स्वामी अय्यप्पा के भक्त अब भी 41 दिन की दीक्षा रखते हैं, एक्टिविस्ट्स कहाँ हैं? वामपंथी नैरेटिव को ध्वस्त करती है Malikappuram, कहानी श्रद्धा और आस्था की

केरल के सबरीमाला मंदिर पर बनी फिल्म 'मलिकाप्पुरम' के एक दृश्य में अभिनेता उन्नी मुकुंदन

दक्षिण भारत में मलयालम इंडस्ट्री की फिल्मों के बारे में बात करने पर आपको मोहनलाल की ‘दृश्यम’ (2013) और ‘पुलिमुरुगन’ याद आएगी। जहाँ पहली फिल्म की कई भाषाओं में रीमेक बने, वहीं दूसरी फिल्म ने 150 करोड़ का आँकड़ा मलयालम इंडस्ट्री में पहली बार छुआ। केरल में मम्मूटी, जयराम, सुरेश गोपी और अब फहाद फासिल व दिलकीर सलमान खासे लोकप्रिय हैं। लेकिन, हाल में आई फिल्म ‘मलिकाप्पुरम (Malikappuram)’ ने वो कमाल किया है जो इनमें से कोई भी नहीं कर पाया।

‘मलिकाप्पुरम’ में उन्नी मुकुंदन मुख्य किरदार में हैं, जिन्हें आपने मोहनलाल-जूनियर NTR की तेलुगु फिल्म ‘जनता गैराज’ (2016) में देखा होगा। हालाँकि, इस फिल्म तक वो उससे काफी आगे निकल आए हैं। लेकिन, इस फिल्म की कहानी एक बच्ची के इर्दगिर्द घूमती है। एक बच्ची और उसका एक दोस्त। उसका एक परिवार। सबरीमाला मंदिर में जाकर भगवान अय्यप्पा की पूजा करने की उसकी जिद और भगवान अय्यप्पा में उसकी आस्था।

फिल्म के बारे में बताने या उसकी समीक्षा के नाम पर इतनी अच्छी फिल्म की कहानी बता देना धोखे के समान होगा, इसीलिए इसकी कहानी पर हम उतनी चर्चा नहीं करेंगे। ‘मलिकाप्पुरम’ बताती है कि केरल के लोगों ने भगवान अय्यप्पा के प्रति कितनी श्रद्धा है। उनकी दीक्षा लेने और फिर सबरीमाला मंदिर तक का सफर तय करना लोगों के लिए क्या मायने रखता है। साथ ही ये फिल्म इसके इर्दगिर्द चल रहे प्रोपेगंडा को भी ध्वस्त करता है।

आपको तृप्ति देसाई याद होगी, जिसे मीडिया ने एक्टिविस्ट बता कर प्रचारित किया था और वो भगवान अय्यप्पा की भक्त न होने के बावजूद कैसे सबरीमाला मंदिर में न सिर्फ घुसने की चेष्टा कर रही थी, बल्कि बिना किसी साक्ष्य के मंदिर के खिलाफ दुष्प्रचार कर वहाँ के नियमों को महिला विरोधी साबित करने में तुली थी। इन नास्तिकों को न तो हिन्दू धर्म में रुचि थी, न ही मंदिर में दर्शन से इन्हें कोई लेना-देना था और न इनका उद्देश्य महिला हित का था।

आखिरकार सबरीमाला मंदिर के मामले को घसीट कर सुप्रीम कोर्ट ले जाया गया और सुप्रीम कोर्ट ने 4:1 से फैसला दिया कि यहाँ महिलाओं को अनुमति दी जाए। बात महिला-पुरुष की थी ही नहीं। इसके बाद कुछ एक्टिविस्ट्स को यहाँ वामपंथी राज्य सरकार की पुलिस की मदद से घुसाया भी गया। क्या इन एक्टिविस्ट्स ने 41 दिनों का व्रत रखा, दीक्षा ली और अन्य नियमों का पालन किया? या फिर इसे भी सुप्रीम कोर्ट अवैध घोषित कर देगा?

आजकल तृप्ति देसाई कहाँ हैं? क्या उन्हें भगवान अय्यप्पा याद आते हैं? क्या उनके घर में स्वामी अय्यप्पा की तस्वीर है? असल में ‘मलिकाप्पुरम’ इसी तरह के प्रोपेगंडा को ध्वस्त करती है। इस फिल्म की केंद्रीय किरदार एक छोटी सी बच्ची है। उसे सपने में भी भगवान अय्यप्पा नजर आते हैं, घर में भी सभी उनके भक्त हैं। वो अपनी दादी से अय्यप्पा की कथाएँ सुनती हैं। उसे सबरीमाला मंदिर जाने के सारे रूट और जिन नियमों का पालन करना पड़ता है वो सब पता हैं।

