ईश्वर के स्त्री रूप को समर्पित नवरात्रि: दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती स्त्री-शक्ति के तीन आयाम, जानिए क्या है इसका आध्यात्मिक पक्ष

ईश्वर के स्त्री रूप को समर्पित नवरात्रि: दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती स्त्री-शक्ति के तीन आयामों की प्रतीक (तस्वीर साभार- स्टेट्समैन.कॉम)

शारदीय नवरात्रि यानि देवी माँ की उपासना का महापर्व इस वर्ष 2021 में 07 अक्टूबर दिन गुरुवार से चित्रा नक्षत्र, वैधृति योग में प्रारम्भ हो रहा है। यह नवरात्रि प्रकृति की मौलिक शक्ति की आराधना के साथ जन-जन में शक्ति एवं ऊर्जा का संचार करने वाला पवित्र पक्ष है। शक्ति के नौ स्वरूपों का प्रतीक शारदीय नवरात्रि दूसरी ओर वर्षा ऋतु का गमन एवं शरद ऋतु का आगमन होने से यह स्वास्थ्य की दृष्टि से भी संक्रमण काल होता है।

सनातन धर्म में इस पर्व को विशेष महत्व दिया गया है। आगे बढ़ने से पहले यदि शास्त्रीय और ज्योतिषीय गणना को ध्यान में रखकर बात की जाए तो पितृ पक्ष के अंतिम दिन यानी सर्व पितृ अमावस्या के अगले दिन से शारदीय नवरात्रि का प्रारंभ होता है। हिन्दी पंचांग के अनुसार, आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से शक्ति स्वरूपा माँ दुर्गा की आराधना का महापर्व नवरात्रि शुरु होती है। इस साल दो तिथियाँ एक साथ पड़ने की वजह से नवरात्रि आठ दिन का ही है। इस तरह से 7 अक्टूबर से शुरू होकर दुर्गा माँ की आराधना का ये पावन पर्व 14 अक्टूबर को महानवमी को समाप्त होगा।

शक्ति के नौ स्वरुप

नवरात्रि में माँ दुर्गा के नौ स्वरुपों माँ शैलपुत्री, माँ ब्रह्मचारिणी, माँ चंद्रघंटा, माँ कुष्मांडा, माँ स्कंदमाता, माँ कात्यायनी, माँ कालरात्रि, माँ महागौरी और माँ सिद्धिदात्री की पूजा क्रमश: की जाती है।

“शरदकाले महापूजा क्रियते या च वार्षिकी
सर्वाबाधा विनिर्मुक्तो धनधान्य सुतान्वित:।
मनुष्यो मतप्रसादेन भविषयति:न संशय:।।”

श्री दुर्गा सप्तशती में स्वयं भगवती माँ दुर्गा ने शारदीय नवरात्र के बारे में कहा है- “जो शरद काल की नवरात्रि में मेरी पूजा-आराधना तथा मेरे तीनों चरित्र (जिसका जिक्र आगे है) का श्रद्धा पूर्वक पाठ करता है एवं नवरात्रि पर्यंत व्रत रहते हुए तप करता है, वह समस्त बाधाओं से मुक्त होकर धन-धान्य से समपन्न हो यश का भागीदार बन जाता है, इसमें किंचित संशय नहीं है।

आइए आज नवरात्रि के प्रथम दिवस पर हम देवी के नौ स्वरूपों की बात न करके इसके महात्म्य, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक पक्ष में छिपे प्रतीकों को समझते हैं। हमारी पीढ़ी को इसे समझना इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि विभिन्न कारणों से हम अपनी सनातन संस्कृति में रचे-बसे त्योहारों और उनकी महत्ता को भूलकर चमक-धमक या बाह्य आडम्बरों में उलझकर सब खोते जा रहे हैं।

आगे बढ़ने से पहले आपको देवी की एकलय की प्रतिमा की याद दिलाना चाहूँगा। अभी बंगाल और कुछ जगहों को छोड़कर ज़्यादातर जगहों पर अलग-अलग सभी स्वरुप आने लगे हैं। मुख्यतः यह त्योहार स्त्री के सृजन पक्ष का है। सृजन से पहले विनाश या संहार भी आता है। माँ दुर्गा का महिषासुर मर्दिनी स्वरुप वही है साथ में होती हैं माँ लक्ष्मी और देवी सरस्वती। इसके अलावा आप प्रतिमाओं में भगवान गणेश और कार्तिकेय भी देखते हैं। ये कैसे जुड़ें इन प्रतीकों के संयोजन के पीछे क्या योजना रही इस पार बात अगले लेख में, अभी बात करते हैं देवी के सृजनात्मक स्वरुप की।

