जगमगाती दिल्ली: फ्री पॉलिटिक्स के लिए टिहरी जैसी सभ्यताओं का डूबना जरूरी क्यों?

पुरानी टिहरी का ऐतिहासिक घंटाघर

दिल्ली के विधानसभा चुनाव आखिरकार निपट ही गए। इसके नतीजे जो भी रहे हों, लेकिन राजनीतिक दलों के चुनावी मैनिफेस्टो और वायदों ने फ्री वाली लुभावनी स्कीम पर सोचने को एक बार फिर मजबूर कर दिया है। यह अच्छी बात है। जनता को अगर फ्री का मिल रहा है तो आखिर किसे समस्या हो सकती है?

जब सभी कुछ मुफ्त मिल रहा है तो बिजली भी फ्री मिलनी चाहिए। यह आज के आम आदमी की सबसे बड़ी जरूरतों में से है। लेकिन मुफ्त की रेहड़ी लगाने वाले राजनीतिक दलों को यह भी साफ करना चाहिए कि उनकी इस फ्री पॉलिटिक्स का भुगतान दूसरे राज्य की जनता क्यों करें।

कुछ वर्षों से देश की राजधानी दिल्ली में मुफ्त में बाँटी जा रही बिजली की भारी कीमत उत्तराखंड वर्षों से अदा कर रहा है। दुख की बात यह है कि खुद उत्तराखंड इस बात से बेखबर, मस्ती में सोया हुआ नजर आता है।

उत्तराखंड में कुछ कहावतें काफी लोकप्रिय हैं। जैसे- पहाड़ की जवानी और पहाड़ का पानी, कभी पहाड़ के काम नहीं आती। यह विशेषतः पहाड़ों से होते आ रहे पलायन के सम्बन्ध में है। स्थानीय गढ़वाली बोली में एक और कहावत है- ‘उत्तराखंड यूँ डामुन डाम्याली।’ इसका मतलब है कि उत्तराखंड को इन बाँधों ने दाग दिया है।

हर दूसरे दिन स्वीकृत होने वाली छोटी-बड़ी नदी घाटी परियोजनाएँ उत्तराखंड की एक कड़वी दास्तान बनते जा रहे हैं। इनके लिए टिहरी जैसी प्राचीन और ऐतिहासिक सभ्यता को डूबना पड़ता है, ताकि दिल्ली को मुफ्त की बिजली मुहैया कराई जा सके।

टिहरी बाँध जैसे अनेकों छोटे-बड़े हाइड्रो-इलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट; जैसे कि आसन बैराज, मनेरी, कोटेश्वर, किशाऊ, रामगंगा, विष्णुगाड, लोहारीनाग, धौलीगंगा परियोजना, भीमगोड़ा, पशुलोक और डाकपत्थर बैराज के लिए उत्तराखंड के लोगों ने न जाने कितनी कुर्बानियाँ दी हैं। लेकिन बदले में उत्तराखंड को क्या मिलता है? ले-देकर टूरिज्म के नाम का झुनझुना।

उदाहरण के लिए सबसे बड़ी परियोजना ‘टिहरी बाँध’ की बात करते हैं। इसी टिहरी बाँध को श्रीदेव सुमन सागर नाम से भी जाना जाता है। गौरतलब है कि भागीरथी नदी पर 260.5 मीटर की ऊँचाई पर बना यह टिहरी बाँध भारत का सबसे ऊँचा और विशालकाय और दुनिया का आठवाँ सबसे बड़ा बाँध है।

THDC की वेबसाइट ही बताती है कि टिहरी बाँध से उत्पादित होने वाली बिजली से आठ अन्य राज्यों- उत्तर प्रदेश, हरियाणा, हिमाचल, दिल्ली, पंजाब, जम्मू-कश्मीर, चंडीगढ़ और राजस्थान को फायदा मिलता है। इस बाँध से पड़ोसी उत्तर प्रदेश राज्य में सिंचाई और यूपी-दिल्ली में पीने के पानी की सप्लाई की जाती है।

अब बात करते हैं कि इस टिहरी बाँध से उत्तराखंड को क्या मिलता है। THDC की वेबसाइट के अनुसार, इस बाँध से कुल बिजली उत्पादन का 12% ही उत्तराखंड को फ्री मिलता है। हो सकता है कि सरकार को मिलता हो, लेकिन टिहरी या उत्तराखंड की जनता को इसमें से कितनी बिजली फ्री या सस्ती मिलती है, इस बात का कोई साक्ष्य अभी तक उपलब्ध नहीं हैं। हाँ, उत्तराखंड से दिल्ली को मिलने वाली फ्री बिजली अब जरूर इस प्रश्न पर नए सिरे से सोचने पर मजबूर करती है।

