लद्दाख में चीन की कहानी और वो लोग जो हँसते हुए सवाल पूछ रहे हैं

बॉर्डर पर तनाव के बीच कुछ लोग सेना के साथ खड़े होने के बजाय राजनीति कर रहे

लद्दाख के गलवान घाटी में जो हुआ वो संक्षेप में कुछ यूँ है कि जब दोनों ही सेनाओं के सीनियर अफसरों के बीच, सेना को पीछे ले जाने पर समझौता हो गया, तो कुछ भारतीय सेना के जवान और अफसरों ने, बिना किसी हथियार के चीनी सैनिकों द्वारा बनाए गए कैंप की तरफ जा कर हटने को कहा।

चीनी सैनिकों ने इस बात पर पत्थरबाजी कर दी और कमाडिंग ऑफिसर, कर्नल संतोष समेत भारतीय पार्टी पर कँटीले तारों से लिपटे डंडे आदि से बुरी तरह हमला किया। जब तक भारतीय खेमे तक बात पहुँचती, भारतीय सैनिकों को चीनी सेना के दूसरे कैंप से आए सैनिकों ने घेर लिया था। कर्नल संतोष वीरगति को प्राप्त हुए।

दोनों तरफ से झड़प लड़ाई चलती रही और यह बड़े इलाके में फैल गई। घाटी के नीचे तेज बहती नदी में कई जवान गिरे और दोनों ही तरफ से सैनिक बलिदान हुए। बाद में 17 घायल सैनिकों ने भयावह ठंढ और ऑक्सीजन की कमी वाली इस ऊँचाई पर अपने जख्मों से लड़ते हुए अंतिम साँस ली।

चीन ने अभी तक आधिकारिक आँकड़ा नहीं दिया है और उसकी प्रोपेगेंडा साइट यह बताने में लगी हुई है कि भारत ही उनके इलाके में घुस आया था और चीन की सेना डरपोक नहीं है, मुँहतोड़ जवाब देगी। अलग-अलग सूत्रों से पता लगा है कि चीन के कम से कम 43 जवान मरे हैं और यह संख्या बढ़ भी सकती है। भारत के जो 20 जवान वीरगति को प्राप्त हुए, वह भी ज्यादा हो सकती है।

भारत की सेना पर कुछ लोग उँगली उठा रहे हैं, राष्ट्र के नेतृत्व पर चटकारे ले कर सवाल पूछे जा रहे हैं।

सवाल पूछने में समस्या नहीं है, वो हमारा अधिकार है क्योंकि हमने सरकार चुनी है। लेकिन बात यह कि सवाल पूछने वाले लोग दो तरह के हैं। एक वो हैं जो इससे व्यथित हैं कि आखिर ये हो कैसे रहा है, भारत क्या कर रहा है, इसका कोई समाधान क्यों नहीं। दूसरे वो हैं जो पूछ रहे हैं कि कहाँ है 56 इंच का सीना। इनके सवाल में एक अश्लील हँसी बंद है, जो सवाल सिर्फ इसलिए पूछ रहा ताकि वो जता सके कि तुमने चीन का क्या बिगाड़ लिया, तुम तो कमजोर हो।

पहली तरह के लोगों का सवाल जायज है, और निराशा से उपजा है। यह निराशा कई कारणों से हो सकती है। कई बार हमें पता नहीं होता कि सीमावर्ती इलाके की चौकसी कैसे होती है, वहाँ की जमीनी सच्चाई क्या है, सेनाएँ काम कैसे करती हैं आदि। एक कारण यह हो सकता है कि सैनिकों के हताहत होने की खबर से एक नागरिक के तौर पर हम उद्विग्न होते हैं। एक कारण यह हो सकता है कि इतने सैन्य उपकरण खरीदने के बाद भी हम कमज़ोर क्यों दिखते हैं।

इस पर जवाब देने से पहले, उन दुरात्माओं पर टिप्पणी आवश्यक है जिनकी आँखों में भारतीय सेना पर हुए हर हमले के बाद एक अलग चमक दिखती है। इनके सवालों के पीछे दर्द नहीं होता, वेदना नहीं होती, बल्कि एक उपहास भरा तंज होता है। वो सवाल पूछते हुए जवाब दे रहे होते हैं कि भारत एक राष्ट्र के नाम पर बेकार है, और हमारी सेना किसी काम की नहीं।

ऐसे लोग चीन से पैसे भी लेते हैं, हथियारों के दलाल भी होते हैं, और वर्तमान सरकार के विरोध में किसी भी हद तक गिरने को तैयार हैं। इन्हें इस बात से मतलब नहीं है कि इनके कुकर्मों से सेना का मनोबल गिरेगा और लोगों में सामूहिक निराशा देखने को मिलेगी, जो कि सही नहीं।

यह निराशा की भावना पिछली सरकारों के समय से ही है जब चीन या पाकिस्तान किसी भी दर्जे की हरकत कर के निकल जाता था और भारतीय सेना के हाथ राजनैतिक कारणों से बँधे होते थे। आम जनता ने स्वयं के राष्ट्र को पाकिस्तान से भी ओछा मानना शुरू कर दिया क्योंकि हमेशा उसके द्वारा पोषित आतंकवाद ने हमारे देश को तबाह किया, घुसपैठिए आते रहे और सीमा पर हमारे सैनिकों की हत्या होती रही।

यह निराशा इस स्तर की हो चुकी है कि आम आदमी सरकार और सेना, दोनों पर ही, संदेह करने लगता है कि वो जो भी बोलेंगे, झूठ बोलेंगे और चीन ने तो भारत को बुरी तरह से पराजित किया है, जो कि ये बताना नहीं चाहते। इन लोगों को अपनी सेना द्वारा जवाब देने की घटना गलत और किसी तथाकथित रक्षा जानकार की बात सही लगने लगती है।

सरकार क्या कर रही है?

सरकार बहुत कुछ कर रही है, और हर बात पब्लिक में नहीं बताई जाती। जो बातें पब्लिक में हैं उनमें से एक है कि भारत अपनी सीमा पर, अपने इलाके में लगातार सैन्य ढाँचे बनाए जा रहा है। सड़कें और एयरस्ट्रिप बन रही हैं। मिलिट्री स्तर से ले कर रक्षा मंत्रालय और विदेश मंत्रालय के स्तर पर बातचीत जारी है।

कुछ लोग ‘बातचीत’ की बात पर हँसने लगते हैं, इसे कायरता मानते हैं। शायद इन्हीं लोगों के कारण सैनिकों की जानें जाती हैं। एक ग़ैरज़िम्मेदार नागरिक की तरह हमने अपनी सेना या सरकारों पर इतना दवाब बना दिया है, हमारी आशा ऐसी हो गई है कि सीमा पर कोई भी विवाद हो, हमारी इच्छा सीधे युद्ध की होती है।

युद्ध न तो संभव है, न करना चाहिए क्योंकि वहाँ लाशें हर दिन गिरेंगी, आर्थिक नुकसान इतना होगा कि हम पाँच साल पीछे चले जाएँगे। आपको क्या लगता है कि इन बीस बलिदानियों का कोई मोल नहीं? क्या आप यह नहीं चाहेंगे कि भले ही चीनी सेना दो दिन बाद वापस जाती, लेकिन यह रक्तपात न होता तो बेहतर रहता?

चीनी सेना कई कारणों से बदमाशी कर रही है। उसके देश के राजनैतिक हालात खराब हैं। उसने कई बार इस तरह की बातें की हैं जब वो भारतीय सीमा में घुस आते हैं। ये वो तब करते हैं जब उन्हें अपने राष्ट्र को यह दिखाना होता है कि वो तो दुनिया में किसी की नहीं सुनते। एक तानाशाही सरकार अपनी सैन्य क्षमता का तमाशा बनाने के लिए कई बार ऐसा कर चुकी है, फिर वापस चली जाती है।

चीन ने न तो ऐसा पहली बार किया है, न आखिरी बार। लेकिन हाँ डोकलाम से गलवान तक, उन्हें वैसा जवाब मिला जैसा उन्होंने सोचा नहीं था। इस बार लाशों की गिनती पर उनकी चुप्पी बताती है कि उनको कैसा झटका लगा है, बीजिंग से कुछ स्वतंत्र पत्रकार बता रहे हैं कि अस्पतालों में लगातार लाशें आ रही हैं, और उन्हें लगातार ‘जलाया’ जा रहा है।

बातचीत ही एकमात्र उपाय क्यों?

बातचीत एकमात्र उपाय इसलिए हो जाता है क्योंकि दूसरा कोई भी उपाय ऐसा नहीं जो प्रैक्टिकल हो। युद्ध जवाब नहीं है, न ही सैन्य क्षमता को एक स्तर के बाद ले जाना। गिरती अर्थव्यवस्था के दौर में, कोरोना से जूझते राष्ट्र युद्ध का सदमा नहीं झेल सकते। इसलिए, अंतरराष्ट्रीय दवाब बना कर चीन को अपनी प्रसारवादी नीतियों की समीक्षा करने पर मजबूर करना होगा।

बातचीत से ज़िंदगियाँ बचती हैं, इसलिए यह सही रास्ता है। बाकी के दूसरे रास्तों में चीन पर व्यापारिक दवाब बनाना भी है जिसमें दोनों देशों के बीत व्यापार के अंतर 50 बिलियन डॉलर से ज्यादा है। कुछ लोग कह रहे हैं कि व्यापार बंद कर दो। हो सकता है हो भी जाए, लेकिन जिन चीजों को भारत वहाँ से आयात करता है, वो क्या भारत में, उससे सस्ते, या उतने ही दामों पर बनाने की क्षमता भारत में है!

नहीं है। इसलिए, पहले अपनी मैनुफ़ैक्चरिंग ठीक किए बिना ऐसा करना अपनी ही इकॉनमी को तबाह करने जैसा होगा क्योंकि कई उद्योंगों में लगने वाले कई तरह की चीजें सीधे चीन से ही आती हैं। चीन किसी की बात नहीं मानता, इसलिए एक तरह से किसी बड़े राष्ट्र या यूएन से दबाव बनवाना भी उतना सही नहीं ही लगता।

हाँ, भारत अपनी तरफ से ताइवान और तिब्बत को स्वतंत्र राष्ट्र मान कर अपने दूतावास बना ले, उन्हें औपचारिक रूप से भाव देना शुरु करे, और बाकी मित्र राष्ट्रों से भी यह कराए तब चीन का नेतृत्व इसे एक चैलेंज की तरह देखेगा। तब भारत, एक तरह से, चीन को उसी की भाषा में दवाब देगा जहाँ वो बिना बात के किसी ऐसे इलाके में भटकते हुए घुस जाएगा जहाँ जाने का कोई औचित्य नहीं।

इसलिए, जब तक ऐसा नहीं हो रहा, अपनी सेना पर विश्वास रखिए। उन लोगों का मनोबल बढ़ाइए जो हमारी रक्षा कर रहे हैं। उन्हें एक संख्या में मत लपेटिए क्योंकि आपकी राजनैतिक विचारधारा अलग है। ऐसे समय पर सिर्फ भारत ही ऐसा देश है जहाँ के नागरिक यह मानने लगते हैं कि नेपाल भी हमसे आँखें उठा कर बोलेगा, और हम कुछ नहीं कर पाएँगे।

अजीत भारती: पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी