Tuesday, October 8, 2024
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‘हमारे फैसलों में लोगों की राय मायने नहीं रखती’: बोले नूपुर शर्मा पर टिप्पणी करने वाले जज, संसद से कहा – सोशल मीडिया पर लगाम लगाइए

उन्होंने सुप्रीम कोर्ट द्वारा समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटाए जाने को कानून की शासन का सबसे अच्छा उदाहरण बताया, जहाँ लोगों की राय के विरुद्ध न्यायपालिका ने फैसला दिया। साथ ही याद दिलाया कि सबरीमाला जैसे मुद्दे पर कानून का शासन और लोगों की राय में सबसे बड़ी लड़ाई देखने को मिलती है।

देश जलने के लिए ‘नूपुर शर्मा की फिसली जबान’ को जिम्मेदार बताने वाले सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस जेबी पारदीवाला ने रविवार (3 जुलाई, 2022) को ‘डॉक्टर एचआर खन्ना मेमोरियल सिम्पोजियम’ में ‘Vox Populi vs. Rule of Law: Supreme Court of India’ नामक कार्यक्रम को लंच के बाद सम्बोधित किया। इसे RMNLU और NLUO ने ‘CAN फाउंडेशन’ के साथ मिल कर आयोजित किया था।इस दौरान उन्होंने चार खन्ना को देश के महानतम जजों में से एक करार दिया।

इस दौरान जस्टिस जेबी पारदीवाला ने बताया कि पहली बार ‘Vox Populi’ का इस्तेमाल कैंटरबरी के एक अंग्रेज पादरी ने राजा एडवर्ड द्वितीय के खिलाफ किया था, जिसे वो गद्दी से हटाना चाहता था। अतः, शुरुआत में इसका इस्तेमाल नकारात्मक परिप्रेक्ष्य में हुआ। जस्टिस जेबी पारदीवाला ने कहा कि कानून के शासन में लोगों की इच्छाओं के साथ संतुलन बनाना कठिन है। उन्होंने कहा कि अधिकतर जज जजमेंट लिखते समय सोचते हैं कि लोग क्या कहेंगे।

उन्होंने दावा किया कि इसके सामाजिक दुष्परिणाम आते हैं। उन्होंने कानून के शासन को भारतीय लोकतंत्र का सबसे खास विशेषता बताते हुए कहा कि इसका करियर भारतीय संविधान से शुरू हुआ था। उन्होंने कहा कि जिन देशों में संसद से शासन नहीं चलता, वहाँ भी कानून का शासन रहता ही है। उन्होंने कहा कि तानाशाही में भी कानून का शासन रहता है, ऐसे में भारत में कानून के शासन की स्क्रूटनी सतर्क ढंग से होनी चाहिए।

उन्होंने कहा, “लोगों के बीच चर्चाएँ और बहस विधायिका में होते हैं और अदालत का निर्णय ये होता है कि भारतीय कानून निर्माण को बाकी देशों से क्या अलग करता है। उदाहरण के लिए, ब्रिटेन में संसद की संप्रभुता सर्वोच्च है। लेकिन, भारत में विधायिका के क्षेत्र को परिभाषित किया जा सकता है और कानून की अदालत में चुनौती भी दी जा सकती है। भारत में अदालतों के पास शक्ति है कि वो कानून की वैधता को लेकर जजमेंट दे सकें।”

जस्टिस जेबी पारदीवाला ने इसी आधार पर भारत में कानून के शासन को बाकी देशों से अलग करार दिया। उन्होंने कहा कि वो इस पर मजबूती से यकीन करते हैं कि कानूनी फैसलों के मामलों में लोगों की राय शायद ही मायने रखती है। उन्होंने कहा कि न्यायपालिका के फैसलों को लोगों की राय प्रभावित नहीं करने चाहिए। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र में हम अदालत के फैसलों को मानते हैं, इसका ये अर्थ नहीं कि वो हमेशा सही होते हैं लेकिन हम उन्हें मानते हैं।

उन्होंने सुप्रीम कोर्ट द्वारा समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटाए जाने को कानून की शासन का सबसे अच्छा उदाहरण बताया, जहाँ लोगों की राय के विरुद्ध न्यायपालिका ने फैसला दिया। साथ ही याद दिलाया कि सबरीमाला जैसे मुद्दे पर कानून का शासन और लोगों की राय में सबसे बड़ी लड़ाई देखने को मिलती है। उन्होंने जजमेंट से वाक्य उठाया कि सभी लोगों को याद रखना चाहिए कि भारत का संविधान एक पवित्र पुस्तक है।

उन्होंने मीडिया कवरेज पर भी आपत्ति जताई और कहा कि सुनवाई अदालत में होनी चाहिए, लेकिन डिजिटल मीडिया द्वारा ट्रायल करना न्यायपालिका के काम में अनुचित हस्तक्षेप है। उन्होंने इसे ‘लक्ष्मण रेखा’ लाँघना बताते हुए कहा कि आधी सच्चाई बताई जाती है जो कि और ज्यादा समस्या पैदा करती है। उन्होंने कहा कि सोशल मीडिया में जजमेंट की आलोचना की बजाए जजों की व्यक्तिगत आलोचना होती है, जिससे न्यायपालिका को नुकसान पहुँचता है। उन्होंने संवेदनशील मुद्दों की सुनवाई के दौरान सोशल मीडिया में चल रही टिप्पणियों को नियंत्रित करने के लिए संसद को सलाह दी।

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ऑपइंडिया स्टाफ़
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कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया

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