दिल्ली के मजलिस पार्क मेट्रो स्टेशन के पास है एक बस्ती। इस बस्ती में रहते हैं करीब 350 हिंदू परिवार। ये परिवार पाकिस्तान से अपना घर-द्वार छोड़कर आए हैं। इन्हीं में से एक परिवार भावना के पिता का भी है।
भावना 13 साल की है। 8वीं में पढ़ती है। 7 साल पहले परिवार के साथ भारत आई। उसकी स्मृतियों में पाकिस्तान नहीं है। पर उसे याद है कि जब वह मजलिस पार्क में रहने आई थी तो यहाँ गड्ढे थे। उनमें जमा पानी था। न शौचालय था। न पीने का पानी। यदि कुछ था तो वह थी गंदगी, धूल, कीचड़ और मच्छर।
भावना के देखते-देखते अब यह जगह इंसानों की बस्ती सी लगती है। शौचालय है। पीने का साफ पानी भी। सोलर लाइट और साफ-सफाई भी। इस बदलाव की नींव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 69वें जन्मदिन पर आयोजित एक कार्यक्रम से पड़ी। इसे विश्व हिंदू परिषद (VHP), सेवा भारती जैसे संगठनों के सहयोग से ‘दिल्ली राइडिंग क्लब’ और सोशल आंत्रप्रेन्योर संजय राय शेरपुरिया ने मुमकिन बनाया है। अब भावना की दो ही शिकायत रह गई है। पहली स्कूल उसकी बस्ती से दूर है। दूसरी, उसकी बस्ती को बिजली की आपूर्ति नहीं होने के कारण होने वाली दिक्कतें।
यह कहानी केवल भावना की नहीं है। उन सैकड़ों लोगों की है जो यहाँ रहते हैं। 60 साल के रादू बाई बताते हैं कि यहाँ पाकिस्तान से आकर हिंदुओं के रहने का सिलसिला 2013-14 के आसपास शुरू हुआ था। यह सिलसिला वैश्विक कोरोना संक्रमण के आने तक जारी था। यहाँ रह रहे अधिकतर हिंदू पाकिस्तान के सिंध प्रांत से आए हुए हैं। सिंध के हैदराबाद, मीरपुर खास, तंडोलिया, मटिहारी, नसुरपुर, तंडवादम, सांगर जैसी जगहों पर कभी इनके घर थे। लेकिन धार्मिक अल्पसंख्यक होने की वजह से आए दिन होने वाली प्रताड़ना ने इन्हें भागने को मजबूर किया।
कल्पना करिए उस पीड़ा की जो 30 साल के रायधन बताते हैं। उनके अनुसार बहुसंख्यक मुस्लिम उनसे काम करवाते थे, पर मजदूरी नहीं देते थे। इस बात की गारंटी नहीं होती थी कि घर से निकलने के बाद सही सलामत लौट भी जाएँगे।
पर ऐसा नहीं है कि जान बचाकर पाकिस्तान से भागने में कामयाब होते ही इनकी जिंदगी बदल गई। मजलिस पार्क में डेरा डालने के बाद भले जिंदगी पर वह खतरा नहीं था जिससे ये पाकिस्तान से भागे थे, लेकिन जिंदा रहना यहाँ भी किसी चुनौती से कम नहीं था। गूगल करते ही आपको कुछ समय पहले की वे रिपोर्टें मिल जाएँगी जो बताती हैं कि ये किस दुर्दशा में जी रहे थे। दिल्ली सरकार के विरोध में इनके प्रदर्शन की खबरें मिल जाएँगी।
2021 की 11 जुलाई को जब मैं इस बस्ती में पहुँचा तो इनका जीवन काफी हद तक पटरी पर आ चुका था। इनकी बस्ती तक क्रिकेटर शिखर धवन पहुँच चुके थे। लॉकडाउन में कामकाज छूटने के बाद भी इन्हें रोटी की चिंता नहीं थी। राशन ही नहीं, भोजन की आपूर्ति भी की जा रही थी जो यहाँ के निवासियों के मुताबिक अभी भी जारी है। वैसे दिन बदलने पर अब कभी-कभार दूसरे लोग भी राशन और अन्य मदद लेकर इनके पास फोटो सेशन के लिए पहुँच जाते हैं।
इन सुखद बदलावों को लेकर बात करने पर अब यहाँ के लोगों की आँखे चमक उठती है। 55 साल के केतन कच्छी के जेहन में 2019 का 17 सितंबर अब भी कैद है। वे बताते हैं, “बस्ती में बीजेपी का प्रोग्राम था। मंत्री राजनाथ सिंह (गिरिराज सिंह) आए थे। उसी दिन संजय भाई ने बस्ती गोद लिया था। इसके बाद ये सब काम हुआ है।” यहाँ के लोग बताते हैं कि इस कार्यक्रम के बाद से दिल्ली राइडिंग क्लब के साथ विहिप और सेवा भारती के लोगों का उनकी बस्ती में लगातार आना लगा रहा।
