जब ग्रेटा थनबर्ग का नाम आता है, लोग उन्हें जलवायु परिवर्तन की बड़ी आवाज़ मानते हैं। लेकिन हाल के सालों में उनकी हरकतों पर सवाल उठने लगे हैं। कुछ लोग कहते हैं कि वे असली समस्याओं को सुलझाने की बजाय सिर्फ़ सुर्खियों में रहने के लिए अलग-अलग आंदोलनों में कूद पड़ती हैं।
पहले ग्रेटा जलवायु परिवर्तन पर भाषण देती थीं, सरकारों से सवाल करती थीं और पर्यावरण के लिए सख्त कदम उठाने की माँग करती थीं। लेकिन अब वे फिलिस्तीन के मुद्दे पर बोलने लगी हैं। वे ‘फ्री फिलिस्तीन’ आंदोलन में शामिल हो गई हैं और फिलिस्तीनी स्कार्फ़ (केफियाह) पहनकर प्रदर्शन करती दिखती हैं।
आलोचक कहते हैं कि ग्रेटा की यह सक्रियता अब समस्याएँ हल करने से ज़्यादा खुद को मशहूर रखने का तरीका बन गई है। कुछ मीडिया उन्हें ‘न्याय की लड़ाई’ लड़ने वाली बताता है, लेकिन कई लोग इसे सोची-समझी रणनीति मानते हैं, जिसमें पीड़ितों की तकलीफ़ से ज़्यादा ग्रेटा की अपनी ब्रांडिंग पर ध्यान होता है।
सवाल यह है कि क्या ग्रेटा वाकई सामाजिक और पर्यावरणीय न्याय के लिए लड़ रही हैं, या यह सब सिर्फ़ प्रचार बनकर रह गया है?
गाजा के लिए मदद या प्रचार स्टंट: ग्रेटा और उनकी ‘सेल्फी यॉट’
ग्रेटा अब एक नए मुद्दे पर सक्रिय हैं। उन्होंने गाजा में इजरायल की घेराबंदी को चुनौती देने के लिए ‘फ्रीडम फ्लोटिला’ नाम के अभियान में हिस्सा लिया। वे ‘मैडलीन’ नाम की एक नाव पर सवार हुईं, जो फ्रीडम फ्लोटिला गठबंधन का हिस्सा थी। इस अभियान का मकसद गाजा तक मानवीय सहायता पहुँचाना था। लेकिन इस कदम पर भी सवाल उठे कि क्या यह पीड़ितों की मदद का प्रयास है या फिर प्रचार का एक और नाटक।
आलोचक कहते हैं कि ग्रेटा ऐसे गंभीर मुद्दों में शामिल तो हो जाती हैं, लेकिन उनका मकसद समस्या हल करना नहीं, बल्कि चर्चा में बने रहना है।
ग्रेटा और 11 अन्य कार्यकर्ताओं को ले जा रही ‘मैडलीन’ नाव को इजरायली सेना ने रास्ते में रोक लिया। इस नाव पर ब्रिटिश झंडा था और यह फ्रीडम फ्लोटिला गठबंधन का हिस्सा थी। इस मिशन का मकसद गाजा में मदद पहुँचाना था।

नाव पर फ्रांस की यूरोपीय सांसद रीमा हसन भी सवार थीं। यह नाव इटली के सिसिली से चली थी और गाजा जाने की कोशिश कर रही थी।

इसके बाद बहस शुरू हो गई कि क्या ऐसे अभियान वाकई मदद करते हैं या सिर्फ़ दिखावे के लिए होते हैं।
एक इजरायली अधिकारी ने इस मिशन को ‘सेल्फी फ्लोटिला’ कहा और बताया कि उनका मकसद हमास पर हर तरफ से दबाव बनाना है। वे गाजा में ऐसी किसी मदद को नहीं पहुँचने देना चाहते, जो उनके नियंत्रण में न हो। उन्होंने कहा कि अगर इस नाव को जाने दिया गया, तो और लोग भी ऐसी कोशिश करेंगे, जिससे इजरायल के खिलाफ उकसावे की गतिविधियाँ बढ़ सकती हैं। इजरायल ऐसी किसी स्वतंत्र सहायता को इजाज़त देने को तैयार नहीं, खासकर जब वह उनके नियंत्रण से बाहर हो।
गाजा यात्रा की पहले से तैयारी, सोशल मीडिया पर लगाया अपहरण का आरोप
ग्रेटा को अच्छी तरह पता था कि गाजा की यह यात्रा उन्हें दुनिया भर में सुर्खियाँ और सहानुभूति दिला सकती है, खासकर जब गाजा में लोग भयंकर संकट झेल रहे हैं। जब इजरायली सेना ने उनकी नाव रोकी, तो ग्रेटा ने तुरंत सोशल मीडिया पर एक पहले से रिकॉर्ड किया वीडियो डाला। इसमें उन्होंने आरोप लगाया कि इजरायली सेना ने अंतरराष्ट्रीय जल क्षेत्र में उनका अपहरण किया।

