Saturday, April 20, 2024
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कहानी उधम सिंह की जिन्होंने जलियाँवाला का बदला लंदन में अंग्रेज़ को गोली मार कर लिया था

"मुझे तो मरने पर गर्व है, गर्व है कि मैं अपने देश को आज़ाद करा पाऊँगा। मुझे आशा है कि जब मैं चला जाऊँगा तो मेरे जैसे हज़ारों मेरी जगह लेंगे और तुम्हारे जैसे घटिया कुत्तों को अपने देश से निकाल बाहर करेंगे; देश को आज़ाद कराएँगे।"

सरदार उधम सिंह (26 दिसम्बर 1899 से 31 जुलाई 1940) का नाम भारत की आज़ादी की लड़ाई में पंजाब के क्रान्तिकारी के रूप में दर्ज है। उन्होंने जलियाँवाला बाग कांड के समय पंजाब के गर्वनर जनरल रहे माइकल ओ’ ड्वायर को लन्दन में जाकर गोली मारी। (नोट: कुछ लोग ओ’ड्वायर को जनरल डायर समझ लेते हैं। जनरल डायर ने गोलियाँ चलाने का हुक्म दिया था, वहीं माइकल ओ’ड्वायर ने जनरल डायर को जलियाँवाला बाग़ में ऐसा करने का आदेश दिया था। डायर बाद में पैरालिसिस से मारा गया।)

कैसे मारा ओ’ड्वायर को

उधम सिंह अप्रैल 1919 को घटित जलियाँवाला बाग नरसंहार के प्रत्यक्षदर्शी थे। राजनीतिक कारणों से जलियाँवाला बाग में मारे गए लोगों की सही संख्या कभी सामने नहीं आ पाई। इस घटना से वीर उधम सिंह तिलमिला गए और उन्होंने जलियाँवाला बाग की मिट्टी हाथ में लेकर माइकल ओ डायर को सबक सिखाने की प्रतिज्ञा ले ली। अपने मिशन को अंजाम देने के लिए उधम सिंह ने विभिन्न नामों से अफ्रीका, नैरोबी, ब्राजील और अमेरिका की यात्रा की। सन 1934 में उधम सिंह लंदन पहुँचे और वहाँ 9, एल्डर स्ट्रीट कमर्शियल रोड पर रहने लगे। वहाँ उन्होंने यात्रा के उद्देश्य से एक कार खरीदी और साथ में अपना मिशन पूरा करने के लिए छह गोलियों वाली एक रिवाल्वर भी खरीद ली। भारत का यह वीर क्रांतिकारी माइकल ओ’ड्वायर को ठिकाने लगाने के लिए उचित वक्त का इंतजार करने लगा।

उधम सिंह को अपने सैकड़ों भाई-बहनों की मौत का बदला लेने का मौका 1940 में मिला। जलियाँवाला बाग हत्याकांड के 21 साल बाद 13 मार्च 1940 को रायल सेंट्रल एशियन सोसायटी की लंदन के कऑक्सटन हाल में बैठक थी, जहाँ माइकल ओ’ड्वायर भी वक्ताओं में से एक था। उधम सिंह उस दिन समय से ही बैठक स्थल पर पहुँच गए। अपनी रिवॉल्वर उन्होंने एक मोटी किताब में छिपा ली। इसके लिए उन्होंने किताब के पृष्ठों को रिवॉल्वर के आकार में उस तरह से काट लिया था, जिससे ओ’ड्वायर की जान लेने वाला हथियार आसानी से छिपाया जा सके।

बैठक के बाद दीवार के पीछे से मोर्चा सँभालते हुए उधम सिंह ने माइकल ओ’ड्वायर पर गोलियाँ दाग दीं। दो गोलियाँ माइकल ओ’ड्वायर को लगी जिससे उसकी तत्काल मौत हो गई। उधम सिंह ने वहाँ से भागने की कोशिश नहीं की और अपनी गिरफ्तारी दे दी। उन पर मुकदमा चला। 4 जून 1940 को उधम सिंह को हत्या का दोषी ठहराया गया और 31 जुलाई 1940 को उन्हें पेंटनविले जेल में फाँसी दे दी गई।


उधम सिंह खुद का नाम मोहम्मद सिंह आजाद लिखते थे 

विदेशों में वे फ्रैंक ब्राजील और बावा सिंह के नाम से रहते रहे, अपनी निजी डायरी में वे अपना नाम सिर्फ मोहम्मद सिंह आजाद (एमएस आजाद) ही लिखते थे। अपने हस्तलिखित पत्रों में उन्होंने एमएस आजाद के नाम के हस्ताक्षर किए थे।

सरदार उधम सिंह के अंतिम शब्द

उधम सिंह के शब्दों में उनके समय के क्रांतिकारियों, करतार सिंह सराभा और भगत सिंह, की प्रतिध्वनि सुनाई देती है। ओ’ड्वायर को मारने से पहले उन्होंने कहा था:

“मुझे फर्क नहीं पड़ता, मरने से मुझे कोई समस्या नहीं है। बुढ़ापे तक इंतज़ार करने का क्या मतलब है? उससे कुछ नहीं होनेवाला। मरना ही है तो जवानी में मरना बेहतर है। ये बेहतर है क्योंकि मुझे पता तो है कि मैं क्या कर रहा हूँ!”

