जब मोपला में हुआ हिंदुओं का नरसंहार, तब गाँधी पढ़ा रहे थे खिलाफत का पाठ; बिना प्रतिकार मरने की दे रहे थे सीख

मोपला नरसंहार और मोहनदास करमचंद गाँधी

खिलाफत आंदोलन को दिया गया भारतीय नेताओं का समर्थन वो घात था जिससे शायद भारत कभी उबर नहीं सका। खिलाफत का उद्देश्य तुर्की में खलीफा पद की पुन: स्थापना को समर्थन देना था। ऐसे में मोहनदास करमचंद गाँधी को लगा कि खिलाफत को समर्थन देना, मुस्लिमों को उनके साथ असहयोग आंदोलन में जोड़ देगा। उन्हें ये भी लगा कि अगर खलीफा के समर्थन में मुस्लिमों का साथ दिया गया तो वो बड़ी भारी तादाद में राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल होंगे।

हालाँकि, इसके बाद मोपला मुसलमानों की कट्टरता थी जिसने 10,000 हिंदुओं के नरसंहार, सैंकड़ों हिंदू महिलाओं के बलात्कार और हिंदू मंदिरों के विध्वंस को अंजाम दिया। मालाबार नरसंहार के दौरान मोपला मुस्लिम अंधाधुंध हिंदुओं को मार रहे थे वो भी बेहद बर्बर ढंग से। एक वाकया है जिसके अनुसार 25 सितंबर 1921 को 38 हिंदुओं का बेरहमी से सिर कलम किया गया था और उनकी खोपड़ी कुएँ में फेंक दी गई थी। ये बात दस्तावेजों में भी दर्ज है कि जब मालाबार के तत्कालीन जिलाधिकारी इलाके में गए तो कई हिंदू कुएँ से मदद के लिए गुहार लगा रहे थे।

मालाबार अकेला ऐसा नरसंहार नहीं था जब हिंदुओं को मौत के घाट उतारा गया। तत्कालीन डिप्टी कलेक्टर दीवान बहादुर सी गोपालन नायर ने अपनी पुस्तक में सांप्रदायिक संघर्ष की 50 से अधिक ऐसी घटनाओं का दस्तावेजीकरण किया है, जब मालाबार के मुसलमानों ने हिंदुओं पर अत्याचार किए थे। ऐसे इतिहास के बावजूद, उस समय कम से कम कहने के लिए तो भारतीय नेतृत्व की प्रतिक्रिया शर्मनाक थी। मोहनदास करमचंद गाँधी ने मालाबार मुसलमानों के खिलाफत आंदोलन को इस उम्मीद में निर्विवाद समर्थन दिया था कि यह मुसलमानों को ‘राष्ट्रवादियों’ में बदल देगा, जिसके परिणामस्वरूप वे हिंदुओं के साथ ब्रिटिश साम्राज्य से लड़ेंगे।

अब उस समय या तो एमके गाँधी हिंदुओं पर हुए अत्याचार के इतिहास से अपरिचित थे या उन्होंने खुद को मासूम दिखाना चुना…यह सोचना हमारे विवेक पर छोड़ दिया गया है क्योंकि इतिहास की किताबों में शायद ही कहीं भी भारत में इस्लामी कट्टरपंथ के विकास पर बात करते हुए मालाबार नरसंहार का या फिर खिलाफत आंदोलन की भूमिका का आलोचनात्मक विश्लेषण किया गया है। हालाँकि, गाँधी की मंशा उनकी एक भाषण से भी साफ होती है जो कि कालीकट में शौकत अली के साथ दी गई थी। वो तारीख 18 अगस्त 1920 की थी जब ‘महात्मा गाँधी ने असहयोग की भावना और खिलाफत के प्रश्न पर भाषण दिया था।

गाँधी ने कहा था वे मानते कि यदि भारतीय असहयोग की भावना को समझेंगे तो जरूर सफल होंगे और बर्मा के गवर्नर ने खुद कहा था कि अंग्रेज भारत पर शासन करना बलपूर्वक नहीं, बल्कि लोगों के समर्थन से जारी रखेंगे। इसके बाद उन्होंने लोगों से सरकार की गलतियों को बर्दाश्त नहीं करने का आह्वान किया।

वहाँ गाँधी बोले, “शाही (ब्रिटिश) सरकार ने जानबूझकर 70 लाख मुसलमानों द्वारा पोषित मजहबी भावनाओं की धज्जियाँ उड़ाई है।” गाँधी ने ये भी कहा कि उन्होंने खिलाफत के सवालों को ‘विशेष तरीके’ से समझा था और उन्हें विश्वास था कि ब्रिटिश सरकार ने मुसलमानों की भावनाओं को आहत किया है जैसा उन्होंने पहले नहीं किया था।

