"तुमने जिस ख़ून को मक़्तल में दबाना चाहा
आज वह कूचा-ओ-बाज़ार में आ निकला है
कहीं शोला, कहीं नारा, कहीं पत्थर बनकर
ख़ून चलता है तो रूकता नहीं संगीनों से
सर उठाता है तो दबता नहीं आईनों से"
शायर साहिर लुधियानवी ने ये पंक्तियाँ 23 मई 2019 की सुबह को ध्यान में रखकर नहीं लिखी थीं। ये पंक्तियाँ लिखी जा चुकी हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह नरेंद्र मोदी को एक बार फिर देश ने सर आँखों पर बिठा लिया है। एक बार फिर नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने वाले हैं, बावजूद इसके कि इस नरेंद्र मोदी को कुछ सत्तापरस्त राजपरिवारों और उनके सिपहसालारों ने विषैले, बेबुनियाद और झूठे आरोप लगाकर खून के दलाल से लेकर नीच और न जाने क्या क्या बोलकर दमन करने का पूरी शिद्दत से प्रयास किया।
जब पाँच साल तक देश में लोकतंत्र की हत्या हुई तो फिर लोकतंत्र ने इस हत्या को एक बार फिर और कहीं अधिक जोरदार तरीके से क्यों चुना? मोदी सरकार की प्रचंड विजय क्या एक बार फिर जनता की भूल और EVM में गड़बड़ी का नतीजा है? ऐसे समय में तमाम राजनैतिक विरोधाभासों के बीच अकेले अपने दम पर लोकसभा चुनाव में 300 की संख्या पार कर लेना किसी चमत्कार से कम नहीं माना जा सकता है।
गत पाँच वर्षों में हम सबने देखा कि विपक्ष के मुद्दे और विरोध के तरीके इतने स्तरहीन थे कि जनता स्वयं अपना फैसला करती गई। कॉन्ग्रेस ने विपक्ष की भूमिका में रहते हुए एक झाँसेबाज की भूमिका निभाई। कॉन्ग्रेस और उसके सहयोगी दल मात्र इसी उठापटक में व्यस्त रहे कि वो आखिर जनता की आँखों में किस तरह से नरेंद्र मोदी की छवि ख़राब कर सके। और अंततः राहुल गाँधी ने अपनी मेधा पर अंकुश लगाए बिना यह स्वीकार भी कर लिया कि उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य अब नरेंद्र मोदी की छवि की धज्जियाँ उड़ाना है।
राहुल गाँधी को लुटियंस मीडिया से लेकर तमाम ‘लिबरल विचारकों’ ने गोद में बिठाकर खूब स्तनपान करवाया, लेकिन मानसिक दैन्यता की भरपाई कोई विटामिन नहीं कर पाया। नतीजा ये हुआ कि जिस आदमी को पैदा होते ही देश का प्रधानमंत्री बना देने का फैसला कर लिया गया था, उसे उसके गढ़ से लात मार कर खदेड़ दिया गया। अब सवाल ये है कि अभिजात्यता पर ये लात किसने मारी है?
क्या राहुल गाँधी और उनके तमाम सलाहकार अभी भी मन से ये स्वीकार कर पा रहे हैं कि EVM ने नहीं, बल्कि जनता ने उनकी अभिजात्यता को उखाड़ फेंका है? जवाब बेहद आसान है। नतीजे आने के बाद राहुल गाँधी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में चाहे दुखी मन से कह दिया हो कि वो ये हार स्वीकार करते हैं लेकिन उन्होंने अभी तक जनता से अपने झूठे आरोपों और उनके गिरोहों द्वारा किए गए जनादेश के अपमान के लिए माफ़ी नहीं माँगी है।
क्या एक महामानव का सामना अभिजात्यता से सम्भव था?
