‘सत्ता के लालच से कॉन्ग्रेस का वर्तमान धूमिल’ – बोस, जिन्होंने गाँधी-नेहरू को छोड़ फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना की

81 साल पहले आज ही के दिन नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने फ़ॉरवर्ड ब्लॉक की घोषणा की थी

03 मई, 1939 को 81 साल पहले आज ही के दिन नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने फ़ॉरवर्ड ब्लॉक की घोषणा की थी। इसकी स्थापना के पीछे के घटनाक्रम में त्रिपुरी अधिवेशन की सबसे अहम भूमिका मानी जा सकती है।

त्रिपुरी अधिवेशन ने मानो नेहरू से लेकर महात्मा गाँधी और तमाम अन्य नेताओं को देश में और समकालीन नेताओं की दृष्टि में उनकी स्थिति का सटीक आकलन करा दिया था। महात्मा गाँधी और जवाहर लाल नेहरू के साथ-साथ ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार भी सुभाष चन्द्र बोस के करिश्माई व्यक्तित्व और उनकी लोकप्रियता से अच्छी तरह से परिचित थी। यही वजह थी कि ब्रिटिश सरकार ने खुद को हमेशा नेहरू का ज्यादा करीबी माना और वह सुभाष चन्द्र बोस से दूरियाँ बनाकर रखीं।

उस पर सुभाष चन्द्र बोस के ओजस्वी भाषण! महात्मा गाँधी की नाराजगी के बावजूद जबलपुर के तिलवाराघाट में हुए कॉन्ग्रेस के 52वें अधिवेशन में नेताजी को पूरी बुलंदी के साथ अध्यक्ष चुना गया था। महात्मा गाँधी की ओर से उम्मीदवार रहे, पट्टाभि सीतारमैया को 203 मतों से करारी हार मिली। यह हर हाल में अविश्वसनीय थी। इस पर जबलपुर में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस द्वारा त्रिपुरी अधिवेशन में दिए भाषण ने उनकी रणनीति और उनकी कार्यप्रणाली स्पष्ट कर दी थी।

अध्यक्ष चुने जाने पर अधिवेशन में सुभाष चन्द्र बोस ने अपने भाषण में भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस के समकालीन नेताओं में बढ़ रही सत्ता की चाह और उनकी भटकती हुई नीति के बारे में स्पष्ट रूप से चर्चा की, जिसने हार से पहले से ही बौखलाए महात्मा गाँधी से लेकर जवाहर लाल नेहरू, सबको चिंतित कर दिया।

अखिल भारतीय कॉन्ग्रेस अधिवेशन में नेता जी का भाषण

सुभाष चन्द्र बोस ने जबलपुर में दिए इस भाषण में स्वराज्य के प्रश्न को उठाया और कहा कि यही समय है जब ब्रिटिश सरकार को अल्टीमेटम दे दिया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि अंग्रेजों के प्रति हमारे निष्क्रिय बर्ताव और हमारे ऊपर संघीय सरकार लादने का समय बीत चुका है। भाषण का एक हिस्सा कुछ इस तरह से है-

“सर्वप्रथम सत्ता के लोभ के कारण हमारे प्रबंध में जो भ्रष्टाचार घुस आया है, उसे कठोरता से दूर करना होगा। बंधुओं! कॉन्ग्रेस का वर्तमान वातावरण धूमिल हो चुका है और मतभेद उभर आए हैं। फलस्वरूप हमारे अनेक मित्र खिन्न-चित्त और हतोत्साहित हैं। किन्तु मैं अपरिवर्तनीय आशावादी हूँ। आप जिस मेघ को देख चुके हैं, वह गुजरता मेघ है। मुझे अपने देशवासियों के देशप्रेम पर विश्वास है। हमें भरोसा है शीघ्र ही हम इन कठिनाइयों पर विजय पाएँगे। हमारे कार्यकताओं में एकता कायम हो जाएगी।”

जनवरी 29, 1939 को जबलपुर में हुए त्रिपुरी अधिवेशन के दौरान अन्य कॉन्ग्रेस नेताओं के साथ नेताजी सुभाषचंद्र बोस

