एक हिंदू ने लिखा था पाकिस्तान का पहला कौमी तराना ‘ऐ सरजमीने पाक’… लेकिन भारत में बची जिंदगी: कट्टरपंथियों ने बदल डाला ‘काफिर का तराना’ भी

प्रोफेसर जगन्नाथ आजाद (साभार: सोशल मीडिया)

15 अगस्त 1947 की आधी रात को आजादी मिली, लेकिन इसके साथ ही इसके टुकड़े भी हो गए। भारत के एक हिस्से को तोड़कर पाकिस्तान का बना। आजादी तो एक ही दिन मिली, लेकिन पाकिस्तान 14 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस मनाता है। भारत से एक दिन पहले। इन सबके बीच बहुत कम लोग जानते होंगे कि पाकिस्तान का ‘कौमी तराना’ (राष्ट्रगान) किसी मुस्लिम ने नहीं, बल्कि एक हिंदू ने लिखा था।

इस तराने को पाकिस्तान की आजादी के बाद पहली बार 14 अगस्त 1947 को रेडियो लाहौर से प्रसारित किया गया था। हालाँकि, पाकिस्तान के बँटवारे के जिम्मेदार माने जाने वाले मोहम्मद अली जिन्ना की मौत के बाद इस तराने के बदल दिया गया। कहा गया कि एक इस्लामी मुल्क के तराने का लेखक एक काफिर कैसे हो सकता है।

‘तराना-ए-पाकिस्तान’ को लिखने वाले का नाम प्रोफेसर जगन्नाथ आजाद था। प्रोफेसर जगन्नाथ का जन्म पाकिस्तान के लाहौर में हुआ था और वे अपने मुल्क को बेहिसाब मोहब्बत करते थे। उन्होंने लाहौर की पंजाब यूनिवर्सिटी से फारसी में एमए किया था। वह पाकिस्तान में रहे, लेकिन हिंदू होने के कारण उन्हें वहाँ से भागना पड़ा और अंतत: हिंदुस्तान में ही बाकी उम्र गुजारना पड़ा।

जब पाकिस्तान का बँटवारा निश्चित हो गया तो जिन्ना को याद कि पाकिस्तान के लिए एक कौमी तराना होना चाहिए। वे इस तराने को एक उर्दू के एक ऐसे विद्वान से लिखवाना चाहते थे, जो हिंदू हो। उन्होंने लोगों से ऐसे व्यक्ति की तलाश करने का आदेश दिया। रेडियो लाहौर के अधिकारियों को बुलाकर 24 घंटों में ऐसे हिंदू शायर को तलाश करने का हुक्म दिया।

जिन्ना के कहने पर पाँच दिन में लिखा तराना

अधिकारियों ने जिन्ना को बताया कि लाहौर में बहुत ही काबिल एक हिंदू शायर रहते हैं, जिनका नाम जगन्नाथ आजाद। उर्दू में उनके आसपास मुस्लिम शायर भी नहीं ठहरते। पाकिस्तान की आजाद से 5 दिन से पहले उस शायर से मिलने खुद जिन्ना पहुँचे और उनसे कौमी तराना लिखने का आग्रह किया। जिन्ना ने कहा, “मैं आपको सिर्फ पाँच दिन का समय देता हूँ, आपको कौमी तराना लिखना है”।

इस पाँच दिन में जगन्नाथ आजाद ने तराना लिखा और वह 14 अगस्त 1947 की आधी रात को रेडियो लाहौर से प्रसारित किया गया। पाकिस्तान रेडियो ने इसे कंपोज किया और फिर इसे जिन्ना को सुनाया गया। जिन्ना को यह बेहद पसंद आया। 14 अगस्त की आधी रात को रेडियो लाहौर से इसे पहले कौमी तराने के रूप में प्रसारित किया गया। उसके बाद फिर 15 अगस्त को प्रसारित किया गया।

हालाँकि, पाकिस्तान के इस्लामी नेताओं और शायरों को यह पसंद नहीं था कि किसी हिंदू का लिखा हुआ तराना पाकिस्तान का कौमी तराना बने। इस तरह जब तक जिन्ना जिंदा रहे, 18 महीनों तक इसे पाकिस्तान का कौमी तराना का दर्जा हासिल रहा। जिन्ना के मौत के बाद इसे बदल दिया गया।

छोड़ना पड़ा पाकिस्तान

बँटवारे के बाद वह लाहौर नहीं छोड़ना चाहते थे। उन दिनों वे लाहौर के एक साहित्यिक पत्रिका में नौकरी किया करते थे। बँटवारे से पहले ही हालात बिगड़ने लगे थे, लेकिन बँटवारे के बाद पाकिस्तान में हिंदुओं का जीना हर बीतते पल के साथ मुश्किल होने लगा। अगले कुछ महीनों में अब जगन्नाथ को लाहौर में एक दिन भी काटना मुश्किल हो गया। तब उनके मुस्लिम दोस्तों ने उन्हें भारत चले जाने की सलाह दी।

जिस जमीन पर उनकी पैदाइश हुई, जिस मुल्क के लिए उन्होंने तराना लिखा, उसको छोड़ने का उन्होंने मन बना लिया। इस तरह अपना और अपने पूर्वजों का सब कुछ छोड़कर वे एक दिन भारत चले आए। यहाँ दिल्ली के लाजपत नगर स्थित शरणार्थी कैंप में रहने लगे। दिल्ली में आकर उन्होंने डेली मिलाप में नौकरी शुरू कर दी।

कुछ समय बाद शायर जोश मलीहाबादी ने दिल्ली स्थित अपना मकान उन्हें रहने के लिए दे दिया। मलीहाबादी को सरकारी मकान मिल गया था। साल 1948 में आजाद को सूचना प्रसारण मंत्रालय की उर्दू पत्रिकाओं में सहायक संपादक की नौकरी मिल गई। बदलते समय के साथ वे सूचना आयुक्त भी रहे।

भारत और पाकिस्तान में किसी को नहीं पता था कि उन्होंने पाकिस्तान का कौमी तराना लिखा है। यह बात पाकिस्तान के उनके मित्रों को कुछ नेताओं-अधिकारियों को ही पता थी। हालाँकि, भारत में एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने खुद इसका खुलासा किया था।

जगन्नाथ आजाद का भारत में साल 2004 में निधन हो गया। उन्होंने 70 से ज्यादा किताबें लिखीं। जब 90 और 2000 के दशक में पाकिस्तान के आम लोगों को यह पता चला कि देश का पहला कौमी तराना जगन्नाथ आजाद ने लिखा तो इसे कई गायकों ने अपनी आवाज में गाया। इसे रेडियो पाकिस्तान से प्रसारित किया गया और खूब लोकप्रिय भी हुआ।

ऑपइंडिया स्टाफ़: कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया