हिंसा से भी खौफनाक बंगाल का सिस्टम: पीड़ितों का अब सुप्रीम कोर्ट ही सहारा

ममता प्रशासन से निराश पीड़ितों ने सुप्रीम कोर्ट से लगाई गुहार

पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव के नतीजे आए करीब डेढ़ महीने ही चुके हैं। सबको आशा थी कि लोग अब चुनाव, चुनाव प्रचार और चुनावी राजनीति से आगे देखेंगे। चुनाव उपरांत शुरू हुई हिंसा धीरे-धीरे रुक जाएगी या कहें तो होने नहीं दिया जाएगा। वैसे तो चुनावों में किसी भी हिंसा का उद्देश्य सरकार बनवाना या विरोधी दल को सत्ता में न आने देना होता है पर पश्चिम बंगाल में शायद इसका उद्देश्य कुछ और ही है।

सरकार बनने के लगभग डेढ़ महीने के बाद हिंसा न केवल जारी है, बल्कि पीड़ितों की एक-एक कर खौफनाक आपबीती सामने आ रही है। एक तरफ से राज्य सरकार और सत्ताधारी दल का कहना है कि कोई हिंसा नहीं हो रही और दूसरी तरह करीब-करीब रोज हिंसा की वारदातों की नई-नई कहानियाँ बाहर आ रही हैं। जिस सरकार का नेतृत्व सार्वजनिक तौर पर अपने राज्य में किसी भी तरह की हिंसा को सीधे नकार दे, वहाँ की पुलिस हिंसा की किसी वारदात को स्वीकार कर उसके विरुद्ध कार्रवाई कैसे कर सकती है? 

ऐसे में हिंसा पीड़ित नागरिकों की बात कौन सुनेगा? उनके विरुद्ध हुई हिंसा को रिपोर्ट करने के लिए राज्य सरकार की कौन सी संवैधानिक संस्था उपयुक्त हो सकती है? इस प्रश्न का उत्तर न मिलने की स्थिति में ही शायद कई पीड़ित महिलाओं को सुप्रीम कोर्ट की शरण लेनी पड़ी है। रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं ने हिंसा, सामूहिक बलात्कार और पुलिस द्वारा अपराध की उचित जाँच न करने की वजह से सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई है

एक साठ वर्षीय महिला ने बताया कि कैसे चुनाव नतीजे आने के बाद तृणमूल कॉन्ग्रेस के समर्थकों ने उसके घर पर धावा बोल दिया और पोते के सामने उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया। यह घटना चुनाव नतीजों के आने के दो दिन बाद 4-5 मई की रात को हुई। साथ ही सत्ताधारी दल के समर्थकों ने महिला के घर में लूटपाट भी की। 

घटना की विस्तृत जानकारी देते हुए महिला ने सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि खेजुरी में भाजपा की जीत के बावजूद तृणमूल कॉन्ग्रेस के लगभग दो सौ कार्यकर्ताओं ने उसके घर का घेराव किया और उसे बम से उड़ा देने की धमकी दी। इसके दूसरे दिन उसकी बहू अपनी जान बचाने के लिए डर कर घर छोड़ गई। इसके एक दिन बाद फिर TMC के लोग उसके घर में घुसे और उसके साथ बलात्कार किया। इसके पश्चात उसके पड़ोसियों ने महिला को बेहोशी की हालत में पाया और जब उसके दामाद ने एफआईआर करवाने की कोशिश की तो पुलिस ने दर्ज करने से मना कर दिया। महिला का कहना है कि सत्ताधारी दल के कार्यकर्ता बलात्कार को राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करते हैं। महिला ने इस घटना की सुप्रीम कोर्ट की देखरेख में एसआईटी जाँच की माँग की है।

पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा का इतिहास पुराना होगा पर क्या राजनीतिक दल, मीडिया, बुद्धिजीवी, संवैधानिक संस्थाओं वगैरह के लिए यह कह देना ही काफी है? इससे कौन मना कर सकता है कि प्रदेश में राजनीतिक हिंसा का इतिहास पुराना है, पर हम इस लाइन को कहकर या लिखकर कब तक जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ते रहेंगे? जब किसी हिंसा के विरुद्ध कुछ न कर सकेंगे तो क्या उसे उचित ठहराने का प्रयास करने लगेंगे? क्या यह कह कर आँख बंद करते रहेंगे कि यह तो राजनीतिक जीवन का अभिन्न अंग बन गया है? जब चुनावी राजनीति की अन्य विसंगतियों को रोकने के प्रयास काफी हद तक सफल हुए हैं तो फिर इस विसंगति में ऐसा क्या है जिसे नहीं रोका जा सकता?

एक समय बूथ लूटना राजनीति का अभिन्न अंग था। उसे लगातार चलने क्यों नहीं दिया गया? यह कहकर हम, राजनीतिक दल या संवैधानिक संस्थाएँ अपनी जिम्मेदारियों से हाथ धोते रहती कि बूथ लूटना तो राजनीति का अभिन्न अंग बन गया है। काफी समय तक दोहराए जाने के बाद उसे भी ऐसा ही मान लिया जाता तो वो भी अभी तक अभिन्न अंग बनकर चिपका रहता। पर हमारी, लोकतांत्रिक व्यवस्था और संवैधानिक संस्थाओं की इच्छाशक्ति और सामूहिक प्रयास से उसे रोका गया, क्योंकि उसे रोकने से ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया की रक्षा हो सकती थी। तो प्रश्न यह है कि यदि बूथ लूटने को राजनीति का अभिन्न अंग बनने से हम चिंतित थे तो इतनी भीषण राजनीतिक हिंसा को अभिन्न अंग बने कैसे देखना चाहते हैं? कितना कठिन है सरकारों के लिए इस हिंसा को रोक पाना?

जब राजनीतिक हिंसा का एक स्वर में विरोध होना चाहिए, तब राजनीतिक और वैचारिक समर्थकों की ओर से उस पर चुप्पी साधी जा रही है या फिर यह कहकर उसे एक मोड़ दिया जा रहा है कि पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा का चरित्र कभी भी सांप्रदायिक नहीं रहा है। यह कैसा तर्क है कि हिंसा यदि सांप्रदायिक न हो तो उसे होते रहना चाहिए? 2021 में हिंसा सांप्रदायिक क्या केवल इसलिए नहीं हो सकती क्योंकि पहले नहीं हुई है? यह ऐसा ही तर्क है जैसे कोई कहे कि कॉन्ग्रेस पार्टी और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के बीच इसलिए कोई MOU नहीं हो सकता क्योंकि जब पंडित नेहरू प्रधानमंत्री थे तब चीन ने भारत पर आक्रमण किया था!

कालांतर में राजनीतिक हिंसा का स्वरूप क्यों नहीं बदल सकता? पिछले दो विधानसभा चुनावों में तृणमूल कॉन्ग्रेस को चुनौती तथाकथित सेक्युलर दलों से मिली थी शायद इसलिए तब राजनीतिक हिंसा का स्वरूप सांप्रदायिक नहीं था। इस बार सत्ताधारी दल को चुनौती भाजपा से मिली है तो हो सकता है कि इसलिए हिंसा का स्वरूप सांप्रदायिक हो गया हो। पर बिना किसी जाँच के लोग किसी निर्णय पर कैसे पहुँच जा रहे हैं, यह समझ से परे है। 

सामूहिक बलात्कार की जो पीड़िता सुप्रीम कोर्ट गई है उनकी इस माँग से किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि बलात्कार और हिंसा की इन घटनाओं की जाँच कोर्ट की देखरेख में एसआईटी से करवाई जाए। कानून की अपनी परिभाषाएँ और दांव-पेंच होते होंगे, पर मानवाधिकार की दृष्टि से देखा जाए तो एक पीड़ित नागरिक की सुनवाई यदि राज्य की पुलिस या कानून-व्यवस्था की मशीनरी न करे तो उसके पास क्या चारा बचता है?

खासकर तब जब राज्य के उन नागरिकों में भय व्याप्त है जिन्होंने तृणमूल को अपना वोट या समर्थन नहीं दिया। नागरिकों में भय का माहौल कैसे न होगा जब सत्ताधारी के दल के सांसद कैमरे पर अपने दल के लोगों से कहते हैं कि वर्तमान राज्यपाल के विरुद्ध राज्य के हर पुलिस स्टेशन में मुकदमा किया जाना चाहिए क्योंकि आज उनके खिलाफ भले ही कुछ न किया जा सके पर जिस दिन वे अपने पद पर नहीं रहेंगे तब गिरफ्तार करके उसी जेल में डाला जाएगा जिसमें तृणमूल के मंत्री बंद थे। इस तरह की भाषा और धमकी यदि राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति को दी जा सकती है तो फिर इस राज्य में जाँच और मुक़दमे की सुनवाई सही ढंग से होगी, इस बात पर किसे भरोसा होगा?

पिछले एक महीने में यह माँग उठती रही है कि सुप्रीम कोर्ट पश्चिम बंगाल में होने वाली हिंसा, लूटमार, बलात्कार वगैरह की घटनाओं का स्वतः संज्ञान ले। कोर्ट के पास ऐसा न करने के अपने कारण होंगे जो संविधान और न्याय सम्मत भी होंगे पर कोर्ट उन मामलों की सुनवाई तो कर ही सकता है जिन्हें लेकर उसकी शरण में एक आम पीड़ित नागरिक पहुँचा है।