कट्टर गाँधीवादियों से बढ़ता हुआ मतभेद

लेकिन सुभाष चन्द्र बोस जानते थे कि कॉन्ग्रेस के नेताओं के बीच सत्ता की चाह में शुरू हुआ संघर्ष अब विराम नहीं लेने वाला है। बावजूद इसके वे सदैव ही महात्मा गाँधी के सम्मान में खड़े नजर आए। जबकि गाँधी ने बोस की लोकप्रियता को उनकी दुस्साहस की राजनीति बताया। वो यह भी अच्छे से जानते थे कि जवाहरलाल नेहरू पर गाँधी जी का वरदहस्त है। सुभाष चन्द्र बोस चाहते थे कि ब्रिटिश सरकार के खिलाफ तुरंत बड़ा संघर्ष छेड़ दिया जाए।

उन्होंने त्रिपुरी में ही यह आह्वाहन कर साबित कर दिया था कि वो राष्ट्रव्यापी संघर्ष को आवश्यक मानते थे और इस में किसी भी प्रकार की देरी के पक्ष में नहीं थे। लेकिन वो यह भी जानते थे कि कॉन्ग्रेस के माननीय सदस्य यह नहीं चाहते, इसी कारण स्पष्ट वक्ता सुभाष चन्द्र बोस उनकी राष्ट्रभक्ति पर भी संदेश जताते थे।

गाँधी जी की नाराजगी

1938 के अंतिम माह से सुभाष बोस और कॉन्ग्रेस के अन्य नेताओं के बीच दरार पैदा होनी शुरू हो गई थी। इसके पीछे एक वजह नेताजी द्वारा गैर-कॉन्ग्रेस शासित राज्यों में अन्य दलों को साथ लेकर साझा सरकार बनाने की राय भी थी। वह ऐसा इसलिए करना चाहते थे ताकि बंगाल की सांप्रदायिक शक्तियों को नियंत्रित कर कमजोर किया जा सके, लेकिन महात्मा गाँधी को उनका यह प्रस्ताव अज्ञात कारणों से पसंद नहीं आया और उनके इस मत का विरोध करते हुए कहा कि वो इस प्रयास के पक्ष में नहीं हैं। नेता जी के प्रति उनका नजरिया यहीं से बदलता गया और मतभेदों का सिलसिला शुरू होने लगा। उस समय सुभाष चन्द्र बोस कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष होने के साथ-साथ प्रांतीय कॉन्ग्रेस समिति के भी अध्यक्ष थे।

नेता जी की दूसरी बार और अविश्वसनीय जीत ने सबको हैरान कर दिया और महात्मा गाँधी के साथ ही उनके अन्य सहयोगियों ने भी नेता जी को सबक सिखाने की ठानी। इसके बाद वह समय आया जब महात्मा गाँधी ने एक प्रकार का विक्टिम कार्ड खेलते हुए फरवरी 04, 1939 को एक वक्तव्य में पट्टाभि की हार को अपनी हार बता दिया और कहा कि मुझे यह स्पष्ट हो गया है कि कॉन्ग्रेस प्रतिनिधि अब उनके सिद्धांतों और नीतियों के खिलाफ हैं।

लेकिन महात्मा गाँधी के इस बयान ने सुभाष चन्द्र बोस को निराश किया। सुभाष चन्द्र बोस ने जवाब में कहा- “मेरे लिए यह निराशाजनक होगा कि मैं अन्य लोगों का विश्वास जीतने में तो सफल रहा लेकिन भारत के सबसे महान व्यक्ति का विश्वास जीतने में असफल रहूँ।”

बोस, गाँधी

त्रिपुरी संकट

क्या यह एक संयोग नहीं है कि भारत के जिस इतिहास में, जिस त्रिपुरी संकट को हम पढ़ते हैं, उसमें गाँधी के तब के विचारों को कहीं भी स्थान नहीं दिया गया है। जबकि, यह स्पष्ट है कि जिसे नेहरूवादी इतिहासकारों ने त्रिपुरी संकट का नाम दिया था, वह संकट तो असल में महात्मा गाँधी और कट्टर गाँधीवादियों पर था।

गाँधी जी सुभाष की जीत से आहत ही नहीं बल्कि बेहद निराश थे। उन्होंने यह हार अपने निजी गौरव पर ले ली थी। गाँधी जी के साथ ही उनके करीबी और सहयोगी भी नेता जी के वर्चस्व से निराश थे।

