Saturday, April 20, 2024
Homeरिपोर्टमीडियाशोभा डे और बिकाऊ मीडिया: जब गुलाम नबी ने खड़ी की थी किराए की...

शोभा डे और बिकाऊ मीडिया: जब गुलाम नबी ने खड़ी की थी किराए की कलमों (गद्दार, देशद्रोही पत्रकार) की फौज

वो जिसे “फेक न्यूज़” कहा जाता है, उसके लिए व्हाट्स एप्प जैसे माध्यमों की तुलना में बिकने वाली मीडिया कहीं ज्यादा जिम्मेदार है।

अक्सर रेलवे स्टेशन के पास की दीवारों पर जैसे “उत्तेजनावर्धक” दवाखानों के प्रचार दिखते हैं, वैसी सिर्फ दवाएँ ही नहीं बनतीं। ऐसे किस्म के साहित्य की रचना भी होती रहती है। ऐसी ही “उत्तेजनावर्धक” किस्म का “साहित्य” रचने वाली शोभा डे आज चर्चाओं में हैं। चर्चा की वजह इस बार “उत्तेजनावर्धक साहित्य” नहीं है। इस बार पाकिस्तान के एक भूतपूर्व हाई कमिश्नर ने बयान दिया है कि उन्होंने शोभा डे से पाकिस्तान के समर्थन में जाने वाला एक लेख लिखवाया है। इसके लिए कोई रकम दी गई या नहीं, इस पर कोई बात फ़िलहाल तो नहीं हुई। हालाँकि शोभा डे ने अब्दुल बशीत के कहने पर लेख लिखने से इनकार किया है।

वैसे देखा जाए तो इस इनकार का कोई ख़ास मतलब नहीं होता। आज का दौर परंपरागत खरीद कर पढ़ी जाने वाली मीडिया का नहीं है, इसलिए सच्चाई कई बार दबाने की कोशिशों पर भी नहीं दबती। इसके अलावा भारत में मीडिया पर जनता का भरोसा भी (दुसरे कई देशों की तुलना में) काफी कम है। इस कहानी को देखने के लिए भी हमें थोड़ा पीछे चलना होगा। एक बार ये भी समझना होगा कि जिसे “फेक न्यूज़” कहा जाता है उसके लिए व्हाट्स एप्प जैसे माध्यमों की तुलना में बिकने वाली मीडिया कहीं ज्यादा जिम्मेदार है। भड़काऊ हेडलाइन के जनक माने जाने वाले विन्सेंट मुस्सेटो ने विदेशों में 1980 के दशक में ही इसकी शुरुआत को हवा दे दी थी।

1983 की 15 अप्रैल को न्यू यॉर्क टाइम्स में एक बार के मालिक की हत्या की खबर छपी तो हेडलाइन थी “ओनर ऑफ़ अ बार शॉट टू डेथ, सस्पेक्ट इज हेल्ड”, और इसी दिन एक दूसरे अख़बार न्यू यॉर्क पोस्ट में यही खबर आई तो उसमें हेडलाइन थी “हेडलेस बॉडी इन टॉपलेस बार”। खबर कुछ यूँ थी की कुईंस नाम की जगह पर एक हथियारबंद व्यक्ति ने बार के मालिक की हत्या कर दी थी और बार के ही एक बंधक से जबरन उसका सर कटवा लिया था। दूसरे अख़बारों ने जहाँ टॉपलेस बार और सर काटने कि बातों का फायदा नहीं उठाया वहीं इस एक हेडलाइन ने न्यू यॉर्क पोस्ट को चमका दिया। नैतिकता, और ज़िम्मेदारी की बोरिंग बातें फिर किसे याद रहती?

ख़बरों को विवादास्पद बनाने और उनमें हेडलाइन के जरिए “छौंक” लगाने की ये विधा “द टेलीग्राफ” जैसे अखबारों में आसानी से नजर आ जाती है। उपनिवेशवादी मानसिकता के बीबीसी जैसे मीडिया मुग़ल तो 1995 से ही कश्मीर के बारे में अफवाहें फैलाते रहे हैं। अभी अभी भारत सरकार ने एक दूसरे मामले में बीबीसी और अल जजीरा से एक बार फिर सवाल किए हैं। ये सभी मामले तब तक अधूरे ही रहते हैं जब तक हम गुलाम नबी का जिक्र नहीं कर लें। ये कॉन्ग्रेस पार्टी वाले नहीं एक दूसरे गुलाम नबी फाई हैं, जिन्हें 2011 में अमेरिका में सजा सुनाई गई थी।

