शिंगणवाडी का संत, जिनके बताए मार्ग पर चलते थे छत्रपति शिवाजी, चरणों में अर्पित कर दिया था पूरा राज्य: नकारते हैं वामपंथी

छत्रपति शिवाजी महाराज और समर्थ रामदास के संबंधों की बात होते ही भड़क जाते हैं वामपंथी (फाइल फोटो)

भारत में एक के बाद एक महान हिन्दू शासक हुए हैं, जिन्होंने न सिर्फ युद्धभूमि में अपनी वीरता दिखाई, बल्कि धर्म के अनुसार शासन के लिए साधु-संतों की सलाह को प्राथमिकता दी। लेकिन, आज के वामपंथी न तो चन्द्रगुप्त मौर्य और चाणक्य के संबंधों को स्वीकार कर पाते हैं और न ही छत्रपति शिवाजी महाराज और समर्थ रामदास के। वो कहते हैं कि चाणक्य का कोई अस्तित्व ही नहीं था। वो कहते हैं कि छत्रपति शिवाजी और समर्थ रामदास अलग-अलग काल में थे।

जून 6, 1674 ही वो दिन था (ज्येष्ठ त्रयोदशी, 1596), जब लाखों लोगों की उपस्थिति में जयकारे के साथ शिवाजी का ‘छत्रपति’ के रूप में राज्याभिषेक हुआ था। जहाँ समर्थ रामदास का जन्म 1608 में हुआ है, छत्रपति शिवाजी उनके 22 वर्ष बाद जन्मे थे। 1680 में छत्रपति का निधन हुआ और इसके 1 साल बाद संत समर्थ रामदास का। फिर वामपंथी किस मुँह से दावा करते हैं कि दोनों का काल अलग-अलग था। असल में छत्रपति शिवाजी के राजनीतिक जीवन के दिशा-निर्देशक समर्थ रामदास ही थे।

महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री शरद पवार ने एक बार भाषण देते हुए इन दोनों के सम्बन्ध को नकार दिया था। उन्होंने कहा था कि ये झूठ है कि समर्थ रामदास, शिवाजी के गुरु थे और उन्होंने ही शिवाजी के व्यक्तित्व को तराशा। उन्होंने कहा था कि निष्पक्ष इतिहास में दोनों का समयकाल अलग-अलग मिलता है और चंद लोगों का उस समय कलम पर कब्ज़ा था, जिन्होंने ये थ्योरी गढ़ी। ब्राह्मणों और हिन्दू साधु-संतों के विरुद्ध इनके मन में ऐसी घृणा है कि ये उनके योगदान को स्वीकार कर ही नहीं पाते।

शिवाजी का राज्याभिषेक रायगढ़ में हुआ था, जो कोंकण में स्थित है। माँ जीजाबाई के लिए ये बहुत बड़ा क्षण था क्योंकि उनका बेटा औरंगज़ेब की कैद में मौत के मुँह से निकल कर आया था और वो अब राजमाता बन गई थीं, लेकिन इस कार्य में अपना रक्त बहाने वाले वीरों को वो याद करना नहीं भूलीं। हालाँकि, इस राज्याभिषेक के 12वें दिन उनका निधन हो गया था। लेकिन, छत्रपति शिवाजी माता के बताए आदर्शों पर चलते रहे।

समर्थ रामदास और शिवाजी के मुलाकात की कहानी भी दिलचस्प है। जब रामभक्त रामदास ने हनुमान जी की मूर्ति की स्थापना कर धार्मिक स्वतंत्रता की ओर कदम बढ़ाया था, उसी काल में तोरण दुर्ग जीत कर शिवाजी ने औरंगजेब के खिलाफ स्वतंत्रता का बिगुल बजाया था। शिवाजी को जब समर्थ रामदास के बारे में पता चला तो उन्होंने उन्हें मिलने के लिए पत्र भेजा। संदेश मिलते ही संत रामदास ने अपना प्रत्युत्तर भेजा।

इस पत्र में भारतवर्ष के महान संत ने लिखा कि उन्होंने देशाटन के समय कई राजा देखे हैं, लेकिन दिल्ली के मुग़ल दरबार के सामने सब भीगी बिल्ली बने रहते हैं। समर्थ रामदास ने स्पष्ट कर दिया कि उन्हें शिवाजी में शक्ति और युक्ति से सज्जित एक धर्म रक्षक की छवि दिखती है, जबकि उत्तर के कई राजाओं को धर्म की चिंता नहीं। उन्होंने धर्म स्थापना के पुनीत कार्य में शिवाजी का सहयोग माँगा। ये पढ़ कर शिवाजी आह्वादित हो गए।

कहते हैं कि उन्होंने फिर से इसके प्रत्युत्तर में पत्र तो लिखा लेकिन समर्थ रामदास से मिलने के लिए इतने अधीर हो उठे कि खुद ही पत्र लेकर चाफल के श्रीराम मंदिर के नीचे की पहाड़ी पर शिंगणवाडी के जंगलों में पहुँच गए। इसके बाद समर्थ रामदास जैसे शिवाजी के आध्यात्मिक ही नहीं बल्कि राजनीतिक दिशा-निर्देशक बन गए। उन्होंने भगवान श्रीराम का नाम लेकर छत्रपति को उनकी मनोकामनाओं की पूर्ति का आशीर्वाद दिया था।