सुभाष बोस कॉन्ग्रेस प्रतिनिधियों की ब्रिटिश सरकार के प्रति निष्ठा और निष्क्रियता पर कई बार सवाल उठाए थे। वह अक्सर कहते थे कि पुरातनपंथी कॉन्ग्रेसी ब्रिटिश सरकार से समझौता चाहते हैं ना कि आजादी। जबकि इसके विपरीत सुभाष चन्द्र बोस अंग्रेजों के खिलाफ बने हुए माहौल को इस्तेमाल कर उनका उग्रता से दमन कर देना चाहते थे।

नेहरू की भूमिका और नेहरू के भय

यह वो समय था, जब देश में राजनीतिक गतिविधियाँ तेजी से बदल रहीं थीं। वहीं, सुभाष चन्द्र बोस ने त्रिपुरी के समय नेहरू से भी जरूरत से ज्यादा उम्मीदें लगा लीं थीं। वह अंत तक भी सोचते रहे कि नेहरू गाँधी का नहीं बल्कि उनका साथ देंगे। यही वजह थी, जिस कारण नेताजी पंडित नेहरू की नीतियों को विरोधाभासी और व्यक्तिवादी नीतियाँ बताते थे।

नेहरू के प्रति अपनी निराशा को व्यक्त करते हुए सुभाष चन्द्र बोस ने लिखा कि उन्हें नेहरू ने निजी तौर पर नुकसान पहुँचाया है। उन्होंने कहा – “इस संकट में किसी ने हमें इतनी चोट नहीं पहुँचाई है जितनी पंडित नेहरू ने, कितनी दयनीय स्थिति है कि नेहरू त्रिपुरी में मेरे खिलाफ खुले प्रचार में उन पुराने बारह महारथियों के साथ थे।”

ये बारह महारथी वो थे, जिन्होंने गाँधी जी के पट्टाभि सीतारमैय्या की हार को अपनी हार बताते हुए घोषणा के बाद इस्तीफ़ा दे दिया था। गाँधी जी ने कहा था कि जो लोग सुभाष के तरीकों से सहमत नहीं हैं, तो वे कॉन्ग्रेस से हट सकते हैं। इसके बाद कॉन्ग्रेस कार्यकारिणी के 14 में से 12 सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया था।

इस प्रकरण के बीच सुभाष चन्द्र बोस ने लंदन में रहने वाले अपने भतीजे अमिया बोस को अप्रैल 17, 1939 को एक पत्र में लिखा- “नेहरू ने मुझे अपने व्यवहार से बहुत पीड़ा पहुँचाई है। अगर वे त्रिपुरी में तटस्थ भी रहते, तब पार्टी में मेरी स्थिति बेहतर होती। कॉन्ग्रेस में नेहरू की स्थिति बेहद कमजोर हुई है। यहाँ तक कि त्रिपुरी सत्र में जब वो बोल रहे थे, तब उनके खिलाफ हूटिंग तक की गई।” इस प्रकार कॉन्ग्रेस के त्रिपुरा अधिवेशन के बाद से नेहरू ने सुभाष चन्द्र बोस से दूरियाँ बनानी शुरू कर दीं थीं।

लेकिन त्रिपुरी से पहले तक भी सुभाष चन्द्र बोस, नेहरू के प्रति बेहद आदर का भाव रखते थे। जून 30, 1936 से लेकर फरवरी, 1939 तक पत्र भेजने के रिकॉर्ड भी उपलब्ध हैं। सभी पत्रों में नेताजी ने नेहरू जी के प्रति बेहद आदर का भाव दिखाया है।

त्रिपुरी के बाद सुभाष चन्द्र बोस स्पष्ट तौर पर जवाहर लाल नेहरू की भूमिका से आहत थे। नेहरू उस चुनाव में तटस्थ बने रहे और यह जताते रहे कि वो मध्यस्थता कर के अन्य नेताओं के बीच सुभाष चन्द्र बोस को सम्मान दिलाने की कोशिश कर रहे हैं। हालाँकि वो उस समय सुभाष चन्द्र बोस के साथ खड़े नहीं रहे, जब उहें इसकी ज्यादा आवश्यकता थी।

