भारत यात्रा का नायक, सियासत का चिर युवा चंद्रशेखर; जिसके लिए PM मोदी को कहना पड़ा- हम चूक गए

स्मृति शेष: पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर

गौहर रजा ने लिखा है: जुनूं के रंग कई हैं, जुनूं के रूप कई

आजाद भारत की सियासत के जुनूं (जुनून) का नाम ही चंद्रशेखर है। वो चंद्रशेखर जो सांसद से सीधे प्रधानमंत्री बने। इससे पहले न कभी किसी सरकार में कोई पद स्वीकारा, न पीएम की कुर्सी छोड़ने के बाद।

बागी बलिया की जमीन का असर कहें या कुछ और चंद्रशेखर ने हमेशा हवा को चुनौती दी। समाजवाद से सियासी सफर शुरू कर इंदिरा गाँधी का युवा तुर्क बनना, इमरजेंसी की कारागार यात्रा के बाद जनता पार्टी के अध्यक्ष से लेकर प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुॅंचना, उनकी यात्रा कई पड़ावों से गुजरी। लेकिन हर पड़ाव में जो बात एक सी है, वह है चंद्रशेखर का हर उस आदमी के सामने तनकर खड़े हो जाना, जिसे खुद के होने का गुमान था।

शायद यही कारण है कि धारा के खिलाफ चलने वाले भारतीय नेताओं में वे सबसे अलग नजर आते हैं। पिछले साल ही उनके इस पक्ष को याद करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, “उनकी (चंद्रशेखर) संस्कार और ​गरिमा प्रतिपल झलकती थी। आखिरकार जिस समय कॉन्ग्रेस पार्टी का सितारा चमकता हो, चारो तरफ जय-जयकार चलता हो, वो कौन सा तत्व होगा उस इंसान के भीतर, वो कौन सी प्रेरणा होगी कि उसने बगावत का रास्ता चुन लिया। शायद बागी बलिया के संस्कार होंगे। शायद बागी बलिया की मिट्टी में आज भी वह सुगंध होगी।”

देश के आठवें प्रधानमंत्री रहे चंद्रशेखर बमुश्किल सात महीने इस पद पर रहे। लेकिन, वे याद प्रधानमंत्री बनने के कारण नहीं किए जाते। उन्हें याद करने की वजह वह ठसक है, जिसके कारण इस कुर्सी से इस्तीफा दे दिया। चुनौती देने का वो जज्बा है, जिससे इंदिरा से लेकर वीपी सिंह तक हर कोई सकते में रहा।

उत्तर प्रदेश के बलिया के इब्राहिम पट्टी में 17 अप्रैल 1927 को पैदा हुए चंद्रशेखर ने साल 2007 में 8 जुलाई को अंतिम साँसें ली थीं। ठसक की राजनीति का यह ‘बाबू साहब’ इतना संवेदनशील था कि राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश, पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा जैसे आज भी उनके मानवीय पक्ष को याद कर भावुक हो जाते हैं। उनकी यारी के किस्से में भी खूब सुने और सुनाए जाते हैं।

राजनीतिक यात्रा

लेकिन बात पहले उनकी राजनीतिक यात्रा की। चंद्रशेखर ने 50 के दशक में अपनी सियासी यात्रा प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से शुरू की थी। आचार्य नरेंद्र देव तब उनके मेंटर हुआ करते थे। बाद में राममनोहर लोहिया के साथ रहे। लोहिया के साथ अपने मतभेदों को लेकर भी वे अक्सर चर्चा में रहते थे।

1962 में चंद्रशेखर ने अपनी संसदीय यात्रा उत्तर प्रदेश से राज्यसभा के लिए चुने जाने से शुरू की। 1964 में कॉन्ग्रेस में आ गए। कॉन्ग्रेस पार्टी पर कब्जा जमाने और सिंडिकेट को मात देने के लिए इंदिरा गाँधी ने एक फौज बनाई थी, जिसे युवा तुर्क कहते थे। इसका एक प्रमुख चेहरा चंद्रशेखर थे।

लेकिन, चापलूसी भरे उस दौर में जिसकी परिणति देश ने ‘इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा’ के नारे के तौर पर देखी, चंद्रशेखर तनकर ही रहे। कहते हैं कि एक बार इंदिरा गाँधी ने उनसे पूछा था कि क्या तुम कॉन्ग्रेस को समाजवादी मानते हो? उनका जवाब था: थोड़ा सा मानता हूँ, थोड़ा सा मनवाना चाहता हूँ, इसलिए आ गए। इंदिरा ने जब इसके मायने पूछे तो कहा कि कॉन्ग्रेस बरगद के एक बुढ़े पेड़ की तरह हो गई है। अगर मैं इसे समाजवादी रुख की ओर नहीं मोड़ सका तो पार्टी तोड़ दूॅंगा।

इस घटना से समझा जा सकता है कि चंद्रशेखर अलग ही मिट्टी के बने थे। वे उस इंदिरा को यह बात कह रहे थे जो देश की प्रधानमंत्री थीं, कॉन्ग्रेस की सर्वेसर्वा थीं और कॉन्ग्रेसी जुबान में कहें तो उनके कारण ही चंद्रशेखर सांसद थे।

इसके बाद आया 1975 जब आपातकाल लागू किया। कॉन्ग्रेस में रहते हुए भी जिसने इसके खिलाफ खुलकर आवाज उठाई, वो चंद्रशेखर थे। लिहाजा उन्हें भी गिरफ्तार कर विपक्षी नेताओं की तरह ही जेल में ठूँस दिया गया।

इमरजेंसी के बाद चंद्रशेखर जनता पार्टी के अध्यक्ष बने। आम चुनावों में जनता पार्टी की जीत हुई। कहा जाता है कि चंद्रशेखर नहीं चाहते थे कि मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बनें। जयप्रकाश (जेपी) के कहने पर वे इसके लिए तैयार हुए। लेकिन जेपी की एक बात उन्होंने नहीं मानी और वह थी मोरारजी कैबिनेट में शामिल होना।

1980 के आम चुनावों में जनता पार्टी हार गई। 1984 इंदिरा की हत्या से पैदा हुई सहानुभूति में पार्टी की और बुरी गत हुई और वह 10 सीटों पर सिमट गई। बलिया में खुद चंद्रशेखर को हार देखनी पड़ी। इसके बाद 1988 में जनता पार्टी और अन्य धड़े मिलकर जनता दल के रूप में सामने आए। 1989 के चुनावों में जनता दल जीती। इस बार देवीलाल के एक दॉंव की वजह से पीएम की कुर्सी चंद्रशेखर से फिसल कर वीपी सिंह के हाथ लगी। कुछ महीनों बाद चंद्रशेखर ने समर्थकों के साथ जनता दल छोड़ समाजवादी जनता पार्टी बनाई और कॉन्ग्रेस के समर्थन से 10 नवंबर 1990 को प्रधानमंत्री बने।

समर्थन देते वक्त राजीव गाँधी को शायद लगा था कि कठपुतली सरकार चलाने को मिलेगी। ऐसा हुआ नहीं और इससे पहले की कॉन्ग्रेस समर्थन वापस लेती, चंद्रशेखर ने 21 जून 1991 को इस्तीफा दे दिया। इसके बाद भी वे कई सालों तक सांसद रहें। कुल मिलाकर आठ बार वे बलिया से लोकसभा पहुॅंचे।

भारत यात्रा

अब बात एक पदयात्रा की। गुलाम भारत में जैसे गाँधी ने पदयात्राओं के जरिए भारत की थाह ली, उसी तरह आजाद भारत के समस्याओं को चंद्रशेखर ने अपने पैरों से नापने की कोशिश की थी। उन्होंने 6 जनवरी 1983 को कन्याकुमारी के विवेकानंद स्मारक से भारत यात्रा शुरू की। करीब 4200 किमी की यह पदयात्रा 25 जून 1984 को दिल्ली के राजघाट पर समाप्त हुई।