थोड़ी देर रुकने के बाद उन्होंने फिर कहा: “मैं अपनी मातृभूमि के लिए मर रहा हूँ।”

13 मार्च 1940 को दिए गए एक बयान में उन्होंने कहा था:

“मैंने अपना विरोध जताने के लिए गोली चलाई थी। मैंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के भारत में लोगों को भूख से मरते हुए देखा है। मैंने ही वो किया (गोली चलाई)… पिस्तौल तीन या चार बार चली। मैं अपने विरोध के लिए माफ़ी नहीं माँगूँगा। ऐसा करना मेरा कर्म था। थोड़ा और बढ़ा दो (मेरी सज़ा)। सिर्फ इसलिए कि मैंने अपनी मातृभूमि के लिए ये विरोध किया, मुझे इस सज़ा से कोई समस्या नहीं। दस, बीस या पचास साल या कि मुझे टाँग ही दो (फाँसी पर)… मैंने अपना कर्म किया है।”

जब जज एटकिन्सन ने पूछा कि उन्हें ‘क्यों ना उन्हें कानून के मुताबिक़ सज़ा दी जाए ‘, तो उन्होंने कहा:

मैं कहता हूँ ब्रिटिश साम्राज्यवाद का नाश हो। तुम कहते हो भारत में शांति नहीं है! हमारे हिस्से सिर्फ ग़ुलामी है। तथाकथित सभ्यताओं की पीढ़ी दर पीढ़ी ने हमारे हर तरह के घटिया और नीच क़िस्म के अत्याचार किए। तुम्हें बस ये करना है कि अपना इतिहास पलट कर पढ़ लो। अगर तुम्हारे अंदर रत्ती भर भी मानवीय शालीनता है, तो तुम्हें शर्म से मर जाना चाहिए। जिस क्रूरता और रक्तपिपासु प्रवृति के तथाकथित बुद्धिजीवी हैं और खुद को सभ्यताओं का शासक कहते फिरते हैं, वो दोगले हैं…”

जस्टिस एटकिन्सन: मैं तुम्हारे राजनैतिक भाषण को नहीं सुनने वाला। अगर इस केस से जुड़ी कुछ काम की बात हो, तो कहो।

उधम सिंह: मुझे ये कहना है। मैं विरोध करना चाहता हूँ।
(उधम सिंह ने अपने हाथों में पकड़े काग़ज़ के पन्नों को लहराकर कहा)

जस्टिस एटकिन्सन: क्या वो अंग्रेज़ी में है?

उधम सिंह: मैं तो पढ़ रहा हूँ तुम्हें बख़ूबी समझ में आएगा।

जस्टिस एटकिन्सन: मुझे बेहतर समझ में आएगा अगर तुमने मुझे वो पढ़ने को दे दिया।

उधम सिंह: मैं चाहता हूँ कि पूरी ज्यूरी इसे सुने।

जस्टिस एटकिन्सन: तुम ये जान लो कि तुम जो भी कह रहे हो, उसमें से कुछ भी प्रकाशित नहीं किया जाएगा। जो भी कहना है केस के संदर्भ में संक्षिप्त रूप में कहो। चलो, बोलो।

उधम सिंह: मैं विरोध कर रहा हूँ। यही मेरा मानना है। मैं तो उस भाषण के संदर्भ में निर्दोष हूँ। ज्यूरी को उस भाषण को लेकर बहलाया गया है। मैं अब इसे पढ़ रहा हूँ।

जस्टिस एटकिन्सन: ठीक है, पढ़ो। और ध्यान रहे उतना ही बोलो कि ‘क्यों ना तुम्हारे ऊपर कानून के हिसाब से सज़ा सुनाई जाए।’