यह भी सत्य है कि ब्रिटिशर्स ने सुभाष चन्द्र बोस और नेहरू के सम्बन्धों में फूट डालने के हर सम्भव उपाय किए थे। यह बात ब्रिटेन के गृह सचिव ने फरवरी 21, 1929 को लंदन में ब्रिटिश अधिकारियों को भेजी अपनी एक रिपोर्ट में कलकत्ता में कॉन्ग्रेस के सत्र के बाद कही थी।

हार के बदले गाँधी जी का विक्टिम कार्ड

अप्रैल 29, 1939 को कलकत्ता में आयोजित अखिल भारतीय कॉन्ग्रेस कमिटी की बैठक से पहले बोस और गाँधी जी के बीच कई पत्राचार हुए, लेकिन इनके परिणाम कभी भी संतोषजनक नहीं रहे। इसी तारीख को जवाहर लाल नेहरू और बोस की मुलाक़ात भी हुई, गाँधी जी ने भी उनसे भेंट की। नेहरू चाहते थे कि सभी कार्यकर्ताओं को एक मत यदि कोई कर सकता है तो वो महात्मा गाँधी थे।

इन तीनों दिग्गजों की मुलाक़ात का फिर भी कोई परिणाम नहीं निकला। अब सुभाष चन्द्र बोस त्यागपत्र देने का मन बना चुके थे। उन्होंने कॉन्ग्रेस को अपना त्यागपत्र सौंपा और अपनी असमर्थता जाहिर करते हुए कहा कि वो इस पद पर नहीं रहना चाहते। हालाँकि नेहरू ने उन्हें त्यागपत्र के बारे में फिर से विचार करने की भी राय दी।

नेहरू की बात का समर्थन जयप्रकाश नारायण ने भी किया लेकिन सुभाष चन्द्र बोस अब निश्चय कर चुके थे और वह अपने त्यागपत्र से वापस नहीं हटने वाले थे। हालाँकि इसके बाद महात्मा गाँधी ने सुभाष चन्द्र बोस के साथ अपने विवादों पर सिद्धांत और विचारों का हवाला दिया था और कहा कि स्वराज्य पाने के उनके और सुभाष चन्द्र बोस के तरीके भिन्न हैं। गाँधी के मनमुटाव को दूर करने के लिए रविन्द्रनाथ ठाकुर ने भी पत्र लिखकर भ्रांतियों को दूर करने के प्रयास किए लेकिन गाँधी जी पर इसका भी कोई ख़ास प्रभाव नहीं पड़ा।

लेकिन सुभाष चन्द्र बोस की जीत और उनके त्यागपत्र देने तक महात्मा गाँधी और उनके सहयोगियों ने हर वो प्रयास किए, जिससे पार्टी में महात्मा गाँधी का वर्चस्व बना रहता। इस प्रकार सुभाषचन्द्र बोस के इस्तीफ़े ने देश में एक बार फिर से गाँधीवादियों को अपना वर्चस्व साबित करने का मौका दिया। यही वो वजह बनी, जिसने फॉरवर्ड ब्लॉक की नींव भी रखी।

फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना

अप्रैल 29, 1939 को कॉन्ग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा देने के बाद आखिरकार मई 03, 1939 को सुभाष चन्द्र बोस ने कॉन्ग्रेस के अन्दर ही फॉरवर्ड ब्लॉक के नाम से अपनी पार्टी की स्थापना की। कॉन्ग्रेस अभी तक वर्चस्व की लड़ाई लड़ रहा था और फ़ॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना के कुछ दिन बाद ही सुभाष चन्द्र बोस को कॉन्ग्रेस से ही निकाल दिया गया। कॉन्ग्रेस के भीतर जितने भी वामपंथी संगठन थे, फॉरवर्ड ब्लॉक उन सबका प्रतिनिधि बना।

जून 22, 1939 को फॉरवर्ड ब्लॉक का पहला अधिवेशन नागपुर में आयोजित किया गया और इसमें फ़ॉरवर्ड ब्लॉक को एक सोशलिस्ट पार्टी घोषित किया गया। इसी तारीख को फ़ॉरवर्ड ब्लॉक का आधिकारिक स्थापना दिवस भी तय किया गया। अधिवेशन में फॉरवर्ड ब्लॉक ने अपना नारा दिया – “All Power to the Indian People” फॉरवर्ड ब्लॉक के झंडे में एक बाघ के साथ वामपंथी चिन्ह भी था, जिसका सीधा संदेश सभी वामपंथी दलों को एक झंडे के नीचे एकत्रित करना था।