तभी तो औरंगज़ेब की कैद से छूटने के बाद जिन लोगों ने शिवाजी को स्वदेश लाने में मदद की, उनमें समर्थ रामदास का बड़ा रोल था। शिवाजी ने राज्याभिषेक भी उनकी ही सलाह पर किया और सबसे पहले राजचिह्न उन्हें ही भेंट में दिया। इतना ही नहीं, वो राज्याभिषेक के बाद परिवार समेत समर्थ रामदास से मिलने पहुँचे। कर्नाटक के युद्ध में वेलूर में वैराग्य के प्रति आकर्षण हो या अफजल खान के छल को परास्त करना, समर्थ रामदास की सलाह हमेशा उनके काम आई। शिवथरगल में आज भी वो जगह मौजूद है, जहाँ समर्थ रामदास ने ‘दशबोध’ का लेखन कार्य किया था।

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शिवाजी का समर्थ रामदास से लगाव तो था ही, उसी समय वो संत तुकाराम से भी संपर्क में थे। ये वो समय था, जब दक्षिण में भी मराठा शक्तिशाली हो रहे थे और मराठी भाषा का प्रभाव बढ़ रहा था। इस्लामी आक्रांताओं का प्रभाव कम हो रहा था। औरंगज़ेब दक्षिण जीतना का ख्वाब पाले बैठा था, लेकिन बुढ़ापे तक उसकी ये इच्छा अधूरी ही रही। डेक्कन-डेक्कन करते हुए बूढ़े औरंगेजेब की मौत हुई और मराठा पूरे भारत में छा गए।

साहूजी और फिर बाजीराव ने जब दिल्ली तक मराठा साम्राज्य का विस्तार किया, तब शिवाजी भले इस धरती पर मौजूद नहीं थे लेकिन दिव्यलोक में अपने प्रयासों को फलीभूत होते देख उन्हें प्रसन्नता तो ज़रूर हुई होगी। वसंतराव वैद्य ने श्री शिव-समर्थ भेंट नामक पुस्तक लिखी है, जिसे ‘श्रीराम देवस्थान ट्रस्ट ऑफ चफल’ द्वारा प्रकाशित किया गया था। इस पुस्तक में वैद्य लिखते हैं कि शिवाजी महाराज ने समर्थ के 11 मारुति मंदिरों में से प्रत्येक को 11 बीघा जमीन दी थी।

तब शिवाजी द्वारा लिखे गए कुछ अंशों से ये भी पता चलता है कि उन्होंने अपना राज्य समर्थ गुरु रामदास के चरणों में अर्पित कर दिया था। इसे ‘चाफल का चार्टर’ भी कहते हैं। हालाँकि, कुछ इतिहासकार इसे लेकर संदेह भी जताते हैं। शिवाजी महाराज पटगाँव के मौनी महाराज, केल्शी के रामदास स्वामी, याकुतबाबा जैसे कई संतों और महंतों से सलाह लेते थे। आज के इतिहासकार जबरदस्ती शिवाजी को एक अलग प्रकार का ‘सेक्युलर’ साबित करने के प्रयास में लगे रहते हैं।

समर्थ गुरु रामदास के प्रति छत्रपति शिवाजी की भक्ति को दर्शाती राजा रवि वर्मा की पेंटिंग (साभार: https://rajaravivarma.net/)

लेकिन, इन्हीं इतिहासकारों की नजर में हिन्दू महंतों और साधु-संतों से परामर्श लेना ‘सेक्युलरिज्म’ के खिलाफ है। शिवाजी सभी धर्मों का आदर जरूर करते थे, लेकिन हिन्दू धर्म के राज्य की स्थापना ही उनका उद्देश्य था और साधु-संतों की शिक्षा ही उनके लिए जीवन जीने का मार्ग। लेकिन, वामपंथी इतिहासकार ये सब तभी मानेंगे जब डच, अंग्रेजों, इस्लामी आक्रांताओं और पुर्तगालियों ने कुछ ऐसा लिखा हो।

अब इन चारों ने समर्थ रामदास और शिवाजी संबंधों के बारे में नहीं लिखा तो वामपंथी इतिहासकार स्थानीय स्रोतों और इतिहास के साक्ष्यों को भी नकारने से गुरेज नहीं करते। इन्हें भारत के इतिहास के लिए भी विदेशी स्रोत चाहिए। अगर वीर सावरकर ने 1857 पर रिसर्च कर के दोबारा न लिखा होता तो आज ये उसको प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की जगह सिपाही विद्रोह वाले नैरेटिव में ही बहा रहे होते। इस तरह शिवाजी को ‘जाणता राजा’ कहने वाले समर्थ रामदास से उनके संबंधों पर इनकी भौहें तन जाती हैं।

अनुपम कुमार सिंह: चम्पारण से. हमेशा राइट. भारतीय इतिहास, राजनीति और संस्कृति की समझ. बीआईटी मेसरा से कंप्यूटर साइंस में स्नातक.