कई लोग कहते हैं कि ग्रेटा ने इस पूरे अभियान को पहले से प्रचार की तरह तैयार किया था, ताकि नाव रुकने पर वे खुद को पीड़ित दिखाकर लोगों की सहानुभूति बटोर सकें।
Greta: “We have been kidnapped” https://t.co/zBM6vQ1q7u pic.twitter.com/W6xjTSGeYK
— Open Source Intel (@Osint613) June 9, 2025
जब ग्रेटा ने अपहरण का आरोप लगाया, तो यह खबर तुरंत सुर्खियों में आ गई। वामपंथी मीडिया ने इसे इजरायल के खिलाफ हमले का मौका बना लिया। लेकिन कई लोगों ने इस दावे पर सवाल उठाए। उनका कहना है कि इजरायल के पास और भी बड़े मुद्दे हैं, उन्हें 22 साल की ग्रेटा का अपहरण करने की ज़रूरत नहीं, जो खुद को संकटग्रस्त लोगों की वैश्विक नायिका बताती हैं।
7 अक्टूबर को हमास ने सैकड़ों इजरायली और विदेशी लोगों को अगवा किया था, जिनमें बच्चे, बुजुर्ग और महिलाएँ शामिल थीं। कई लोग मारे गए, कई को बेरहमी से सताया गया, और कुछ आज भी उनकी हिरासत में हैं। इसके मुकाबले, ग्रेटा को सिर्फ़ हिरासत में लिया गया और बाद में सुरक्षित छोड़ दिया गया। उन्हें न चोट लगी, न भूखा रखा गया, न सताया गया।
आलोचक कहते हैं कि ग्रेटा का अपहरण का दावा न सिर्फ़ नाटक है, बल्कि उन असली पीड़ितों का मज़ाक उड़ाने जैसा है, जो आतंकवाद का शिकार हुए।
Hey Greta,
— 𝗡𝗶𝗼𝗵 𝗕𝗲𝗿𝗴 ♛ ✡︎ (@NiohBerg) June 9, 2025
Don't fucking use the word "kidnapping".
You have zero idea what it means. pic.twitter.com/rdAddoxrLo
रुक नहीं रहा ग्रेटा का नाटक
हिरासत में लिए जाने के बाद भी ग्रेटा ने नाटक जारी रखा। उन्होंने अपने समर्थकों से कहा कि वे स्वीडन सरकार पर दबाव डालें ताकि उन्हें छुड़ाया जाए। उन्होंने यह भी दावा किया कि उनकी नाव पर कोई उत्तेजक पदार्थ छिड़का गया। आलोचक कहते हैं कि इस पूरे अभियान में गाजा के असली संकट से ज़्यादा ग्रेटा की कैमरे के सामने मौजूदगी पर ध्यान था।
After being stopped by the Israeli Navy, IDF special forces soldiers handed out food and water to the brain dead morons from Europe on the boat including Greta Thunberg. I bet they didnt expect to be treated so well. Look how confused they seem 😂 #Flotilla #Gaza pic.twitter.com/wq7YyNgwzw
— Eretz Israel (@EretzIsrael) June 9, 2025
यह अभियान मानवीय सहायता से ज्यादा एक सोची-समझी प्रचार योजना की तरह दिखा, जिसमें ग्रेटा खुद को एक वीर कार्यकर्ता के रूप में पेश करने की कोशिश करती दिखीं, जबकि गाजा की असली तकलीफें कहीं पीछे छूट गईं।
ग्रेटा और 11 अन्य कार्यकर्ताओं की नाव में जो मदद का सामान था, जैसे बेबी फॉर्मूला और चावल, वह सिर्फ़ दिखावे के लिए था। गाजा के बड़े संकट के सामने यह सामान बहुत कम था।
दरअसल, उनकी पूरी नाव में जो राहत सामग्री थी, वह एक ट्रक से भी कम थी। वहीं, सिर्फ पिछले दो हफ्तों में ही इजरायल ने लगभग 1200 सहायता ट्रक गाजा में भेजे हैं। इससे साफ होता है कि थनबर्ग और उनके साथियों की मदद असल में जरूरतमंदों के लिए पर्याप्त नहीं थी। आलोचकों का कहना है कि ग्रेटा का यह सहायता मिशन फिलिस्तीनियों की मदद करने से ज्यादा, खुद को चर्चा में लाने की कोशिश थी।
गाजा इस समय बेहद गंभीर संकट से गुजर रहा है। 7 अक्टूबर को हमास के हमले के बाद इजरायल की जवाबी कार्रवाई में हजारों लोग मारे जा चुके हैं, 90% से ज्यादा आबादी विस्थापित हो चुकी है और वहाँ लोग लगातार अंतर्राष्ट्रीय मदद पर निर्भर हैं। ऐसे में ग्रेटा की हीरो बनने की कोशिश असली पीड़ितों की तकलीफ़ के सामने दिखावटी लगती है।