पहले अधिवेशन के कुछ मूल बिन्दुओं में से एक यह भी था कि सत्ता के मोह में कॉन्ग्रेस द्वारा किए गए भ्रष्टाचार को समाप्त करना और निहित स्वार्थों से कॉन्ग्रेस को मुक्त कर उसे अधिक गतिशील और जीवंत बनाना। सुभाष चन्द्र बोस की अभूतपूर्व नेतृत्व क्षमता के चलते देखते ही देखते फॉरवर्ड ब्लॉक देशभर में लोकप्रिय हो गया और इससे बड़ी तादाद में लोग जुड़ने लगे। लोगों ने बोस के क्रांति के बीहड़ मार्ग को अपनाया।

फॉरवर्ड ब्लॉक ने सबसे ज्यादा महत्व भारत के देशी राज्यों में स्वतंत्रता आन्दोलन को तीव्र करने पर दिया। इस सबके बीच कट्टर गाँधीवादी सुभाष चन्द्र बोस की बढ़ती लोकप्रियता और सफलता से बौखलाते गए। फॉरवर्ड ब्लॉक कॉन्ग्रेस का कोई प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दल नहीं था, बल्कि कॉन्ग्रेस में ही जीर्ण विचारधारा से त्रस्त कुछ प्रगतिशीलों और वामपंथी शक्तियों का मोर्चा था, जिसने ब्रिटिश शासन के खिलाफ त्वरित कार्रवाई की माँग की थी।

यह भी स्पष्ट करना जरुरी है कि फॉरवर्ड ब्लॉक का वामपंथ आज के वामपंथ से एकदम भिन्न था। यह मासूम और निर्दोषों के रक्तपात की क्रांति के बजाए ब्रिटिश राज के दमन का संदेश लिए हुए क्रांतिकारियों का संगठन था, जिनकी भर्ती बाद में आजाद हिन्द फ़ौज में की गई।

अगस्त 1939 को फॉरवर्ड ब्लॉक के मुखपत्र के रूप में ‘फॉरवर्ड’ नामक साप्ताहिक पत्रिका जारी की गई, जिसमें फ़ॉरवर्ड ब्लॉक की नीतियों को देशभर में पहुँचाया जाने लगा। ब्रिटिश सरकार इन सब कामों से इतनी आतंकित हुई कि उसने सुभाष चन्द्र बोस की रैलियों को अनुमति देनी बंद कर दी। हालाँकि इसी समय गाँधी और नेहरू खुलकर अपनी जनसभाएँ आयोजित कर सकते थे। अब तक बोस ब्रिटिश सरकार से प्रत्यक्ष मुकाबले में खड़े हो चुके थे।

बाद में फॉरवर्ड ब्लॉक अपने आप एक स्वतन्त्र पार्टी बन गई। द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने से पहले से ही फॉरवर्ड ब्लॉक ने स्वतन्त्रता संग्राम को और अधिक तीव्र करने के लिए जन जागृति शुरू करने का काम किया।

नेता जी सुभाष चन्द्र बोस के अंतरराष्ट्रीय अभियान

सितम्बर 03, 1939 को मद्रास में सुभाष चन्द्र बोस को ब्रिटेन और जर्मनी में युद्ध छिड़ने की सूचना मिली। हिटलर की सेना ने पोलैंड पर आक्रमण कर दिया। यही वो अवसर था, जिसकी तलाश बोस को एक लम्बे समय से थी। उन्होंने तुरंत घोषणा की कि भारत के पास सुनहरा मौका है और उसे अपनी मुक्ति के लिए अभियान तेज कर देना चाहिए।

सितम्बर 08, 1939 को युद्ध के प्रति पार्टी का रुख तय करने के लिए सुभाष चन्द्र बोस को विशेष तौर से कॉन्ग्रेस कार्य समिति में निमंत्रित किया गया। बोस अपनी निष्ठा के पक्के थे, उन्होंने अपनी राय के साथ यह संकल्प भी दोहराया कि अगर कॉन्ग्रेस यह काम नहीं कर सकती है तो फॉरवर्ड ब्लॉक अपने दम पर ब्रिटिश राज के खिलाफ़ युद्ध शुरू कर देगा। वह जानते थे कि स्वराज्य को लेकर कॉन्ग्रेस के संकल्प आज भी क्षीण हैं।

