैं। वे चौधरी अजित सिंह के राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) द्वारा राज्यसभा भी भेजे जा चुके हैं, और मोदी के पक्ष में बयान देने वाले गुलाम मोहम्मद वस्तानवी की दार-उल-उलूम से रुखसती में भी उनका हाथ होने की खबर मीडिया में आई थी।

अयोध्या विवाद: मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की आपात बैठक, क्या इससे नया मोड़ लेगी मध्यस्थता की पहल?

अयोध्या मामले में एक ताजा मोड़ के तहत ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने एक आपात बैठक बुलाई है। मीडिया में आ रही खबरों के अनुसार रविवार सुबह ही वर्किंग कमेटी की बैठक बुलाई गई है। हालाँकि, क्यों मीटिंग बुलाई गई है अभी इसका खुलासा नहीं किया गया है।

पर्सनल लॉ बोर्ड के सभी 51 सदस्यों के अतिरिक्त सुन्नी सेंट्रल वक्फ़ बोर्ड के प्रतिनिधियों के भी इस बैठक में शामिल होने की सम्भावना जताई जा रही है।

ज्ञात हो कि गत 13 मार्च को ही अयोध्या विवाद को लेकर बने मध्यस्थता पैनल ने अपनी पहली बैठक की जिसमें सभी पक्षों के विचार पैनल ने सुने। सुप्रीम कोर्ट से सेवानिवृत्त जस्टिस कलीफुल्ला की अध्यक्षता में बने इस पैनल के अन्य सदस्य आध्यात्मिक गुरू श्री श्री रविशंकर (आर्ट ऑफ लिविंग फाउंडेशन के अध्यक्ष) व वरिष्ठ अधिवक्ता व मध्यस्थता विशेषज्ञ श्रीराम पाँचू हैं।

सुप्रीम कोर्ट में पाँच जजों की पीठ के आदेश पर गठित इस पैनल को मध्यस्थता के लिए आवश्यक सभी सुविधाएँ उपलब्ध कराने के निर्देश राज्य सरकार को दिए गए हैं।

अब देखना ये है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा बुलाई गई इस आपात बैठक का क्या मतलब है और इसका मध्यस्थता पर क्या असर होगा?

इंडियन प्लेयर के जबरदस्त छक्के से टूट गई थी फाइव स्टार होटल की खिड़की और IPL में अब…

आईपीएल शुरू हो चुका है और उसके साथ ही क्रिकेट के सबसे रंगीन मौसम का आग़ाज़ भी हो चुका है। पहले क्रिकेट का नाम लेते ही रन, शतक और अर्धशतक की बातें होती थी लेकिन आईपीएल के उद्भव के बाद ये अब छक्कों-चौकों का त्यौहार बन चुका है। हर बाल पर बाउंड्रीज की चाहत लिए दर्शक भी इसी उम्मीद से टीवी और इंटरनेट से बँधे रहते हैं। और अगर हर बॉल पर छक्के लग रहें हों तो कहना ही क्या! बल्लेबाज भी आज हर बॉल को छक्के के लिए ऊपर उठाना चाहता है। अज़ीबोग़रीब शॉट्स के इस दौर में अगर छक्के लगाने से ही रन बन रहे हैं तो वही सही। दर्शकों का मनोरंजन बॉलर्स द्वारा विकेट लेने से नहीं होता बल्कि 6 बॉल पर 6 छक्के लगने से, यह अब एक जानी हुई बात है। कृष गेल, एबी डिविलियर्स और एमएस धोनी जैसे बल्लेबाज़ आज छक्के लगाने के लिए मशहूर हो चुके हैं और उनके क्रीज पर उतरते ही दर्शक मनोरंजन की उम्मीद में तालियाँ पीटता है, जो उसे मिलता भी है।

लेकिन, क्या आपको पता है कि पहले छक्के लगाना इतना आम नहीं था? जिस तरह से आज एक नया बल्लेबाज़ भी आकर समाँ बाँध देता है और बड़े से बड़े गेंदबाज़ों की भी धुलाई कर देता है, पहले ऐसा नहीं होता था। पहले छक्के क्रिकेट की दुनिया में सरप्राइज पैकेज होते थे। पहले के दिनों में छक्कों की वही अहमियत थी जो आज कमोबेश फुटबॉल में गोल की है। इसके लिए आपको एक वाकये से रूबरू कराने की ज़रूरत है। टेस्ट क्रिकेट की दुनिया के महानतम बल्लेबाज़ डोनाल्ड ब्रैडमैन ने जब अपने करियर का पहला छक्का मारा था, तब एडिलेड में त्यौहार जैसा माहौल बन गया था। ऐसी ही ख़ुशियाँ मनाई गई थीं, जैसी आज किसी देश द्वारा विश्व कप जीतने के बाद मनाई जाती है। ग्राउंड के बारटेंडर ने सारे दर्शकों को मुफ़्त में कोल्डड्रिंक और चिप्स बाँटे थे।

