आतंक का एक मजहब है: एक ने स्वीकारा, आप भी स्वीकारिए

ऐसा कभी सुना या देखा है?

‘हाउडी मोदी’ कार्यक्रम के दौरान बहुत सी चीजें कही गईं, दिखीं और दिखाई गईं। मोदी के लिए एक भीड़ आई थी, जिसे कुछ कुख्यात पत्रकार रोहिंग्या और बांग्लादेशी भीड़ सदृश बताते हुए लेख लिखते पाए गए। फर्क बस यही है कि ऐसे पत्रकार अब इतना नीचे गिर चुके हैं कि इनके लिए राह चलते थूकना और सड़क पर छुरा मारना, एक ही अपराध है जो कि इन्होंने पहले भी बताया है कि ‘जय श्री राम’ कहलवाने पर किसी को मजबूर करना ‘हिन्दू आतंकवाद’ है, जबकि इस्लामी आतंक तो आज तक आ ही नहीं सका भारत में।

खैर, ट्रम्प न तो एनडीटीवी के स्टूडियो में काम करता है, न ही उसे इस बात से फर्क पड़ता है कि आतंकवाद के साथ समुदाय विशेष को जोड़ने पर उसे लिबरल या वामपंथी लॉबी क्या कहेगी। अमेरिकी टॉक शो को मसाला भले ही मिल जाएगा, वो उसे रेसिस्ट और कम्यूनल भले ही कह देंगे, लेकिन उससे यह सच्चाई जो है, वो नहीं बदल सकती कि आईसिस के झंडे पर ‘अल्लाहु अकबर’ लिखा हुआ है और पूरा विश्व कट्टरपंथियों द्वारा फैलाए जा रहे आतंक से जल रहा है।

इसलिए, लिबरलों के स्थानविशेष से धुँआ और आग भले ही निकल रहा हो, लेकिन वो सिवाय चार स्वनिर्मित वाक्यांशों के, जो बहुत मीठे शब्दों में भी शुतुर्मुर्ग की गर्दन रेत में होने जैसा से लेकर ‘हेड इन आस’ के लक्षण ही हैं, कि ‘आतंक का कोई मजहब नहीं होता’, ‘हम ऐसा करके इस्लामोफोबिया फैला रहे हैं’, ‘ऐसा करने से हम एक समुदाय को अलग-थलग ढकेल रहे हैं’, और कुछ कह भी नहीं सकते।

आप इन वाक्यांशों पर गौर कीजिए कि ये आखिर कहना क्या चाहते हैं? आतंक का कोई मजहब नहीं होता? सच्ची? फिर इन हमलों को देखिए और बताइए कि इनकी जड़ में क्या है? क्या यहाँ इस्लामी कट्टरपंथ नहीं है जिसे पूरी दुनिया खिलाफत के नीचे चाहिए या वो आज तक पता नहीं किस हमले का बदला पूरे विश्व के बड़े शहरों में निर्दोषों को मार कर लेते हैं?

इन्हीं आतंकियों ने बेल्जियम से लेकर फ़्रांस तक, मैड्रिड, बार्सीलोना, मैन्चेस्टर, लंदन, ग्लासगो, मिलान, स्टॉकहोम, फ़्रैंकफ़र्ट एयरपोर्ट, दिजों, कोपेनहेगन, बर्लिन, मरसाई, हनोवर, सेंट पीटर्सबर्ग, हैमबर्ग, तुर्कु, कारकासोन, लीज, एम्सटर्डम, अतातुर्क एयरपोर्ट, ब्रुसेल्स, नीस, पेरिस में या तो बम धमाके किए या लोन वूल्फ अटैक्स के ज़रिए ट्रकों और कारों से लोगों को रौंद दिया। हर बार आईसिस या कोई इस्लामी संगठन इसकी ज़िम्मेदारी लेता रहा और यूरोप का हर राष्ट्र अपनी निंदा में ‘इस्लामोफोबिक’ कहलाने से बचने के लिए इसे सिर्फ आतंकी वारदात कहता रहा।