उधम सिंह: (चिल्लाते हुए) मुझे सज़ा से कोई लेना-देना नहीं। ये मेरे लिए कोई मतलब नहीं रखता। मुझे मौत या किसी अन्य चीज़ से फ़र्क़ नहीं पड़ता। मुझे रत्ती भर भी चिंता नहीं है। मैं एक उद्देश्य के लिए मर रहा हूँ। (कटघरे पर ज़ोर-ज़ोर से हाथ मारकर आवाज़ करते हुए उधम सिंह बोलते रहे) हम इस ब्रिटिश साम्राज्य से त्रस्त हैं। (धीमी आवाज़ में पढ़ना जारी रहा) मुझे मरने से डर नहीं लगता। मुझे तो मरने पर गर्व है, गर्व है कि मैं अपने देश को आज़ाद करा पाऊँगा। मुझे आशा है कि जब मैं चला जाऊँगा तो मेरे जैसे हज़ारों मेरी जगह लेंगे और तुम्हारे जैसे घटिया कुत्तों को अपने देश से निकाल बाहर करेंगे; देश को आज़ाद कराएँगे।

मैं एक अंग्रेज़ी ज्यूरी के समक्ष हूँ। मैं एक अंग्रेज़ी कोर्ट में हूँ। तुम लोग भारत जाते हो, और जब वहाँ से आते हो तो तुम्हें पुरस्कार दिया जाता है और हाउस ऑफ कॉमन्स में चुना जाता है। जब हम इंग्लैंड में आते हैं, तो हमें मौत की सज़ा सुनाई जाती है!

मेरा कोई मतलब था ही नहीं; लेकिन मैं इसे भी स्वीकार करूँगा। मुझे इसके किसी भी हिस्से से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। लेकिन जब तुम्हारे जैसे नीच कुत्ते भारत आएँगे, तो एक समय आएगा जब तुम्हारा भारत से सफ़ाया हो जाएगा। तुम्हारा सारा ब्रिटिश साम्राज्यवाद चकनाचूर कर दिया जाएगा।

भारत की सड़कों पर मशीनगनें हजारों गरीब औरतों और बच्चों को मार देती है, ताकि तुम्हारे तथाकथित प्रजातंत्र और ईसाइयत का ध्वज लहराता रहे।

तुम्हारा व्यवहार, तुम्हारा व्यवहार– मैं ब्रिटिश सरकार की बात कर रहा हूँ। मुझे ब्रिटिश लोगों से कोई रंजिश नहीं है। मेरे तो भारत की अपेक्षा ज्यादा अंग्रेज़ मित्र यहाँ हैं। मुझे इंग्लैंड के मज़दूरों से सहानुभूति है। मैं इस साम्राज्यवादी सरकार के ख़िलाफ़ हूँ।

आप लोग तो स्वयं पीड़ित हैं, जो मज़दूर हैं। हर कोई इन गंदे कुत्तों से पीड़ित है; ये पागल जानवर हैं। भारत (में) सिर्फ ग़ुलामी है। क़त्लेआम, लाशों के टुकड़े करना, तबाही फैलाना – यही ब्रिटिश साम्राज्यवाद है। लोग इन बातों को अख़बारों में नहीं पढ़ते। हमें पता है कि भारत में क्या हो रहा है।

जस्टिस एटकिन्सन: मैं अब और नहीं सुनने वाला।

उधम सिंह: तुम और नहीं सुनना चाहते क्योंकि तुम मेरे भाषण को सुनते-सुनते थक गए हो, क्यों? मुझे अभी और भी बहुत कुछ कहना है।

जस्टिस एटकिन्सन: मैं उस बयान से एक भी शब्द और नहीं सुनने वाला।

उधम सिंह: तुमने पूछा कि मुझे और क्या कहना है। मैं कह रहा हूँ। क्योंकि तुम लोग नीच हो। तुम्हें ये नहीं सुनना कि तुम भारत में क्या कर रहे हो।

फिर उधम सिंह ने अपनी ऐनक जेब में रखी और तीन शब्द हिन्दुस्तानी में कहे। और फिर ज़ोर से चिल्लाकर कहा ‘डाउन विथ ब्रिटिश इम्पीरियलिज़्म, डाउन विथ ब्रिटिश डर्टी डॉग्स!’ फिर जब वो जाने के लिए मुड़े तो सॉलिसिटर की टेबल पर थूक दिया। जब वो कठघरे से बाहर आ गए तो जज ने प्रेस से कहा:

“मैं प्रेस को ये निर्देश देता हूँ कि इस बयान का कोई भी हिस्सा रिपोर्ट ना किया जाए जो कि अभियुक्त ने कटघरे से कहा। क्या आप समझ रहे हैं, प्रेस के मेम्बरान?”

(इस लेख का कुछ हिस्सा विकिपीडिया से लिया गया है। साथ ही, कोर्ट रूम के भीतर की जिरह का अनुवाद अजीत भारती ने अंग्रेज़ी से हिन्दी में किया है।)

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ऑपइंडिया स्टाफ़
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कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया

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