‘द वायर’ के चतुर चम्पू फाउंडिंग एडिटर एमके वेणु ने कल कुछ सारगर्भित ट्वीट रचे। उन्होंने अपने सुभाषित शब्दों के माध्यम से कहा कि हिन्दुओं के मंदिरों ने करीब 25000 टन सोने को जकड़ रखा है जिसका कुल मूल्य 1.4 ट्रिलियन डॉलर है। साथ ही, प्रधानमंत्री मोदी को लगभग ललकारते हुए सूक्ति रची कि अगर उनमें राजनैतिक इच्छाशक्ति है, तो वो ये सोना निकलवा कर रिजर्व बैंक को दिलवा दें, ताकि वो इसके बदले रुपए प्रिंट कर सके।
वेणु जैसे घाघ नराधमों के साथ समस्या यह है कि इन्हें और इनके लिब्रांडु गिरोह को हमेशा यह लगता रहता है कि हिन्दुओं के मंदिर इनके एकदम असली वाले, निजी बापों की संपत्ति है, जबकि मस्जिदों, वक़्फ़ या ईसाइयों के चर्चों पर तो सिर्फ उन्हीं का अधिकार है जिस मजहब से उनका वास्ता है।
इसलिए, हर आपातकालीन स्थिति में इन्हें घूम-फिर कर मंदिरों पर सवाल करना ही है। क्या वायर के वेणु के दिमागी तार हिले हुए हैं जो उसे सिर्फ मंदिर ही अभी दिख रहा क्योंकि वहाँ सोना है? मजहब विशेष की कमाई का 10% जकात कहाँ है? जब एक मजहब में कमाई का एक हिस्सा सिर्फ दान और मदद के लिए ही है, तो फिर मस्जिदों से वही अपील क्यों नहीं की गई?
यहाँ लोग योगी सरकार को अपने मस्जिद का लाउडस्पीकर देने को तैयार नहीं कि सरकार किसानों की योजनाएँ बता सके, और हिन्दुओं से उनके घर और मंदिर का सोना माँगा जा रहा है!
हर बार, मस्जिद ऐसे समयों पर चर्चा से गायब क्यों कर दिया जाता है? भयंकर बाढ़ में एक मस्जिद जब अपने दरवाजे खोलता है तो बाकायदा उसकी पूरी फोटोग्राफी होती है, और ऐसे दिखाया जाता है कि मानवता अगर बची है तो बस इस्लाम और मस्जिद में, जबकि यही काम भारत का हर मंदिर, हर आश्रम हर दिन करता है।
कभी सुना है कि बनारस में बंग्लादेशी रिक्शेवाले को फलाँ आश्रम के भंडारे में बैठने नहीं दिया गया? ऐसे आश्रमों में बिना जाति, मजहब, रंग-रूप देखे, लाखों को भोजन दिया जाता है। हर दिन लाखों लोगों के दो समय के भोजन का प्रबंध तो ये मंदिर और आश्रम हर जिले में करते ही हैं, साथ ही, कोरोना के समय में अनगिनत छोटे-बड़े मंदिरों ने अपने स्तर से सरकार की आर्थिक मदद की है।
इसके उलट, कितनी बार सुना है कि मस्जिदों में लोगों को भोजन कराया जाता है? कितनी बार चर्चों के बारे में सुना है कि वहाँ हर रोज खाना बँटता है? गुरुद्वारे और मंदिर हर दिन ये काम अपने पैसों से करते हैं जो वहाँ जाने वाले सिख और हिन्दू दानस्वरूप देते हैं। इसके ऊपर एक बात और कि चर्च और मस्जिदों की फंडिंग पर, उन्हें मिलने वाले चंदे पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं होता।
मस्जिदें या तो वक्फ की संपत्ति मानी जाती हैं, या इलाके के समुदाय विशेष की। उसके उलट, मंदिरों में मिलने वाले दान आदि को कैसे और कहाँ खर्च करना है, इस पर प्रशासन और सरकार निर्णय लेती है। आपको यह जान कर भी आश्चर्य होगा कि, एक तरह से, मंदिरों की आमदनी से मस्जिदों के इमामों की तनख्वाह और मदरसों की छात्रवृत्तियाँ जाती हैं। जब मस्जिदों के पैसे सरकारों को नहीं जाते, तो उनसे जुड़े लोगों का सरकारी वेतन कहाँ से आता है?