इस यात्रा के दौरान वे कई जगहों पर ठहरे और उनमें से कुछ को ​भारत यात्रा केंद्र के नाम से विचारों का केंद्र बनाया। इनमें से ही एक है लगभग 600 एकड़ में फैला भोंडसी स्थित भारत यात्रा केंद्र। बाद के वर्षों में सियासत का केंद्र बनने की वजह से भोंडसी आश्रम तो याद रहा, लेकिन वह यात्रा जेहन से मिटा दी गई।

बीते साल एक किताब आई थी- चंद्रशेखर द लास्ट आइकन ऑफ आइडियोलॉजिकल पॉलिटिक्स (The Last Icon of Ideological Politics)। हरिवंश और रवि दत्‍त बाजपेयी की लिखी इस किताब का विमोचन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया था। इस दौरान भारत यात्रा को भुलाए जाने की टीस उन्होंने जाहिर की थी।

पीएम मोदी ने कहा था, “आज छोटा-मोटा लीडर भी पदयात्रा करे तो 24 घंटे टीवी पर चलता है। मीडिया के पहले पन्ने पर छपता है। चंद्रशेखर जी ने पूर्णतया गाँव, गरीब, किसान को ध्यान में रखकर पदयात्रा की। यह चुनाव के इर्द-गिर्द नहीं हुआ था। देश को इसे जो गौरव देना चाहिए था, नहीं दिया। हम चूक गए।”

साथ ही प्रधानमंत्री ने इसके पीछे साजिशों की ओर इशारा करते हुए कहा था, “बहुत जान-बूझकर, सोची-समझी रणनीति के तहत चंद्रशेखर जी की उस यात्रा को डोनेशन, करप्शन, पूॅंजीप​तियों के पैसे, इसी के इर्द-गिर्द चर्चा में रखा गया। ऐसा घोर अन्याय सार्वजनिक जीवन में अखरता है।”

यहाँ यह जानना जरूरी है कि उस पदयात्रा के मर्म में कोई सियासत नहीं थी। केवल पाँच बुनियादी मसले थे;

  • सबको पीने का पानी
  • कुपोषण से मुक्ति
  • हर बच्चे को शिक्षा
  • स्वास्थ्य का अधिकार
  • सामाजिक समरसता

लेकिन विडंबना देखिए जब भी चंद्रशेखर की बात होती है, उनके सियासी जीवन के इस सबसे महत्वपूर्ण मोड़ की चर्चा कभी भी केंद्र में नहीं होती। आखिर इतनी महत्वपूर्ण यात्रा को सियासी पन्नों में दफना देने की साजिश किसने और क्यों रची होगी?

…और सिंह मेंशन

प्रधानमंत्री रहते हुए चंद्रशेखर ने कभी भी आधिकारिक निवास 7 रेसकोर्स रोड में रात नहीं गुजारी। वे या तो 3 साउथ एवेन्यू के अपने घर में सोते या भोंडसी के आश्रम में। भोंडसी के आश्रम जितना अजीज ही उन्हें झारखंड के धनबाद का भी एक घर था।

एनएच-32 पर स्टीलगेट के पास स्थित यह घर 80 के दशक में बना था। इसका नाम सिंह मेंशन है। इस घर की बुनियाद झरिया के विधायक रहे सूर्यदेव सिंह ने रखी थी। उनका परिवार आज भी यहॉं रहता है। सूर्यदेव सिंह की छवि कोयला माफिया की थी। उनसे चंद्रशेखर की गहरी यारी थी।

प्रधानमंत्री बनने के बाद भी वे अपने इस दोस्त को नहीं भूले और न उसकी छवि को लेकर कभी कोई चिंता की। पीएम बनने के बाद वे भी सिंह मेंशन पहुॅंचे थे। जब पत्रकारों ने सवाल किया तो कहा, “हाँ, जिस सूर्यदेव सिंह को आप माफिया कहते हैं, वे मेरे दोस्त हैं।”

ऐसे ही थे चंद्रशेखर। इसलिए तो इमरजेंसी के बाद जब जेल से निकले तो कहा;

मुझे कैद करो या मेरी जुबाँ को बंद करो,
मेरे सवाल को बेड़ी कभी पहना नहीं सकते

अजीत झा: देसिल बयना सब जन मिट्ठा