ॐ को योग से तोड़ना और अल्लाह को योग से जोड़ने का कॉन्ग्रेसी प्रोपेगेंडा, कुछ और नहीं हिन्दू विरोध का पुराना पैंतरा

ॐ को योग से तोड़ना और अल्लाह को योग से जोड़ने का कॉन्ग्रेसी प्रोपेगेंडा

अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के अवसर पर अपनी विशेषज्ञता रजिस्टर करते हुए कान्ग्रेस नेता और वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने लिखा; ॐ के उच्चारण से न तो योग ज्यादा शक्तिशाली हो जाएगा और ना अल्लाह कहने से योग की शक्ति कम होगी। 

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यह योग पर किसी वकील की नहीं बल्कि एक कॉन्ग्रेसी की निपुणता का बयान है। किसी वकील का बयान होता तो सिंघवी शायद यह कहकर रुक जाते कि; किसी कानून में नहीं लिखा है कि केवल हिन्दू ही योग कर सकते हैं या फिर यह कि; किसी कानून में नहीं लिखा है कि योग करते हुए ॐ का उच्चारण अनिवार्य है। पर खुद को वकील से पहले कॉन्ग्रेसी मानने वाले सिंघवी ने ऐसा बयान चुना जो हिन्दुओं को चिढ़ा सके। उनका बयान यह साबित करता है कि एक कॉन्ग्रेसी इतना प्रतिभावान हो सकता है कि वह योग ही नहीं, अयोग, वियोग, संयोग वगैरह को भी हिन्दू-मुस्लिम एंगल से देख सकता है। वह जब चाहे योग को ॐ से तोड़ कर अल्लाह से जोड़ सकता है। वह कॉन्ग्रेसी के दशकों पुराने दर्शन का प्रयोग करके साबित कर सकता है कि योग दरअसल अल्लाह की देन है।
 
कॉन्ग्रेसी यहाँ से भी आगे जा सकते हैं। जैसे योग यदि किसी सरकारी योजना से पैदा होने वाला संसाधन होता तो सिंघवी यह कह कर भी निकल सकते थे कि योग पर पहला अधिकार अल्पसंख्यकों का …नहीं-नहीं, योग पर पहला अधिकार मुसलमानों का है। वे यह भी कह सकते थे कि हमारी सरकार आएगी तो अंतरराष्ट्रीय योग दिवस पर सरकार की भूमिका पर पुनर्विचार करेगी। योग मूलतः सनातन धर्म की देन है इसलिए कॉन्ग्रेसी उसके साथ अल्लाह को जोड़कर रुक जाते हैं। वे जो चाहें कह सकते हैं क्योंकि पिछले दो दशकों से कॉन्ग्रेस के राजनीतिक दर्शन में अब सत्य के लिए न तो स्थान रहा और न ही पगडंडी। ऐसे में सिंघवी यदि अल्लाह-हू-अकबर कहकर अपना योगाभ्यास आरंभ करें तो भी किसी को फर्क नहीं पड़ेगा।  

जब से अंतरराष्ट्रीय योग दिवस को संयुक्त राष्ट्र संघ ने मान्यता दी है, भारत में योग के विरोधियों की संख्या बढ़ गई है। हर वर्ष किसी न किसी बहाने आजके दिन योग को लेकर तरह-तरह की बातें बनाने का प्रयत्न किया जाता है। कभी लोकतंत्र की तथाकथित कमी या उसके गुणवत्ता को आगे रखकर तो कभी बेरोजगारी के आँकड़े आगे रख कर, कभी सरकार की तथाकथित देश विरोधी नीतियों का ढोल पीट कर तो कभी प्रधानमंत्री मोदी के मन की बात को आगे रखकर। जैसे इस वर्ष विरोध के टेम्पलेटानुसार अस्सी करोड़ भारतीयों के गरीब होने और पैंतीस करोड़ भारतीय महिलाओं के कुपोषित होने जैसे आँकड़ो का प्रयोग करके योग को कलंकित करने का प्रयास किया जा रहा है। सोशल मीडिया पर ट्वीट विमर्श देखकर लग रहा है जैसे सबको एक ही मेसेज मिला है और सारे उसे फैलाने में लगे हैं। प्रश्न यह है कि इन विषयों को योग से जोड़ने का क्या औचित्य है? इस प्रश्न का शायद यह उत्तर है कि कॉन्ग्रेसी इकोसिस्टम केवल योग दिवस पर ही नहीं बल्कि यह कह कर भी प्रश्न उठाता है कि; देश में इतनी समस्याएँ हैं और हम मंगलयान भेजने में लगे हैं।   