भगवान गणेश, देवी सरस्वती , माँ दुर्गा, लक्ष्मी और कार्तिकेय

नवरात्रि अर्थात स्त्री शक्ति की सृजनशीलता का पर्व, पारम्परिक रूप से देवी की पूजा करने वाली संस्कृतियाँ इस बात से पूरी तरह अवगत थीं कि अस्तित्व में बहुत कुछ ऐसा है, जिसे कभी समझा नहीं जा सकता। आप उसका आनंद ले सकते हैं, उसकी सुंदरता का उत्सव मना सकते हैं, मगर कभी उसे समझ नहीं सकते। कहा जाता है कि जीवन एक रहस्य है, ये रहस्य इसलिए भी है कि हमें परिणाम तो दिखता है लेकिन कारण लुप्त है। शायद जीवन हमेशा रहस्य ही रहे, जब तक हम खुद इस खोज के साधक न हो। सनातन परंपरा सदैव धर्म और अध्यात्म की इसी सतत खोज की परम्परा का वाहक है।

आगे और गहराई में उतरने से पहले आपको बता दूँ कि एक वर्ष में चैत्र, आषाढ़, आश्विन और माघ महीनों में चार बार नवरात्रि आती है, लेकिन चैत्र और आश्विन माह की शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक चलने वाले नवरात्र ही ज्यादा लोकप्रिय हैं। यह समय, आदि देवी माँ भगवती की आराधना और स्त्री शक्ति की सृजनशीलता का उत्सव मनाने के लिए श्रेष्ठ माना जाता है। नवरात्रि वह समय है, जब दोनों ऋतुओं का मिलन होता है। इस संधि काल मे ब्रह्मांड से असीम शक्तियाँ सतत ऊर्जा के रूप में मानवता का कल्याण करती हैं।

नवरात्रि क्यों है आदि सनातन परम्परा का वाहक

आइए इन सब पर बातें करते हैं। पहली बात सनातन परम्परा में जीवन का रहस्य यही है कि गंभीर न होते हुए भी पूरी तरह शामिल होना, जीवन के हर क्षण को उत्सव बनाना। तभी हम आध्यात्म की उन ऊँचाइयों तक पहुँच पाएँगे जहाँ तक मनुष्य रूप में पहुँचने की उच्चतम सीमा है।

नवरात्रि का उत्सव ईश्वर के स्त्री रूप को समर्पित है। दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती स्त्री-शक्ति यानी स्त्रैण के तीन आयामों की प्रतीक हैं। वे धरती, सूर्य और चंद्रमा या तमस (जड़ता), रजस (सक्रियता या जोश) और सत्व (परे जाना, ज्ञान, शुद्धता) की प्रतीक हैं।

तमस का अर्थ है जड़ता। रजस का मतलब है सक्रियता और जोश। सत्व एक तरह से सीमाओं को तोड़कर विलीन होना है, पिघलकर समा जाना है। इन तीन खगोलीय पिंडों से हमारे शरीर की रचना का बहुत गहरा संबंध है- पृथ्वी, सूर्य और चंद्रमा। इन तीन गुणों को इन तीन पिंडों से भी जोड़ कर देखा जाता है। धरती माँ को तमस माना गया है, सूर्य रजस है और चंद्रमा सत्व।

नवरात्रि के पहले तीन दिन तमस से जुड़े होते हैं। इसके बाद के दिन रजस से, और नवरात्रि के अंतिम दिन सत्व से जुड़े होते हैं। इन मूल गुणों के अनुसार नवरात्रि के नौ दिनों का वर्गीकरण किया जाता है। पहले तीन दिन दुर्गा को, अगले तीन दिन लक्ष्मी को और अंतिम तीन दिन सरस्वती को समर्पित हैं। दसवाँ दिन, विजया दशमी, जीवन के इन तीनों पहलुओं पर विजय का प्रतीक है।

जो लोग शक्ति, अमरता, क्षमता या सृजन की इच्छा रखते हैं, वे स्त्रैण के उन रूपों की आराधना करते हैं, जिन्हें तमस कहा जाता है, जैसे काली या धरती माँ अर्थात सृजन का आदिस्रोत प्रकृति। इस पर और प्रकाश डालते हुए सद्गुरु जग्गी वासुदेव कहते हैं, जो लोग धन-दौलत, जोश, उत्साह, जीवन और भौतिक दुनिया की तमाम दूसरी सौगातों की इच्छा करते हैं, वे स्वाभाविक रूप से स्त्रैण के उस रूप की ओर आकर्षित होते हैं, जिसे लक्ष्मी या सूर्य के रूप में जाना जाता है। जो लोग ज्ञान, बोध चाहते हैं और नश्वर शरीर की सीमाओं के पार जाना चाहते हैं, वे स्त्रैण के सत्व रूप की आराधना करते हैं। सरस्वती या चंद्रमा उस शक्ति के प्रतीक हैं।

