AltNews के बचाव में आया BBC, जो खुद ब्रिटेन में कट्टरपंथियों की हिंसा के वीडियो काट कर दिखा रहा

दंगाइयों को 'अमनपसंद' बताने वाला बीबीसी अब अपने 'गोदी मित्र ऑल्टन्यूज़' की शरण में है

कोरोना वायरस की महामारी के दौरान वामपंथी मीडिया गिरोहों की कट्टरपंथी इस्लामिक विचारधारा के समर्थक ‘फैक्ट चेकर्स’ के साथ देखना बेहद दिलचस्प है। यानी, अब ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो कोरोना के साथ-साथ एक वैश्विक आपदा अब ब्रिटिश औपनिवेशिक काल की विष्ठा, यानी BBC और ऑल्टन्यूज़ के सामने भी खड़ी है। यही वजह है कि अब दोनों ही समूह एक-दूसरे को आपस में ‘धप्पा’ मारकर अपने ज़िंदा होने का एहसास दिलाते देखे जा रहे हैं।

‘द ग्रेट ब्रिटेन’ के मुखपत्र BBC ने सिलसिलेवार फर्जी और भ्रामक खबरों के जरिए दक्षिणपंथी सरकारों के विरोध में अभियान चलाने के लिए अब भारत की सरकारी प्रेस इनफ़ॉर्मेशन ब्यूरो (PIB) को ही निशाने पर लिया है। इस काम के लिए दंगाइयों को ‘अमनपसंद’ बताने वाला बीबीसी अब अपने ‘गोदी मित्र ऑल्टन्यूज़’ की शरण में है।

दरअसल, सोशल मीडिया पर कोरोना वायरस के बीच जारी लॉकडाउन के दौरान कई प्रकार की भ्रामक और फर्जी खबरों को सोशल मीडिया पर फैलाया जाता रहा और वामपंथी मीडिया गिरोहों से लेकर मजहबी ‘फैक्ट चेकर्स’ तक ने सरकारी संस्थानों, जिनमें भारतीय रेलवे से लेकर पुलिस आदि को झूठ साबित करने के लिए अनेक प्रयास किए।

इस बीच सोशल मीडिया पर ‘PIB फैक्ट चेक’ एकाउंट ने ट्विटर पर निरंतर ऐसी खबरों का खंडन किया, जिसने आख़िरकार बीबीसी जैसी संस्थाओं को हृदयाघात देने का काम किया है। बीबीसी का दर्द उसकी नई रिपोर्ट में नजर आता है।

आज ही बीबीसी पर प्रकाशित रिपोर्ट की हेडलाइन कुछ इस तरह है – “पीआईबी का फ़ैक्ट चेक या पत्रकारों पर दबाव बनाने की क़वायद?”

BBC की शिकायती हेडलाइन

बीबीसी की इस दर्दभरी हेडलाइन के भीतर जाने पर पता चलता है कि यह लेख सिर्फ और सिर्फ फेक न्यूज़ और भ्रामक तथ्य फैलाने की स्वीकृति माँगने के अलावा और ज्यादा कुछ नहीं कहती है। दिलचस्प बात यह है कि भ्रामक खबर फैलाने की ‘परमिशन’ और आजादी माँगती बीबीसी की यह रिपोर्ट जिन लोगों का हवाला देती है, उसमें कुछ ऐसे फैक्ट चेकर्स के नाम शामिल हैं जो लगभग हर रोज ही ऑपइंडिया के फैक्ट चेक में झूठे और फर्जी साबित किए जाते रहे हैं।

इसमें बीबीसी ने उस ‘ऑल्टन्यूज़’ का भी हवाला दिया है, जिसने अरबीना खातून की मौत के लिए भारतीय रेलवे को जिम्मेदार ठहराने के लिए 7 दिन लगाए और आखिर में निष्कर्ष यही निकला कि वो इतनी माथापच्ची के बावजूद भारतीय रेलवे को इसके लिए जिम्मेदार नहीं ठहरा पाए। लेकिन ऑल्टन्यूज़ के ऐसे कारनामों की एक बड़ी लिस्ट है, जिसमें हाल ही में गर्भवती हथिनी की मौत की हर रोज अपडेट होने वाली ‘डेवलपिंग स्टोरी’ भी एक है।

बीबीसी ने ऑल्टन्यूज़ के फर्जी फैक्ट चेक के जरिए PIB के फैक्ट चेक को फर्जी साबित करने का असफल प्रयास किया है

बीबीसी शायद यह तथ्य नहीं जानना चाहेगा कि उनका गोदी फैक्ट चेकर ऑल्टन्यूज़ इस स्टोरी को सिर्फ इसलिए पाँच दिन में पाँच सौ बार (इसकी पुष्टि ऑल्टन्यूज़ पर छोड़ी जाती है) अपडेट करता रहा क्योंकि इस मामले में हथिनी की मौत के जिम्मेदारों के नाम रोजाना बदलते रहे और ऑल्टन्यूज़ उन नामों में मजहब ढूँढकर उन्हें छुपाता रहा।

क्या बीबीसी में सच सुनने की क्षमता है?