मस्जिदों के अंतर्गत चलने वाले मदरसे हों, या चर्चों का मिशनरी स्कूल, उन्हें अल्पसंख्यक होने के नाम पर मजहबी भेदभाव करने की खुली छूट होती है। हम सबने खबरें सुनी हैं कि फलाँ स्कूल में मेंहदी लगाने पर प्रतिबंध है, फलाँ जगह पर तिलक लगाने पर सजा मिली, फलाँ स्कूल में हाथ का कलावा खुलवा दिया गया…
यह भी बात छुपी नहीं है कि सत्तर के दशक से मस्जिदों की फंडिंग मिडिल-ईस्ट के मजहबी देश करते रहे हैं। गरीब से गरीब गाँव में आप मस्जिदों की इमारतें देख लीजिए। इनका सारा जकात अपने लिए, लेकिन हाँ जब आपात स्थिति दिखे तो मंदिरों का सोना चाहिए ताकि अर्थव्यवस्था पटरी पर आ जाए।
मंदिर और समाजसेवा
सौभाग्य यह है कि हिन्दुओं के मंदिर वो भी करेंगे। अगर सोना पिघलाने की जरूरत पड़ी तो किसी वेणु के कहने की नौबत नहीं आएगी, लेकिन यहाँ समस्या वेणु जैसे दुरात्माओं से है। हिन्दुओं के मंदिरों की दानपेटी का उद्देश्य ही समाजसेवा है। और हाँ समाजसेवा मतलब समाज की सेवा, न कि जिहाद के नाम पर देह में बम बाँध कर फट जाना। और न ही, समाजसेवा का मतलब है दूसरे मजहब के लोगों को चावल की थैलियों के नाम पर ठग कर कन्वर्ट कराना।
मंदिरों के पैसों पर सरकार और प्रशासन का नियंत्रण होता है और उस पैसों से एक्सक्लूसिवली सिर्फ हिन्दुओं के उत्थान का ही कार्य नहीं होता। ये जो हमेशा बीस करोड़ की धमकी देते हैं कट्टरपंथी नेता, वो अपनी इसी जनसंख्या की ताकत से कभी ये भी कह दें कि बीस करोड़ लोग अगर पाँच-पाँच रुपए भी दे दें, तो सौ करोड़ हो जाएगा। कभी सुना है ऐसा? नहीं, उस बीस करोड़ की याद बस तभी आती है जब इन्हें सौ करोड़ हिन्दुओं को निपटाने के ख्वाब आते हैं।
हिन्दुओं के मंदिरों से जुड़ी कुछ खबरें आपने पढ़ी होंगी, फिर भी एक बार कोविड-19 की इस लड़ाई में उनके योगदान को याद दिलाना आवश्यक है। शिरडी सनातन ट्रस्ट ने 51 करोड़ रुपए दिए, मनसा देवी मंदिर (पंचकुला) ने 10 करोड़ रुपए दिए। पटना महावीर मंदिर, बोधगया, सोमनाथ, अम्बाजी मंदिरों की तरफ से एक-एक करोड़ रुपए का दान किया गया। झंडेवालाँ मंदिर से 30000 लोगों को हर दिन भोजन कराया जा रहा है।
गोरखनाथ मंदिर रोज 200 को भोजन कराता है, 300 अस्पताल बेड्स, 10 वेंटीलेटर की मदद के साथ हज़ारों मास्क व सैनिटाइजर बाँट रहा है। गुजरात भर में फैले 7 स्वामीनारायण मंदिरों ने कुल मिलाकर 1.88 करोड़ रुपए के सहयोग के साथ, 500 बेड का भी इंतजाम किया। काँची ट्रस्ट ने 40 लाख रुपए दिए, वैष्णो देवी ट्र्स्ट के कर्मचारियों ने एक दिन की सैलरी दी और 600 बिस्तरों का आइसोलेशन वार्ड दिया।
देवस्थानम ट्रस्ट कोल्हापुर ने दो करोड़ की राशि से सहायता की। महामाया मंदिर ट्रस्ट ने भी अपने स्तर से छः लाख से ज्यादा का योगदान दिया। मन्नारगुड़ी जीयार स्वामी मठ दो सौ लोगों को हर दिन भोजन उपलब्ध करा रहा है। उसी तरह, रानी सती मंदिर ने दो सौ बेड का आइसोलेशन वार्ड सहयोग हेतु उपलब्ध कराया है। कहीं से खबर आई कि दो पुजारी हैं, और उन्होंने हर दिन अपनी क्षमता के हिसाब से गरीबों के भोजन का जिम्मा उठाया है। वो स्वयं खाना बनाते हैं, बाँटते हैं।
पतंजलि ट्रस्ट ने 25 करोड़ रुपए की राशि प्रदान की तथा 1500 लोगों की क्षमता वाले आइसोलेशन वार्ड की व्यवस्था की। साथ ही, ये लिबरल गिरोह जिन उद्योगपतियों को कोसते रहते हैं, उन्होंने सैकड़ों करोड़ रुपयों तथा सामग्रियों, सुविधाओं से मदद की है जिनकी बात ये लोग कभी नहीं करते। RSS के लगभग साढ़े तीन लाख स्वयंसेवक 3 करोड़ से ज्यादा लोगों को भोजन और 50 लाख परिवार को राशन बाँट रहे।
‘द वायर’ का संस्थापक संपादक है वेणु जो कि कई करोड़ के बजट से चलता है। इस संस्था ने एक पैसा दान नहीं किया है जबकि इनसे कहीं छोटी संस्था ऑपइंडिया ने एक लाख रुपए अपने स्तर से दिया है। साथ ही, उनके एडिटर्स एवम् अन्य कर्मचारियों ने निजी तौर पर छोटी-छोटी राशि सरकार के सहयोगार्थ दी हैं।
मस्जिदों, चर्चों का क्या है योगदान? थूक, पत्थर और वायरस का प्रसार?
इसके उलट आपने कितनी खबरें पढ़ी हैं जहाँ आपको किसी मस्जिद या चर्च ने मुफ्त भोजन की व्यवस्था की हो? क्या आपने सुना कि मस्जिदों ने सामूहिक तौर पर तय किया कि अगर आवश्यकता पड़े तो इलाके का हर मस्जिद रोगियों के आइसोलेशन वार्ड के रूप में काम में लाया जा सकता है? यहाँ एक मस्जिद ऐसा करेगा, और उसको पूरा गिरोह ऐसे दिखाएगा जैसे भारत ही नहीं दुनिया के हर मस्जिद में वैंटिलेटर लगा कर रोगियों को सँभाला हुआ है, वरना दुनिया तो मिट्टी में मिल जाती।
पूरे कोरोना काल में हमने मस्जिदों के बारे में क्या सुना? एक समय तक, भारत के लगभग तीस प्रतिशत कोरोना मरीज इन्हीं मरकज/मस्जिदों के कारण पाए गए। मस्जिदों में लॉकडाउन के बावजूद लोग पाए गए। मस्जिदों के मुल्लों ने कैमरे पर और माइकों में बोला है कि डॉक्टर तुम्हें ठीक नहीं करेंगे, अल्ला करेगा। प्रशासनिक अधिकारी समझाने गए तो मुल्ला बोल रहा है कि वो तो मस्जिद खुला रखेगा, वो किसी को आने से मना नहीं कर सकता!
मस्जिदों से पत्थरबाजी हुई है, मधुबनी में गोली चली है… ये सब कोरोना के लिए लोगों को खोजने गई टीमों पर हमला हुआ है। तो, मस्जिदों का तो ये योगदान है पूरे कोरोना के युद्ध में। क्या मजहबी नेताओं ने, ख़ास समुदाय को भटकाया नहीं यह कह कर कि कोरोना वाली सुई तुम्हें नपुंसक बना देगी?
कोरोना के इस आपातकाल में तबलीगियों का योगदान भी तो याद रखा जाएगा। उनके थूक, पेशाब और विष्ठा के योगदान को कैसे भूलेगा हिन्दुस्तान! कदाचित् यही कारण है कि अगले ट्वीट में एमके वेणु ये लिखना चाह रहे होंगे कि तबलीगियों के पास विष्ठा और थूक का जो भंडार है, उससे वैक्सीन बनाया जा सकता है। उसकी हलाल पद्धति शायद इस्लामी साइंसदान विकसित कर रहे होंगे फिलिस्तीन में कहीं! वैसे भी, इजरायल वाला या ईसाई देशों वाला वैक्सीन तो कट्टरपंथी मरते दम तक नहीं लेगा।
जिहाद, हलाल और जकात
क्या यह बात किसी से छुपी हुई है कि जिहाद और हलाल इकॉनमी किस स्तर की है? सोना तो वेणु के भी हिसाब से 1.4 ट्रिलियन डॉलर पर खत्म हो जाता है, लेकिन हलाल इकॉनमी अपने आप में दो ट्रिलियन की है, और जिहाद का हम पता नहीं लगा सकते क्योंकि इन लोगों का जकात जिहाद में कितना जाता है, इसका कोई हिसाब-किताब नहीं है। जिहाद के अलावा आतंक की फंडिंग में क्या समुदाय विशेष के कुछ लोगों का योगदान नहीं?
बात ये है कि प्राथमिकताएँ हिली हुई हैं। मंदिर भूखों को भोजन कराता है, मस्जिद नमाज की जगह है। मंदिर दान के पैसे सरकार को देता है, मस्जिद नमाज की जगह है। मंदिर आइसोलेशन वार्ड उपलब्ध कराता है, मस्जिद नमाज की जगह है। मंदिर अपने दान की राशि सरकार के नियंत्रण में खर्च करता है, मस्जिद नमाज की जगह है।
वेणु को बैठ कर ये भी शोध करना चाहिए कि वक़्फ़ बोर्ड की संपत्ति कितनी है इस देश में। वो तो फाइनेंसियल एक्सप्रेस का मैनेजिंग एडिटर रह चुका है, उसको पता करना चाहिए कि देवबंदियों की कुल संपत्ति-संसाधन का ब्यौरा कितना है। पता करके तब लिखना चाहिए कि ये पैसा मजहब विशेष वालों को पीएम केयर्स फंड में दे देना चाहिए। उसके अगले दिन ये एमके वेणु अपने घर में बैठ कर पत्थर गिन रहा होगा।
वक़्फ़ के पास हर बड़े शहर की प्राइम लोकेशन पर दसियों एकड़ जमीनें हैं, जकात का अथाह पैसा है। वो सब कहाँ जा रहा है? मस्जिदें जकात के पैसों को समाज की मदद के लिए क्यों नहीं खर्च कर रही? वो क्यों जकात को सीधे प्रधानमंत्री के फंड के लिए नहीं देना चाह रहे? सिर्फ इसलिए कि भारत दारुल-इस्लाम नहीं, दारुल-हर्ब है? काफिर सत्ता में हैं, तो समाज की बेहतरी के लिए मस्जिद जकात का पैसा नहीं देगा, मजहब देखने लगेगा?
लेकिन जो मंदिर वैसे ही भंडारा, लंगर चलाते हैं, जिस पर सरकारों का ही नियंत्रण होता है, वो अब सोना भी निकाल के दे दें? वो तो कहते हैं न कि ताजमहल हमारा है, कुतुबमिनार हमारा है? तो ऐसा करो कि वक्फ की तमाम ऐसी संपत्तियों को बेच कर दे दो पैसा इस लड़ाई के लिए, किसी को बुरा नहीं लगेगा। कोई उद्योगपति खरीद ही लेगा।
बात मंशा की है, सोच की कालिमा की है
वेणु जैसे लोग अधम श्रेणी में गिने जाते हैं। वेणु जैसे लोग सेलेक्टिव बातें करते हैं। स्वयं इनसे कोई देह का मैल माँग ले, तो वो पूछ देंगे कि इससे हिन्दुओं का फायदा तो नहीं हो जाएगा? जवाब हाँ रहने पर, हथेली पर मसल कर, अपना मैल खा जाएँगे। इसलिए जब इनके स्थान-विशेष में समस्या होती है, मीठा-मीठा दर्द उठता है तो इन्हें हिन्दुओं के मंदिर और उसके भीतर का सोना याद आता है।
जैसा कि मैंने ऊपर भी कहा कि आवश्यकता पड़ी तो सरकार को बोलना नहीं होगा कि मंदिर अपने दान-पात्र खोले, मंदिरों के पुजारी स्वयं ही वो बात बोल देंगे। मौलाना साद और किसी स्वामी जी में फर्क यही है कि मुल्ले साद को लगता है कि कोरोना के समय में मस्जिदों में आने से कोरोना चला जाएगा और इस चक्कर में पूरे देश में कोरोना तबलीगियों के साथ पहुँच जाता है। वहीं, मंदिर के पुजारी गेट बंद कर के घोषणा करते हैं कि रामनवमी और दुर्गा पाठ अपने घरों से कीजिए, इधर बिलकुल मत आइए।
क्योंकि किसी एक को भले लगता हो कि पूरी दुनिया का ज्ञान, इतिहास, वर्तमान और भविष्य एक ही किताब में है, लेकिन बाकी लोग दूसरी किताबें भी पढ़ते हैं, कॉमन सेंस का भी प्रयोग करते हैं, नर्सों के इंजेक्शन में नपुंसकता की दवाई नहीं देखते, सरकार के आदेश को गम्भीरता से लेते हैं।
ऐसे ही पुजारी, ऐसे ही मठाधीश, ऐसे ही साधु-संत स्वयं आएँगे और कहेंगे कि हमारे पास का सोना लीजिए और अर्थव्यवस्था को सही कीजिए। मंदिरों का कोष आदि काल से राजकोष के खाली होने पर वैकल्पिक रूप में उपलब्ध होते थे। उसका काम ही यही है कि जब समाज को इसकी आवश्यकता हो, उसके द्वार खोले जाएँगे। लोगों को अपना लाउडस्पीकर देने पर आपत्ति हो जाती है, लेकिन हिन्दू कभी भी, एक आपात अवस्था में, ऐसे सवाल नहीं करेगा।
लेकिन बात तो मंशा की है। वेणु इरादतन एक खल चरित्र का जीव है। वो ऐसे विचार किसी विशिष्ट उद्देश्य से लाता है। उसका लक्ष्य है नैरेटिव चलाना, प्रपंच बाँटना जहाँ लोग सोचने लगें कि ‘सही बात है, मंदिरों के पास इतना सोना है तो वो तो रखा-रखा बेकार ही हो रहा है’। वेणु के वचन भले ही पुष्पित लगें, लेकिन यह जीव घाघ प्रवृत्ति का और विलक्षण धूर्तता का स्वामी है। इसी कारण से, इसकी बातों को उसी शैली और शब्दों में काटना आवश्यक है।