ये दुर्जन खुद को डॉक्टर भी बताते हैं जबकि फिलेडेल्फिया की टेम्पल यूनिवर्सिटी से डॉक्टरेट के दौरान इन्होंने आधा पाठ्यक्रम भी पूरा नहीं किया था। कश्मीरी मूल के ये अमरीकी, एक “कश्मीर पीस फोरम” नाम की संस्था चलाते थे। मुक़दमे के दौरान अदालत में सिद्ध हुआ कि ये अपराधी न सिर्फ वक्ताओं की लिस्ट आईएसआई से लेता था, बल्कि वो क्या बोलेंगे, ये भी इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ़ पाकिस्तान की गुप्तचर संस्था, आईएसआई ही तय करती थी। अपने ही गिरोह के एक साथी ज़ाहिर अहमद के साथ जब गुलाम नबी को सजा हुई तो पता चला कि पाकिस्तान में कई सियासतदानों तक उसकी पहुँच थी। अमेरिका में उसकी पहचान के अधिकांश लोग वो थे, जिन्हें उसने कभी न कभी अपनी संस्था को मिले काले धन से चंदा दिया था।

इसकी गिरफ़्तारी पर एक राज और भी खुला था। या यूँ कह लीजिए कि खुलने के बावजूद दबा दिया गया था। अपने 81 पैराग्राफ के कबूलनामे में गुलाम नबी ने अपने कई अपराध कबूल किए थे। उसने केपीएफ के जरिए सिर्फ वक्ताओं को अपने पक्ष की झूठी कहानियाँ गढ़ने के लिए पैसे नहीं दिए थे। बल्कि उसने कई किराए की कलमें भी जुटा रखी थीं। इन किराए की कलमों (पत्रकार पढ़ें) ने उस वक्त कितने पैसे लेकर इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ़ पाकिस्तान के हक़ में क्या लिखा, इस पर भारत सरकार ने तब कोई विशेष जाँच नहीं की थी। ये सही वक्त होगा कि ये जाँच की जाए। कैम्ब्रिज एनालिटिका जैसी संस्थाओं पर चुनावों को प्रभावित करने के लिए पैसे देकर लिखवाने का आरोप अभी बहुत पुराना नहीं हुआ।

बाकी बाहर के शत्रुओं के साथ-साथ हम किराए की कलमों (गद्दार और देशद्रोही पत्रकार पढ़ें) पर कार्रवाई कब शुरू करते हैं, ये देखने लायक होगा। अनुच्छेद 370 और 35ए पर हुए फैसलों ने ये तो दिखा दिया है कि सरकार कड़े फैसले ले सकती है, लेकिन क्या वो जनहित का ढोंग रचने वालों पर भी लागू होगा? ये देखना अभी बाकी है।

Special coverage by OpIndia on Ram Mandir in Ayodhya

  सहयोग करें  

एनडीटीवी हो या 'द वायर', इन्हें कभी पैसों की कमी नहीं होती। देश-विदेश से क्रांति के नाम पर ख़ूब फ़ंडिग मिलती है इन्हें। इनसे लड़ने के लिए हमारे हाथ मज़बूत करें। जितना बन सके, सहयोग करें

Anand Kumar
Anand Kumarhttp://www.baklol.co
Tread cautiously, here sentiments may get hurt!

संबंधित ख़बरें

ख़ास ख़बरें

‘PM मोदी की गारंटी पर देश को भरोसा, संविधान में बदलाव का कोई इरादा नहीं’: गृह मंत्री अमित शाह ने कहा- ‘सेक्युलर’ शब्द हटाने...

अमित शाह ने कहा कि पीएम मोदी ने जीएसटी लागू की, 370 खत्म की, राममंदिर का उद्घाटन हुआ, ट्रिपल तलाक खत्म हुआ, वन रैंक वन पेंशन लागू की।

लोकसभा चुनाव 2024: पहले चरण में 60+ प्रतिशत मतदान, हिंसा के बीच सबसे अधिक 77.57% बंगाल में वोटिंग, 1625 प्रत्याशियों की किस्मत EVM में...

पहले चरण के मतदान में राज्यों के हिसाब से 102 सीटों पर शाम 7 बजे तक कुल 60.03% मतदान हुआ। इसमें उत्तर प्रदेश में 57.61 प्रतिशत, उत्तराखंड में 53.64 प्रतिशत मतदान दर्ज किया गया।

प्रचलित ख़बरें

- विज्ञापन -

हमसे जुड़ें

295,307FansLike
282,677FollowersFollow
417,000SubscribersSubscribe