लाशों के सहारे पोस्ट लिखते रहने की फेसबुकी रवीश कुमार की उम्मीद!

फेसबुक पोस्ट (लाल घेरे में) जिसमें रवीश कुमार उम्मीद से होते हुए नज़र आए

रवीश कुमार उम्मीद से हैं। उन्होंने अपने एक फेसबुक पोस्ट में लिखा; उम्मीद है आपमें से कोई आईपीएल नहीं देख रहा होगा। इस वक़्त इससे अश्लील और क्या हो सकता है। इतना तो भरोसा कर ही सकता हूँ आप लोगों पर।

उम्मीद और रवीश कुमार का साथ चोली दामन का रहा है। यह बता पाना बहुत मुश्किल है कि उम्मीद रवीश कुमार से चिपकी पड़ी है या रवीश कुमार उम्मीद से। कहने का अर्थ कि; इस साथ में रवीश कुमार चोली हैं या दामन, यह शोध का विषय है। उनके इस फेसबुक पोस्ट से यह भी पता चला कि वे अपने फॉलोअर्स पर विश्वास भी करते हैं और इस विश्वास के तहत मानते हैं कि उनकी तरह ही उनके फॉलोअर्स भी एक क्रिकेट लीग को अश्लील समझते होंगे। मतलब एक ऐसा समानांतर ब्रह्मांड है, जिसमें एक सेलिब्रिटी एडिटर किसी खेल और उसके प्रसारण को न केवल खुद अश्लील समझता है बल्कि अपने फॉलोअर्स द्वारा भी उसे अश्लील समझने का विश्वास करता है। 
 
यह विश्वास की पराकाष्ठा है।   

हिसाब लगाया जाए तो रवीश कुमार लगभग ढाई दशकों से उम्मीद से हैं। कभी इस उम्मीद से तो कभी उस उम्मीद से। हाल यह है कि प्रसिद्ध मुहावरा; उम्मीद पर तो दुनिया कायम है को अब; उम्मीद पर तो रवीश कुमार कायम हैं, ने रिप्लेस कर दिया है। यह बात अलग है कि इतने वर्षों तक उम्मीद से रहने के बावजूद उन्होंने कभी खुद को उम्मीदवार घोषित नहीं किया। शायद इसीलिए उम्मीदवार बनने के महत्वपूर्ण काम के लिए उन्होंने अपने भाई से उम्मीद लगाई।   

ढाई दशकों तक उम्मीद से रहने का परिणाम यह हुआ है कि उनके उम्मीदों की लिस्ट लगातार बड़ी होती जा रही है। एक उम्मीद से बोर हो लेते हैं तो दूसरी उम्मीद चुन लेते हैं। दूसरी से बोर होते हैं तो तीसरी चुन लेते हैं। कभी किसी पुरानी उम्मीद से बोर नहीं होते तो नई उम्मीद खुद ब खुद आकर सामने खड़ी हो जाती है। मानो कह रही हो; मैं नई उम्मीद हूँ, अब इस पुरानी को छोड़कर मुझसे चिपक लो। रवीश उसे अपना लेते हैं और कुछ दिनों तक उसी से रहते हैं।

उनकी उम्मीदों की कैटेगरी भी तरह-तरह की हैं जैसे राजनीतिक उम्मीद, सामाजिक उम्मीद, धार्मिक उम्मीद, व्यक्तिवादी उम्मीद, कम्युनल उम्मीद, सेक्युलर उम्मीद, जातिवादी उम्मीद, घातवादी , फलित उम्मीद वगैरह वगैरह। समय और ग्रहों के प्रभाव में इनमें से कुछ को रवीश कुमार ने चुना और कुछ ने उन्हें चुन लिया। ऐसे ही चुनावी नतीजों के फलस्वरूप उम्मीद पर तो रवीश कुमार कायम हैं नामक मुहावरे का जन्म हुआ।
     
रवीश कुमार की यह उम्मीद यात्रा साल 2007 में शुरू हुई और अभी तक जारी है। उनकी पहली उम्मीद उस वर्ष गुजरात विधानसभा चुनावों के परिणाम स्वरूप कान्ग्रेस की जीत थी। यह बात अलग है कि उनकी केवल यह उम्मीद नहीं बल्कि उसके अगले तीन एडिशन भी बेकार गए। अपने अनुभव का फायदा उठाते हुए वे खुद को समय-समय पर नई उम्मीदों के साथ बाँधते गए और उम्मीद ने भी उनका साथ नहीं छोड़ा। हर दो-चार महीने में नई उम्मीदें आती गईं और रवीश उन्हें गले से लगाते रहे।  

राजनीतिक उम्मीद कैटेगरी के अलावा व्यक्तिवादी कैटेगरी वाली उनकी उम्मीदें भी उनसे खूब चिपकीं। परिणाम स्वरुप उन्होंने अरविन्द केजरीवाल से लेकर कन्हैया कुमार और उमर खालिद से लेकर अखिलेश यादव तक, हर किसी से उम्मीद लगाई। आगे जाकर राहुल गाँधी के प्रधानमंत्री बनने की उम्मीद से लेकर नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री न बनने की उम्मीद के बीच वे दीवार घड़ी के पेंडुलम की तरह झूलते रहे। उम्मीदें कम नहीं हुईं और रवीश कुमार उम्मीद से रहते गए। 

वे जिन सामाजिक उम्मीदों से रहे उनमें नोटबंदी के कारण जनता में विद्रोह की उम्मीद से लेकर दर्शकों द्वारा ढाई महीने टीवी न देखने की उम्मीद बहुत प्रसिद्ध हुई। कभी किसी की ‘जात’ जान लेने की उम्मीद ने तो उन्हें उम्मीदी ब्रह्मांड का चक्रवर्ती सम्राट बना दिया। इतने वर्षों की उम्मीद का असर है कि आज वे उम्मीद में सफलता और असफलता को नहीं देखते। सफलता मिली तो इसी उम्मीद से रहो और असफलता मिले तो कोई नई उम्मीद चुन लो जैसे दर्शन ने उन्हें उम्मीद के इस धंधे में टिकाए रखा।   

आज वे फिर उम्मीद से हैं। उन्हें उम्मीद है कि कोरोना की जिस दूसरी लहर ने उन्हें लखनऊ को लाशनऊ लिखने के लिए प्रेरित किया वह लहर कभी भारत से जाएगी ही नहीं। और ऐसा हुआ तो न केवल जलती लाशों को आगे रखकर फेसबुक पोस्ट में क्रिएटिविटी दिखाने की उम्मीद बनी रहेगी बल्कि वे फॉलोअर्स द्वारा आईपीएल को न देखने टाइप उम्मीद से भी रह सकते हैं।