छक्कों का क्रिकेट की दुनिया में ऐसा महत्व हुआ करता था! इसी तरह जब भारतीय बल्लेबाज़ के श्रीकांत ने वेस्टइंडीज के ख़तरनाक गेंदबाज़ पैट्रिक पैटरसन की बॉल पर गगनचुम्बी छक्का मारा था, तब उस छक्के से तिरुवनंतपुरम के एक पाँच सितारा होटल की खिड़की का काँच टूट गया था। आपको ये जानकार आश्चर्य होगा कि उस छक्के के कारण टूटी हुई काँच को होटल मैनेजर ने सँजो कर रखा। उसने उसकी मरम्मत कराने से इनकार कर दिया। छक्कों की दुर्लभता के कारण लोगों की इनके प्रति दीवानगी भी ऐसी ही थी। ब्रैडमैन ने अपने पूरे टेस्ट व फर्स्ट क्लास करियर में सिर्फ़ 6 छक्के मारे। इसमें से एक भारत के ख़िलाफ़ था और बाकी इंग्लैंड के ख़िलाफ़। अब आईपीएल पर वापस आते हैं।

अगर आँकड़ों की बात करें तो मुंबई इंडियंस ऐसी टीम है जिसने जब भी कप जीता, उस सीजन में सबसे ज्यादा छक्के लगाए। मुंबई ने आईपीएल के छठे सीजन में 117, आठवें सीजन में 120 और दसवें सीजन में 117 छक्के लगा कर ट्रॉफी अपने नाम किया। अर्थात यह कि मुंबई ने जिस भी सीजन में सबसे ज्यादा छक्के लगाए, उसने ट्रॉफी हासिल की। कई टीमों के मामले में छक्के लगाना कप की गारंटी नहीं है। आईपीएल के पहले सीजन में सबसे ज्यादा छक्के लगाने वाली पंजाब रनर-अप भी नहीं रही। हाँ, चेन्नई सुपर किंग्स ने तीसरे सीजन में सर्वाधिक 95 छक्के लगा कर पहली बार ट्रॉफी अपने नाम की। अव्वल तो यह कि आईपीएल के पाँचवे सीजन में सर्वाधिक छक्के लगाने वाली आरसीबी (बेंगलुरु) सर्वाधिक 118 छक्के लगाने के बावजूद शीर्ष 4 में भी जगह नहीं बना पाई। यह दिखाता है कि छक्के हमेशा जीत की गारंटी नहीं होते।

आईपीएल में अबतक सबसे ज्यादा छक्के मारने वाले बल्लेबाज़ (साभार: IPLT20)

पूरे आईपीएल की बात करें तो क्रिस गेल छक्कों के मामले में बाकी के बल्लेबाज़ों से काफ़ी दूर खड़े नज़र आते हैं। आईपीएल में 292 छक्के लगा चुके गेल के आसपास भी कोई नहीं है। अब तक 292 छक्के लगा चुके गेल के बाद दूसरे नंबर पर आने वाले डिविलियर्स और उनके बीच 100 छक्कों से भी ज्यादा का अन्तर है, वो भी तब, जब डिविलियर्स ने गेल से ज्यादा मैच खेल रखे हैं। छक्कों के मामले में यह गेल के प्रभुत्व की कहानी कहता है। भारतीय बल्लेबाज़ों में एमएस धोनी के सबसे ज्यादा छक्के हैं, जो डिविलियर्स के बराबर ही है। इसके बाद रैना और रोहित शर्मा आते हैं, जो उनसे ज्यादा दूर नहीं हैं। कुल मिलकर देखें तो छक्कों के कारण ही गेल और डिविलियर्स जैसे बल्लेबाजों को देखने के लिए दर्शक उमड़ पड़ते हैं, भले ही वे उनकी फेवरिट टीम से न खेल रहें हों।

अतीत में छक्के लगाना इतना आम नहीं हुआ करता था। अब छक्के सरप्राइज़ पैकेज नहीं रहे। अब छक्के लगाना महान बनने की निशानी नहीं होती। भारत के सबसे विस्फोटक बल्लेबाज़ माने जाने वाले वीरेंद्र सहवाग ख़ुद छक्कों के मामले में आईपीएल में कभी अव्वल नहीं रहे। आईपीएल के तीसरे सीजन में सबसे ज्यादा रन बनाकर ऑरेंज कैप हासिल करने वाले पहले भारतीय सचिन तेंदुलकर भी आईपीएल के किसी सीजन में छक्कों के मामले में अव्वल नहीं रहे। आईपीएल में छक्कों की पहली बरसात ब्रैंडन मैकुलम ने की थी। अगर पूरे सीजन की बात करें तो उस समय दुनिया के सबसे ख़तरनाक सलामी बल्लेबाज़ों में से एक माने जाने वाले सनथ जयसूर्या ने पहले सीजन में सर्वाधिक 31 छक्के लगाए थे। इसके बाद के सीजनों में हैडेन, गेल, मैक्सवेल, कोहली और पंत जैसे बल्लेबाज़ रहे। लेकिन, ये भी इस बात की गारंटी नहीं कि सबसे ज्यादा छक्के लगाने वाले बल्लेबाज़ की टीम ही फाइनल में जीत दर्ज करेगी।

लेकिन हाँ, अगर आप सबसे कम छक्के लगाते हैं तो आईपीएल में आपकी कोई गुंजाईश नहीं है। अभी तक संपन्न हुए 11 सीजनों में 7 बार ऐसा हुआ है जब सबसे कम छक्के लगाने वाली टीम सबसे निचले पायदान पर रही हो। अर्थात यह कि अगर किसी टीम या प्लेयर को आज की क्रिकेट में फिट बैठना है तो उसके पास छक्के लगाने की क्षमता होनी चाहिए। अगर फुल टॉस बॉल आ रही हो तो आपके पास उसे सीधे स्ट्रैट या एक्स्ट्रा कवर पर उठाने की क्षमता होनी चाहिए। ऑफ में आ रही शार्ट बॉल को पॉइंट पर उठाने की कला जाने बगैर आपको आईपीएल में वाहवाही नहीं मिल सकती। आजकल अंतिम समय तक इन्तजार करने के बाद गेंद को छक्के के लिए उठा कर विपक्षी टीम को चौंका देने का चलन भी बढ़ा है।

अब वो ज़माना गया जब डॉन ब्रैडमैन के एक छक्के पर दर्शकों को मुफ़्त में कोल्डड्रिंक और चिप्स नसीब होती थी। अब वो ज़माना भी गया जब श्रीकांत के छक्के से टूटी काँच को सहेज कर रख दिया जाता था। अब यह आम है। छक्के मनोरंजन की गारंटी है और मनोरंजन से आईपीएल का पूरा टूर्नामेंट चल रहा है। 12वाँ सीजन शुरू हो चुका है, लुत्फ़ उठाइए।

सपना चौधरी और कॉन्ग्रेस की आँख-मिचौली: जो झूठ बोले, उसको कौआ काटे

कॉन्ग्रेस की समस्याएँ कम नहीं हो रही हैं। पार्टी एक तरफ ये प्रचार कर रही थी कि सपना चौधरी ने कॉन्ग्रेस ज्वाइन कर लिया है और उन्हें मथुरा सीट से उम्मीदवार बनाया जा रहा है। वहीं आज हरियाणवी डांसर सपना चौधरी ने कॉन्ग्रेस में शामिल होने की खबरों से पूरी तरह इनकार कर दिया है। उन्होंने बाकायदा एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर इस बात का खुलासा किया।

सपना चौधरी ने कहा कि मीडिया में उनसे जुड़ी जो तस्वीरें चल रही हैं, वो बहुत पुरानी हैं। उन्होंने आगे कहा, “मेरी कॉन्ग्रेस में जाने की कोई इच्छा नहीं है। मैं कॉन्ग्रेस के लिए प्रचार नहीं करुँगी और मेरी राज बब्बर से कोई मुलाकात नहीं हुई है।”

