Tuesday, April 23, 2024
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सागरिका हम समझते हैं, कुंठा छिपाने और अपनी किताब बेचने का यह तरीका पुराना है

पिता, चाचा, बुआ इत्यादि के नाम पर अपनी किराए की कलम चलाती एक तथाकथित लेखिका सागरिका घोष को समझना चाहिए कि ज्ञान या सम्मान दोनों अर्जित किए जाने की चीज़ें हैं, ये अपने-आप किसी परिवार में जन्म लेने से पैतृक संपत्ति की तरह नहीं मिलती।

अगर टीवी देखने वाले आम भारतीय लोगों से पूछा जाए कि “अंधे का पुत्र अँधा” किसने कहा था? तो पूरी संभावना है कि कई लोग बता बैठेंगे कि ये द्रौपदी ने कहा था। हो सकता है कुछ लोग आगे बढ़कर ये भी बताएं कि इन्द्रप्रस्थ नाम की पांडवों की नई राजधानी देखने जब दुर्योधन पहुँचे तो मय राक्षस द्वारा बनाए गए उनके महल को देखकर आश्चर्यचकित हुए। ये महल कुछ ऐसा था जहाँ सूखी जमीन पर पानी का वहम होता था और पानी से भरे स्थान सूखे लगते थे। बच-बचाकर चलने के प्रयास में बेचारा दुर्योधन गिर पड़ा और उसे देखकर द्रौपदी ने हँसकर कहा था, अंधे का पुत्र अँधा!

वो आगे बढ़कर ये भी बता सकते हैं कि ये “अंधे का पुत्र अँधा” कहकर दुर्योधन का मजाक उड़ाना ही दुर्योधन के क्रोध का कारण था। शायद वो ये भी कहें कि इसी एक वाक्य से महाभारत के युद्ध की नींव पड़ी थी! भारत में ऐसे कम पढ़े लिखे, सफ़ेद बालों वाले बच्चों की कोई कमी नहीं। द्रौपदी के एक वाक्य को महाभारत के युद्ध का कारण बताते समय वो अंगूठा चूसने वाले भूल जाते हैं कि इस इन्द्रप्रस्थ के बनने से काफी पहले ही दुर्योधन भीम को जहर देकर मारने का प्रयास कर चुका था। इसके अलावा वो लाक्षागृह बनवाकर उसमें सभी पांडवों को कुंती सहित जलाकर मारने का प्रयास भी कर चुका था।

जब ये सारे कुकर्म वो पहले ही कर चुका था, तब एक वाक्य पर उसके क्रुद्ध होने की क्या वजह हो सकती है? इर्ष्या-द्वेष की वजह से तो वो पहले से ही पांडवों को मार डालने का प्रयास करता आ रहा था! अब सवाल है कि क्या द्रौपदी ने सचमुच ऐसा कहा भी था? इसका जवाब है नहीं। ऋषि व्यास ने जिस महाभारत की रचना की थी उसके मुताबिक दुर्योधन जब इन्द्रप्रस्थ आया तो भीम उसे लेने पहुँचे थे और द्रौपदी उस समय अन्तःपुर में दूसरी तैयारियों में व्यस्त थी। भीम के साथ महल में आए दुर्योधन से द्रौपदी की भेंट भी नहीं हुई होगी। महाभारत के मुताबिक ऐसा कुछ नहीं हुआ था।

फिर ये हुआ कैसे? काफी पहले “धर्मयुग” नाम की एक पत्रिका आती थी, जिसके संपादक ने “अँधा-युग” नाम से एक धारावाहिक नाटक उसी पत्रिका में लिखा। ये महाभारत पर आधारित नाटक था जो अलग किताब के रूप में भी प्रकाशित हुआ। इसके लेखक महोदय के बारे में माना जाता है कि वो अपनी पत्नी को पीटते थे। इसी नाटक का एक डायलॉग था “अंधे का पुत्र अँधा”। संभवतः पत्नी से द्वेष के कारण उन्होंने सभी स्त्रियों के प्रति दुर्भावना पाल रखी थी। अंग्रेजी में ऐसे व्यवहार को “मिसोगायनी” भी कहते हैं। इसलिए अपने नाटक में उन्होंने युद्ध का इल्ज़ाम एक स्त्री पर डाल देने की कोशिश की। यही नाटक का डायलॉग बाद में टीवी श्रृंखला में भी इस्तेमाल किया गया था।