तमस धरती की प्रकृति है जो सबको जन्म देने वाली है। हम जो समय गर्भ में बिताते हैं, वह समय तामसी प्रकृति का होता है। उस समय हम लगभग निष्क्रिय स्थिति में होते हुए भी विकसित हो रहे होते हैं। इसलिए तमस धरती और मनुष्यता के जन्म की प्रकृति है। हम सब सृजन के इस आयाम का अनुभव कर सकते हैं। हमारा पूरा जीवन इस पृथ्वी की देन है।

सनातन में पृथ्वी के इस आयाम से एकाकार होने को महत्वपूर्ण साधना के रूप में विकसित किया गया है। वैसे भी हम सब पृथ्वी के एक अंश हैं। प्रकृति जब चाहती है, एक शरीर के रूप में अपने गर्भ में सृजन कर हमें नया जीवन दे देती है और जब वह चाहती है, उस शरीर को वापस खाक कर अपने भीतर समा लेती है।

शक्ति का महिषासुरमर्दिनि स्वरुप और दूसरे में है त्रिदेवी स्वरुप

सद्गुरु कहते हैं, नवरात्री के अवसर पर इन तीनों आयामों में आप खुद को जिस तरह से शामिल करेंगे, वह आपके जीवन को एक नई दिशा देगा। अगर आप खुद को तमस की ओर ले जाते हैं, तो आप एक तरीके से शक्तिशाली होंगे। अगर आप रजस पर ध्यान देते हैं, तो आप दूसरी तरह से शक्तिशाली होंगे। लेकिन अगर आप सत्व की ओर जाते हैं, तो आप बिल्कुल अलग रूप में शक्तिशाली होंगे। लेकिन यदि आप इन सब के परे चले जाते हैं, तो बात शक्ति की नहीं रह जाएगी, फिर आप मोक्ष की ओर बढ़ेंगे।

कहते हैं, जो पूर्ण जड़ता है, वह एक सक्रिय रजस बन सकता है। रजस पुन: जड़ता बन जाता है। यह परे भी जा सकता है और वापस उसी तमस की ओर भी जा सकता है। दुर्गा से लक्ष्मी, लक्ष्मी से दुर्गा, सरस्वती कभी नहीं हो पाई। इसका मतलब है कि हम जीवन और मृत्यु के चक्र में फँसे हैं। उनसे परे जाना अभी बाकी है।

यह सिर्फ प्रतीकात्मक ही नहीं है, बल्कि ऊर्जा के स्तर पर भी सत्य है। इंसान के रूप में में हम धरती से निकलते हैं और सक्रिय होते हैं। कुछ समय बाद, हम फिर से जड़ता की स्थिति में चले जाते हैं। सिर्फ व्यक्ति के रूप में हमारे साथ ऐसा नहीं होता, बल्कि तारामंडलों और पूरे ब्रह्मांड के साथ ऐसा हो रहा है। ब्रह्मांड जड़ता की स्थिति से निकल कर सक्रिय होता है और फिर जड़ता की अवस्था में चला जाता है।

ध्यान रहे, बस हमारे अंदर इस चक्र को तोड़ने की क्षमता है। इंसान के जीवन और खुशहाली के लिए देवी के पहले दो आयामों की जरूरत होती है। तीसरा परे जाने की इच्छा है। कहते हैं, अगर आपको सरस्वती को अपने भीतर उतारना है, तो आपको प्रयास करना होगा। वरना आप उन तक कभी नहीं पहुँच सकते।

आसुरी शक्तियों की संहारक माँ भगवती नौ दुर्गा – देवी अपने 9 स्वरूपों के साथ

सनातन परम्परा में ही स्त्री शक्ति को सर्वाधिक महत्त्व हासिल है। स्त्री शक्ति की पूजा धरती पर पूजा का सबसे प्राचीन रूप है। स्त्री सृजन का पर्याय है। सिर्फ भारत में ही नहीं, अपितु यूरोप, अरेबिया और अफ्रीका के बड़े हिस्सों में भी कभी स्त्री शक्ति की पूजा होती थी। वहाँ देवियाँ होती थीं। दुर्भाग्यवश, पश्चिम में मूर्तिपूजा और एक से ज्यादा देवों की पूजा के सभी नामोनिशान मिटाने के लिए देवी मंदिरों को मिट्टी में मिला दिया गया। दुनिया के बाकी हिस्सों में भी यही हुआ।