पिछले पाँच सालों में यूरोप में 20 से ज़्यादा बड़े आतंकी हमले

पिछले पाँच सालों में यूरोप में 20 से ज़्यादा बड़े आतंकी हमले हुए हैं, जिसमें महज़ 18 महीने में 8 हमले सिर्फ फ़्रान्स में हुए। इस्ताम्बुल में तीन बार बम विस्फोट और शूटिंग्स हुईं। बेल्जियम, जर्मनी, रूस और स्पेन इनके निशाने पर रहे। यूरोपोल द्वारा 2017 में जारी एक रिपोर्ट के अनुसार आईसिस ने यूरोप में आतंकी हमलों के लिए वहाँ शरण पाने वाले कट्टरपंथियों की मदद ली। स्वीडन की न्यूज एजेंसी टिडनिन्गारनास टेलिग्रामबायरा के अनुसार पश्चिमी यूरोप में हुए 37 हमलों में दो तिहाई हमलावर (68 में से 44) घृणा फैलाने वाले लोगों के प्रभाव में आकर हमला करने को तैयार हुए। उनका रेडिकलाइजेशन ऑनलाइन नहीं था, बल्कि उन्हें निजी तौर पर मिलने के बाद ऐसा करने को कहा गया, और वो तैयार हुए।

फिर भी इसे हम इस्लामी कट्टरपंथी आतंकवाद न कह कर सिर्फ आतंकवाद कहते रहेंगे। आखिर आतंकवाद के पहले के दो शब्द क्यों जरूरी हैं? इसके लिए हमें यह समझना होगा कि किसी भी चीज का सामान्यीकरण कैसे होता है। पहले कच्ची सड़कें होती थीं, तो पक्की सड़क को हम पक्की सड़क कहते थे। फिर वो इतनी आम हो गई कि सड़क का मतलब ही पक्की सड़क हो गया, जो कि सपाट हो, बिना तोड़-फोड़ के। कई चीजों को हम ‘सरकारी’ जब कहते हैं तो हम उसे यह जताने के लिए कहते हैं कि वो बेकार हालत में होगी।

जैसे कि बिहार सरकार मर्सीडीज की बसें भी चलाती है, लेकिन जब कोई आपको कहे कि सरकारी बस से चलेंगे तो आपकी रूह काँप जाएगी। ऐसा इसलिए हुआ कि शुरु में अच्छी रही सेवाएँ, कालांतर में बुरी होती गईं और उसके पहले एक विशेषण लगा क्योंकि अधिकांशतः उसकी हालत, या उसका अर्थ उसी संदर्भ में रहा जिसके लिए हम उसे सामान्य रूप में बोलते हैं। सरकारी बस बेकार ही होगी, सरकारी अस्पताल बेकार होंगे… जबकि अपवाद स्वरूप आपको दोनों ही सेवाओं में बेहतर उदाहरण मिलेंगे। जैसे कि एम्स या बिहार की मर्सीडीज बसें।

इसी तरह, जब आतंकवाद के पीछे, लगभग हर बार, एक ही मजहबी परचम हो, एक ही नारा हो, और एक ही तरह के लोग हों, जो एक ही मजहब के नाम पर ऐसा करते हों तो फिर आपका उसे सिर्फ आतंकवाद कहना समस्या को बदतर ही बनाता है। किसी भी रोग को दूर करने के लिए पहले उसके कारणों को पहचानना जरूरी है। जैसे कि मधुमेह है, और आप मीठा ज्यादा खाते हैं, लेकिन आपका डॉक्टर यह कहे कि इन्हें एक रोग है, हम इलाज करेंगे। रोग का कारण मीठा है, और आप उसे पूरी तरह से छोड़ते हुए, निकल लेंगे, तो उसका इलाज नहीं हो पाएगा। रोगी को भी नहीं पता कि मीठा खाने से हो रहा है, घरवालों को भी नहीं पता, तो फिर उसके भोजन में रसगुल्ले देते रहिए और सोचते रहिए कि डॉक्टर की दवाई काम करती रहेगी।

मजहबी आतंकवाद के साथ यही हो रहा है। जब तक कट्टरपंथी शिक्षा, बच्चों और किशोरों के जेहन में एक मज़हबी सर्वश्रेष्ठता का झूठा दम्भ, हर गैर-मजहबी व्यक्ति को दुश्मन मानने की जिद, मजहब के नाम पर कत्लेआम को जन्नत जाने का मार्ग बताना और इस तरह की बेहूदगी बंद नहीं की जाएगी तो दुनिया जलती रहेगी। क्योंकि यहाँ एक कश्मीरी आतंकी मरता है तो उसका बाप शोक नहीं मनाता, वो हार्डवायर्ड है अपने मजहबी शिक्षा के कारण, उसका दिमाग रिपेयर होने के परे है, वो कहता है कि और बच्चे होते तो उन्हें भी कुर्बान कर देता।

ऐसी सोच पर आप कैसे लगाम लगाएँगे? यहाँ बच्चों के मरने की, आतंकी होने की ग्लानि कैसे होगी इस बाप को जिसने ताउम्र यही तालीम ली है कि धरती समुदाय विशेष की है और इसके हर समर्थक को पाँच काफिर ढूँढ कर उसे मजहबी बनाना ही उसका परम कर्तव्य है। वो आखिर क्यों नहीं कैमरे पर बोलेगा का कि मजहब की राह में और भी बच्चे कुर्बान कर दूँगा!

