देश में पांच राज्यों के लिए हुए विधानसभा चुनावों और उसके ताजा परिणामों के बाद एक बार फिर से नोटा (उपर्युक्त में से कोई नहीं) को लेकर बहस छिड़ गई है। लगभग साढ़े छह प्रतिशत लोगों ने इन चुनावों में किसी भी उम्मीदवार को अपना वोट देने की बजाय नोटा का विकल्प दबाना ज्यादा बेहतर समझा। पांचो राज्यों की इकट्ठे बात करें तो नोटा ने आम आदमी पार्टी, समाजवादी पार्टी और वाम दलों को काफी पीछे छोड़ दिया। ये सारे दल को मिले मत नोटा को मिली मतों से काफी कम रहे। पांचो राज्यों में नोटा को कुल पन्द्रह लाख वोट पड़े। नोटा को मिले वोटों के महत्त्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राकांपा और माकपा, भाकपा जैसे दलों को भी नोटा से काफी कम वोट मिले।
अगर मध्य प्रदेश की बात करें तो अठारह सीटों पर उम्मीदवारों के हार-जीत का अंतर उन सीटों पर नोटा को मिले वोटों से कम रहा। इसका मतलब ये कि नोटा दबाने वाले लोगों ने अगर किसी उम्मीदवार के लिए वोट किया होता तो शायद उन सीटों पर नतीजे कुछ और होते। ऐसे में इस बात पर चर्चा होना लाजिमी है कि आखिर नोटा से किसको फायदा है? क्या नोटा से जनता को फायदा होता है? या फिर सत्ताधारी दल को? या विपक्ष को? इन सब बातों पर चर्चा करेंगे लेकिन पहले जानते हैं कि सरसंघचालक मोहन भागवत ने क्यों चुनावों से पहले कई बार मतदाताओं को चेताते हुए नोटा न दबाने की सलाह दी थी।
संघ प्रमुख ने सितम्बर में विज्ञान भवन में आयोजित तीन दिवसीय ‘भविष्य का भारत: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दृष्टिकोण, व्याख्यानमाला के अंतिम दिन लोगों के सवालों के जवाब देते हुए कहा था “नोटा में हम लोग सर्वोत्तम को भी किनारे कर देते हैं और इसका फायदा सबसे बुरा उम्मीदवार ले जाता है। होना यह चाहिए कि हमारे पास जो सर्वोत्तम उपलब्ध है, उसे चुन लें। प्रजातंत्र में सौ फीसदी लोग सही मिलेंगे, ऐसा बहुत मुश्किल है।” उनका ये आकलन सही था क्योंकि मतदाता भले ही नोटा दबा कर यह समझे कि उसने सभी उम्मीदवारों को अस्वीकार कर दिया है लेकिन शायद उसे यह नहीं पता होता कि इस से किसी ऐसे उम्मीदवार की कम अंतर से हार हो सकती है जो उन सबमे सबसे बेहतर हो। ऐसे में नोटा को गए वोट अगर उस हारे उम्मीदवार को जाते तो वह जीत सकता था। अगर इस कारण किसी बुरे उम्मीदवार की जीत हो जाती है तो फिर नोटा दबाने के कोई मायने ही नहीं रह जाते।
उदाहरण के तौर पर मध्य प्रदेश को देखा जा सकता है। यहाँ भाजपा को कांग्रेस से ज्यादा वोट पड़े लेकिन सीटें कांग्रेस को ज्यादा मिली। इसके बावजूद भी कांग्रेस बहुमत के लिए जरूरी सीटों के आंकड़े से पीछे ही रह गई। यहाँ नोटा को 1.4% मत पड़े। वहीं भाजपा और कांग्रेस के बीच मतों का अंतर सिर्फ 0.1% रहा. ऐसे में ये 1.4% वोट अगर दोनों में से किसी भी पाले में गए होते तो उस पार्टी को पूर्ण बहुमत मिल सकता था जो कि तुलनात्मक रूप से एक ठोस और स्थिर सरकार के लिए जनादेश होता। इसीलिए इस सवाल का उठना लाजिमी है कि क्या नोटा के कारण जिस पार्टी को वोट ज्यादा मिले उसे सीटें कम मिली और जिसे सीटें ज्यादा मिली वो पार्टी बहुमत से पीछे रह गई। ये आंकड़े बताते हैं कि नोटा से जनता का तो फायदा नहीं ही हुआ।
नोटा को लेकर बहस की शुरुआत तभी हो गई थी जब गुजरात चुनाव में तीस सीटों पर उम्मीदवारों के हार-जीत के बीच का अंतर नोटा को मिले मतों की संख्या से कम रहा था। ये अपने-आप में एक बड़ी बात थी।
आरएसएस प्रमुख ने अक्टूबर में दशहरा के मौके पर भी लोगों को नोटा न इस्तेमाल करने की सलाह देते हुए कहा था-“किसी भी पार्टी में सारे गुण नहीं होते हैं। राष्ट्रीय हित में काम करने के लिए सौ प्रतिशत पारदर्शी होना चाहिए। इसलिए जो श्रेष्ठ विकल्प हो उसे चुनना चाहिए। यदि आप नोटा का विकल्प चुनते हैं तो वह उस पार्टी के पक्ष में जाएगा तो राष्ट्रहित के खिलाफ है। इसलिए नोटा को चुनना सबसे खराब को चुनने जैसा है। इसलिए इस तरह का आत्मघाती कदम न उठाएं।” उनके बार-बार इस बात को दुहराने से इस बात का पता चलता है कि उन्हें कहीं न कहीं इस बात का अंदाजा था कि नोटा दबाने को लेकर जो दुष्प्रचार फैलाया जा रहा है उसका विपरीत असर आगामी चुनावों में पड़ सकता है। आखिर वो कौन से लोग थे जिन्होंने सोशल मीडिया पर नोटा को लेकर अभियान चलाया था?