बीबीसी ने इसी रिपोर्ट में दावा किया है कि उनके संवाददाताओं को स्वास्थ्य मंत्रालय जानकारी नहीं देता है और उन्हें खुद अस्पतालों के चक्कर काटने होते हैं। साथ ही, यह भी दावा किया गया है कि स्वास्थ्य मंत्रालय की प्रेस ब्रीफ़िंग का समय निश्चित नहीं है।

ऐसा नहीं है कि बीबीसी सच को ढूँढना नहीं चाहता, लेकिन सच के सामने आने पर क्या बीबीसी इसे सामने रखने की क्षमता रखता भी है यह सबसे बड़ा सवाल होना चाहिए।

सरकार और संस्थाओं की क्रियाविधि को संदेहास्पद बताने वाला यह बीबीसी उसी संगठन का हिस्सा है, जिसके खिलाफ सोशल मीडिया पर लोगों का आक्रोश ‘डिफाइंड बीबीसी’ की शक्ल में देखा जा सकता है। विदेशों में अश्वेतों द्वारा चलाए जा रहे दंगों को ‘शान्तिपूर्ण’ बताने वाला यह बीबीसी सत्य से कितना वास्ता रखता है वो उनकी इन्हीं सम्पादकीय नीतियों से स्पष्ट हो जाता है।

वास्तव में, जिस ‘शांतिपूर्ण’ तरीके से बीबीसी तथ्यों को ‘ट्विस्ट’ कर पूरी बेशर्मी के साथ पेश करता है, शांतिपूर्ण होने का यदि कोई मानक होता है तो उसमें बीबीसी के प्रोपेगेंडा को सबसे ज्यादा शांतिपूर्ण घोषित कर दिया जाना चाहिए।

बीबीसी की ‘वैश्विक फजीहत’ पर एक नजर, जिसका फैक्ट चेक गोदी फैक्ट चेकर्स नहीं करेंगे

बीबीसी विदेशों में हो रहे दंगों में दंगाइयों को ‘विशेष कारण से’ बचाने के लिए पहले उनकी आधी तस्वीर शेयर करता है। जब बीबीसी की इस हरकात का विरोध होता है तो बीबीसी चुपके से इस तस्वीर को अपनी रिपोर्ट में माफ़ी माँगते’ हुए बदल देता है। इसे इन तस्वीरों के माध्यम से समझा जा सकता है –

बीबीसी की करामात सामने आने पर बीबीसी ने माफ़ी माँगते हुए इसे बदल दिया –

BBC मानता है कि ये दंगाई Peaceful, यानी ‘शांतिपूर्ण’ और अमनपसंद हैं

PIB के फैक्ट चेक को संदेहास्पद बताने वाली बीबीसी की इस रिपोर्ट का सबसे हास्यास्पद हिस्सा इसके ठीक बीच में है, जहाँ पर बीबीसी ने लिखा है –

“फ़ैक्ट चेक पोर्टल ‘ऑल्ट न्यूज़’ के संस्थापकों में से एक प्रतीक सिन्हा पीआईबी द्वारा मेहनत से लिखी गयी ख़बरों को लगातार ख़ारिज करने का ‘फ़ैक्ट चेक’ कर रहे हैं।”

यदि सोशल मीडिया पर लोगों की छानबीन करते रहना, लोगों की निजी जानकारी सार्वजानिक करना ‘बड़ी मेहनत’ कहलाता है तो बीबीसी ‘रिवर्स इमेज फैक्ट चेकर’ यानी, ऑल्टन्यूज़ के बारे में कुछ भी गलत नहीं कह रहा है। इसके अलावा ऑल्टन्यूज़ फेक न्यूज़ और फर्जी प्रोपेगेंडा को दिशा देने के जिस मेहनती काम को कर रहा है, उसके बारे में ऑपइंडिया के ‘फैक्ट चेक’ सेक्शन में काफी विस्तृत वर्णन उपलब्ध है।

यहाँ पर बीबीसी ने भी ऑल्टन्यूज़ की उसी फर्जी कहानी का जिक्र किया है, जिसमें लाख कोशिशों के बावजूद भी ऑल्टन्यूज़ मुज़फ़्फ़रपुर स्टेशन पर महिला की मौत के बारे में सिर्फ और सिर्फ प्रपंच करते हुए नग्न अवस्था में ही नजर आया है। ख़ास बात यह है कि ऑल्टन्यूज़ ने मुजफ्फरपुर की इस घटना के लिए बीबीसी के रिपोर्टर्स की ही मदद ली थी। और जब वहाँ से इस्लामिक विचारधारा के समर्थक ऑल्टन्यूज़ को ‘मनमुताबिक’ बयान नहीं मिला तो उसने अपने आधार पर ही न्याय सुनाते हुए साबित करने का प्रयास किया कि महिला की मौत भारतीय रेलवे की ही कथित लापरवाही से ही हुई।

हालाँकि, रेलवे ने इस से सम्बंधित तमाम सुबूत भी सामने रखे थे और इस बारे में यही निष्कर्ष सामने आया था कि श्रमिक ट्रेन पर बैठी अरबीना खातून की मौत उनके मुज़फ़्फ़रपुर (बिहार) पहुँचने से कुछ घंटे पहले हो गई। इस समय उनके साथ में उनकी बहन कोहिनूर और बहनोई वजीर थे।