क्या मैं बिगट हूँ, कम्यूनल हूँ या तुमने अपनी मुंडी स्थानविशेष में घुसा ली है?

ये मैंने बहुत सुना है और मुझे इससे फर्क नहीं पड़ता क्योंकि सामने वाले मुझे बस इन्हीं शब्दों से ही घेर सकते हैं, इन शब्दों के बाद इनके पास, अपनी ही बात को संदर्भ सहित समझाने के लिए एक अक्षर तक नहीं मिलेगा। इन्होंने आतंक को हिन्दुओं से जोड़ने की पुरजोर कोशिश की। कोर्ट में मामले लंबित हैं, लेकिन इनके गिरोह ने अपनी ही सरकार में, अपनी ही पुलिस के साथ, कुछ हिन्दुओं पर आरोप लगाया और आरोप लगाने के साथ ही ऐलान कर दिया कि ये ‘हिन्दू आतंक’ है।

कोर्ट तो अपना काम खैर करती रहेगी, लेकिन क्या हमारे पास इतनी घटनाएँ हैं आतंक की, इसी देश में, जो मजहबी आतंक की भयावहता के समकक्ष हो, गिनती में उसके लाखवें हिस्से जितना भी हो कि हिन्दुओं का नाम आतंक से जोड़ दिया जाए? फिर, गैंग नए नैरेटिव पर उतर आता है। आतंक की परिभाषा में अब किसी समुदाय विशेष को थप्पड़ मारना, उससे ‘जय श्री राम’ कहलवाना भी आ जाता है और यह गिरोह गँड़थैय्यो नाच करने लगता है।

गिरोह चिल्लाने लगता है कि अगर ये आतंक नहीं तो और क्या है! जबकि आप इन चांडालों को, इन पतित पत्रकारों को, इन बरसाती सेलिब्रिटीज़ को, इन दोगले वामपंथियों को, इन पापी लिबरलों को, आप बेखौफ बता सकते हैं कि आतंक क्या है: आतंक है कट्टरपंथियों द्वारा कश्मीर में ली गई 42,000 जानें और निर्वासित हुए लाखों कश्मीरी पंडित; आतंक है संकटमोचन मंदिर में फटा बम; आतंक है सरोजिनी नगर मार्केट का ब्लास्ट; आतंक है मुंबई लोकल ट्रेनों में हुए कई धमाके; आतंक मुंबई शहर में 2008 में विकराल रूप लेकर आया था; आतंक था संसद भवन में आरडीएक्स से भरी कार लेकर घुसना और बहादुर जवानों को मार देना; आतंक था उरी, पठानकोट, पुलवामा; आतंक है कोयम्बटूर की बॉम्बिंग; आतंक है रघुनाथ मंदिर पर हमला; मुंबई के बसों पर किए गए धमाके; आतंक है अक्षरधाम मंदिर को निशाना बनाना; आतंक है दिल्ली के सीरियल ब्लास्ट्स; आतंक है 2008 में हुए 11 कट्टरपंथी आतंकियों द्वारा किए गए हमले; आतंक है जयपुर के धमाके…

गिनते-गिनते थक जाओगे और सबकी जड़ में बड़ी ईमानदारी से अपने संगठन का नाम लेता हुआ समुदाय विशेष का शांतिप्रिय मिल जाएगा कि काफिरों का यही हश्र होगा। भारत में 1970 से अब तक लगभग 20,000 मौत और 30,000 घायलों में से सबसे बड़ा प्रतिशत मजहबी आतंक के नाम दर्ज है। इसलिए, जब आतंक के नाम कोई मजहब ट्रम्प जोड़ता है तो वो भारतीय और वैश्विक, दोनों ही, परिदृश्यों में सोलह आने सच हैं।

इस्लामोफोबिया क्या है? आतंकवाद के मूल कारणों को गिनाना घृणा कैसे फैलाता है?