जब सरकार ने एससी एसटी एक्ट को लेकर अध्यादेश जारी किया तब सवर्णों को भड़काने के लिए नोटा का प्रचार किया गया। जब सरकार ने सबरीमाला पर अदालत के फैसले के खिलाफ कोई स्टैंड नहीं लिया तब दक्षिण भारतीयों को नोटा दबाने के लिए भड़काया गया। राम मंदिर का मामला जो कि अदालत में लंबित है, उसे लेकर ये साबित करने की कोशिश की गई कि सरकार राम मंदिर के पक्ष में नहीं है। इसे लेकर हिन्दुओं को भड़का कर नोटा दबाने की सलाह दी गई। ये अपील किसी दल की तरफ से नहीं आती है- ऐसे में ये पता लगाना कठिन हो जाता है कि ये दुष्प्रचार फैलाने वाले लोग कहाँ से आते हैं और कौन हैं। हो सकता है कि इन्हें राजनीतिक उपयोग के लिए इस्तेमाल किया जा रहा हो। या फिर ये भी हो सकता है कि कोई ऐसी पार्टी जिसे हार का डर हो और वह वोटों को अपनी तरफ खींचने में नाकाम होने पर अपने फायदे के लिए नोटा के प्रयोग से जीतने वाली पार्टी को मिलने वाले वोटों की संख्या कम करना चाहती हो।
राजस्थान के ताजा चुनाव परिणामों का ही उदाहरण लेते हैं। यहाँ भी पंद्रह सीटों पर नोटा को मिले वोटों की संख्या उम्मीदवारों की हर-जीत के अंतर से ज्यादा रही। ऐसे में अगर ये वोट किसी उम्मीदवार को पड़ते तो नतीजे कुछ और हो सकती थे। यहाँ भी कांग्रेस बहुमत के करीब जाकर रह गई लेकिन जरूरी सीटों के आंकड़े तक नहीं पहुँच सकी। इसका मतलब ये हुआ कि कांग्रेस को निर्दलीयों या किसी अन्य दल की मदद से सरकार चलानी पड़ेगी। अगर यहाँ नोटा को मिले मत भाजपा या कांग्रेस को मिले होते तो उनके पास आठ-दस ज्यादा सीटें हो सकती थी जिसे किसी पार्टी को स्थिर सरकार चलाने के लिए मिला जनादेश माना जाता। इसीलिए यहाँ भी नोटा को पड़े मतों ने दोनों तरफ का खेल बिगाड़ा।
यहाँ ये बताना जरूरी हो जाता है कि भारतीय लोकतंत्र में नोटा का इस्तेमाल शीर्ष अदालत के आदेश के बाद 2013 के विधानभा चुनावों में पहली बार किया गया था। अदालत का मानना था कि अगर कोई मतदाता किसी भी उम्मीदवार को अपना वोट नहीं देना चाहता है तो फिर वह वो गुप्त रूप से नोटा दबा सकता है। इस आदेश के बाद चुनाव आयोग ने इवीएम में नोटा विकल्प को जोड़ा। लेकिन उसी शीर्ष अदालत ने अगस्त 2018 में दिए अपने निर्णय में राज्यसभा चुनावों में नोटा के इस्तेमाल की इजाजत देने से मना कर दिया। ऐसे में इस सवाल का उठना लाजिमी है कि अगर नोटा एक चुनाव में प्रासंगिक है तो फिर दूसरे चुनाव में वही विकल्प अप्रासंगिक कैसे हो सकता है? क्या राज्यसभा चुनावों में सभी उम्मीदवार बेहतर होते हैं? अगर नोटा एक सही विकल्प है तो फिर इसे प्रत्येक चुनाव में क्यों नहीं इस्तेमाल किया जा सकता है? या फिर ये मान लिया जाए कि राज्यसभा चुनावों में उम्मीदवार बुरे हो ही नहीं सकते क्योंकि अदालत ने वहां नोटा के प्रयोग को मंजूरी नहीं दी। ये एक विरोधाभास है जिसकी चर्चा होनी चाहिए।
सितम्बर में इंडिया टुडे के एक रिपोर्ट के अनुसार भाजपा नेता सी एन अग्रवाल ने ये आकलन किया था कि कुछ लोग भले ही भाजपा से गुस्सा हों पर वो विपक्षी पार्टियों से भी खुश नहीं हैं। उनका मानना था कि नोटा से उच्च जाती, पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदायों से जुड़े उम्मीदवारों पर असर पड़ेगा जबकि दलित उम्मीदवारों को इस से फायदा मिलने की सम्भावना है। ऐसे में बसपा को फायदा होगा। और हुआ भी यही। क्योंकि जहाँ सपा का प्रदर्शन नोटा से भी खराब रहा वहीं बसपा को कहीं-कहीं कुछेक सीटें आ गई। अब सवाल यह उठता है कि क्या नोटा से नतीजों पर वैसा ही प्रभाव पड़ता है जैसा मतदाता चाहते हैं और अगर नहीं तो फिर इसके कारण चुनाव परिणामों में होने वाले उलट-पुलट की जिम्मेदारी किसकी? अगर कुछ लोगों द्वारा नोटा के पक्ष में हवा तैयार करवा कर कोई दल या समूह चुनाव को प्रभावित कर सकता है तो फिर तैयार रहिये; क्योंकि भविष्य में ये खेल और भी बड़े स्तर पर खेला जायेगा।