सपना चौधरी ने ट्विटर एकाउंट को लेकर भी सफाई देते हुए कहा कि मेरा कोई ट्विटर एकाउंट नहीं है। मीडिया में जो तस्वीरें चल रही हैं, वो बहुत पुरानी हैं। उन्होंने यह भी कहा कि मैं एक कलाकार हूँ और फिलहाल राजनीति में जाने या चुनाव लड़ने की मेरी कोई इच्छा नहीं है। आश्चर्य की बात यह कि कई बड़े पत्रकार भी इस ख़बर को बिना वेरिफाई किए ट्विटर पर चला दिए थे। हालाँकि इनमें से ज्यादातर पत्रकार को यह लगता है कि कॉन्ग्रेस से जुड़ी कोई भी ख़बर हो, उसे प्रमुखता देनी चाहिए – और भक्त यह दूसरों को कहते हैं।

मीडिया रिपोर्ट (फेक) के अनुसार ये कहा जा रहा था कि सपना चौधरी ने कॉन्ग्रेस महासचिव प्रियंका गाँधी वाड्रा से मुलाकात की। जबकि सपना ने भविष्य में भी कॉन्ग्रेस से जुड़ने की बात से इनकार कर दिया है।

सपना चौधरी के इनकार के थोड़ी देर बाद अब कॉन्ग्रेस पार्टी ने एक दस्तावेज प्रकाशित करके इस इनकार का जवाब दिया है। कॉन्ग्रेस ने दावा किया है कि यह सपना चौधरी के नाम और उस पर उनके हस्ताक्षर के साथ कॉन्ग्रेस सदस्यता फॉर्म की प्रति है।

फॉर्म के साथ, कॉन्ग्रेस ने कलाकार द्वारा भुगतान सदस्यता शुल्क की रसीद की प्रति भी जारी की। यूपी कॉन्ग्रेस के सचिव नरेंद्र राठी ने दावा किया कि सपना चौधरी ने खुद ही सदस्यता फॉर्म भरा है। यह ध्यान दिया जा सकता है कि राठी की उपस्थिति में कुछ दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने वाली सपना चौधरी की तस्वीरें कल मीडिया द्वारा प्रकाशित की गई थीं। हालाँकि, सपना चौधरी ने दावा किया कि प्रियंका वाड्रा के साथ फोटो पुरानी है, लेकिन सपना ने नरेंद्र राठी के साथ अपनी तस्वीरों पर कोई टिप्पणी नहीं की थी।

‘मेरी दोनों बेटियों का धर्मांतरण कर दिया, अब मुझे गोली मार दो’

होली की पूर्व संध्या पर दो किशोर हिंदू लड़कियों, 13 वर्षीय रवीना और 15 वर्षीय रीना का अपहरण करके उन्हें पाकिस्तान के सिंध प्रांत में अपने उम्र से बहुत बड़े दूसरे समुदाय के पुरुषों से जबरन शादी करने के लिए मजबूर किया गया। हिन्दू किशोरियों पर हुए इस अत्याचार ने पूरे विश्व में लोगों को पाकिस्तान में हिन्दुओं के हालात पर सोचने के लिए मजबूर कर दिया।

लड़कियों के पिता का दिल दहला देने वाला वीडियो अब वायरल हुआ है। इसमें वो बेबस होकर दहाड़े मारकर रो रहे हैं और पुलिस के सामने अपनी शिकायत दर्ज कराने और दोषियों पर कार्रवाई करने का अनुरोध कर रहे हैं। इनकी दोनों बेटियों का अपहरण कर लिया गया है और उनका धर्मांतरण कर निकाह करा दिया गया।

रवीना और रीना नामक नाबालिग हिंदू लड़कियों के पिता पुलिस स्टेशन के सामने रोए, गिड़गिड़ाए और विरोध भी किए। वायरल हुए वीडियो में पिता को यह कहते हुए सुना जा सकता है, “आप मुझे गोली मार सकते हैं, मैंने बहुत सब्र किया, लेकिन अब मैं अपनी बेटियों के वापस आने तक यहाँ से नहीं जाऊँगा”।

इसी बीच, सिंध प्रांत के कई हिंदुओं ने कथित तौर पर अपहरणकर्ताओं के खिलाफ शिकायत दर्ज करने से इनकार करने के बाद पुलिस अधिकारियों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया। पाकिस्तान में हिंदू देश के सबसे वंचित और सबसे ज्यादा सताए गए अल्पसंख्यकों में से एक हैं।

घटना के बाद, केंद्रीय विदेश मंत्री ने रविवार को पाकिस्तान के सिंध प्रांत में होली की पूर्व संध्या पर दो हिंदू लड़कियों के अपहरण पर विवरण मँगाया है। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने पाकिस्तान में भारतीय उच्चायुक्त से घटना पर रिपोर्ट भेजने को कहा है।