बस्ती में बदलाव की शुरुआत सबसे पहले जल निकासी की व्यवस्था से हुई। पीने का पानी आया। बस्ती में मंदिर का निर्माण किया गया। स्वच्छता पर जोर दिया गया। शौचालय की व्यवस्था और घरों के बाहर वृक्षारोपण हुआ। इन सबकी वजह से अब आप यहाँ के किसी घर के आँगन हो आइए तो आपको अपने बचपन के दिन, अपना गाँव और फूस के घर वाला वह आँगन अचानक से याद आ जाएगा।
उल्लेखनीय है कि कच्छी अपनी बस्ती में जिस आयोजन से बदलाव की शुरुआत होने की बात कर रहे हैं वह 17 सितंबर 2019 को प्रधानमंत्री मोदी का 69वें जन्मदिन पर हुआ था। इसे ‘सेवा दिवस’ के तौर पर बीजेपी ने मनाया था और देशभर में कार्यक्रम आयोजित हुए थे, जिसमें सेवा की शपथ ली गई थी। मजलिस पार्क की इस बस्ती में उस दिन केंद्र सरकार के मंत्री और बिहार के बेगूसराय से सांसद गिरिराज सिंह पहुँचे थे।
शेरपुरिया ने ऑपइंडिया को बताया, “2019 में जब मैं इस बस्ती में पहुँचा था तो मुझे भी इनके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी। मैंने बस्ती के हालात देखे और उन लोगों से बात की तो पता चला कि पाकिस्तान में तमाम कष्ट भोगने के बाद वे बेहतर जिंदगी की उम्मीद लेकर भारत आए थे। लेकिन यहाँ भी उनकी जिंदगी बदतर थी। इसके बाद हमने इनके जीवन में बदलाव का संकल्प लिया और इसके लिए दो तरह की योजनाएँ बनाई। एक शॉर्ट टर्म और दूसरी लॉन्ग टर्म की। सबसे पहले अक्षय पात्रा के सहयोग से यह सुनिश्चित किया गया कि इनके नियमित रूप से भोजन की व्यवस्था हो। इसके बाद धीरे-धीरे विकास के अन्य काम शुरू किए गए। अब हमारा फोकस इनके लिए रोजगार की व्यवस्था करने पर है।”
उन्होंने बताया कि इस पूरे प्रयास में विश्व हिंदू परिषद और सेवा भारती जैसे संगठनों का भी भरपूर योगदान रहा है। रोटरी क्लब जैसी संस्थाओं के मदद से यहाँ की महिलाओं के लिए सिलाई प्रशिक्षण की भी व्यवस्था की गई। इन्हें प्रशिक्षण देने के लिए नियमित तौर पर इंस्ट्रक्टर आते रहते हैं। गौरतलब है कि कोरोना काल में शेरपुरिया द्वारा की गई ‘लकड़ी बैंक’ नामक पहल की सराहना अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो चुकी है।
बस्ती में रह रहे लोगों के लिए नियमित रोजगार की व्यवस्था के क्रम में कई लोगों को बैक्ट्री रिक्शा मुहैया कराई गई है। कुछ को फल-सब्जी लगाने के ठेले मिले हैं। इनके हुनर ‘कच्छी गोदड़ी’ को बाजार मुहैया कराने के प्रयास हो रहे हैं। शेरपुरिया के अनुसार अब इन्हें उद्योग भारती और खादी ग्रामोद्योग से जोड़ने की कोशिश हो रही है।
फिर भी कई परेशानियाँ बनी हुई हैं। जैसा कि 35 साल के धूरो बाई बताते हैं कि उन्हें पुलिस और स्थानीय प्रशासन से सहयोग नहीं मिलता। बस्ती तक आई बिजली को भी करीब दो महीने पहले काट दिया गया है। इससे बहुत दिक्कत होती है। धूरो बाई अपने बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं पर स्कूल बस्ती से दूर होने के कारण छोटे बच्चों को काफी परेशानी होती है। वे कहते हैं, “हम वोटर होते तो सब लोग यहाँ दौड़े आते।” उन्होंने बताया कि बस्ती के ज्यादातर लोग मजदूरी करते हैं जो नियमित तौर पर नहीं मिलता। उनका कहना है कि यदि उन लोगों के लिए नियमित रोजगार की व्यवस्था कर दी जाए तो उनका जीवन काफी आसान हो जाएगा।
पर जिंदगी उम्मीदों का नाम है। सो इनकी उम्मीदें भी जिंदा है। मोदी सरकार के नागरिकता संशोधन कानून (CAA) के बाद इन्हें लगता है कि पूरी तरह भारतीय होना बस कुछ दिनों की बात है। पाकिस्तान में धर्म की वजह से प्रताड़ना झेलने वाले ये लोग अब हिंदू होने के गौरव का भी अहसास करने लगे हैं। यह तब भी दिखा जब बस्ती से विदा करते हुए इन लोगों ने ‘जय श्रीराम’ के नारे लगाए!