बाल ठाकरे का ‘हिंदुत्व’ साफ, सोनिया-पवार के ‘सेकुलरिज्म’ को उद्धव सलाम: इन 5 मामलों से समझिए

बाल ठाकरे

बाल ठाकरे की पहचान क्या थी? उनके रहते शिवसेना को किस तेवर के लिए जाना जाता था? यकीनी तौर, पर हिंदुत्व के मुद्दे पर आक्रामक रुख ही बाल ठाकरे और शिवसेना की पूँजी रही। इसके लिए उन्होंने ‘सेकुलर राजनीति’ के सामने झुकने से इनकार कर दिया। दोस्त होते हुए भी कभी शरद पवार से राजनीतिक तौर पर हाथ नहीं मिलाया।

बाल ठाकरे 1990 में इस्लामी आतंकियों के हाथों नरसंहार का शिकार हुए कश्मीरी पंडितों की मदद करने वाले कुछ लोगों में से एक थे। घाटी में जनवरी 19, 1990 की रात जो हुआ, उसके बाद कश्मीरी पंडित जम्मू और दिल्ली के अलावा, महाराष्ट्र भी पहुँचे।

इनमें वे छात्र भी शामिल थे, जिन्होंने 12वीं की क्लास पूरी कर ली थी, लेकिन अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए उनके पास विकल्प नहीं बचा था। तब बाल ठाकरे ने इंजीनियरिंग कॉलेजों को कश्मीरी पंडित छात्रों के लिए आरक्षित करने और डोनेशन की रकम माफ करने के निर्देश दिए थे।

आज उन्हीं बाल ठाकरे की शिवसेना का अस्तित्व एक ऐसे राजनीतिक दल की मेहरबानी तक सीमित हो चुका है, जिसने आजादी के बाद से लेकर आज तक हिन्दू हितों के प्रत्यक्ष विरोध को सिर्फ समर्थन ही नहीं दिया, बल्कि सेकुलरिज्म के नाम पर हिन्दुओं का हर सम्भव दमन करने की कोशिश भी की।

बाल ठाकरे ने शिवसेना की स्थापना 1960 के दशक में की थी। यह वो दौर था जब समाजवादी कहे जाने वाले जॉर्ज फर्नांडिस के आह्वान पर मुंबई ठहर जाती थी। बाल ठाकरे ने धीरे-धीरे कर अपने लिए तब ‘मराठा गौरव’ के नाम पर पहचान बनानी शुरू की थी। ठाकरे ने एक प्रखर हिंदूवादी छवि को चुना और इसे लेकर बेहद सजग भी रहे। ठाकरे ने हाथ में रुद्राक्ष रखी और भगवा को ही अपनी विचारधारा का आधार बनाया। लेकिन बाल ठाकरे ने शायद ही कभी सोचा होगा कि उनके बेटे उद्धव के नेतृत्व में उनकी शिवसेना सत्ता सुख के लिए हिंदुत्व वाली पहचान ही कुर्बान कर देगी।

इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण यही था कि भाजपा के खिलाफ जब महाअघाड़ी गठबंधन की तैयारियाँ की जा रहीं थीं, उसी समय कॉन्ग्रेस और एनसीपी के साथ तालमेल बैठाते हुए शिवसेना ने कहा कि यह दल विचारधारा के लिए नहीं बल्कि राजनीतिक उद्देश्यों के लिए होगा।

कॉन्ग्रेस से गठबंधन

निश्चित तौर पर, कॉन्ग्रेस की साथ राजनीतिक समीकरण बनाने के बारे में सोचना ही वह पहला फैसला था, जिसे शायद बाल ठाकरे अपने रहते कभी नहीं लेते। यह कुर्सी के बदले विचारधारा का खुला समझौता था क्योंकि कम से कम पिछले कुछ दशकों में कॉन्ग्रेस और शिवसेना के सम्बन्ध को ‘राजनीतिक अछूत’ तक कहा जाता था।

उग्र हिंदुवादी विचारधारा के लिए जानी जाने वाली शिवसेना सत्तालोभ में भाजपा से अपना क़रीब तीस वर्ष पुराना रिश्ता तोड़कर एनसीपी और कॉन्ग्रेस की गोद में बैठ गई। इस गठबंधन के समय उद्धव ठाकरे का एक बयान भी सामने आया था, जिसमें उन्होंने कहा, “मैंने अमित शाह से कहा कि मैंने अपने पिता से वादा किया था कि महाराष्ट्र में शिवसेना का मुख्यमंत्री बनेगा, या तो आपके साथ या फिर आपके बिना।”

आज हालात यह है कि कॉन्ग्रेस की संतुष्टि के लिए बाल ठाकरे की शिवसेना खुलकर राम मंदिर निर्माण का जश्न तक नहीं मना सकती।

कश्मीर की आजादी का समर्थन

बाल ठाकरे का कश्मीरी हिन्दुओं के लिए जो मत था, वह आज की शिवसेना में नदारद है। इस बात पर शिवसेना ने गत वर्ष जनवरी माह में ही ‘फ्री कश्मीर’ का प्लेकार्ड लहराने वाली महिला का समर्थन कर खुली मुहर लगा डाली थी। इस महिला का बचाव करने के लिए संजय राउत ने कहा था कि केंद्र सरकार ने कश्मीर में कई तरह के प्रतिबंध लगा रखे हैं और इन प्रतिबंधों से मुक्त कराने के भाव से ही वह पोस्टर लहराया गया था।

पालघर में साधुओं की हत्या

क्या कोई ये सोच भी सकता था कि शिवसेना के कार्यकाल में ही महाराष्ट्र में पुलिस की मौजूदगी में साधुओं की हत्या और वो भी ‘मॉब लिंचिंग’ की जाएगी? लेकिन यह वीभत्स घटना भी इतिहास का हिस्सा बनी जब अप्रैल 2020 को मुंबई से 140 किलोमीटर दूर पालघर जिले में भीड़ ने दो साधुओं और उनके वाहन चालक की पीट-पीट कर हत्या कर दी थी। अब महाराष्ट्र के ठाणे जिले की एक विशेष अदालत ने इस मामले में 89 आरोपितों को जमानत दे दी है।

मुस्लिमों को आरक्षण

मुस्लिमों को नौकरी और प्रमोशन में आरक्षण शिवसेना के नेतृत्व वाले महाविकास अघाड़ी (एमवीए) सरकार का एजेंडा था। इसके तहत, महाराष्ट्र में 5% मुस्लिम आरक्षण के लिए कानून बनने जा रहा था। दावा किया गया कि उद्धव ठाकरे कैबिनेट बैठक में इस मुद्दे पर चर्चा भी हुई। लेकिन जब इस फैसले के सामने आने पर शिवसेना के ‘अल्पसंख्यक तुष्टिकरण’ की नीति सामने आई तो उद्धव ठाकरे ने इस फैसले से पल्ला झाड़ लिया।

हिंदूवादी पत्रकार-एक्टिविस्ट का पीछा

शिवसेना ने द्वेष की भावना से हिंदूवादियों पर अत्याचार को अपनी नई पहचान बना लिया है। साल 2020 तो मानो शिवसेना ने अपनी विचारधारा को यह आकार देने में ही बिता दिया और लगभग वर्षभर यही विवाद अखबारों से लेकर न्यूज़ चैनल्स की मुख्य हेडलाइन रहा। यही नहीं, ट्विटर पर नजर आने वाले हिंदूवादी विचारधारा के आम लोगों, जिनमें समित ठक्कर जैसे कॉमेडियंस का भी नाम शामिल है, जमकर जेल में भरा गया और एक के बाद एक केस चलाए गए।

महाराष्ट्र सरकार अपने सहयोगी, या कहें तो माई-बाप कॉन्ग्रेस की आन-बान-शान को सुरक्षित रखने के लिए तमाम प्रयास कर रही है। कभी अपराधियों को बचाने के लिए दूसरे राज्यों की पुलिस को रोका गया तो कभी शिवसेना अपराधी मानसिकता और विचारधारा को संरक्षण देती नजर आई।

बात चाहे रिपब्लिक न्यूज़ के एडिटर-इन-चीफ अर्णब गोस्वामी की ‘विच हंटिंग’ की हो, या फिर बॉलीवुड अभिनेत्री कंगना रनौत के खिलाफ कॉन्ग्रेस पोषित ट्विटर ट्रोल्स को संतुष्ट करने के लिए चलाए गए अभियान; शिवसेना ने महिलाओं के अपमान से लेकर हिंदूवादी विचारधारा के खिलाफ जमकर मोर्चा खोले। कंगना रनौत ने तो मुंबई को ‘पाक ऑक्युपाइड कश्मीर’ की संज्ञा भी दे डाली और बदले में प्रतिशोध की भावना से उनके दफ्तर को भी गिरा दिया गया। यह शिवसेना के ‘फ्री स्पीच’ मॉडल का ही एक नमूना था।

यह कोई छुपी हुई बात नहीं है कि इनमें से ज्यादातर फैसले स्पष्ट रूप से अपनी सहयोगी कॉन्ग्रेस और उसकी प्रमुख सोनिया गाँधी के ‘सम्मान’ में लिए गए थे। अर्णब गोस्वामी को निशाना बनाया जाना तभी से शुरू हुआ जब उन्होंने पालघर में साधुओं की मॉब लॉन्चिंग पर ‘एंटोनिया माइनो’ से कुछ सवाल पूछ डाले थे।

हालाँकि, पिछले कुछ दशकों को छोड़ दें तो कॉन्ग्रेस से शिवसेना की करीबी कोई नई बात भी नहीं है। शिवसेना अब गर्व के साथ ‘सोनिया सेना’ का तमगा लेकर घूम रही है, इसमें कम से कम उसका राजनीतिक अस्तित्व तो जिन्दा है।

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