वजीर ने मौत के वक्त जो बयान दिया और पुलिस के पास दर्ज बयान, वो यह था कि अपने पति द्वारा त्याग दिए जाने के बाद अरबीना की मानसिक हालत अच्छी नहीं थी, और वो बीमार भी थी। ट्रेन पर उनकी स्थिति बिगड़ गई और रास्ते में वो अल्लाह को प्यारी हो गईं।

यहीं से ऑल्टन्यूज़ का काम शुरू हुआ था क्योंकि इस घटना में ऑल्टन्यूज़ के पास ‘पीड़ित’ मुस्लिम तो थी ही, साथ-साथ भारतीय रेलवे की छवि को धूमिल करने का भी ‘अवसर’ था, जिसके बारे में ऑपइंडिया विस्तार से बता चुका है।

यहाँ पर ही PIB ने भी सरकारी सूत्रों के हवाले इस फर्जी खबर का फैक्टचेक कर के बताया कि भोजन-पानी से वंचित होने और भूख से मरने की बातें झूठी हैं। वजीर ने स्वयं ही बयान दिया था (जिसका ज़िक्र ऑल्टन्यूज ने भी किया है) कि ट्रेन पर खाना-पानी की समस्या नहीं थी। ये सब जब हो गया, तो प्रपंची प्रतीक सिन्हा से रहा नहीं गया क्योंकि इसमें ‘हिन्दू-मुस्लिम’ का स्कोप दिखा।

फिर पूरी योजना के तहत, नासा आदि के सॉफ्टवेयर के इस्तेमाल कर के पत्थर को वॉलेट बताने वाले प्रतीक सिन्हा ने, इस फैक्टचेक का फैक्टचेक करने का दावा किया और आखिर में जब निराशा हाथ लगी तो अपने बड़े भाई बीबीसी की शरण में पहुँच गया, जिसका नतीजा बीबीसी की PIB को निशाना बनाती यह रिपोर्ट है।

बीबीसी ने अपनी इस रिपोर्ट में ऑल्टन्यूज़ के हवाले से अनेकों बार फैक्ट चेक के ‘अंतरराष्ट्रीय मानदंड’ का इस्तेमाल किया है। लेकिन कहीं भी यह जिक्र नहीं किया है कि ऑल्टन्यूज़ सिर्फ इस कारण किसी खबर को पाँच दिन में पाँच सौ बार अपडेट करता है क्योंकि उस अपराध में अपराधी एक मुस्लिम निकल आता है। ना ही इस बात का जिक्र मिलता है कि क्या लोगों की निजी जानकारी सार्वजानिक करने का जिम्मा भी ‘अंतरराष्ट्रीय मानदंड’ ही ऑल्टन्यूज़ के संस्कारविहीन हिन्दूफ़ोबिया से ग्रसित संस्थापकों को देते हैं? खैर, ऑल्टन्यूज़ के फर्जी फैक्ट चेक्स का इतिहास इस सबसे अलग है।

बीबीसी की इस रिपोर्ट की आखिरी में शेष गरिमा भी तब ध्वस्त हो जाती है, जब इसमें द वायर की प्रोपेगेंडा पत्रकार रोहिणी सिंह का भी जिक्र नजर आता है। ये वही रोहिणी सिंह हैं, जो यूँ तो हमेशा से सोशल मीडिया पर पत्रकारिता के नाम पर सरकार विरोधी प्रपंचों में शामिल नजर आती हैं लेकिन कोरोना वायरस के दौरान मानों इनकी जिम्मेदारी बढ़ गई और इन्होने फेक खबरों का स्ट्राइक रेट बढ़ा दिया। इसके अलाव पत्रकारिता में रोहिणी सिंह का योगदान इतिहास है।

बीबीसी के लिए सबसे बेहतर यही होगा कि वो पहले से ही गिरी हुई गरिमा को ऑल्टन्यूज़ जैसे निम्नस्तरीय प्रपंचकारियों की शरण में जाकर और नीचे गिराने के बजाए पहले शांतिपूर्ण प्रदर्शनों की परिभाषा तय करे और दंगाई मानसिकता को शांति का नाम देकर ‘शांतिप्रियों’ के खिलाफ़ छुपा हुआ एजेंडा ना चलाए। साथ ही, यह भी फैक्ट चेकर्स समुदाय पर एक एहसान ही माना जाएगा, यदि बीबीसी ब्रिटेन में मुस्लिमों द्वारा की जा रही हिंसा के वीडियो बिना काटे प्रकाशित करने का साहस जुटा सके।

भारत में फैक्ट चेक के लिए PIB पहले से ही मौजूद है, जिसके पास सरकारी तथ्य ‘यहाँ-वहाँ’ से और ‘रिवर्स इमेज सर्च’ के माध्यम से तथ्य जुटाने वाले फैक्ट चेकर से कहीं ज्यादा विश्वसनीय तथ्य पहले से ही मौजूद हैं।

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