धर्म न्यायालयों और धर्मयुद्धों का मुख्य मकसद मूर्ति पूजा की संस्कृति को मिटाना था। मूर्तिपूजा का मतलब देवी पूजा ही था। जो लोग देवी पूजा करते थे, उन्हें कुछ हद तक तंत्र-मंत्र विद्या में महारत हासिल थी। कामरूप कामाख्या मंदिर आज भी अपने तंत्र साधना के लिए ही विख्यात है। चूँकि, वे तंत्र-मंत्र जानते थे, इसलिए स्वाभाविक था कि आम लोग उनके तरीके समझ नहीं पाते थे। कहते हैं, उन संस्कृतियों में हमेशा से यह समझ थी कि अस्तित्व में ऐसा बहुत कुछ है, जिसे साधारण लोग आसानी से नहीं समझ सकते और इसमें कोई बुराई नहीं है। कोई भी उसे समझे बिना भी उसके लाभ उठा सकते हैं, जो हर किसी चीज के लिए हमेशा से सच रहा है।

मगर जब एकेश्वरवादी मज़हब यहुदी, इसाई और इस्लाम अपना दायरा फैलाने लगे, तो उन्होंने इसे एक संगठित तरीके से उखाड़ना शुरू कर दिया। उन्होंने सभी देवी मंदिरों को तोड़ कर मिट्टी में मिला दिया।

दुनिया में हर कहीं पूजा का सबसे बुनियादी रूप देवी पूजा या कहें स्त्री शक्ति की पूजा ही रही है। भारत इकलौती ऐसी संस्कृति है जिसने अब भी उसे सँभाल कर रखा है। सनातन परम्परा ने स्त्री शक्ति की पूजा को जारी रखा है। इसी संस्कृति ने हमें अपनी जरूरतों के मुताबिक अपनी देवियाँ खुद गढ़ने की आजादी भी दी। प्राण प्रतिष्ठा के विज्ञान ने हर गाँव को अपनी विशिष्ट स्थानीय जरूरतों के अनुसार अपना मंदिर बनाने में समर्थ बनाया। अगम शास्त्र में इसकी पूरी विधि है।

दूसरी ओर कई वजहों से धर्म को ज़्यादा संजीदगी से सहेजा है तो वह भारत का दक्षिण का हिस्सा है। दक्षिण भारत के हर गाँव में आपको आज भी अम्मन (अम्मा) या देवी के मंदिर मिल जाएँगे। इसके अलावा शिव की नगरी काशी, विंध्याचल से लेकर शायद ही भारत का ऐसा कोई क्षेत्र हो जहाँ देवी आराध्य न हो।

बेशक, आजकल पुरुष शक्ति समाज में सिर्फ इसलिए महत्वपूर्ण हो गई है क्योंकि हमने अपने जीवन में गुजर-बसर की प्रक्रिया को सबसे अधिक महत्वपूर्ण बना दिया है। आज सौंदर्य या नृत्य-संगीत, प्रेम, दिव्यता या ध्यान की बजाय अर्थशास्त्र हमारे जीवन की प्रेरक शक्ति बन गया है। जब अर्थशास्त्र हावी हो जाता है और जीवन के गूढ़ तथा सूक्ष्म पहलुओं को अनदेखा कर दिया जाता है, तो पौरुष कुदरती तौर पर प्रभावी हो जाता है। अगर स्त्री शक्ति नष्ट हो गई, तो जीवन की सभी करुणामयी, सौम्य, सहज और पोषणकारी प्रवृत्तियाँ लुप्त हो जाएँगी। (हालाँकि, स्त्रीत्व को इन चार शब्दों में समेटा नहीं जा सकता।) जीवन की अग्नि हमेशा के लिए नष्ट हो जाएगी। यह बहुत बड़ा नुकसान है, जिसकी भरपाई करना आसान नहीं होगा।

आज जब हम अपनी परम्परा और संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं तो ऐसे समय में उसके संरक्षण और संवहन की जिम्मेदारी उन सब पर है जिनकी रगों में आज भी सनातन संस्कृति रक्त बनकर बह रही है। आज जब हम आधुनिक वामपंथी शिक्षा की वजह से नकार की जड़ता के शिकार हो चुके हैं। इसी शिक्षा का एक दुर्भाग्यपूर्ण नतीजा यह भी है कि हम अपनी तर्कशक्ति पर खरा न उतरने वाली हर चीज को नष्ट कर देना चाहते हैं। जबकि हमारी तर्क की सीमा सनातन की सीमा नहीं बल्कि हमारी खुद के अज्ञान की सीमा है।

रवि अग्रहरि: अपने बारे में का बताएँ गुरु, बस बनारसी हूँ, इसी में महादेव की कृपा है! बाकी राजनीति, कला, इतिहास, संस्कृति, फ़िल्म, मनोविज्ञान से लेकर ज्ञान-विज्ञान की किसी भी नामचीन परम्परा का विशेषज्ञ नहीं हूँ!