कारण? क्या आप जानते हैं कि पुराने टिहरी शहर के डूबने से टिहरी और उत्तराखंड की जनता ने एक विरासत, एक सभ्यता को खो दिया? क्या दिल्ली में मुफ्त की बिजली पाने वाले उस दर्द को महसूस कर सकते हैं, जो अपने खेत-खलिहान को आँखों के सामने डूबते देखने में होता है? वह दर्द जो अपने बाप-दादाओं के पुश्तैनी घर और अपने आम के बगीचों को डूबते देखने में होता है? ये वह दर्द है जो पुरखों की विरासत और आँगन में गाई जाने वाली माँगलों (मंगल गीत) के खो जाने के एहसास से ही चुभने लगता है। दर्द जो टिहरी की नथ और सिंगोरी की मिठास के खो जाने से होता है। आँसू जो बहते हैं, दूर किसी पहाड़ से आप जब अपने घर और खेतों को तबाह होते देखते हैं। डूबे हुए शहर में अंदाजा लगाते हैं कि ‘शायद यहीं कहीं आपका घर रहा होगा।

अगर किसी भी तरह से आप टिहरी से विस्थापित लोगों का दर्द समझ पाने में सक्षम नहीं हैं तो कश्मीर घाटी से आज से तीस साल पहले नरसंहार के बाद अपने ही घरों को छोड़कर जाने को मजबूर कश्मीरी पंडितों के दर्द को महसूस कीजिए। अंतर बस इतना ही है कि कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार करने वाले इस्लामिक बर्बर कट्टरपंथी थे और टिहरी के लोगों को खुद उनकी सरकार ने अपने घर खाली कर शहरों को चले जाने की राय दी।

पुराना टिहरी शहर तीन नदियों- भागीरथी, भिलंगना और घृत गंगा, जो विलुप्त हो गई थी से घिरा हुआ था, इसलिए इसको त्रिहरी नाम से जाना जाता था। बाद में इस शहर का नाम टिहरी रख दिया गया। इस शहर को राजा सुर्दशन शाह ने दिसम्बर, 1815 में बसाया था।

टिहरी बाँध तो सिर्फ उदाहरण है, क्योंकि मेरा बचपन इस शहर की गलियों में बीता था और इस शहर को मैं जानता था। ऐसे न जाने कितने गाँव और कस्बे हैं उत्तराखंड में, जो जनमानस की तरक्की के लिए चुपचाप जल समाधि ले चुके हैं। इतने वर्ष बीत गए, सवाल वहीं का वहीं है- इतनी कुर्बानियों के बाद उत्तराखंड को क्या मिला?

उत्तराखंड को मिला विकास के नाम पर सिर्फ टूरिज्म का झुनझुना, खाली होते गाँव, पलायन की मार, कोर्ट-कचहरियों के चक्कर काटते सरकारी नौकरियों के नोटिस, सरकारी दफ्तर के बाबुओं की दादागिरी, कुशासन की मार, छुटभैये ठेकेदारों की बड़े नेताओं में तब्दीली, कच्ची दारू की जगह ब्रैंडेड बोतल, वीकेंड पर शहरों से आकर पहाड़ों में कचरा करने और टूटी बोतलें फेंक जाने वाले सीजनल सैलानी… बस यही!

दिल्ली की फ्री (सस्ती नहीं) बिजली ने कई सवाल खड़े किए हैं। इसके लिए मैं दिल्ली की जनता को दोष नहीं दूँगा क्योंकि सभी राजनीतिक दलों ने फ्री की ऐसी कई योजनाओं का लालच दिया था। लेकिन सवाल यह है कि दूसरों की जरूरतों को पूरा करने वाला उत्तराखंड खुद के अधिकारों के लिए कब सचेत होगा?

जो राज्य उत्पादन करके दूसरों को फ्री बिजली दे सकता है, क्या उसके स्थानीय निवासियों को इतना भी अधिकार नहीं कि वे भी फ्री नहीं तो सस्ती बिजली के लिए ही अपनी आवाज बुलंद कर सकें? या उत्तराखंड इसी में खुश है कि सैलानी आएँगे तो कुछ सीजनल आमदनी का जुगाड़ हो ही जाएगा? खैर, बिजली आपकी, मुफ्तखोरी दिल्ली की। उत्तराखंड बस देना जानता है; जिन पहाड़ों से माँ गंगा पूरे देश का पेट सींचती है, वही गंगा राजनीतिक फायदे के लिए दिल्ली के साथ-साथ खुद को मुफ्त बिजली नहीं दे सकती?

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