गाँधी ने कहा, “असहयोग की बातें उन्हें समझाई गई और यदि वे इसे स्वीकार नहीं करते तो भारत में रक्तपात होता। मैं मानता हूँ कि खून बहाने से उनकी बात नहीं मानी जाएगी। लेकिन जो आदमी क्रोध की स्थिति में है जिसके दिल को दुख पहुँचा है, वे अपने कर्मों के परिणाम की चिंता नहीं करता।”

भारतीय मुसलमानों द्वारा हिंदुओं पर की जा रही हिंसा को सही ठहराते हुए गाँधी ने कहा, “मैं आपको एक पल के लिए भारत के उत्तरी छोर पंजाब ले जाने का प्रस्ताव रखता हूँ ताकि दिखे कि दोनों सरकार ने पंजाब के लिए क्या किया है। मैं ये स्वीकार करने को तैयार हूँ कि अमृतसर में भीड़ कुछ समय के लिए पगला गई थी। उन्हें एक दुष्ट प्रशासन द्वारा उस पागलपन के लिए उकसाया गया था। लेकिन लोगों की ओर से दिखाया गया कोई भी पागलपन निर्दोषों के खून बहने को सही नहीं ठहरा सकता। उन्होंने इसके बदले क्या चुकाया? मैं यह कहने का साहस करता हूँ कि कोई भी सभ्य सरकार पंजाब में उपजी स्थिति के लिए लोगों को सजा नहीं देती। वहाँ निर्दोष पुरुषों को मॉक ट्रॉयल और आजीवन कारावास से गुजरना पड़ा।”

यहाँ मोपला मुस्लिमों की बात करते हुए उन्होंने जलियाँवाला बाग नरसंहार को उठाया, जिसे ब्रिटिशों ने अंजाम दिया था और मुस्लिमों द्वारा किए गए नरसंहार पर लीपापोती करते हुए बात की कि कैसे ब्रिटिश सरकार ने जलियाँवाला बाग जैसी घटना पर एक्शन नहीं लिया।

गाँधी ने जलियाँवाला बाग के बारे में बात करते हुए और मुसलमानों द्वारा की गई हिंसा को न्यायोचित दिखाने के लिए ये बताया कि अंग्रेजों ने धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाई थी। अपनी बात कहते हुए गाँधी मुसलमानों और इस्लाम के कारणों पर बोलते रहे। गाँधी ने आगे बताया कि असहयोग आंदोलन में भाग लेना अंग्रेजों द्वारा इस्लाम के अपमान का बदला लेने का तरीका था और अगर आंदोलन को ठीक से अपनाया गया, तो यह जीत में समाप्त होगा।

उन्होंने पूछा, “क्या भारत के मुस्लिम जिन्हें लगता है कि उनके साथ गलत हुआ वो आत्म बलिदान के लिए तैयार हैं। अगर हम सरकार को लोगों की इच्छा मुताबिक मजबूर करना चाहते हैं, जैसा कि हमें करना चाहिए, तो हमारे लिए एकमात्र उपाय असहयोग है।”

सबसे अधिक समस्या वाली बात जो गाँधी ने कही, “यदि भारत के मुसलमान खिलाफत पर न्याय सुरक्षित करने के लिए सरकार को असहयोग की पेशकश करते हैं, तो यह हर हिंदू का कर्तव्य है कि वह अपने मुस्लिम भाइयों के साथ सहयोग करे।” गौर करने वाली बात यह है कि गाँधी ने यह भाषण 1920 में दिया वो भी उस समय जब मुसलमानों ने पहले से ही खिलाफत स्थापित करने की माँग और तुर्की में खिलाफत के समर्थन में हिंदुओं का नरसंहार करना शुरू कर दिया था।

मुस्लिमों द्वारा हिंदुओं के नरसंहार के बावजूद गाँधी हिंदू-मुस्लिम एकता के नाम पर हिंदुओं से अपील कर रहे थे कि वो मुस्लिमों का सहयोग दें। उन्होंने कहा, “मैं हिंदुओं और मुसलमानों के बीच की सच्ची मित्रता को ब्रिटिश संबंध से असीम रूप से अधिक महत्वपूर्ण मानता हूँ। इसलिए, मैं यह सुझाव देने का साहस करता हूँ कि यदि वे मुसलमानों के साथ एकता के साथ रहना पसंद करते हैं, तो अब यह है कि उन्हें सबसे अच्छा अवसर मिला है और ऐसा अवसर एक सदी तक नहीं आएगा। मैं यह सुझाव देने का साहस करता हूँ कि अगर भारत सरकार और ब्रिटिश सरकार को पता चलता है कि खिलाफत और पंजाब के साथ हुए गलत को सही करने के लिए इस महान राष्ट्र का एक एक महान दृढ़ संकल्प है, तो सरकार हमारे साथ न्याय करेगी।”

