कॉन्ग्रेस और मजहब विशेष के अवैध प्रवासियों की प्रेम कहानी: नेहरू से ‘गाँधी’ तक तुष्टिकरण का चरम

नेहरू, इंदिरा, राजीव और मोदी: NRC के चार पड़ाव

वैसे तो एनआरसी का मसला असम की राज्य सरकार, केंद्र की तत्कालीन राजीव गाँधी सरकार और असम के राजनैतिक दलों से शुरू हुआ था, मगर इसकी जड़ें पंडित नेहरू के कार्यकाल तक जाती हैं- जो बहुत कम लोग जानते हैं।

1950 में बनाए गए अप्रवासी कानून के तहत सरकार के संज्ञान में लाया गया कि असम में अवैध प्रवासियों की संख्या बढ़ती जा रही है, जो कि चिंता का विषय है। इसलिए इस कानून की स्थापना के पीछे का मूल ही असम से अवैध प्रवासियों को बाहर करना था। 1950 में बना अप्रवासी कानून उस समय की कार्यकारी सरकार ने बनाया था।

1951 में असम से अवैध प्रवासियों को बाहर निकालने के लिए एक ऐसी सूची की आवश्यकता पड़ी, जिसमें भारतीय नागरिकों की जानकारी हो, इसलिए National Register of Citizens of India (NRC) भारतीय नागरिकों का राष्ट्रीय रजिस्टर तैयार किया गया, जिसमें देश के सभी नागरिकों के नाम, आयु व पता लिखे गए थे। 

1951 की एनआरसी उस वर्ष की जनगणना के बाद तैयार की गयी थी। इसके बाद दूसरा कदम सरकार को यह उठाना था कि असम से अवैध प्रवासियों को बाहर निकाला जाए। लेकिन 1951 में जनगणना के बाद अंत में चुनाव शुरू हो गए, जो 1952 तक चले और इसके बाद नई सरकार ने इस काम को ठंडे बस्ते में डाल दिया। 1952 में सरकार की ओर से एक बड़ा ही बेतुका कारण बताकर इस विषय को टाल दिया गया। 

‘विदेशी मामलों पर श्वेत पत्र’ में सरकार ने कहा कि अक्टूबर 1952 से भारत और पाकिस्तान के बीच वीज़ा और पासपोर्ट नियमों का कार्यान्वन शुरू हो चुका था जो अधिक महत्व का काम था इसलिए एनआरसी के काम को रोकना पड़ा। यह कारण बेतुका इसलिए भी है क्योंकि वीज़ा और पासपोर्ट के संचालन के बाद से तो काम और भी आसान हो जाना चाहिए था, ताकि विदेशी नागरिकों को अपने देश से वीज़ा और पासपोर्ट लाने की चेतावनी दी जा सके।

1961 की जनगणना के बाद भारत के रजिस्ट्रार जनरल ने अपनी जनगणना की रिपोर्ट में बताया कि साल 1961 तक असम में 2 लाख से अधिक अवैध प्रवासी आ चुके थे। इसके करीब 4 साल बाद 1965 में (तब तक प्रधानमंत्री नेहरू का देहांत हो चुका था और इस गंभीर विषय को लाल बहादुर शास्त्री जी के ज़िम्मे छोड़ा गया) एनआरसी के अंतर्गत आने वाले सभी लोगों को एक राष्ट्रीय पहचान पत्र और राष्ट्रीय पहचान अंक दिए जाने थे। मगर इस काम की व्यापकता से डरते हुए और इसे अव्यवहारिक घोषित करते हुए इसे सन 1966 में भी टाल दिया गया।