ग्रेटा थनबर्ग अक्सर पर्यावरण और बढ़ते कार्बन उत्सर्जन पर चिंता जताती हैं, लेकिन जब बात हमास की आती है, तो वे चुप्पी साध लेती हैं।
ग्रेटा अक्सर पर्यावरण और कार्बन उत्सर्जन की बात करती हैं, लेकिन हमास पर चुप रहती हैं। 7 अक्टूबर 2023 को जब हमास ने इजरायल पर हमला किया, तो हजारों मिसाइलें दागी गईं, जिससे पर्यावरण को भारी नुकसान हुआ। लेकिन ग्रेटा ने न तो इस पर्यावरणीय विनाश की निंदा की, न ही इजरायली नागरिकों की हत्या, बलात्कार या अपहरण पर कुछ कहा।
आलोचक कहते हैं कि यह नई बात नहीं। कई फिलिस्तीन समर्थक कार्यकर्ताओं ने भी हमास के अत्याचार दिखाने वाली डॉक्यूमेंट्री देखने से मना कर दिया, जिसमें इजरायली महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों पर हुए ज़ुल्म दिखाए गए थे। इजरायली अधिकारियों को उम्मीद थी कि ग्रेटा इन पीड़ितों के लिए बोलेंगी, लेकिन उनका रवैया सिर्फ़ एक पक्ष की तरफ झुका रहा।
‘फ्री फिलिस्तीन’ के नारे लगाना, हमास को मानवीय दिखाना और इजरायल को विलेन बताना पश्चिमी देशों में अब ट्रेंड बन गया है। ग्रेटा भी इसी ट्रेंड का हिस्सा लगती हैं। उन्होंने कभी यमन, सूडान जैसे संघर्ष क्षेत्रों के लिए फ्लोटिला नहीं भेजा, जहाँ रोज़ लोग मारे जा रहे हैं। लेकिन गाजा के लिए ज़रूर गईं, क्योंकि उन्हें पता है कि बिना यहूदियों के मीडिया में खबर नहीं बनती।
चाहे जलवायु संकट पर उनके भाषण हों या गाजा की फ्लोटिला यात्रा, ग्रेटा हमेशा ऐसे नाटकीय कदम उठाती हैं, जो उनकी ‘इंसाफ की लड़ाई’ वाली छवि को मज़बूत करते हैं। लेकिन आलोचक कहते हैं कि वे जिन मुद्दों को उठाती हैं, उनकी गहराई और जटिलता को नज़रअंदाज़ कर देती हैं। उनका रवैया समाधान की ओर कम और प्रचार व ट्रेंड के पीछे भागने जैसा ज़्यादा है, जहाँ इंसाफ़ से ज़्यादा कैमरे की नज़र में रहना ज़रूरी है।
‘ग्रीन एनर्जी’ नाव और ग्रेटा का ट्रान्साटलांटिक पीआर स्टंट
ग्रेटा ने एक बार ‘मालिजिया’ नाम की रेसिंग नाव से अटलांटिक महासागर पार किया, जिसे ‘ज़ीरो कार्बन’ बताया गया। वे न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र के जलवायु सम्मेलन में जा रही थीं और इसे पर्यावरण के लिए कदम कहा। लेकिन सच यह था कि नाव पूरी तरह पर्यावरण अनुकूल नहीं थी। इसे चलाने में सहायक जहाज़ इस्तेमाल हुए, जो जीवाश्म ईंधन से चलते थे। नाव वापस लाने के लिए चालक दल के कुछ लोग हवाई जहाज़ से लौटे, जिससे कार्बन उत्सर्जन हुआ और ‘जीरो कार्बन‘ का दावा कमज़ोर पड़ गया।
यह यात्रा पर्यावरण बचाने से ज़्यादा ग्रेटा को ‘धरती की रक्षक’ दिखाने के लिए थी। वामपंथी मीडिया ने इसे खूब बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया और उन्हें पर्यावरण आइकन बना दिया। लेकिन इस कवायद का कार्बन उत्सर्जन पर कोई असर नहीं पड़ा और यह जागरूकता से ज़्यादा प्रचार बनकर रह गया।
इलेक्ट्रिक कार और कोबाल्ट खनन का नाटक
दिसंबर 2019 में ग्रेटा मैड्रिड के जलवायु शिखर सम्मेलन में इलेक्ट्रिक कार (Seat Mii Electric) से पहुँचीं। वे हवाई यात्रा से बचती हैं ताकि कार्बन उत्सर्जन कम हो, इसलिए नाव और इलेक्ट्रिक कार का इस्तेमाल करती हैं।