ये जानना भी दिलचस्प है कि गाँधी ने पंजाब के सिखों की देशभक्ति को खिलाफत आंदोलन से जोड़ा जो कि तुर्की में खलीफा की पुन: स्थापना के लिए लड़ा जा रहा था। भारतीय मुसलमानों की इस्लामी खलीफा संबंधी माँगों को जायज दिखाने के इन्हीं प्रयासों ने हिंदुओं पर तमाम अत्याचारों को जन्म दिया था, जबकि गाँधी हिंदुओं से ये अपेक्षा कर रहे थे हिंदू स्वयं के उत्पीड़कों के साथ एकजुट होकर रहें। हिंदुओं पर इस आभासी एकता का भार डालकर गाँधी ने उन्हें समझाया कि साथ रहना उनका राष्ट्रीय कर्तव्य है। भले ही वो उन्हें मारें, परेशान करें, रेप करें। लेकिन हिंदुओं के चेहरे पर मुस्कान होनी चाहिए।

असहयोग के पहले चरण पर बात करने के बाद जो कि केवल ब्रिटिश ऑफर्स को नकारने तक था, शौकत अली ने कालीकट मुस्लिमों को अलग से खिलाफत आंदोलन के संबंध में अपनी माँग बताई। जैसा कि गाँधी की कालीकट में दी गई पहली स्पीच में देख सकते हैं कि उन्होंने भी हिंदुओं पर ही एकता का भार डाला जिनका पहले से नरसंहार हो रहा था। हकीकत में ये भाषण उस संदर्भ में था ही नहीं कि अंग्रेजों को भारत से खदेड़ा जाए। ये भाषण इस्लामी शासन की स्थापना के संदर्भ में संबोधित किया गया था।

एक ओर जहाँ गाँधी ने 18 अगस्त 1920 को ये स्पीच दी थी और 28 अप्रैल 1920 को खिलाफत आंदोलन आधिकारिक तौर पर शुरू हुआ था। वहीं एक प्रस्ताव अर्नाड तालुक के मुख्यालय मंजेरी में आयोजित किया गया।

गोपालन नय्यर की किताब का स्क्रीनशॉट

20 अगस्त 1921 के आसपास मुस्लिम जमातियों द्वारा हिंदुओं का मालाबार नरसंहार हुआ और मोहनदास करमचंद गाँधी ने 15 सितंबर 1921 की शाम को फिर से कालीकट की यात्रा की और उनका भाषण मद्रास के ट्रिप्लिकेन बीच पर दिया गया था।

जहाँ सैंकड़ों पुरुष काटे जा रहे थे, महिलाओं का रेप हो रहा था और बच्चे मारे जा रहे थे, गाँधी उस समय भी हिंदुओं को अहिंसा का पाठ पढ़ाते रहे। जिस दौरान मोपला मुस्लिमों ने कट्टरता के चलते हिंदुओं को मारा, गाँधी ने मुस्लिमों पर नाराजगी दिखाने की जगह ब्रिटिश सरकार को कोसा कि उनकी वजह से मुस्लिम इतने बेलगाम और हिंसक हुए।

अब नीचे पढ़िए कि 16 सितंबर 1920 को कालीकट में गाँधी की स्पीच पर मद्रास मेल ने क्या लिखा था (यहाँ कुछ प्रासंगिक अंशों पर प्रकाश डाला गया है):

ये सरकार पर निर्भर करता था क्योंकि उनके पास इतनी शक्ति थी कि वो अली भाइयों को और अन्य प्रवक्ताओं को मालाबार के प्रभावित इलाकों में बुलाते ताकि अमन और सुकून लाया जा सकता। गाँधी इस बात को लेकर आश्वस्त थे कि अगर ऐसा होता तो शायद हिंदुओं का खून नहीं बहता और न ही हिंदुओं के घर उजड़ते। लेकिन यहाँ उन्हें सरकार पर ये आरोप लगाने के लिए माफ किया जाना चाहिए कि उन्होंने (सरकार) इच्छा से आबादी को हिंसा के लिए भड़काया।

