‘मस्जिद के सामने जुलूस निकलेगा, बाजा भी बजेगा’: जानिए कैसे बाल गंगाधर तिलक ने मुस्लिम दंगाइयों को सिखाया था सबक

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक कभी भारत के सबसे बड़े नेता थे (फाइल फोटो)

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अगर कोई पहला सबसे बड़ा नेता था जिसे पूरे देश ने स्वीकार किया हो, तो वो लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक थे। ‘लोकमान्य’ का अर्थ ही है कि जो जनता का प्यारा हो। जिसके पीछे जनता चलती हो। 1 अगस्त, 1920 को अपने निधन तक वो देश के स्वतंत्रता संग्राम के सबसे बड़े नेता रहे। उन्होंने हिन्दू धर्म के लिए भी बड़ा योगदान दिया और मुस्लिम तुष्टिकरण के खिलाफ आवाज़ उठाई।

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को यूँ तो लखनऊ में 1916 में कॉन्ग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच समझौता कराने के लिए जाना जाता है, लेकिन उनका योगदान इससे कहीं बढ़ कर है। एक समय था जब बॉम्बे में दो ही पॉवर सेंटर हुआ करते थे – एक बाल गंगाधर तिलक और एक मुहम्मद अली जिन्ना। दोनों के बीच नजदीकियाँ भी थीं। लेकिन, जिन्ना की मंशा कुछ और ही थी और उन्होंने देश के विभाजन की साजिश रची।

यहाँ हम बात करेंगे उन हिन्दू-मुस्लिम दंगों की, जो 19वीं शताब्दी के अंत तक महाराष्ट्र में एकदम आम हो गए थे। आए दिन दोनों समुदायों के बीच हिंसा होती थी। अंग्रेज भी मुस्लिम तुष्टिकरण करते थे, इसीलिए दंगाइयों का प्रभाव बढ़ता जा रहा था। 1893-94 में बॉम्बे और पूना (मुंबई एवं पुणे) में हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए। दंगाई हिन्दुओं के मंदिर तोड़ते थे और पर्व-त्योहारों के जुलूस में विघ्न डालते थे।

अधिवक्ता व दिवंगत सांसद दत्तात्रेय परशुराम करमारकर ने अपनी पुस्तक ‘बाल गंगाधर तिलक‘ में जिक्र किया है कि कैसे 11 अगस्त, 1893 को मुस्लिम लोग जब नमाज पढ़ने मुंबई के जुम्मा मस्जिद में खली हाथ गए थे लेकिन जब वापस आए तो उनके पास हथियार थे। छुरे लेकर वो लोग हिन्दू मंदिर में घुस गए। भिंडी बाजार, कमाठीपुरा और ग्रांट रोड तक दंगे फ़ैल गए। पुणे तक दंगा फैलने के बाद पुलिस ने दोनों पक्षों के कई लोगों को गिरफ्तार किया।

इसी क्रम में अंग्रेजी पुलिस ने बाल गंगाधर तिलक के मित्र सरदार तात्या साहब नाटू को भी गिरफ्तार कर लिया, जो गणपति जुलूस निकाल रहे थे। दारूवाला पुल पर मुस्लिम दंगाइयों ने उन पर हमला भी किया था। वो कोर्ट से बरी होने में कामयाब रहे। तब बाल गंगाधर तिलक ने अंग्रेजों के मुस्लिम तुष्टिकरण पर सवाल उठाए। उन्होंने आरोप लगाया कि मुस्लिमों को संतुष्ट करने के लिए अंग्रेज हिन्दुओं की पारंपरिक अधिकारों को कुचल रहे हैं।

उन्होंने अंग्रेजों की ‘बाँटो और राज करो’ की नीति पर सवाल खड़े किए। येउला में हर साल बालाजी की यात्रा निकलती थी, लेकिन अब मुस्लिम कट्टरपंथी उस पर भी हमला करने लगे थे। हिन्दुओं को अंग्रेजों ने जुलूस वगैरह निकालने से मना कर दिया। तब बाल गंगाधर तिलक ने हिन्दुओं को सलाह दी कि वो अपनी रक्षा के लिए स्वयं कमर कसें। उन्होंने हिन्दुओं को संगठित करने का फैसला लिया। उनका मानना था कि सभी धर्म/समुदाय अपने-अपने धार्मिक उत्सव बिना किसी अड़चन के मनाएँ।

उनका कहना था कि हिन्दुओं के पर्व-त्योहारों व उत्सव में जो अड़ंगा डालता है, उसे सज़ा मिलनी चाहिए। उन्होंने कहा कि सरकार के संरक्षण के कारण ही मुस्लिम हिंसक हो गए हैं। उन्होंने लिखा, “अगर मुस्लिम नमाज के वक़्त हिन्दुओं का भजन नहीं बर्दाश्त कर सकते तो वो ट्रेन, जहाज और दुकानों में क्यों नमाज पढ़ते हैं? यह कहना गलत है कि नमाज के वक़्त मस्जिद के सामने से कोई हिन्दू जुलूस निकल गया तो ये गलत है।”

हिन्दुओं के अधिकारों की बात करने पर लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को अंग्रेज अधिकारियों ने ‘मुस्लिम विरोधी’ की संज्ञा दे दी और उन पर मुस्लिम विरोधी भावनाओं को भड़काने का आरोप मढ़ दिया। उन पर एक बैठक में मुस्लिमों को हिन्दुओं का कट्टर शत्रु कहने के आरोप लगाए गए। साथ ही गौ हत्या विरोधी सोसाइटी बनाने का आरोप लगाया गया। ये वो समय था, जब साहब लोगों’ की लाइफस्टाइल देख कर कई लोग ईसाई मजहब के प्रति भी आकर्षित हो रहे थे।

बाल गंगाधर तिलक को पश्चिमी सभ्यता के इस अनुकरण से नफरत थी। इसीलिए, उन्होंने छत्रपति शिवाजी की गाथा को जन-जन तक पहुँचाया और गणेश उत्सव को और धूम-धाम से मनाने की परंपरा शुरू की। आज छत्रपति शिवाजी महाराज और भगवान गणपति महाराष्ट्र के प्राण हैं। इन दोनों के प्रति लोगों में आस्था जगाने का श्रेय लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को ही जाता है। ‘गणेश उत्सव’ और ‘शिवाजी जयंती’ अब स्वराज्य का माध्यम बन चुका था।

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उनका मानना था कि प्राचीन भारत में ऐसे कई सामाजिक व धार्मिक उत्सव होते थे, जिनसे लोगों में एकता की भावना आती थी। ये देश की संस्कृति के पहचान हुआ करते थे। उनका कहना था कि जो कार्य कॉन्ग्रेस के माध्यम से नहीं किया जा सकता, उसके लिए शिक्षित लोगों व इन उत्सवों का सहारा लिया जाए। इससे पहले लोग गणेश उत्सव घरों में ही मनाते थे और मिठाइयों के आदान-प्रदान तक ही ये सीमित हो चला था।

इसी उत्सव के दौरान दारूवाला पुल और हिन्दू जुलूस पर हमला हुआ था। तिलक उस पुल से गुजरे थे, पर हिंसा के समय वहाँ नहीं थे। लॉर्ड हैरिस ने ऐसे उत्सवों से ब्राह्मणों पर घृणा फैलाने का आरोप लगा डाला। वो बॉम्बे का गवर्नर था। तिलक ने उससे तत्काल क्षमा माँगने को कहा। बाल गंगाधर तिलक ने मुस्लिमों को सलाह दी कि ‘मस्जिद के आगे बजा नहीं बजेगा’ वाली जिद वो छोड़ें। उनका मानना था कि महापुरुषों की समृतियों को भी संरक्षित रखना ज़रूरी है। इसी क्रम में अपने हर भाषण में उन्होंने छत्रपति शिवाजी के बारे में लोगों को समझाया।

1893-94 में जो दंगा हुआ था, उसका कारण बताते हुए अंग्रेजों ने कहा था कि ये गोहत्या विरोधी आंदोलन के कारण हो रहा है। इस हिंसा में हिन्दुओं को ही अधिक हानि हुई थी। इसीलिए गवर्नर डफरिन ने जब दोनों समुदायों को शांत रहने को कहा तो मुस्लिमों की हिंसा पर पर्दा डालने के लिए तिलक ने उसे लताड़ लगाई। अंग्रेज बार-बार कहते थे कि हिन्दुओं को मुस्लिमों से वही बचा रहे। बाल गंगाधर तिलक ने ‘केसरी’ पत्रिका के माध्यम से कहा कि इससे हिन्दुओं की सोच पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।

डॉक्टर मीना अग्रवाल अपनी पुस्तक में लिखती हैं कि अंग्रेजों ने बम्बई की जनता से पुलिस का खर्च वसूला, जबकि बाल गंगाधर तिलक चाहते थे कि इसे उस मस्जिद से लिया जाए, जहाँ से हिंसा भड़की। उनका कहना था कि ये दंगे त्रिकोणीय हैं, जिनमें हिन्दुओं व मुस्लिमों के अलावा सरकार भी एक पक्ष है। ‘स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है’ का नारा देने वाले इस महानायक ने अंग्रेजों के इस नैरेटिव को हराया कि वो हिन्दुओं के रक्षक हैं।

अनुपम कुमार सिंह: चम्पारण से. हमेशा राइट. भारतीय इतिहास, राजनीति और संस्कृति की समझ. बीआईटी मेसरा से कंप्यूटर साइंस में स्नातक.