Climate Strike Week 300. Today we strike outside Exportkreditnämnden (EKN) in solidarity with Congo together with hope4kinshasa. We demand that they stop the collaboration with companies and mines committing human rights violations in DRC. 1/5 pic.twitter.com/wl49Yjlo6R
— Greta Thunberg (@GretaThunberg) May 17, 2024
लेकिन यहाँ विरोधाभास है। ग्रेटा ख़ुद कह चुकी हैं कि इलेक्ट्रिक कार की बैटरियों में इस्तेमाल होने वाला कोबाल्ट ज़्यादातर कांगो से आता है, जहाँ बच्चों से जबरन मज़दूरी कराकर इसे निकाला जाता है। फिर भी, उनकी यह यात्रा उनके अपने बयान से मेल नहीं खाती।
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या पर्यावरण बचाने के नाम पर दूसरे गंभीर मानवाधिकार मुद्दों की अनदेखी करना सही है? ग्रेटा की ये यात्रा उनके उस बयान से मेल नहीं खाती, जिसमें उन्होंने कोबाल्ट खनन में बच्चों के शोषण को लेकर चिंता जताई थी। आलोचकों का मानना है कि यह एक और उदाहरण है जहाँ वे अपने दिखावे के एजेंडे के तहत अपनी ही बातों को नजरअंदाज कर देती हैं।
ग्रेटा का भारत में किसान आंदोलन का समर्थन
ग्रेटा ने भारत में कृषि कानूनों के खिलाफ़ प्रदर्शन कर रहे किसानों का समर्थन किया। उन्होंने एक्स पर पोस्ट किया कि यह आंदोलन ‘दमनकारी नीतियों’ के खिलाफ़ लड़ाई है। लेकिन यह आंदोलन ज़्यादातर उन किसानों की माँगों से जुड़ा था, जो धान की खेती और उसकी सब्सिडी को बचाना चाहते थे। यह कुछ राजनीतिक लॉबियों से भी जुड़ा था, जो अनाज मंडियों (APMC मंडियों) पर कब्ज़ा रखती हैं। बाद में यह आंदोलन खालिस्तानी तत्वों और हिंसा की वजह से भी बदनाम हुआ।
आलोचक कहते हैं कि ग्रेटा ने मुद्दे की गहराई समझे बिना एक पक्ष ले लिया, जिससे प्रचार और राजनीतिक एजेंडे को बढ़ावा मिला, न कि किसानों की असली समस्याओं का हल।
ऑपइंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, पंजाब में धान की खेती ने ज़मीन की गुणवत्ता बिगाड़ दी और भूजल लगभग ख़त्म हो गया। धान को बहुत पानी चाहिए, दालों या तिलहन से 10 गुना ज़्यादा। एक किलो धान के लिए 500-600 लीटर पानी लगता है। फसल कटने के बाद पराली जलाने से भारी प्रदूषण होता है। मोदी सरकार के नए कृषि कानून इन समस्याओं को हल करने के लिए थे, जिसमें पराली जलाना अपराध था।
लेकिन जब इन मुद्दों पर सही बात कहने की जरूरत थी, तब ग्रेटा थनबर्ग, जो खुद को जलवायु कार्यकर्ता कहती हैं, ने इन पर्यावरणीय समस्याओं को नजरअंदाज कर दिया। उन्होंने भारत के किसानों के समर्थन में वही बातें कहीं, जो उन्हें टूलकिट में बताई गई थीं। यानी उन्होंने स्थानीय समस्याओं को समझे बिना, एक तय स्क्रिप्ट पर काम किया और सिर्फ प्रचार के लिए पक्ष लिया।
ग्रेटा की सक्रियता में नाटक ज़्यादा और समाधान कम है। फिर भी, वामपंथी मीडिया ने उन्हें ‘पर्यावरण की देवी‘ बना दिया। मीडिया उन्हें निडर और न्याय की लड़ाई लड़ने वाली बताता है, लेकिन उनके बड़े भाषणों या गतिविधियों का कोई ठोस असर नहीं हुआ। न 2018 का स्कूल स्ट्राइक, न 2019 का ‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई?’ भाषण, और न ही गाजा मिशन ने कोई बड़ा बदलाव लाया या कार्बन उत्सर्जन कम किया।
वे सुर्खियों में रहती हैं, लेकिन उनके काम से न पर्यावरण सुधरा, न ज़रूरतमंदों की हालत। फिर भी वामपंथियों का खेमा उनके नाटक को नज़रअंदाज़ कर उन्हें हीरो बनाने में जुटा रहता है।