देश में समस्याएँ हैं, इस बात से कौन इनकार कर सकता है, पर उन समस्याओं से सम्बंधित कुछ भी आँकड़ों के बहाने योग को अपमानित करने की राजनीति के बारे में क्या कहा जाए? हर योग दिवस पर यह बात क्यों उठाई जाती है कि मुसलमान योग नहीं करेंगे? करोड़ों हिन्दू हैं जो योग दिवस पर योग नहीं करते पर वे तो विरोध नहीं करते। मुसलमानों द्वारा योग के विरोध की बात शायद तब समझ में आती जब सरकार ने योग सबके लिए अनिवार्य कर दिया होता पर जब तक ऐसी कोई स्थिति नहीं आती तब तक मुसलमानों द्वारा योग का विरोध करने की बात खड़ी ही क्यों की जाती है? यदि किसी को योग नहीं करना है तो न करे पर इसे अल्लाह से जोड़ने की कोशिश क्यों? इसके पीछे का उद्देश्य क्या है? योग शरीर के अलावा चित्त को भी स्वस्थ रखता है। ऐसे में कुछ लोगों को यह भय तो नहीं है कि; कहीं योगाभ्यास के कारण उनका चित्त परिष्कृत हो जाएगा तब क्या होगा? यह भय तो नहीं कि चित्त परिष्कृत हुआ तो उनके जीवन में भूचाल आ जाएगा क्योंकि जीवन में बनाई गई उनकी योजनाएँ और उद्देश्य नष्ट हो जाएँगे? कि मन के विकार नष्ट हुए तो जीवन में कुछ बचेगा ही नहीं?  

योग के वर्तमान शिक्षक या संत खुद भी कई बार सार्वजनिक तौर पर कह चुके हैं कि अधिक से अधिक लोगों को योग का लाभ उठाना चाहिए क्योंकि योग का किसी धर्म से लेना-देना नहीं है। योग के शिक्षक यदि ऐसा कहते हैं तो यह उनके अपने विचार हैं। वे यदि योग के स्रोत और उसकी उत्पत्ति निजी कारणों से नकारना चाहते हैं तो यह उनके अपने विचार हैं जो आवश्यक नहीं कि सच ही हों। इस विषय पर एक आम हिन्दू के भी अपने विचार हो सकते हैं जो शायद इन शिक्षकों के विचारों से भिन्न हों पर इस असहमति के बावजूद सार्वजनिक तौर पर कभी हिन्दू समाज ने शिक्षकों के इन विचारों का विरोध नहीं किया। ऐसे में बार-बार यह कहना क्यों आवश्यक है कि योग का हिन्दुत्व या सनातन धर्म से लेना-देना नहीं है? शायद इसका उत्तर इस बात में है कि योग करें या न करें पर उसे अपमानित करने का कोई भी मौका न जाने दें।      

ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनपर विमर्श और उनका उत्तर खोजने का प्रयास होना चाहिए। दुष्प्रचार को समय के हिसाब से उसे चलाने वाले कब कहाँ पहुँचा दें, इसका अनुमान लगाना शायद हर बार संभव न हो सके। हम अपने घुटे हुए इतिहासकारों से अच्छी तरह से परिचित हैं। आज एक कॉन्ग्रेसी योगाभ्यास से ॐ तो तोड़कर अल्लाह को जोड़ रहा है, ऐसे में क्या इस संभावना से इनकार किया जा सकता है कि हमारे घुटे हुए इतिहासकार किसी दिन यह परिकल्पना देना शुरू न कर देंगे कि चूँकि योगाभ्यास के समय लोग अल्लाह अल्लाह करते हैं इसलिए यह साबित होता है कि फलाने पैगम्बर ने दुनियाँ को योग दिया था? 

पॉलिटिकल करेक्टनेस किसे कहाँ तक ले जाता है वह देखने वाली बात होगी पर फिलहाल तो सरकार के विरोध के उद्देश्य से आरंभ हुई एक प्रक्रिया योग विरोध पर पहुँची और वहाँ से एक और छलांग लगाकर हिन्दू विरोध पर जा खड़ी हुई है।