एक बच्ची, भगवान अय्यप्पा की सबसे बड़ी भक्त। एक बच्ची, जो पूरी श्रद्धा के साथ सबरीमाला मंदिर जाती है। फिर इस मंदिर को महिला विरोधी कैसे बता दिया गया? ‘मलिकाप्पुरम’ न सिर्फ केरल के लोगों में भगवान अय्यप्पा के प्रति आस्था को दिखाती है, बल्कि ‘God’s Own Country’ की सुंदरता को भी प्रदर्शित करती है। वहाँ के हिन्दू रीति-रिवाजों को बताती है। ये दिखाती है कि ‘मुस्लिम लीग’ या सत्ता में वामपंथी प्रभुत्व भगवान परशुराम की इस भूमि की पहचान नहीं है।

फिल्म के अभिनेता उन्नी मुकुंदन का ये सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शनों में से एक है। जो बच्ची मुख्य किरदार में है, उसने काफी अच्छा अभिनय किया है। हाल ही में हम सबने ऋषभ शेट्टी की कन्नड़ फिल्म ‘कांतारा’ को खासा प्यार दिया था। ‘कांतारा’ ने कर्नाटक की वनवासी हिन्दू संस्कृति को दिखाया था। इसी तरह ये फिल्म केरल की हिन्दू संस्कृति को दिखाती है। जैसे ये नैरेटिव फैलाया जाता है कि जनजातीय समाज हिन्दू नहीं है, कल को वामपंथी ये भी कह सकते हैं कि अय्यप्पा के भक्त हिन्दुओं से अलग हैं।

ये कोशिश तो दशकों से होती आ रही हैं। दलितों को हिन्दुओं से अलग बताया जाता है। तभी तो कॉन्ग्रेस की सरकार ने भगवान शिव की पूजा करने वाले लिंगायत समाज को अलग धर्म का दर्जा देने के नाम पर हिन्दुओं को बाँटने की साजिश रची थी। आपको समुद्र मंथन की कथा याद है? देवताओं-दानवों ने मिल कर समुद्र मथा और अंत में जब अमृत निकला तो असुरों को इस तक पहुँचने से रोकने के लिए भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण किया।

अय्यप्पा को इन्हीं मोहिनी और शिव का पुत्र माना जाता है। सबरीमाला के भक्त भगवान गणेश की पूजा करते हैं, फिर विष्णु-शिव की बड़ी-बड़ी प्रतिमाएँ दिखाती देती हैं। उनकी स्तुति होती है। इस फिल्म में इन चीजों को बारीकी से दिखाया गया है। एक सीधी-सादी कहानी, जिसमें भर के इमोशन हैं। ‘मलिकाप्पुरम’ हर एक भारतीय को देखना चाहिए। असम का कोई व्यक्ति सबरीमाला की दीक्षा ले और केरल से एक जत्था कामाख्या मंदिर आए, यही तो भारत है।

कामाख्या मंदिर से याद आया। नीलांचल पर्वत पर स्थित इस शक्तिपीठ के बारे में कहा जाता है कि यहाँ माँ सती की योनि गिरी थी। माँ के माहवारी के दिनों में जो उत्सव होता है, उस दौरान यहाँ पुरुषों की एंट्री नहीं होती। उस अवधि में मंदिर की मुख्य पुजारी भी एक महिला होती है। इससे क्या ये मंदिर पुरुष विरोधी हो गया? सबरीमाला मंदिर में भी बच्चियाँ और बुजुर्ग महिलाएँ दर्शन करती आई हैं। हर स्थल के एक नियम-कानून होते हैं, उसका पालन किया जाना चाहिए।

जब हम विद्यालयों से लेकर शौचालयों तक में इसका पालन कर सकते हैं और हजारों वर्षों से जो मंदिरों में चला आ रहा है, उसे आधुनिकता के नाम पर भंग कर के करोड़ों लोगों की आस्था से खिलवाड़ क्यों करना होता है? Hotstar पर ‘मलिकाप्पुरम’ हिंदी में भी उपलब्ध है। इसे ज़रूर देखिए, खासकर जंगल में उस दृश्य के लिए जब स्वयं भगवान अय्यप्पा बच्चों की रक्षा करते हुए दिखते हैं। स्थानीय थानाध्यक्ष हनीफ भी भक्त है और उसे भी ‘स्वामी’ कह कर बुलाया जाता है।

बिहार-झारखंड के लोगों को ये अच्छे से पता है कि जब गाँवों से जत्था बैद्यनाथ धाम (बाबा धाम) के दर्शन के लिए देवघर को निकलता है तो एक समान भगवा वस्त्र में काँवर लिए होते हैं और एक-दूसरे को ‘बम’ बुलाते हैं। इस दौरान पशु-पक्षी भी ‘बम’ होते हैं। वैसे ही, फिल्म में सबरीमाला के यात्री एक-दूसरे को ‘स्वामी’ कहते हैं। ये जातिगत या किसी प्रकार के भेदभाव को खत्म करता है। ईश्वर का हर भक्त देवघर में ‘बम’ और सबरीमाला में ‘स्वामी’ होता है।

अनुपम कुमार सिंह: चम्पारण से. हमेशा राइट. भारतीय इतिहास, राजनीति और संस्कृति की समझ. बीआईटी मेसरा से कंप्यूटर साइंस में स्नातक.