अपनी निजी कुंठा को इस तरह पूरे समाज पर थोपने का प्रयास कोई इकलौता नहीं है। ऐसी कोशिशें बार बार की जाती रही हैं। हाल में ही इसका एक उदाहरण ट्विटर पर चलने वाली मुडभेड़ में दिखाई दे गया। पिता, चाचा, बुआ इत्यादि के नाम पर अपनी किराए की कलम चलाती एक तथाकथित लेखिका सागरिका घोष ने युद्धों पर कुछ लिखने का प्रयास किया। भारत में सैनिक को ज्यादा सम्मान मिलना आम बात है। जहाँ घर के कई लोग (पति सहित) पत्रकारिता के व्यवसाय से जुड़े हों, वहां शायद उन्हें लगा होगा कि उन्हें इतना अमीर होने के बाद भी कम और सेना के मध्यमवर्गीय आय के व्यक्ति को ज्यादा सम्मान क्यों मिलता है?

अपनी निजी कुंठा में उन्होंने घोषणा शुरू कि युद्धों में मरने वाले सभी गरीबों के बच्चे होते हैं और अमीरों के बच्चे तो एसी कमरों में (उनकी ही तरह) बैठे रहते हैं। इस पर एक सैन्य अधिकारी ने ही उन्हें जवाब दे दिया और बताया कि सेना में ऐसा नहीं होता। जनरल अक्सर सिपाही के साथ ही खड़ा होता है और कोई गरीब होने की वजह से नहीं, देशप्रेम के कारण सेना में भर्ती होता है। अपने तर्क को काटा जाता देख तथाकथित लेखिका बिलकुल वैसे ही बिलबिलाई जैसे पूँछ पर पैर रख दिए जाने पर कोई कुत्ता! किस्म-किस्म के आरोप उन्होंने सैन्य अधिकारी पर मढ़ने शुरू ही किए कि कई दूसरे सैन्य अधिकारियों ने उन्हें अपनी भाषा सुधारने को कहना शुरू कर दिया। मगर अहंकारी तथाकथित लेखिका क्यों मानती?

वो युद्धों के बारे में अपनी जानकारी को थल सेना के एक अधिकारी से ज्यादा सिद्ध करने की मूर्खतापूर्ण कोशिश में लगी रही। ये अलग बात है कि युद्धों का उनका कुल अनुभव शून्य ही होगा। हाँ, उनके पति महोदय का न्यूयॉर्क में कुछ नागरिकों से हाथापाई का अनुभव जरूर है। जहाँ तक मुझे याद आता है, उस मामले में भी राजदीप पिटकर ही लौटे थे। तथाकथित लेखिका को समझना चाहिए कि ज्ञान या सम्मान दोनों अर्जित किए जाने की चीज़ें हैं, ये अपने-आप किसी परिवार में जन्म लेने से पैतृक संपत्ति की तरह नहीं मिलती। उन्हें कम सम्मान क्यों और सैन्य अधिकारियों को ज्यादा क्यों, ये भी कोई कुंठित होने का विषय नहीं होता।

बाकी अपनी कुंठा छुपाने के लिए या प्रकाशित होने से पहले ही अपनी किताब को विवादित बनाने के लिए ऐसी बहसें आम बात हैं और लोग अब इसे आसानी से पहचानने भी लगे हैं। कहीं ऐसा न हो कि बायकॉट जैसा कोई गांधीवादी तरीका फिर चले, और लेने के देने पड़ जाएँ!

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Anand Kumar
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