नरेंद्र दामोदरदास मोदी यानी जनता का नेता। RSS कार्यालय में चाय बनाने वाला यह व्यक्ति आज के समय में जनता का नेता बनकर दोबारा सामने खड़ा है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि नरेंद्र मोदी आज राजनीति के महामानव बन चुके हैं। यह छवि इतनी विशाल आखिर किसने बनाई? चुनाव तो बहुत बाद में हुए लेकिन नरेंद्र मोदी बनने में क्या महज एक दिन पड़ने वाले वोट का ही योगदान है? क्या कॉन्ग्रेस इस आत्मचिंतन को कर पाने में सक्षम है कि जिस नरेन्द्र मोदी से वो नफरत करते आए हैं, वो एक दिन में तैयार नहीं हुआ है। इस नरेंद्र मोदी ने जमीन से शुरुआत की और आज भारतीय राजनीति के इतिहास के किसी भी प्रधानमंत्री से बड़ा कद ले चुका है।
नरेंद्र मोदी ने अपने व्यक्तित्व का यह विस्तार तब किया जब आप और हम नेहरू और इंदिरा की आत्ममुग्धता में व्यस्त थे। हम यह देख पाने में असमर्थ थे कि समय बदल चुका है। आप मात्र इतिहासकारों को गोद में बिठाकर, उनकी कलम में अपनी मानसिकता की स्याही भरकर अब मनचाहा इतिहास नहीं लिखवा सकते हैं। कॉन्ग्रेस ने आजादी के बाद एक बड़ा समय इस देश की अशिक्षा और सूचना के साधनों पर सम्पूर्ण अधिकारों के साथ निरंकुश तरीके से इस्तेमाल कर के बिताया। इसी इतिहास की बदौलत हम सब आज गाँधी परिवार से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं।
इसी इतिहास की बदौलत कॉन्ग्रेस स्वयं कभी स्वीकार नहीं कर पाई कि उनके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार को गर्भ से निकलने के बाद जमीन पर चलना होगा, उसे लोगों के बीच नजर आना होगा, लोगों के दुखों को समझना होगा। यही कारण रहा कि आज जो राहुल गाँधी किसी पंचायत चुनाव में प्रधान और वार्ड मेंबर का पद जीतने लायक योग्यता नहीं रखता है, वो इस बुजुर्ग पार्टी का सबसे पहला व्यक्ति बनकर प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब देखता जा रहा है। कॉन्ग्रेस ने उसे कभी तैयार होने और पकने का मौका ही नहीं दिया।
दूसरी ओर नरेंद्र मोदी को लें, तो हम देखते हैं कि उन्होंने गौतम बुद्ध की ही तरह लोगों के बीच रहकर ही लोगों के दर्द को समझा। उन्होंने जनता का नेता बनने के लिए जनता के बीच रहकर ही संघर्ष किए और पार्टी में एक छोटे से पद से उठकर आज एक बार फिर खुद को भाजपा का चेहरा बना चुके हैं। कॉन्ग्रेस का दुर्भाग्य देखिए कि जिस जनता के जरिए वो अपने राजकुमार को सत्ता पर बिठाना चाहती है, वो उसी जनता का मानमर्दन और अपमान अपने घटिया चुटकुलेकारों और ‘शिक्षित’ विदूषकों द्वारा करवाती रही।
कॉन्ग्रेस लगातार जनता के निर्णय को छल और प्रपंच साबित करती रही। वो कहती रही कि वोट देने वाले लोग मूर्ख और अशिक्षित हैं, इसलिए मोदी जीत रहा है। इन विषैले लोगों ने कहा कि मोदी अनपढ़ है इसलिए उसे सत्ता नहीं सौंपी जानी चाहिए, मोदी पिछड़े वर्ग का है, इसलिए उसे प्रधानमंत्री बनते नहीं देखा जा सकता है। लेकिन इन सबके बीच वो कभी भी ये स्वीकार नहीं कर पाए कि उनकी वंशवाद में लिप्त सत्तापरस्ती को लोग नकार चुके हैं।
जनता ने जो निर्णय दिया है, वो किसी पार्टी या विचारधारा के खिलाफ नहीं है, बल्कि उनका सन्देश है उन लोगों के लिए, जो समाज के सबसे कमजोर वर्ग को घृणा और उपेक्षा की दृष्टि से देखता हैं। कॉन्ग्रेस के लिए स्वीकार कर पाना मुश्किल है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हर हाल में जनता का वो स्वप्न हैं, जिन्हें आम जनता जीना चाहती है। जब घटिया चुटकुले बनाकर मोदी की छवि ख़राब करने का प्रयास करने वाली लुटियंस मीडिया ‘देश का मतलब मोदी नहीं’ कहती रही, तब देश की जनता उन्हें एकबार फिर देश का चेहरा बनाने के लिए तैयारी कर रही थी।