1971 तक पूर्वी पाकिस्तान में स्थिति भयावह हो चुकी थी जिसके बाद भारत पाकिस्तान के बीच एक और युद्ध हुआ। इस दौरान भी बहुत बड़ी संख्या में अवैध प्रवासियों ने भारत में प्रवेश किया। 1971 के बाद से यह प्रवेश बढ़ता ही गया। चार वर्षों बाद 1975 में देश में  आपातकाल लागू होने के बाद 1977 तक कोई बड़ी प्रगति इसमें नहीं हो सकी, लेकिन 1979 में असम के छात्र परिषदों ने इस मामले को बहुत ही व्यापक स्तर पर उठाया और काफी बड़ी संख्या को प्रभावित किया। 

छात्र संगठनों का असम के लिए संघर्ष

ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (AASU) व ऑल असम गण संग्राम परिषद (AAGSP) का संघर्ष भी अपने आप में एक कहानी है। असम में बढ़ते अप्रवासियों के कारण असम के संसाधनों का ह्रास हो रहा था। वे संसाधन जो राज्य की मूल निवासी जनता को मिलने चाहिए थे, उन्हें अवैध प्रवासियों को दिया जा रहा था। बांग्लादेश से भारत आने वाले अवैध प्रवासियों में समुदाय विशेष की आबादी ज़्यादा थी, और कॉन्ग्रेस की तुष्टिकरण की राजनीति के कारण समुदाय विशेष को विशेष सत्कार मिलता था। राज्य की नौकरियाँ यदि कोई सबसे ज़्यादा खा रहा था तो वे अवैध प्रवासी थे।

राज्य में अगर अवैध बस्तियाँ बन रही थीं, ज़मीन पर कब्ज़ा बढ़ रहा था और कानून व्यवस्था चरमरा रही थी तो उसके पीछे भी अवैध प्रवासी थे। चोरी, हत्या, लूट, धमकी और अन्य अपराध भी राज्य में अवैध प्रवासियों के कारण बढ़ते ही जा रहे थे। दुःखद यह है कि एनआरसी के जिस काम को 1966 में लाल बहादुर शास्त्री जी ने टाल दिया था, उसे दोबारा इंदिरा गाँधी ने शुरू तक नहीं कराया। 2 लाख से अधिक प्रवासी 1961 में असम में आ चुके थे, और इसके बाद भारत-पाक युद्ध और आगामी वर्षों में भी प्रवासियों का आगमन रुक नहीं रहा था, जिसके कारण अपराध और अपराधियों की संख्या बढ़ रही थी।

अंततः असम के छात्र संगठनों के आंदोलन ने उग्र रूप ले लिया। इस आंदोलन में भी काफ़ी हिंसा हुई और बहुत लोगों की जानें गईं। इस आंदोलन में ट्रेन भी रोकी गईं, और असम से बिहार रिफाइनरी भेजे जाने वाले तेल को भी रोका गया। आंदोलनकारियों की माँग थी कि 1951 के बाद आए सभी अवैध प्रवासियों को राज्य से बाहर निकाला जाए। आंदोलनकारियों की माँग केवल अवैध प्रवासियों को बाहर निकालने की ही नहीं, बल्कि अवैध वोटरों को भी निकालने की थी।

करीब 6 वर्षों के लंबे संघर्ष के बाद सन 1985 में AASU और AAGSP की बातें राज्य व केंद्र सरकार ने मान ली और राजीव गाँधी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के साथ AASU और AAGSP व राज्य सरकार का त्रिपक्षीय समझौता हुआ जिसे असम एकॉर्ड या ‘असम समझौते’ के नाम से जाना जाता है। राजीव गाँधी की सरकार में हुए इस समझौते के अनुसार सरकार ने यह वादा किया था कि दिनांक 25 मार्च 1971 (बांग्लादेश का स्वतंत्रता दिवस) के निर्णायक दिवस के बाद असम में आए शरणार्थियों को वापस बांग्लादेश भेज दिया जाएगा। 

ध्यान रहे कि इससे पहले सरकार के संज्ञान में वर्ष 1965 में ही यह आ गया था कि 2 लाख से अधिक प्रवासी राज्य में प्रवेश कर चुके हैं और उन्हें हटाना है, मगर सरकार अपनी अक्षमता के कारण उन 2 लाख प्रवासियों को माफ करने की नीति बना चुकी थी और छात्र संगठनों ने भी यह महसूस किया कि 6 वर्षों के लंबे संघर्ष के बाद कुछ फ़ैसला तो हमारे हित में आया, इसलिए वे सरकार के साथ इस समझौते का हिस्सा बन गए और आंदोलन वापस ले लिया गया। 

अब तक असम की स्थिति 1951 से अलग हो चुकी थी, इसलिए 1951 में बनी एनआरसी की सूची अपडेट करने की ज़रूरत थी। अपडेट करने के बाद ही 1951-1971 के बीच आए अवैध प्रवासियों को राज्य में शरण दिए जाने की इजाज़त दी जाती और उसके बाद के कालखंड में आए प्रवासियों को बाहर निकाला जाता। मगर हमेशा की तरह कॉन्ग्रेस ने असम समझौता केवल अपने राजनीतिक फायदे के लिए ही किया था क्योंकि एनआरसी अपडेट करने को लेकर कॉन्ग्रेस ने कोई भी प्रगति नहीं दिखाई। 

इसके बाद सालों तक अवैध प्रवासियों पर चर्चा नहीं की गई, न उन्हें खोजा गया न ही उन्हें निकालने का प्रयास किया गया। हाँ, 2005 में एक बार मनमोहन सिंह ने प्रयास का दिखावा ज़रूर किया था। असम से ही राज्यसभा साँसद रहे मनमोहन सिंह ने 2005 में दिल्ली में त्रिपक्षीय बैठक की जिसमें केंद्र सरकार, राज्य सरकार और ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन का प्रतिनिधित्व रहा। लेकिन खुद रिमोट-कंट्रोल से चलने वाले मनमोहन सिंह इसके आगे कुछ न कर सके, और मात्र बैठक करके अपना राजनीतिक हित साध गए।

2009 में पड़ा सर्वोच्च न्यायालय का डंडा

2009 में ‘असम पब्लिक वर्क्स’ नामक एक ग़ैर सरकारी संगठन ने जनहित याचिका सर्वोच्च न्यायालय में दायर की। इस याचिका के माध्यम से संगठन ने सरकार से पूछा कि एनआरसी अपडेट होने का काम कहाँ तक पहुँचा, लेकिन दुर्भाग्य से यह काम तनिक भी आगे नहीं बढ़ा था। सर्वोच्च न्यायालय ने इसके बाद सरकार से इस काम को तेज़ी से शुरू करने को कहा जिसके बाद सरकार ने वर्ष 2010 में दो प्रखंडों में एक पायलट प्रोजेक्ट शुरू किया। 

कामरूप और बारपेटा में एनआरसी अपडेट करने की शुरुआत के लिए गए अधिकारियों को मुँह की खानी पड़ी। असम में अवैध प्रवासी समुदाय समुदाय ने अधिकारियों, मुख्यमंत्री तरुण गोगोई और ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन के विरुद्ध प्रदर्शन किया, नारे लगाए और जब पुलिस ने लाठीचार्ज किया तो उन्होंने आगजनी भी की। इसके बाद माहौल और ख़राब हो गया जिससे यह काम पुनः रुक गया।  

उस समय की यूपीए सरकार सुप्रीम कोर्ट के आदेश का भी पालन न कर सकी। इतना ही नहीं, पिछले प्रोजेक्ट्स को लटकाने का कॉन्ग्रेस का रवैया फिर सामने आया और इसके बाद 2013 में सर्वोच्च न्यायालय ने पूरा काम अपनी निगरानी में लिया। 2014 में चुन कर आई मोदी सरकार को सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले पर तेज़ी से काम करने का आदेश दिया। 

