महाराष्ट्र का सियासी समीकरण हर दिन बदलता हुआ दिखाई दे रहा है। किसी भी दल के सरकार बनाने में सफल होने की वजह से राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया है। विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद से ही महाराष्ट्र अपनी नई राज्य सरकार के इंतजार में है। मगर अभी भी सरकार बनाने को लेकर सूरत साफ नहीं हो पा रही है। राजनीतिक हलचल बढ़ती जा रही है। सियासी घमासान के बीच राज्य में सरकार बनाने के लिए शिवेसना के कट्टर राजनीतिक और वैचारिक शत्रुओं के साथ आने की चर्चाएँ अपने चरम पर है। भाजपा का साथ छोड़ने वाली शिवसेना अब कॉन्ग्रेस और एनसीपी के साथ जाती हुई दिख रही है।
बता दें कि एनसीपी ने जहाँ शिवसेना को समर्थन देने के लिए एनडीए का साथ छोड़ने के लिए कहा, वहीं कॉन्ग्रेस ने शिवसेना से अपनी हिंदुत्ववादी छवि को ही बदलने की शर्त रख दी। कॉन्ग्रेस ने कहा कि इस छवि के बदलने के बाद ही पार्टी महाराष्ट्र में शिवसेना का समर्थन करने के बारे में सोचेगी। शिवसेना राज्य में सरकार बनाने के लिए इतनी उतावली है कि उसने अपने वैचारिक सिद्धांत को भी ताक पर रख दिया और एनसीपी-कॉन्ग्रेस के साथ गठबंधन करने के लिए मुस्लिमों को महाराष्ट्र में 5% आरक्षण देने की बात पर हाँ कर दिया। साथ ही अपने कट्टर हिंदुत्व का त्याग करने को भी तैयार हो गई। इसे ही कहते हैं सत्ता की अति महत्वाकांक्षा।
शिवसेना के अपने कट्टर हिंदुत्व छवि को त्यागने के बाद से ही लोगों के जेहन में ये सवाल उठने लगे कि आखिर वो कौन सी कड़ी रही होगी, जिसने शिवसेना और कॉन्ग्रेस के बीच के वैचारिक खाई को भरी होगी। ऐसे में संभवत: एक नाम उभरकर सामने आता है। वो नाम है- मराठवाड़ा क्षेत्र के सिलोद से पूर्व पशुपालन मंत्री और शिवसेना विधायक अब्दुल सत्तार का। बता दें कि 2019 के लोकसभा चुनाव में अब्दुल सत्तार के रूप में शिवसेना को पहली बार मुस्लिम विधायक मिला। हिंदुत्व की बुनियाद पर खड़ी शिवसेना के टिकट पर पहली बार कोई मुस्लिम चेहरा चुनाव जीत विधानसभा पहुँचा।
उल्लेखनीय है कि चुनाव से ठीक पहले कॉन्ग्रेस और राष्ट्रवादी कॉन्ग्रेस पार्टी की गठबंधन सरकार में पशुपालन मंत्री रहे अब्दुल सत्तार ने विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा देकर शिवसेना का दामन थामा था और चुनाव में जीत हासिल की थी। शिवसेना के हिंदुत्ववादी छवि को त्यागने और कॉन्ग्रेस के साथ गठबंधन करने के पीछे सत्तार की अहम भूमिका मानी जा रही है। ऐसा इसलिए, क्योंकि अब्दुल सत्तार कॉन्ग्रेसी रह चुके हैं। यानी कि उनकी विचारधारा कॉन्ग्रेस से मेल खाती है। बता दें कि उन्होंने किसी तरह की वैचारिक मतभेद की वजह से पार्टी नहीं छोड़ी थी। उन्होंने लोकसभा चुनाव से पहले पार्टी इसलिए छोड़ी थी, क्योंकि पार्टी ने उन्हें औरंगाबाद से लड़ने के लिए टिकट नहीं दिया था।
ऐसे में कयास लगाए जा रहे हैं कि अब्दुल सत्तार ने ही शिवसेना और कॉन्ग्रेस के बीच के वैचारिक खाई को पाटने का काम किया होगा। सत्तार कॉन्ग्रेसी रह चुके हैं, तो जाहिर सी बात है कि उनके कॉन्ग्रेसी नेताओं के साथ रिश्ते भी होंगे। संभावना जताई जा रही है कि सत्तार ने कॉन्ग्रेसी नेताओं के साथ मिलकर सरकार बनाने में शिवसेना का समर्थन करने के लिए कहा होगा। जानकारी के मुताबिक कॉन्ग्रेस पार्टी के ऐसे नेता जो शिवसेना के साथ मिलकर सरकार बनाने की चाह रखते हैं, उन्होंने सत्तार के मामले को सामने रखते हुए कहा कि कॉन्ग्रेस पिछले कुछ साल में ऐसी ही सियासी गलतियाँ करती रही है, जिनका बाद में खामियाजा भुगतना पड़ा है। वहीं एक अन्य कॉन्गेस नेता का कहना है कि एक मुस्लिम और पूर्व कॉन्ग्रेसी नेता शिवसेना में शामिल होता है और अल्पसंख्यक बाहुल्य विधानसभा क्षेत्र में आसानी से जीत जाता है। इससे साफ पता चलता है कि राजनीति में किस तरह के बदलाव आ रहे हैं।
बहरहाल, महाराष्ट्र की स्थिति पर कुछ भी कहना संभव नहीं है। शिवसेना ने तो एनसीपी और कॉन्ग्रेस की सारी माँगे मान ली है। लेकिन फिर भी तीनों पार्टियों के बीच का मतभेद और संशय खत्म नहीं हो रहा है। ऐसे में अगर इनकी सरकार बन भी जाती है तो देखना दिलचस्प होगा कि जब इन तीनों के बीच अभी ही वस्तु-स्थिति स्पष्ट नहीं हो पा रही है, तो फिर सरकार कैसे चलेगी।