कॉन्ग्रेस की गोद में बैठी मीडिया की छटपटाहट देखते ही बन रही है। उदाहरण के लिए चाहे टेलीग्राफ जैसे समाचार पत्र का उदाहरण लें या फिर रोजाना TV पर आकर लोगों को TV ना देखने की सलाह देने वाले स्वघोषित निष्पक्ष पत्रकार का उदाहरण ले लीजिए; सबने सिर्फ इस वजह से मोदी विरोधी डर जनता के बीच स्थापित करने के भगीरथ प्रयास किए, ताकि उन्हें किसी निचले तबके के व्यक्ति को देश का चेहरा बनते ना देखना पड़े।
अभिजात्यता के गुलाम ये सभी पत्रकार और मीडिया के समूह पिछले 5 सालों से व्यक्तिगत नफरत को ‘जनता की राय’ बताकर ज़हर उगल रहे रहे। उन्होंने ‘डर का माहौल है‘ जैसे मुहावरे गढ़ने के तमाम प्रयास किए। इन जहरीले पत्रकारों ने कहा कि मोदी आएगा तो लोग तलवारें लेकर दौड़ेंगे, दलितों का शोषण होगा, संस्थान बिक जाएँगे। अब नतीजे जब हमारे सामने हैं तो क्या वो जनता की राय को स्वीकार कर पाएँगे? या अपने अहंकार और व्यक्तिगत लड़ाई को ही सर्वोपरि रखकर दोबारा यही साबित करने की कोशिश में जुट जाएँगे कि उनकी वास्तविक दुश्मनी मोदी से ही है।
अपने विषैले विचारों को लोकतंत्र की परिभाषा साबित करने वाले लोग क्या लोकतंत्र की आवाज़ के बीच जनादेश का शोर सुन पा रहे हैं? या फिर अपने कानों में उँगलियाँ डालकर बस यही सुनना चाह रहे हैं कि नहीं, यह लोकतंत्र नहीं कोई चमत्कार ही है। अभिजात्यों की जुबान कुछ भी कहे, लेकिन उनके कान ये नहीं सुनना चाह रहे हैं कि कोई नेहरू और इंदिरा से भी बड़ा व्यक्तित्व देश की जनता ने चुन लिया है। निचले तबके से उठे लोगों को जनता द्वारा सत्ता सौंपा जाना देखकर ये पत्रकार सन्नाटे में हैं। ये अब निर्वात में जीना चाह रहे हैं, जिसमें न लोकतंत्र हो, ना ही जनादेश जैसी कोई बात हो। यह भी सत्य है कि कल चुनाव के नतीजे देखने के बाद क्रांति के उपासक लोकतंत्र के ये प्रहरी ये भी चाह रहे हैं कि काश जनता से जनता का नेता चुनने का अधिकार ही छीन लिया जाए।
चुनाव प्रचार के आखिरी ओवर्स में तो ऐसी भी आवाजें सुनने को मिलीं कि हम सत्ता के खिलाफ ही बोलते हैं। यहीं से क्रांति और लाल सलाम की बू आती है। कुछ इसी तरह के लोगों को यही सन्देश देते सुना जाने लगा। सत्ता के खिलाफ बोलूंगा ही बोलूंगा का मतलब है कि सरकार अगर सदियों से घर और छत के लिए तरसते लोगों को बिजली-पानी और छत दिलाने का प्रयास करे, तब भी आप सरकार के खिलाफ लोगों को भड़काएँगे, सिर्फ इसलिए क्योंकि आपको ऐसा करना अच्छा लगता है? आप खुद बताइए कि सरकार की कौन सी ऐसी नीति थी, जिसको आपने अपने स्तर पर जनता तक पहुँचाने का प्रयास किया? निष्पक्षता के नाम पर आप सिर्फ एक विषैले दुश्मन की तरह पेश आते रहे, जिसे जब जहाँ से मौका मिला उसने वहाँ अपनी नफरत का बीज बोने का अवसर तलाशा।
जो भी है, आप चाहे कितने ही अच्छे नैरेटिव बिल्डर क्यों न हों, आपकी कलम से आपके जैसे ही गोदी में बैठे कितने ही अभिजात्यों को सुकून और इनपुट मिलता हो, आप आज सूती कपड़े पहनकर जीवनयापन करने के लिए स्वतंत्र हैं हो सके तो केदारनाथ की उस गुफा चले जाइए, जहाँ 5 साल बाद विषाक्त लोगों से घिरे होने के कारण स्वयं को डिटॉक्स करने के लिए ध्यान लगाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपना ‘पीस ऑफ़ माइंड’ बैलेंस करते हैं। क्योंकि आप जिनकी गोदी में बैठे हुए हैं, वो लोग जनता का मिजाज समझने के बजाए इस बात को लेकर सर धुन रहे हैं कि जनता द्वारा खदेड़कर भगाए गए डिम्पलधारी राजकुमार को फिर से उत्तर की ओर आखिर कैसे लाया जाए?