जब भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद को भी करनी पड़ी थी ‘घर-वापसी’… ‘क्रांतिदूतों’ की दास्ताँ की छठी क़िस्त, शुरू से अंत तक बाँधे रखती है स्वतंत्रता आंदोलन की अनछुई कहानियाँ

सिर्फ भगत सिंह ही नहीं, बल्कि कई क्रांतिकारियों की कहानी है 'क्रांतिदूत', अब आई इस श्रृंखला में 'घर वापसी'

भारतीय सशस्त्र क्रांति के नायकों से परिचित करवाती ‘क्रांतिदूत’ शृंखला की पुस्तकों में एक कड़ी और जुड़ गई है। ‘सर्वभाषा ट्रस्ट प्रकाशन’ से प्रकाशित होने वाली ‘क्रांतिदूत’ शृंखला की छठी कड़ी है – ‘घर वापसी’। भावनाओं को शब्दों में लिखने की जो कला है, वो डॉ मनीष श्रीवास्तव जी को बहुत अच्छे से आती है। ‘क्रांतिदूत’ शृंखला में उनका लेखन जैसे हर एक कड़ी के साथ निखरता ही जा रहा है। क्रांति नायकों की भावनाओं से पाठकों को जोड़ने का कार्य जो उन्होंने इस शृंखला के माध्यम से किया है, वो शायद साहित्य जगत में अब तक किसी ने नहीं किया है।

यही कारण है कि उनकी ये पुस्तक शृंखला पाठकों में अत्यधिक लोकप्रिय है। लगभग 150 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 349 रुपए है, जिसे ऑनलाइन माध्यमों अथवा प्रकाशक से क्रय किया जा सकता है। ‘घर वापसी’ कथा है क्रांति पथ पर निकले उन नायकों की जिन्होंने भारत भूमि की सेवा में अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। उन्होंने माँ की ममता, पिता का संसार और अपनी दुनिया का त्याग करके इस राष्ट्र के लिए एक उज्ज्वल भविष्य की चिंता में अपना जीवन लगा दिया।

लेकिन, रिश्तों के बंधन इतनी सरलता से छोड़े नहीं छूटते, उनकी याद इन्हें एक बार वापसी के लिए मना ही लेती है। भगत सिंह के घर त्यागने से उनकी दादी को लगा कि उनके द्वारा विवाह की ज़िद करने के कारण उनका भगत घर छोड़कर चला गया है। उनकी दादी इस बात से परेशान होकर बीमार रहने लगीं, तब भगत सिंह को वापस लौटना ही पड़ा। घर त्यागने से लेकर घर वापसी तक के जीवन में भगत सिंह में कई परिवर्तन हो चुके थे।

कानपुर में उन्हें गणेश शंकर विद्यार्थी जैसा गुरु मिल चुका था, तो चंद्रशेखर आज़ाद और बटुकेश्वर दत्त जैसा साथी भी मिला था। यहीं उनका परिचय ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ से हुआ, जो भविष्य में उनकी दिशा और दशा तय करने वाला था। कुछ समय कानपुर में रहकर उन्होंने प्रताप प्रेस के लिए काम किया, जहाँ उन्हें अपने विचारों को रखने का मौका मिला। यहीं दल के लिए काम करते हुए उन्होंने पुलिस का ध्यान अपनी ओर खींच लिया और फिर उन्हें कानपुर छोड़ना पड़ा।

‘क्रांतिदूत’ शृंखला में अब तक भगत सिंह, सुखदेव, यशपाल आदि शिष्य बनते आए हैं और जयचंद्र विद्यालंकार, भाई परमानंद आदि उनके गुरु हैं। कानपुर से निकलकर भगत सिंह अलीगढ़ आ गए हैं और यहाँ वो नेशनल स्कूल में प्रधानाचार्य हैं। अब वो स्वयं गुरु हैं और अब उनके कंधे पर ये जिम्मेदारी आ गई है कि भविष्य के युवाओं के लिए वे स्वयं मार्ग तैयार करें। यहाँ वो समय निकालकर अपने विद्यार्थियों को अनुशीलन समिति के कार्यों के बारे में बताते हैं।

वो बताते हैं कैसे प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस की मृत्यु का बदला लिया गया और कैसे श्रीश चंद्र पॉल और श्रीश मित्रा ने रोडा कांड को अंजाम दिया। इन सब को पढ़ते हुए आँखों के सामने एक बड़े परदे पर किसी फिल्म को देखने जैसा अनुभव हो रहा था। हमें इन क्रांतिदूतों के आदर्शों को इनके कारनामों को और अधिक जानने की जिज्ञासा होती है। पर तभी भगत सिंह को अपनी दादी के बीमार होने का संदेश प्राप्त होता है और वो घर के लिए निकल जाते हैं।

जिस समय भगत सिंह अपनी दादी की सेवा में लगे थे इधर काकोरी कांड हो जाता है। योजना से जुड़े सभी साथियों को पुलिस ने पकड़ लिया होता है और उन्हें फाँसी की सजा सुना दी जाती है। केवल चंद्रशेखर आज़ाद पुलिस की पकड़ से बहुत दूर कहीं अज्ञातवास में अपना जीवन व्यतीत कर रहे होते हैं। अज्ञातवास में चंद्रशेखर आज़ाद के कारनामे सबसे अधिक अचंभित करने वाले हैं। आज़ाद जी का स्वाभिमान, उनका बचपन और उनकी मित्रता के किस्से पढ़ते हुए आप पलकें झपकाना भूल जाते हैं।

जिस समय काकोरी षड्यंत्र मामले में पुलिस उन्हें हर दिशा में ढूँढ रही थी चंद्रशेखर आज़ाद जी डिप्टी पुलिस अधिकारी से अपने लिए चरित्र प्रमाणपत्र बनवा लाए थे। अज्ञातवास में रहते हुए उन्होंने गैरेज में मेकेनिक का काम ढूँढ लिया था और वहीं मजदूरों की बस्ती में रहने लगे थे। बस्ती के मजदूरों को काबुलीवाला पठान उधार पैसे देता था और उनसे मनमाना ब्याज वसूलता था। एक बार उसका सामना हरिशंकर तिवारी से हो गया। अब आप पूछेंगे कि हरिशंकर तिवारी कौन है?

तो उसके लिए तो आपको किताब पढ़नी ही पड़ेगी। एक मित्र इस शृंखला में आने वाले सभी क्रांतिदूतों के नामों की सूची बनाते हैं, इस बार हमारा भी विचार बना की सभी के नाम लिखें जाएँ। लगभग 50 नामों को हमने लिखा भी, फिर गिनती करना छोड़ दिया। हर क्रांतिदूत की एक अलग कहानी है और उन सब की कहानियों से हमें जोड़तीं है मनीष श्रीवास्तव जी की लिखीं ‘क्रांतिदूत’ शृंखला की ये पुस्तकें। ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ की शुरुआत कैसे हुई और इसका मसौदा किसने तैयार किया?

जब अनुशीलन समिति पहले से ही सशस्त्र क्रांति के नायकों के संगठन का कार्य सँभाल रही थी, तब हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की क्या आवश्यकता थी? ऐसे कई प्रश्न उठेंगे आपके मन में और उन सभी के उत्तर इस शृंखला में मिलते जाएँगे। डॉ मनीष श्रीवास्तव का लेखन भावनात्मक है, केवल इस शृंखला के लिए ही नहीं इससे पहले लिखी गयीं पुस्तकों में भी उनकी यही शैली रही है। पिछली पुस्तकों में जहाँ प्रेम और खालीपन में उलझे रिश्ते हैं, यौन शोषण से बच्चे के मन पर पड़े गहरे घाव हैं, वहीं ‘क्रांतिदूत’ कहानी है उन नायकों की जिन्होंने भविष्य के लिए अपने वर्तमान को खो दिया।

‘घर वापसी’ आपको शुरू से अंत तक बाँधे रखती है। आज़ाद जब दस वर्ष बाद अपनी माताजी से मिलने पहुँचते हैं और उनकी गोद में सर रखकर सोते हैं। अपने बेटे के लिए परेशान होती उस माता की ममता आपकी पलकों को भिगो देती है। बस यही है अंतिम घर वापसी, इसके बाद आज़ाद अमर हो गए। ‘क्रांतिदूत’ शृंखला की अगली पुस्तक का इंतजार रहेगा, इंतजार रहेगा भगत और आज़ाद के जीवन से जुड़े किस्सों का, उनके विचारों का और उनकी अपनी कहानी का।

इस कथा में बहुत से क्रांतिदूतों से परिचय हुआ, उन सभी के विषय में और अधिक जानने की जिज्ञासा बनी रहेगी। प्रतीक्षा रहेगी ‘क्रांतिदूत’ की अगली कड़ी ‘यारियाँ’ की!