फॉरवर्ड ब्लॉक ने देशभर में अपने अभियानों से ब्रिटिश सरकार को मजबूर कर दिया था। प्रतिक्रिया में फॉरवर्ड ब्लॉक के सदस्यों को गिरफ्तार किया जाने लगा। बोस को भी कई बार गिरफ्तार किया गया लेकिन वह जेल में अनशन कर बाहर निकल आए।

ब्रिटिश सरकार सुभाष चन्द्र बोस की क्षमता से अनजान नहीं थी। बोस के खिलाफ खुलकर गिरफ्तारी और नजरबंदी के आदेश दिए जाने लगे। इसी बीच नवम्बर 29, 1939 को प्रेजिडेंसी जेल में किया गया उनका ऐतिहासिक अनशन भी हुआ। उन्हें रिहा किया गया, फिर नजरबंद किया गया। यहीं से सुभाष चन्द्र बोस के ब्रिटिशर्स की आँखों में धुल झोंककर विदेश चले जाने और आगे की कहानी शुरू हुई। उन्होंने मुसोलिनी से लेकर हिटलर तक से मुलाकात की। वो किसी भी तरह से भारत को ब्रिटिश राज से मुक्ति दिलाने के पक्षधर थे। आजाद हिन्द रडियो के जरिए वो निरंतर क्रांतिकारियों से जुड़े रहे और अपने दिशा-निर्देश उन तक पहुँचाते रहे।

जर्मन तानाशाह हिटलर और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस

एक आयरिश इतिहासकार यूनन ओ हैल्पिन का कहना है कि जब नेताजी ने जापान और जर्मनी से मदद लेने की कोशिश की तो ब्रिटेन की सरकार ने उन्हें ख़त्म करने का आदेश दिया। हैल्पिन का कहना था कि ब्रिटेन की ख़ुफ़िया सेवा के अधिकारियों को आदेश दिया गया था कि मध्य पूर्व से होकर जर्मनी जाने की कोशिश कर रहे सुभाष चन्द्र बोस को बीच रास्ते में ही ख़त्म कर दिया जाए। हालाँकि, वो कभी इसमें कामयाब नहीं हो सके। नेताजी की मौत के बजाए 1945 में उनके गायब होने की चर्चा को ही इतिहासकारों ने ज्यादा महत्व दिया है।

कितने कामयाब रहे सुभाष?

सुभास चन्द्र बोस की अद्भुत नेतृत्व क्षमता, उनका देशप्रेम और उनका संघर्ष आज भी युवाओं के लिए प्रेरणा का काम करता है। उनका व्यक्तित्व करिश्माई था। 1930 में सुभाष चन्द्र बोस कारावास में ही थे कि चुनाव में उन्हें कोलकाता का महापौर चुन लिया गया। उन्होंने भारतीय सैनिकों की वफ़ादारी को देश हित में और औपनिवेशिक राज के ख़िलाफ़ एकजुट कर प्रेरित किया था।

बचपन से ही स्वामी विवेकानंद और अरविन्द घोष उनकी प्रेरणा रहे। जब उनके साथ के अन्य नेता बस नाम पाने की जद्दोजहद में लगे थे, तब सुभाष चन्द्र बोस ने सिर्फ और सिर्फ त्याग किया – पहले इंडियन सिविल सर्विस (ICS) की नौकरी का, फिर वर्चस्व का, फिर अपनी आजादी का और आखिर में अपनी पहचान तक भी देश के लिए कुर्बान कर दी। 

नवम्बर 1945 में दिल्ली के लाल किले में आजाद हिन्द फौज पर चलाए गए मुकदमे ने सुभाष चन्द्र बोस के वर्चस्व में और वृद्धि की और वे लोकप्रियता के शिखर पर जा पहुँचे। अंग्रेजों के द्वारा किए गए विधिवत दुष्प्रचार और तत्कालीन प्रमुख राजनीतिक दलों के साथ-साथ कट्टर गाँधीवादियों द्वारा सुभाष चन्द्र बोस के विरोध के बावजूद सारे देश को झकझोर देने वाले उस मुकदमे के बाद माताएँ अपने बेटों को ‘सुभाष’ का नाम देने में गर्व महसूस करने लगीं। उनकी कीर्ति का परिचय यह था कि घर-घर में महाराणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी महाराज के साथ नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का चित्र दिखाई देने लगा।

कॉन्ग्रेस को हमेशा ही सुभाष चन्द्र बोस की क्षमता का पता था

वास्तव में सुभाष चन्द्र बोस की लोकप्रियता से सर्वाधिक चिंतित पंडित जवाहर लाल नेहरू ही थे। शायद यही वजह है कि नेहरू ने कभी भी सुभाष चन्द्र बोस की मौत की खबरों पर यकीन नहीं किया।

अनुज धर की किताब ‘इंडियाज बिगेस्ट कवर-अप’ में इस बात का खुलासा भी है कि नेहरू आजादी के कई वर्ष बाद भी नेताजी की जासूसी करते रहे। 1964 में जवाहर लाल नेहरू की मृत्यु के बाद भी 1968 तक नेताजी के परिजनों पर खुफिया एजेसियों की नजर रखी गई।

किताब में खुलासा किया गया है कि नेताजी के सबसे करीबी भतीजे अमिया नाथ बोस 1957 में जापान गए थे और जब इस बात की जानकारी जवाहर लाल नेहरू को मिली तब उन्होंने नवंबर 26, 1957 को देश के विदेश सचिव सुबीमल दत्ता से कहा कि वे टोक्यो में भारतीय राजदूत की ड्यूटी लगाएँ और यह पता करें कि अमिया नाथ बोस जापान में क्या कर रहे हैं? यही नहीं, उन्होंने इस बात की भी जानकारी देने को कहा था कि अमिया बोस भारतीय दूतावास, या जहाँ तथा कथित रूप से नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की अस्थियाँ रखी गई हैं, वहाँ गए थे या नहीं?

गाँधी को दिया राष्ट्रपिता का दर्जा

जुलाई 06, 1944 को आज़ाद हिन्द रेडियो पर अपने भाषण के माध्यम से गाँधी जी को सम्बोधित करते हुए नेताजी ने जापान से सहायता लेने का अपना कारण और आर्जी-हुकूमते-आज़ाद-हिन्द तथा आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना के उद्देश्य के बारे में बताया। इस भाषण के दौरान नेताजी ने महात्मा गाँधी को राष्ट्रपिता कहा और महात्मा गाँधी ने उन्हे ‘नेताजी’ कहा था। निर्णायक युद्ध में विजय के लिए उन्होंने गाँधी जी का आशीर्वाद और शुभकामनाएँ माँगीं। गाँधी जी का कहना था कि आखिर सुभाष चन्द्र बोस ने अपनी जिद को सच कर दिखाया।

स्वतंत्र भारत की घोषणा

सुभाष चन्द्र बोस ने भारत के आजाद होने के लिए अंग्रेजों की घोषणा का इन्तजार नहीं किया बल्कि अक्टूबर 21, 1943 को आजाद हिन्द फौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से स्वयं स्वतंत्र भारत की समानांतर सरकार की स्थापना कर भारत को स्वतंत्र घोषित किया। इस सरकार को कई अन्य देशों ने अपनी स्वीकार्यता दी।

1944 को आजाद हिन्द फौज ने अंग्रेजों पर दोबारा आक्रमण किया और कुछ भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजों से मुक्त भी करा लिया। कोहिमा का युद्ध 4 अप्रैल 1944 से 22 जून 1944 तक लड़ा गया एक भयंकर युद्ध था।

वर्ष 1946 के नौसेना विद्रोह में नेताजी की झलक थी। इस विद्रोह के बाद ही ब्रिटेन को विश्वास हो गया कि अब भारतीय सेना के बल पर भारत में शासन नहीं किया जा सकता और भारत को स्वतन्त्र करने के अलावा उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा है। कुछ इतिहासकार यह भी बताते हैं कि अंग्रेजों को भारत से अब कुछ नहीं चाहिए था, सिवाए सुभाष के!

ऑल इंडिया रेडियो आर्काइव्स से सुभाष चन्द्र बोस के एक भाषण के अंश –

नोट – इस लेख में वर्णित तथ्य आजाद हिन्द फ़ौज के आधिकारिक डॉक्यूमेंट, सुभाष चन्द्र बोस के पत्र एवं भाषण और उनकी जीवनियों से लिए गए हैं।

आशीष नौटियाल: पहाड़ी By Birth, PUN-डित By choice