सरकारी तंत्र में बहादुर और ताकतवर लोगों के लिए जगह नहीं थी, ऐसे लोगों के लिए सरकार के पास सिर्फ जेल था। उन्होंने मालाबार में हुई घटना पर अफसोस जताया। मोपला जो कि काबू से बाहर थे वो पागल हो गए थे। उन्होंने खिलाफ़त के खिलाफ़ और अपने देश के विरुद्ध गुनाह किया। पूरा भारत अहिंसक बने रहने के बहकावे में था। कोई कारण नहीं था कि इस बात में संदेह हो कि ये मोपला असहयोग की भावना को नहीं समझे। असहयोगियों को भी प्रभावित हिस्सों में जाने से रोका गया। ये मानकर कि सारा दबाव सरकारी हलकों की ओर से आया और जबरन धर्म परिवर्तन एक सच था हिंदुओं को हिंदू- मुस्लिम एकता को दागदार नहीं करना चाहिए और इसे नहीं तोड़ना चाहिए।

प्रवक्ता हालाँकि ऐसे अनुमान लगाने के लिए तैयार नहीं थे लेकिन उन्हें इस बात के लिए मनाया कि जो लोग जबरन परिवर्तित किए गए हैं उन्हें प्रायश्चित की जरूरत नहीं है। याकूब हसन उन्हें बोल चुके थे कि जिन्हें परिवर्तित किया गया वो इस्लाम में स्वीकार्य नहीं हैं और उन्होंने अपने हिंदू धर्म में रहने के अधिकारों को नहीं खोया है। उजड़े घरों में राहत पहुँचाने के लिए सरकार कॉन्ग्रेस और खिलाफत कार्यकर्ताओं के रास्ते में हर बाधा डाल रही थी और खुद राहत पहुँचाने में कोई काम नहीं कर रही थी। सरकार ने उन्हें अनुमति दी या नहीं, यह उनका कर्तव्य था कि पीड़ितों की राहत के लिए धन इकट्ठा करें और यह सुनिश्चित करें कि उन्हें वह मिल गया जिसकी उन्हें आवश्यकता थी। उन्हें अभी यही नहीं पता कि सरकार इस भूमि के लोगों की ताकत और उत्थान को दबाने के लिए क्या करने जा रही थी। उनके पास इस गवाही पर विश्वास करने का कोई कारण नहीं था कि कई युवकों का अपमान किया गया क्योंकि उन्होंने खद्दर की टोपी और पोशाक पहनी थी। शांति के रखवालों ने नौजवानों के खद्दर के बनियान फाड़ दिए थे और उनको जला दिया था। मालाबार प्रशासन ने प्रताड़ित करने का एक नया तरीका खोजा था कि अगर किसी ने पंजाब में घटित चीजों से ज्यादा कुछ किया तो क्या किया जाएगा।

जब मालाबार मुसलमान हिंदुओं का नरसंहार कर रहे थे, महिलाओं का बलात्कार कर रहे थे और जबरन हिंदुओं का धर्मांतरण कर रहे थे, मोहनदास करमचंद गाँधी ने जोर देकर कहा कि उन्होंने ‘खिलाफत आंदोलन’ के खिलाफ गुनाह किया है, न कि हिंदुओं के खिलाफ। वास्तव में, उन्होंने आगे बढ़कर जोर देकर कहा था कि हिंदुओं को ‘अहिंसक’ रहना चाहिए चाहे कितने ही उकसावे का सामना करना पड़े।

गाँधी ने कहा कि भले ही यह सच है कि मुसलमान हिंदुओं को जबरन परिवर्तित कर रहे थे, मगर हिंदुओं को इस हिंदू-मुस्लिम एकता को तोड़ने नहीं देना चाहिए। यहाँ ध्यान रहे कि गाँधी के लिए बेशक, बलात्कार, हत्याएँ और जबरन धर्मांतरण एकता को नहीं तोड़ रहे थे, लेकिन हिंदू, जिन्हें सताया जा रहा था, संभावित रूप से अपने स्वयं के उत्पीड़न के बारे में हल्का गुस्सा करके उस ‘एकता’ को तोड़ सकते थे।

यह स्पष्ट है कि नरसंहार के बावजूद, भारतीय नेतृत्व जिसमें प्रमुख रूप से गाँधी शामिल थे, उसने हिंदुओं को उनके चेहरे पर मुस्कान के साथ मरते रहने के लिए कहा और इस्लामी शासन स्थापित करने की माँग करने वाले आंदोलन को बेलगाम समर्थन दिया। ऐसे में इसके बाद हुए हिंदुओं के मालाबार नरसंहार को सीधे तौर पर उन नेताओं को जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए जिन्होंने कायरता का प्रदर्शन किया और उस समय के बर्बर मुसलमानों को छोड़कर और ‘एकता’ की वेदी पर हिंदू जीवन का बलिदान दिया।

नोट: यह लेख ऑपइंडिया की एडिटर इन चीफ नुपूर जे शर्मा के मूल लेख पर आधारित है। इसका अनुवाद जयंती मिश्रा ने किया है। आप मूल लेख इस लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Nupur J Sharma: Editor-in-Chief, OpIndia.