किसी को ‘इस्लामोफोबिया’ से ग्रस्त बताना या उसे ‘इस्लामोफोब’ कहना कहाँ तक सही है अगर वो सत्य बोल रहा हो? अगर भारत में 2018 से अभी तक बीफ माफिया ने बीस लोगों को मार दिया और मारने वाले हमेशा समुदाय विशेष के थे, मरने वाले हमेशा हिन्दू, और आप ये आँकड़ा रख देंगे तो क्या ये मजहब से घृणा हो गई? क्या यह एक सच्चाई नहीं है कि अपराधी हर धर्म और मजहब में होते हैं? अगर कठुआ की बच्ची का बलात्कार करने वाले आठ लोग हिन्दू थे, तब तो सारे हिन्दू, पूरा हिन्दू धर्म और ‘हिन्दुस्तान’ ही कटघरे में खड़ा कर दिया गया था, जबकि दसियों मौलवियों द्वारा, मस्जिदों और घरों के अंदर बच्चियों का यौन शोषण और बलात्कार होता रहा, तब मजहब और उनका लीडर तो बलात्कारी नहीं बताया गया?

ये कौन सा फोबिया है? और क्या हम एक दूसरे को ‘इस्लामोफोब’ और ‘हिन्दूफोब’ बता कर बाता-बाती करते रहेंगे या हम ये स्वीकारेंगे कि कई कट्टरपंथी शरीर पर बम लपेट कर, मजहबी नारा लगाते हुए बाजारों में फट रहे हैं? क्या हमने वो तमाम वीडियो नहीं देखे हैं जहाँ आदमी एक मजहबी नारा लगाता है, और लोग जान ले कर भागने लगते हैं? आखिर एक मजहबी नारे से मजहब कब अलग हुआ और उसे इन्हीं आतंकियों के कारण, इसी मजहब के मानने वालों ने भी दहशत और डर का नारा कब मान लिया, क्यों मान लिया, ये आपको नहीं पता? या आप पता करना ही नहीं चाहते?

आप हजार धमाकों का गुनाह, उस एक अपराध के बराबर कर देंगे जहाँ किसी निरीह कथित अल्पसंख्यक को ‘जय श्री राम’ बोलने पर चार लुच्चे हिन्दुओं ने मजबूर किया और उसके बाद आप दस खबरें ऐसी ले आएँगे जहाँ हर बार ‘जय श्री राम नहीं बोलने पर हिन्दुओं ने पीटा’ की हर खबर झूठी साबित होगी? क्या मैं आपको यह कहूँ कि तुम मुझे चार थप्पड़ मार लो और मैं ‘अल्लाहु अकबर’ बोल देता हूँ, और मैं तुम्हारे घर में बम फोड़ कर दस लोगों को मार दूँगा, तो आप इसे बराबर की बात मान लेंगे?

ये जो फर्जी की बातें कुछ मजहब के लोग करते हैं कि ये आतंकी ‘असली शांतिप्रिय’ नहीं है, सच्चे इस्लाम को नहीं जानते, वो हर आतंकी हमले पर स्वतः ऐसा क्यों नहीं कहते कि इस्लाम के नाम पर जो ये नवयुवक बाज़ारों में फट रहे हैं, वो मजहब का नाम खराब कर रहे हैं? क्या इन्होंने इस बात को कभी स्वीकारा है कि ये लोग एक तय तरीके से तैयार किए जाते हैं? क्या इन तथाकथित अच्छे और सच्चे ‘शंतिप्रियों’ ने सोशल मीडिया, पब्लिक जगहों पर, उसी तरह एक लाख की भीड़ जुटाई है जैसी वो कथित चोर तबरेज की मौत पर जुटाते हैं?

ऐसा नहीं होता, ऐसा नहीं दिखता कि लाखों की इस्लामी भीड़ मथुरा के भारत यादव की भीड़ हत्या पर, चौक चौराहों पर निकल आती है और कहती है कि वो इस भीड़ हत्या के खिलाफ हैं। सोशल मीडिया पर एक नजर घुमा लीजिए कि अगर हिन्दुओं ने भीड़ हत्या की तब भी हिन्दू ही उसकी भर्त्सना करता दिखता है, और समुदाय विशेष ने की तब भी हिन्दू ही। कट्टरपंथी तब ही जमा होता है जब जयपुर के पुलिस कॉन्स्टेबल की छड़ी गलती से किसी समुदाय विशेष के दम्पत्ति को छू जाती है, और एक भीड़ पुलिस स्टेशन से लेकर शहर की गाड़ियों में आग लगा देती है।

इसलिए, जब आप इस्लामोफोबिया की परिभाषा में आतंकवादी द्वारा स्वयं को घोषित तौर पर ‘शांतिप्रिय’ कहने, मजहब के नाम पर खुद को शहीद बनाने, मजहब का सबसे पाक नारा चिल्लाने वाले का नाम और मजहब बताने को ही रख देते हैं, तब तो पूरी दुनिया इस्लामोफोब है। यहाँ घाव हड्डी तक पहुँच गया है और आप कह रहे हैं कि इसे फूल कहो, सोचो कि तुम बगीचे में टहल रहे हो! नहीं, ये कैंसर है और ये शरीर को भीतर से नष्ट करता जा रहा है।

समुदाय को स्वयं समझना होगा इस समस्या को

राजनैतिक तरीकों से परे, पूरी तब्दीली तब ही आएगी जब समुदाय के भीतर से ऐसी आवाजें उठेंगी। इससे इनकार नहीं कि मजहब का हर आदमी इसे मौन सहमति नहीं देता। उसी मजहब के कई लोग हैं जो लगातार लिखते और बोलते हैं। लेकिन वो बहुत ही कम हैं। दूसरी बात यह भी है कि जिस दिन समुदाय विशेष से एक व्यक्ति मुखर होना चाहता है, उसे अपने ही समुदाय से प्रतिबंध से लेकर ब्लासफेमी जैसी चीजों से रूबरू होना पड़ता है। मजहब विशेष के ऐसे उदारवादियों को न तो वामपंथी जगह देते हैं, न उनका अपना समुदाय।

सेंसिबल लोगों को जब सामाजिक स्वीकार्यता नहीं मिलेगी, तो फिर हमारी नाली कोई दूसरा कब तक साफ करता रहेगा, और क्यों साफ करेगा? आप आतंकवाद तो छोड़िए, तीन तलाक से लेकर हलाला जैसी बातों पर अगर सुधार लाने की बात करते हैं तो समुदाय के स्वघोषित ठेकेदार आपको सामूहिक रूप से घेर लेते हैं और बताते हैं कि ये बहुत वैज्ञानिक बात है, ये मजहब का मसला है, तुम्हें इससे क्या!

अम्बेदकर ने हिन्दू समाज की कई बातों पर लगातार बोला और हिन्दुओं ने उन्हें नकारने की जगह सर पर बिठाया, स्वीकारा। आज भी उनकी बातों पर चर्चा होती है, हिन्दू ही इस चर्चा में शामिल होता है, अपने ही गाँव-समाज की कुप्रथाओं से लड़ता है। अगर आज की तारीख में अंबेदकर जैसा कोई मजहब विशेष का व्यक्ति इन बातों पर बोलना चाहेगा तो उसे कोई भी रिफॉर्मर या क्रांतिकारी नहीं कहेगा, उसके सर पर इनाम रखे जाएँगे, उसे सरे-बाजार मारा ही नहीं जाएगा बल्कि जश्न मनाया जाएगा कि मजहब के दुश्मन को रास्ते से हटा दिया गया।

ट्रम्प के शब्द हर बड़े राष्ट्राध्यक्ष को दोहराना चाहिए

चाहे वो मोदी हों, मर्कल हों, मैक्राँ हों, जॉनसन हो या कोई वैसा राष्ट्र जो यह नहीं चाहता कि उसके किसी एयरपोर्ट पर, चर्च में, सड़क पर, पार्क में, मंदिर पर या बस-ट्रेन में बम फूटे, छुरा चले, ट्रकों से लोगों को रौंदा जाए, तो सबसे पहला काम तो वो यह करें कि एक स्वर में इस मुसीबत को उसके पूरे नाम से स्वीकारें कि हाँ, कट्टरपंथी आतंकवाद ने इन सारे देशों में दहशत फैलाई है, जानें ली है, परिवारों को तोड़ा है।

जब तक स्वीकारोक्ति नहीं होगी, तब तक इससे लड़ने की हर योजना विफल होती रहेगी। जब तक आप इन आतंक की फैक्टरियों को निशाना नहीं बनाएँगे, मजहब की आड़ में आतंकी समूह चलाते नामों की फंडिंग नहीं रोकेंगे, आतंकियों को अपने देश के लिए, दूसरे देशों को अस्थिर करने हेतु एसेट की तरह पालना नहीं छोड़ेंगे, इन्हें बचपन से ही ऐसी शिक्षा से दूर नहीं करेंगे जो इन्हें भविष्य में सुसाइड जैकेट पहनने पर भी परेशान नहीं करता, तब तक आप लाशें गिनते रहेंगे और ये जान लीजिए कि लोन वूल्फ अटैक हो या पूरी तरह से योजनाबद्ध तरीके से किए गए हमले, वो नहीं रुकेंगे।

अजीत भारती: पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी