कोरोना के बीच बेरोजगारी पर सरकारों को घेरना कितना उचित?

जुलाई में 50 लाख सैलरी वाले लोगों की नौकरी जाने का अंदाजा लगाया गया है (फोटो साभार: AZCentral)

जुलाई के CMIE आँकड़ों के अनुसार देश में बेरोजगारी की दर 7.43% है, जो कि जून में 10.99% थी। इसी प्राइवेट थिंक टैंक के अनुसार जुलाई में 50 लाख सैलरी वाले लोगों की नौकरी जाने का अंदाजा लगाया गया है, जो कि पूरे कोविड (कोरोना) आपदा के दौरान दो करोड़ तक कही जा रही है। ये आँकड़े अच्छे नहीं हैं। न ही इसे किसी भी तर्क से सही कहा जा सकता है।

इसके साथ ही दूसरा आँकड़ा यह भी है कि अव्यवस्थित सेक्टर में नौकरियाँ बढ़ने से नौकरी वाले लोगों की संख्या में सुधार तो है, लेकिन यह सुधार सही नहीं है। वह इसलिए कि सैलरी वाले लोगों की नौकरी के जाने का मतलब है कि जो ज्यादा पैसा कमाने और खर्च करने वाले लोग हैं, उनकी संख्या लगातार घट रही है।

अब समस्या यह है कि कई लोग सरकारों को कोस रहे हैं कि सरकार तैयार नहीं है, इस विकट स्थिति का समाधान नहीं है उसके पास। सोशल मीडिया पर यह भी लिखा जा रहा है कि अगर सरकार उपलब्धियों का श्रेय लेती है तो उन्हें बेरोजगारी पर भी गाली सुनने को तैयार होना चाहिए। ठीक है, आप गाली दीजिए लेकिन, आप सुशिक्षित हैं, ये तो बताइए कि समाधान क्या है? क्या आपके पास एक सुझाव है इसको लेकर? या फिर आप बस लिखे जा रहे हैं कि सरकारों को तैयार रहना चाहिए?

आप आर्थिक मंदी का उदाहरण देने लगते हैं, कहने लगते हैं कि फिर तो सरकार को गंदे शहरों के लिए भी नहीं कोसना चाहिए, बाढ़ आने पर भी हमें ये कहना चाहिए कि पानी तेज था, बाँध बह गया…

लेकिन क्या कोरोना की समस्या किसी शहर के गंदा होने, अर्थव्यवस्था की मंदी (जबकि सारे व्यापार-संस्थान आदि चालू रहते हैं) या फिर बाढ़ जैसी आपदा की तरह है क्या? क्या हम इन उदाहरणों के आधार पर सरकार को इस आपदा के लिए या इस आपदाजनित बेरोजगारी के लिए जिम्मेदार ठहरा सकते हैं?

संक्षेप में देखा जाए कि ‘क्या सरकार की तैयारी नहीं थी’, तो हम पाते हैं कि सरकार ने हर वो कार्य किया जो वो कर सकती थी। फरवरी से एयरपोर्ट पर स्क्रीनिंग से ले कर, मार्च के लॉकडाउन तक, और फिर बिगड़ती अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए पैकेज की घोषणा तक, सरकार ने लगातार कदम उठाए। लॉकडाउन हुआ तो सब-कुछ थम गया, व्यापारों और प्रतिष्ठानों के पैसे खत्म होने लगे, लोग कहने लगे कि ढील दी जाए। अनलॉक शुरू हुआ तो फिर संक्रमण के मामले बढ़ने लगे। ये आपदा दोधारी तलवार की तरह राष्ट्रों पर टूट पड़ी। भारत जैसे विकासशील राष्ट्र के लिए, जिसकी अर्थव्यवस्था सुधार की ओर जा रही थी, ये रीढ़ टूटने जैसी साबित हुई है। यहाँ समस्या कई हैं, समाधान बिलकुल नगण्य।

मंदी के लिए सरकारें तैयार रहती हैं, क्योंकि वो एक अपेक्षित स्थिति है। ऐसा कई बार होता है। आपदा भी जब आती है तो वो देश के किसी छोटे हिस्से को प्रभावित करती हैं। बाढ़ के लिए सरकार जिम्मेदार होती है, क्योंकि सरकार को पता होता है कि बाढ़ कब आएगी, कितना डैमेज करेगी, सरकार उसकी योजना पहले साल नहीं तो पाँचवें साल तक तो बना ले।

देश की गंदगी दूर करने के लिए नगरनिगम होते हैं, वही उनका काम है। उसी के लिए पैसे दिए जाते हैं हमारे टैक्स के।

उपलब्धियों का श्रेय लेंगे और पॉलिसी लेवल की असफलता का भी। लेकिन एक ऐसी आपदा जिसने दो तरफ से नुकसान किया है, उसके लिए आप चाह बहुत कुछ सकते हैं, कर नहीं सकते।

कोरोना को ले कर तीन मुख्य समस्याएँ हैं;

