केजरीवाल शिक्षा मॉडल: ‘योग्यतम की उत्तरजीविता’ के सिद्धांत की भेंट चढ़ते छात्रों का भविष्य चर्चा में क्यों नहीं आता

दिल्ली के शिक्षा मॉडल के नाम पर छात्रों के भविष्य के साथ समझौता किया जा रहा है

राजधानी दिल्ली में सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले 98% विद्यार्थियों के सीबीएसई की 12वीं परीक्षा पास करने के साथ ही ‘केजरीवाल एजुकेशन मॉडल’ की काफी चर्चा हो रही है। खुद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने भी अपनी पीठ थपथपाते हुए कहा है कि ‘दिल्ली शिक्षा मॉडल’ ने कक्षा 12वीं की सीबीएसई परीक्षाओं में पास होने वाले सरकारी स्कूलों में 98% बच्चों के साथ इतिहास बनाया है।

लेकिन 98% रिजल्ट के पीछे की सच्चाई दिलचस्प है। आम आदमी पार्टी और केजरीवाल के समर्थकों ने ‘सरकारी स्कूलों ने प्राइवेट स्कूलों को भी पछाड़ दिया है’ के नैरेटिव बनाने में लगभग सफलता हासिल कर भी ली है और सरसरी निगाह से यही लगता है मानो अरविन्द केजरीवाल सरकार ने वास्तव में दिल्ली के सरकारी स्कूलों में मिलने वाली शिक्षा का कायापलट किया है।

लेकिन जरा सी रिसर्च करने पर तथ्य यह कहते देखे जा सकते हैं कि आम आदमी पार्टी के शासन से पहले तो यह आँकड़े और भी बेहतर थे। आँकड़े बताते हैं कि दिल्ली के सरकारी स्कूलों ने ‘केजरीवाल शिक्षा मॉडल’ से बहुत पहले भी प्राइवेट स्कूलों को पछाड़ा है। वर्ष 2009 और 2010 में दिल्ली के सरकारी स्कूलों में 12वीं कक्षा के नतीजे प्राइवेट स्कूलों से बेहतर थे।

गत वर्षों का रिकॉर्ड

‘केजरीवाल शिक्षा मॉडल’ का नैरेटिव

सवाल यह है कि ‘केजरीवाल शिक्षा मॉडल’ को ‘नैरेटिव’ क्यों कहा जा रहा है? इसका जवाब इसी दिल्ली के ‘केजरीवाल शिक्षा मॉडल’ के अंतर्गत आने वाले सीबीएसई बोर्ड के दसवीं के छात्रों के साथ ही उन 9वीं और 11वीं के छात्रों की वास्तविकता बयान करती है, जिन्हें केजरीवाल के शिक्षा मॉडल की महत्वकांक्षा की भेंट चढ़ाया जा रहा है।

केजरीवाल के शिक्षा मॉडल पर रिसर्चर अभिषेक रंजन ने विस्तार से बताया है। अभिषेक रंजन ने ऑपइंडिया के साथ बातचीत में दिल्ली के रिजल्ट के पीछे कुछ ऐसे घटकों के बारे में बताया, जिन्हें कि मीडिया में स्थान नहीं दिया जाता है।

इसमें पहला महत्वपूर्ण बिंदु छात्रों को दसवीं और बारहवीं से ठीक एक क्लास पहले आक्रामक तरीके से फ़ेल करना। दूसरा, उनका पसंदीदा विषय लेने से रोकने और तीसरा आँकड़ों की मदद से मीडिया शिक्षा मॉडल का महिमामंडन करना। यानी, इस वर्ष 2018-19 में अगर सरकारी स्कूलों का आँकड़ा 94% था, तो दिल्ली के ही प्राइवेट स्कूलों के आँकड़े भी 90% से ऊपर ही थे।

कम होती छात्रों की संख्या

इस सबके अलावा दिल्ली के सरकारी स्कूलों में घट रहे नामांकन पर कभी भी बहस नहीं की गई है। सरकार द्वारा जारी इकॉनोमिक सर्वे की रिपोर्ट के आँकड़े इसका प्रमाण भी देते हैं। इस सर्वे के अनुसार, वर्ष 2014-15 में जहाँ दिल्ली के प्राइवेट स्कूलों का शेयर 31% था, वर्ष 2017-18 में वह बढ़कर 45.5% से भी अधिक हो गया।

दिल्ली स्कूल में घटते नामांकन

इन बिन्दुओं पर विस्तार से नजर दौड़ाने पर पता चलता है कि इस साल जो बच्चे पास हुए हैं, वे वर्ष 2016-17 में 9वीं कक्षा में थे। तब इनके 47.7% सहपाठी 9वीं क्लास में फेल कर दिए गए थे।

यानी, लगभग आधे बच्चे ही 9वीं कक्षा से 10वीं में गए। और उनमें भी 2018 की परीक्षा में 32% फेल हो गए। इनमें से कई बच्चों ने तो 11वीं में एडमिशन तक नही लिया। जब यही बच्चे कक्षा 9वीं/10वीं के बैरियर को पास करने के बाद वर्ष 2018-19 में 11वीं कक्षा में पहुँचे, तो फिर से 20% बच्चे फेल कर दिए गए थे।

इन बच्चों को पहली कक्षा में सिर्फ और सिर्फ उस बैच के बोर्ड परीक्षा के पासिंग रिजल्ट को लगभग 100% या आसपास रखने के लिए फ़ेल कर रोक दिया जाता है। यानी, इन सभी बच्चों को आक्रामक रूप से सिर्फ इसलिए इस बड़े स्तर पर फ़ेल कर दिया जाता है, ताकि ‘केजरीवाल शिक्षा मॉडल’ के नैरेटिव को विकसित किया जा सके।

सामान्य शब्दों में कहें तो इस वर्ष दिल्ली के सरकारी स्कूल में पास होने वाले बच्चों की संख्या सिर्फ इस कारण बढ़ी है क्योंकि वर्ष 2017-18 में 29% विद्यार्थियों को फ़ेल कर दिया गया था।

‘कमजोर’ छात्रों को ऐच्छिक विषय के चयन से रोकना

12वीं के रिजल्ट के बाद कल बुधवार (जुलाई 15, 2020) को सीबीएसई बोर्ड के दसवीं के परिणाम आने हैं। इस पर अभिषेक रंजन का कहना है कि दिल्ली 10वीं के नतीजों में भी बच्चों के पास होने का प्रतिशत बहुत अधिक रहेगा। इसके पीछे उन्होंने कारण बताया है कि दिल्ली सरकार ने दिल्ली के स्कूलों में अपने दसवीं कक्षा के 73% छात्रों को बुनियादी गणित (बेसिक मेथ्स) चुनने के लिए मजबूर किया है। जबकि इसका राष्ट्रीय औसत केवल 33% है।

इस बात का खुलासा समाचार पत्र ‘इंडियन एक्सप्रेस‘ में दिसम्बर 2019 में प्रकाशित एक लेख में हुआ था। दिल्ली सरकार द्वारा लगभग 1,000 स्कूलों से प्राप्त आँकड़ों के अनुसार, मात्र 41,386 छात्रों ने ‘स्टैण्डर्ड गणित’ का विकल्प चुना है, जबकि 1,11,001 छात्रों ने बेसिक गणित का विकल्प चुना है। जिसका आशय यह है कि 72.84% छात्रों ने बेसिक गणित को चुना।

ऐसा करने के पीछे ‘केजरीवाल शिक्षा मॉडल’ का सबसे बड़ा रोल सामने आया है। इंडियन एक्सप्रेस की ही एक अन्य रिपोर्ट में पता चला था कि दिल्ली सरकार इस वर्ष गणित पर ध्यान केंद्रित करना चाहती थी क्योंकि बड़ी संख्या में छात्र जिस विषय में असफल होते आ रहे थे और ‘केजरीवाल शिक्षा मॉडल’ के दसवीं कक्षा के कुल प्रतिशत के आँकड़ों को गिरा रहा था, वह विषय गणित ही था। 2019 की बोर्ड परीक्षाओं में मौजूद 1,66,167 छात्रों में से 24,502 केवल एक विषय में फेल हुए थे और वह गणित ही था।

इन सभी नतीजों से निष्कर्ष निकालते हुए इस साल की शुरुआत में, दिल्ली सरकार ने अपने सभी स्कूलों को यह कहते हुए एक निर्देश भेजा था कि जो छात्र गणित में खराब हैं या उनका प्रदर्शन ठीक नहीं, उन्हें स्टैंडर्ड के स्थान पर बेसिक गणित के चयन की लिए तैयार किया जाना चाहिए।

वास्तव में बेसिक गणित उन विद्यार्थियों के लिए एक विकल्प होता है, जो भविष्य में गणित या विज्ञान की जगह कला या फिर अन्य क्षेत्रों में भविष्य बनाते हैं। जबकि स्टैण्डर्ड गणित का विकल्प विज्ञान और गणित के क्षेत्र में जाने वालों के लिए लाभदायक होता है। लेकिन दिल्ली सरकार सिर्फ और सिर्फ पास होने वाले प्रतिशत को ऊँचा बनाए रखने के लिए विद्यार्थियों को बेसिक गणित लेने के लिए बाध्य करती है।

यानी, जब सरकार और स्कूलों कि प्राथमिकता शिक्षा व्यवस्था को मजबूत कर छात्रों के विषय ज्ञान पर मेहनत कर उन्हें अच्छे और मनचाहे भविष्य के लिए तैयार करना होनी चाहिए थी, तब उन्हें राजनीतिक लाभ के लिए आसान रास्ता देकर उनके भविष्य को लेकर गुमराह किया जाता है।

शिक्षा का अधिकार vs ‘योग्यतम की उत्तरजीविता’

यहाँ पर एक बेहद चौंकाने वाली बात यह भी सामने आई है कि दिल्ली स्कूलों के परीक्षा परिणाम भले ही कैसे भी रहे हों, परीक्षा में बैठने वाले बच्चों की संख्या हर वर्ष बढ़ती नजर आ रही थी, लेकिन जैसे ही दिल्ली में आम आदमी पार्टी सरकार आई, परीक्षा में बैठने वाले विद्यार्थियों की संख्या अचानक से घटने लगी।

वर्ष 2007-08 में 72,205 छात्र परीक्षा में बैठे थे। इसके बाद ये निरंतर बढ़ते रहे और वर्ष 2014 में परीक्षा देने वाले छात्रों की संख्या 1,66,257 हो गई। जबकि वर्ष 2015 से यह गिरनी शुरू हो जाती है। 2015 में कुल 1,40,191 छात्रों ने परीक्षा दी, जबकि वर्ष 2018 तक आते-आते यह संख्या मात्र 1,12826 रह गई। यानी एक तरह से ‘केजरीवाल शिक्षा मॉडल’ छात्रों के शिक्षा के अधिकार के विपरीत ‘योग्यतम की उत्तरजीविता’ के सिद्धांत पर काम करता नजर आता है।

1998-99 से लेकर 2007-08
2008-09 से लेकर 2017-18

एक सवाल यह भी है कि 12वीं कक्षा के नतीजों के वक्त दिल्ली के शिक्षा मॉडल पर मीडिया मैनेजमेंट कर रही केजरीवाल सरकार दसवीं कक्षा के परिणाम के समय इतनी मुखर नजर नहीं आती है। ऐसा क्यों?

सरकारी बनाम निजी स्कूल

हिन्दुस्तान टाइम्स पर मई, 2019 को प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में निजी स्कूलों की सफलता दर 93.18% थी, जो कि सरकारी स्कूलों की तुलना में 21.21% अंक अधिक थी। यानी, जहाँ दिल्ली के सरकारी स्कूलों का सामूहिक प्रतिशत 71.58% था, प्राइवेट स्कूलों का परिणाम 93.18% था।

वहीं वर्ष 2017-18 में सीबीएसई बोर्ड दिल्ली के 10वीं के परीक्षा परिणाम में सरकारी स्कूलों के 69.32% बच्चे उत्तीर्ण हुए थे, जबकि प्राइवेट स्कूलों के बच्चों के पास करने का प्रतिशत 89.45% था। यानी, वर्ष 2017-18 में प्राइवेट और सरकारी स्कूलों के बीच सफलता पाने वाले बच्चों का फासला 20% का था।

आँकड़े बताते है कि वर्ष 2008-2015 तक दिल्ली के सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों का परीक्षा परिणाम कभी भी 85% से कम नही हुआ। इस वर्ष, यानी 2018-19 में अगर दिल्ली के सरकारी स्कूलों का आँकड़ा 94% था, तो प्राइवेट स्कूलों के आँकड़े भी 90% से ऊपर थे।

लेकिन, इन तमाम नकारात्मक आँकड़ों के बाद भी दसवीं कक्षा के परिणामों के दौरान ‘केजरीवाल शिक्षा मॉडल’ पर बात नहीं की गई, बावजूद इसके कि यह पिछले दशक में बदतर होता रहा है और गत वर्ष अपने निम्नतम स्तर पर आ गया था।

2013 के आँकड़ों को देखकर पता चलता है कि जिस 10वीं कक्षा की परीक्षा में दिल्ली के सरकारी स्कूलों के परीक्षा परिणाम केजरीवाल सरकार के दौरान पिछले दो सालों से बेहद ख़राब आते रहे, उसी 10वीं की परीक्षा में वर्ष 2013 में दिल्ली के सरकारी स्कूल का छात्रों का प्रदर्शन निजी स्कूलों से बेहतर था।

यह नतीजे तब थे, जबकि पिछले साल लगभग 42% बच्चे 9वीं की परीक्षा में ही फेल कर दिए गए थे ताकि अच्छे प्रतिशत के लिए सिर्फ ‘बेहतर’ बच्चे ही अगली कक्षा में भेजे गए। यही नहीं, हाईकोर्ट में अधिवक्ता अशोज अग्रवाल की एक याचिका से पता चलता है कि दिल्ली के सरकारी स्कूलों में बड़ी संख्या में उन बच्चों को दोबारा नामांकन तक नहीं लेने दिया जा रहा है, जो बोर्ड परीक्षाओं में असफल रहे। पिछले सत्र (2017-18) में ऐसे बच्चों की संख्या 66% थी, जिन्हें नामांकन करने से रोक दिया गया।

कुछ महत्वपूर्ण सवाल, जो ‘केजरीवाल शिक्षा मॉडल’ के महिमामंडन के बीच स्थान नहीं बना पा रहे हैं

ऐसे में, इन सभी आँकड़ों से यह तो स्पष्ट है कि दिल्ली के परीक्षा परिणामों की वास्तविकता से ज्यादा आवश्यक ‘केजरीवाल शिक्षा मॉडल’ की चर्चा बन चुकी है। इस शिक्षा मॉडल के दिवास्वप्न के बीच कुछ बेहद महत्वपूर्ण प्रश्न हैं, जो केजरीवाल सरकार से पूछे जाने चाहिए।

इन सवालों में सबसे पहला यह है कि राजनीतिक लाभ और मीडिया मैनेजमेंट के लिए बच्चों को आक्रामक रूप से 9वीं और 11वीं में रोक दिया जाना कितना उचित है?

दूसरा यह कि यह तय करने का अधिकार, कि छात्रों को कौनसी गणित पढ़नी चाहिए, और कौनसी नहीं, केजरीवाल सरकार को कौन देता है? यह भी स्पष्ट है कि ऐसे निर्देश विद्यालयों को दिल्ली सरकार द्वारा ही दिए गए हैं, ताकि सिर्फ ‘बेहतर’ छात्र ही परीक्षा में बैठें।

तीसरा यह कि जब निजी और सार्वजानिक विद्यालयों में सफलता का फासला बेहद मामूली है, तो ऐसे में सरकारी विद्यालयों के ग्लैमराइज कर वहाँ स्टाफ और बच्चों पर तानाशाही पद्धति थोपना कितना तार्किक है? क्या बेहतर परिणाम देना ही स्कूलों का पहला उद्देश्य नहीं होता है?

या फिर केजरीवाल शिक्षा में भी अपनी IRS सेवा के निजी अनुभव को – “मैं वहाँ बहुत पैसा कमा सकता था” वाले नजरिए से ही देखना चाहते हैं और उन्हें लगता है कि स्कूलों को अच्छे परिणाम देने के बजाए स्विमिंग पुल या फिर अन्य गतिविधियों में ज्यादा रूचि लेनी चाहिए थी और अब स्विमिंग पुल के साथ स्कूल परीक्षा में भी अच्छे परिणाम देकर समाज पर कोई विशेष उपकार कर रहे हैं?

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