नरेंद्र मोदी सरकार ने इस मामले में कोई ढिलाई नहीं बरती। कॉन्ग्रेस के रवैये के विपरीत, मोदी सरकार ने काम में तेज़ी दिखाई और वह काम जो 1985 में शुरू हो जाना चाहिए था, वह 30 वर्षों बाद 2015 में शुरू हुआ। एनआरसी को अपडेट करने के लिए मोदी सरकार ने आवेदन की शुरुआत 2015 से कर दी। लोगों ने आवेदन भरना शुरू किया और 31 अगस्त 2018 को आवेदन बंद होने तक, असम की आबादी के बराबर 3 करोड़ 29 लाख आवेदन आ चुके थे। 1 सितंबर से ही सरकार ने वेरिफिकेशन यानी जाँच का काम शुरू कर दिया। करीब दो वर्षों में यह काम पूरा हो गया, और 30 जुलाई 2017 को सरकार ने पहली ड्राफ्ट रिपोर्ट यानि प्रारूप तैयार कर दिया।

3 करोड़ की जनसंख्या में से केवल 1 करोड़ 90 लाख लोगों के नाम इस रिपोर्ट में शामिल थे। इसके बाद सरकार ने लोगों को अवसर दिया कि जिनके नाम शामिल नहीं हैं, वे कोई भी प्रामाणिक दस्तावेज़ दिखा कर अपना नाम शामिल करा सकते हैं। साल भर बाद दोबारा वेरिफिकेशन हुआ और 30 जुलाई 2018 को सरकार ने फाइनल ड्राफ्ट रिपोर्ट तैयार की, जिसमें 40 लाख लोगों के नाम नहीं थे। 

इसके बाद भी सरकार ने एक और अवसर उन लोगों को दिया, जो नागरिक हैं और फिर भी अपने दस्तावेज़ जमा नहीं करा पाए। इस साल 2019 में सरकार फाइनल रिपोर्ट जारी करेगी, जो कि ड्राफ्ट रिपोर्ट नहीं होगी। यह ग़ौर करने वाली बात है कि पिछले 5 सालों में जिस तेज़ी के साथ काम हुआ है, पिछली सरकारों ने वह तेज़ी नहीं दिखाई। 30 सालों से अटके हुए काम को मोदी सरकार ने 5 साल में पूरा किया। अगर मोदी सरकार सत्ता में वापस नहीं आई होती तो शायद इस साल आने वाली एनआरसी की फाइनल रिपोर्ट की संभावना ही नहीं होती।

अब भी जिनके नाम इस एनआरसी में नहीं होंगे, और वे लोग देश के नागरिक हुए, उनके पास अवसर है कि वे ‘फॉरेनर ट्रिब्यूनल’ में अपनी याचिका दायर करें, ख़ुद को नागरिक साबित करें और सूची में अपना नाम दर्ज करवाएँ। यानि जिन लोगों के नाम सरकार ने सूची में नहीं रखे हैं, मगर वे फिर भी ख़ुद को देश का नागरिक मानते हैं, उन्हें फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल में अपनी लड़ाई लड़नी होगी। यदि उन्होंने वहाँ साबित कर दिया कि वे भारतीय नागरिक ही हैं, तब उनका नाम एनआरसी में जोड़ दिया जाएगा। भारत सरकार द्वारा दो तीन मौके दिए जाने के बाद यही रास्ता बचेगा। 

अपने राजनीतिक हित के लिए समस्याओं को जारी रखना कॉन्ग्रेस का पुराना रवैया रहा है। 2017-18 में एनआरसी की ड्राफ्ट सूची जारी होने के बाद कॉन्ग्रेस असम में रहने वाले अवैध प्रवासियों के हक़ में आवाज़ उठाने लगी, कानूनी प्रक्रिया से इनकार करने लगी और यहाँ तक कहने लगी कि भाजपा से ज़्यादा काम हमने किया है। ख़ैर कॉन्ग्रेस की इसी नीति ने उसे देश में नकारा है और यदि आगे भी यही स्थिति रही तो कॉन्ग्रेस मुक्त भारत होना पक्का है।