  • अर्थव्यवस्था मंद नहीं, लगभग ठप्प है और वैश्विक परिदृश्य में भी कोई सुधार नहीं। न ही आपका बफर उस तरह का है कि आप दो ट्रिलियन का पैकेज दे कर बेरोजगारी भत्ता दे दें।
  • आर्थिक तौर पर देश में सब कुछ बंद होने के कारण सरकार के पास पैसा आने की जगह, पैकेज देने में ही जा रहा है। ऐसे में करेंसी छाप कर लोगों को पैसा देने का मतलब है कि चार साल बाद आप मंदी और महँगाई के दैत्य को निमंत्रण दे रहे हैं।
  • बेरोजगारी बढ़ेगी, क्योंकि ऐसे समय में दुर्भाग्य से वही सत्य है। आपकी नौकरी गई, वो एक सत्य है। लेकिन आपको सरकार वो सैलरी अब दे, या आपको रोजगार दे दे, ये मूर्खतापूर्ण दुराग्रह है। सरकारी लोगों की नौकरी सुरक्षित है। वहाँ भी कई सेक्टर में काम पहले जैसा नहीं हो रहा, लेकिन उन्हें निकाला नहीं गया।

आलोचना कीजिए लेकिन उसका सटीक कारण होना चाहिए। आपके पास कोई समाधान नहीं है, तो आप आलोचना इस तरह से मत कीजिए कि सरकार तो सबकुछ होती है, उसे ही कुछ करना चाहिए। ये ‘कुछ’ क्या है? पैसे बाँटे सरकार? पैसे हैं कहाँ?

सरकार ने रोजगार शुरू करने के लिए लोन की व्यवस्था की है। जो गरीब थे, जिनकी कोई सेविंग नहीं थी, उनको नवंबर तक भोजन की व्यवस्था की है। सरकार की प्राथमिकता आप नहीं हैं, क्योंकि आप इस धक्के को सरकार को गाली दे कर भी सह लेंगे।

सरकार की प्राथमिकता हमेशा वो होंगे जिनकी जान चली जाने के कगार पर है। वहाँ पाँच किलो चावल और गेहूँ से लोग जिंदा हैं वरना महामारी से कम, भुखमरी से ज्यादा लोग मर जाते।

आप पूछ रहे हैं कि चीजें कब सामान्य होंगी। ये क्या भूकम्प आ कर चला गया है कि हमने नाप लिया कितनी तबाही फैली और फिर योजना बना ली? ये आपदा अभी चल रही है, आप सुनामी के बीच में हैं और जब ज्वार बढ़ ही रहा है, तब आपको जानना है कि चीजें कब सामान्य होंगी।

मैं किसी एक सरकार का पक्ष नहीं ले रहा। और पढ़ने वाले ये भी जान लें कि सरकार कॉन्ग्रेस की भी होती तो भी मैं यही कहता कि सरकार असामान्य परिस्थिति में जो कर रही है, वो सराहनीय है। मैंने देश के किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री की आलोचना नहीं की है इस पूरे समय में। मेरे पास भी खबरें आती हैं कि फलाँ राज्य में टेस्टिंग कम हो रही है, कोई मृत्यु के आँकड़े आधा दे रहा है, कहीं हॉस्पिटल में व्यवस्था नहीं है… स्वास्थ्य और रोजगार, दोनों ही, केन्द्र और राज्य के विषय हैं। फिर भी, चूँकि मेरे पास ऐसी आपदा का समाधान नहीं, न ही मैं तार्किक विश्लेषण कर बता सकता हूँ कि ये कब जाएगा, न ही मुझे ये दिख रहा है कि सरकार कोताही कर रही है, इसलिए मैं समाधानहीन आलोचना से बचता हूँ।

सरकार वैसी विपदा का स्कोप ले कर नहीं चल सकती जो लोकल की जगह ग्लोबल है, क्योंकि वर्तमान जनसंख्या के किसी भी व्यक्ति ने ऐसी आपदा अपने जीवनकाल में ही नहीं देखी। न ही, हम एक विकसित राष्ट्र हैं कि बफर से पैसे निकाल कर बाँट दें या जो बेरोजगार हैं उनको भत्ता देने लगें। हमें ऐसे समय का इंतजार करना चाहिए जब हमारी अर्थव्यवस्था इतनी मजबूत हो जाए कि देश से गरीबी चली जाए, और 135 करोड़ लोगों को घर बिठा कर उनकी आशाओं के हिसाब से पैसे दिए जा सकें।

जब आपके पास समाधान तो छोड़िए, कोई आकलन भी नहीं है, किसी ऐसी अर्थव्यवस्था का उदाहरण भी नहीं जिसकी जनसंख्या और आर्थिक क्षमता आपके स्तर की है, जिसने कोरोना से पार पा लिया हो, तब तक आपके पास देखने और समझने का मौका है।

आलोचना का क्या है, वो तो हम कभी भी कर सकते हैं। आपको बीस हजार प्रति महीने सरकार देने लगे तो आप कहेंगे कि मेरी सैलरी तो एक लाख थी, मैं तो दिल्ली में रहता हूँ, इतना तो मेरे कैब का खर्चा है। इसलिए, अभी बात जिंदा रहने की है। जिंदा रहने के लिए दस किलो अनाज आवश्यक हैं, सर पर एक छत जरूरी है और कोरोना से बचने के प्रावधानों का पालन आवश्यक है।

मेरी नौकरी चली जाएगी तो मैं गाँव जाऊँगा। वहाँ सरकारी गेहूँ और चावल खा कर जीवित रहने का उपाय करूँगा। फिर चुनाव आएँगे तब ये देखूँगा कि ये सरकार तो जो कर रही थी किया, लेकिन क्या किसी और चेहरे में बेहतर करने की मंशा होती? फिर जो समझ में आएगा उसको वोट दूँगा। मैं नौकरी जाने को भी अभी प्राकृतिक आपदा ही मान रहा हूँ, ये कृत्रिम नहीं है।

अजीत भारती: पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी