ओडिशा के सूर्यवंशी गजपति राजा, जिन्होंने तेलंगाना तक इस्लामी शासन को उखाड़ फेंका: सरदार पटेल से 575 साल पहले राजा कपिलेंद्र देव ने चटाई थी धूल

कपिलेंद्र देव का राज्याभिषेक( फोटो साभार:टीएफआई)

सरदार वल्लभभाई पटेल की रणनीतिक प्रतिभा को श्रद्धांजलि देते हुए कुछ दिन पहले हमने ‘हैदराबाद मुक्ति दिवस’ मनाया था। वो लौह पुरुष पटेल ही थे, जिन्होंने रजाकारों के उत्पीड़न को खत्म किया था और बहुसंख्यक हिंदुओं इनके उत्पीड़न से बचाया था। रजाकार एक निजी सेना थी, जो हैदराबाद के निजाम मीर उस्मान अली ख़ान के शासन को बनाए रखने और हैदराबाद स्टेट को हाल ही में स्वतंत्र हुए भारत में विलय का विरोध करने के लिए बनाई थी।

यह सेना कासिम रिजवी ने बनाई थी। रजाकारों ने हैदराबाद में हिंदुओं पर अवर्णनीय क्रूरता की थी। लौह पुरुष ने भारतीय सेना की समन्वित एवं निर्णायक कार्रवाई के जरिए बर्बर रजाकारों के उत्पाद को खत्म किया था। इसके साथ ही उस क्षेत्र के बहुसंख्यक हिंदुओं के मन में लंबे वक्त से निज़ाम के शासन से मुक्ति का पल रहा सपना सच हो गया था।

आश्चर्य की बात है कि इसी क्षेत्र में लगभग 575 साल भी ऐसी ही ऐतिहासिक समानता वाली एक घटना सामने आई थी। तब यहाँ अलाउद्दीन अहमद शाह द्वारा शासित दुर्जेय बहमनी सल्तनत हुआ करती थी। ये बहमनी सल्तनत दक्कन का इस्लामी राज्य था। उसके शासनकाल के दौरान सन 1448 तक तेलंगाना का लगभग पूरा क्षेत्र उसके कब्जे में आ गया था। उसकी ये जीत स्थानीय हिंदू प्रमुखों के वहाँ से जबरन खदेड़ने के बाद हुई, जबकि ये लोग इस क्षेत्र के खासे प्रभावशाली लोग थे।

इस दौरान अहमद शाह ने अधिकांश तेलंगाना को अपने कब्जे में रखते हुए संजर खान को इस क्षेत्र का गवर्नर नियुक्त किया। खान स्थानीय हिंदुओं से गहरी नफरत रखता था और उनके लिए एक क्रूर तानाशाह साबित हुआ। उसने हिंदुओं को पकड़ा और उन्हें गुलामी शुरू कर दिया (मुखर्जी प्रभात, उड़ीसा के गजपति राजाओं का इतिहास, पेज 29)। उसकी क्रूरता का खामियाजा अधिकतर औरतों और बच्चों को भुगतना पड़ा। उसके शासनकाल के दौरान हिंदू लगातार गुलामी के डर में जीते थे।

इस बीच ओडिशा साम्राज्य में महत्वपूर्ण घटनाएँ घट रही थीं। यहाँ गजपति राजवंश के सूर्यवंशी क्षत्रिय कपिलेंद्र देव के रूप में एक शक्तिशाली और दूरदर्शी शासक का उदय हुआ। इस्लामी राज्यों के खिलाफ रक्षात्मक रवैया अपनाने वाले अपने कई समकालीनों के उलट कपिलेंद्र देव दुश्मन के इलाके में लड़ने यानी हमला करने में विश्वास करते थे।

ओडिशा में अपनी राजधानी कटक और उसके आसपास के 5-6 जिलों को मिलाकर अपेक्षाकृत मामूली राज्य की स्थापना की थी। लेकिन, सन 1448 ईस्वी तक उन्होंने आज के आंध्र प्रदेश में कृष्णा नदी तक अपने राज्य का विस्तार कर लिया। अपने साम्राज्य का दायरा बढ़ाने के रास्ते में कपिलेंद्र देव ने बंगाल और मालवा की सल्तनत को कुचल डाला और उन्हें अपने क्षेत्र में मिला लिया।

महाराजा कपिलेंद्र देव बहमनियों की सीमा से सटे होने के कारण उनके प्रभुत्व से अनजान नहीं थे और जानते थे कि तेलंगाना में क्या हो रहा है। इसलिए, बहमनियों के साथ संघर्ष केवल समय की बात थी। सुल्तान अहमद शाह दुर्जेय गजपति सेना की सैन्य ताकत से अच्छी तरह परिचित था। उसे पता था की कि इसमें 2 लाख हाथियों को शामिल किया जाता था। (मोहपात्रा आर पी, उड़ीसा का सैन्य इतिहास, पेज 122)।

हालाँकि यह अतिशयोक्ति लग सकती है, लेकिन उड़िया सेना में वास्तव में हाथियों की काफी संख्या थी। यही वजह रही कि इसके राजाओं को “गजपति” उपनाम मिला। सुल्तान अहमद शाह जानता था कि उसका गजपति सेना से कोई मुकाबला नहीं है। इसलिए उसने जिद्दी संजर खान को सलाह दी की कि वह “हाथियों के स्वामी” (इंडियन एंटीक्वेरी वॉल्यूम XXVIII पेज 237) के साथ उलझने से बचे। शाह जानता था कि खान इसके काबिल नहीं है।

घमंडी संजर खान ने सुल्तान की यह सलाह अनसुनी कर दी। उसने गजपति सेना के साथ युद्ध का बिगुल बजा डाला। गजपति सेना तो पहले से ही तैयार थी और बहमनियों पर हमला करने के मौके का बेसब्री से इंतजार कर रही थी। तेलंगाना के आज के खम्मम में भयंकर युद्ध का मंच तैयार हुआ। इस निर्णायक लड़ाई का नेतृत्व राजा कपिलेंद्र देव के बेटे हमवीरा देव ने किया और आखिरकार तानाशाह संजर खान मारा गया (सुब्रमण्यम आर, द सूर्यवंशी गजपति ऑफ उड़ीसा, पेज 49) और अतत: इस क्षेत्र के हिंदुओं ने राहत की साँस ली।

इस जीत ने बहमनी सल्तनत पर राजा कपिलेंद्र के आक्रमणों की एक श्रृंखला की शुरुआत कर दी। राजा कपिलेंद्र देव ने न केवल पूरे तेलंगाना को बहमनियों से मुक्त कराया, बल्कि महाराष्ट्र के आज के नांदेड़ जिले में स्थित माहुर किले को भी उनसे छीन लिया। अन्य महत्वपूर्ण राकाकोंडा, देवरकोंडा, वारंगल (सुब्रमण्यम आर, द सूर्यवंशी गजपति ऑफ उड़ीसा, पेज 54) जैसे और कई किले भी गजपति वंश के कब्जे में आ गए। आखिरकार गजपति सेना ने आज के कर्नाटक में बहमनी साम्राज्य की राजधानी बीदर की घेराबंदी कर दी।

संजर खान के क्रूर शासनकाल को राजा कपिलेंद्र देव के साहसी जवाबी हमलों का सामना करना पड़ा। इसका नतीजा ये हुआ की कि बहमनी राजधानी पर सूर्यवंशी गजपति वंश का कब्ज़ा हो गया (सुब्रमण्यम आर, द सूर्यवम्सी गजपतिस ऑफ़ उड़ीसा, पृष्ठ 58)। यह ऐतिहासिक घटना नव स्वतंत्र भारत की घटनाओं से अद्भुत समानता रखती है। इसी क्षेत्र में रजाकारों ने हिंदू आबादी के खिलाफ जघन्य अत्याचार किए थे। तब सरदार पटेल सामने आए थे और हमने देखा कि कैसे सरदार पटेल की सूझ-बूझ ने रजाकारों का खात्मा कर डाला।

ऐसी ऐतिहासिक घटनाएँ मौजूदा भू-राजनीतिक हालात की गहरी समझ और देश हित के प्रति अटूट प्रतिबद्धता वाले नेताओं की अहमियत की तरफ ध्यान खींचती हैं। हालाँकि, यह याद रखना भी जरूरी है कि ऐसे जवाबी हमलों के लिए सावधानीपूर्वक दीर्घकालिक योजना और वर्षों की तैयारी की जरूरत होती है। हमारा इतिहास अतीत और संभावित रूप से भविष्य में भी ऐसी रणनीतियों को सफलतापूर्वक क्रियान्वयन करने की हमारी काबीलियत का सबूत है।

बदकिस्मती से एक वक्त में पूर्वी तट से उत्तर में पश्चिम बंगाल की हुगली नदी से लेकर दक्षिण में तमिलनाडु के रामेश्वरम तक शासन करने वाले इस महान क्षत्रिय राजा की अहम उपलब्धियों और कामों पर कई वजहों से विद्वानों ने ज्यादा खोजबीन नहीं की। लेखक ने कपिलेंद्र देव की उपलब्धियों को “गजपति कपिलेंद्र देव, 15वीं शताब्दी के भारत के महानतम हिंदू विजेता का इतिहास” नाम की किताब के तौर पर पेश करने की कोशिश की है।

(यह लेख अंग्रेजी में निहार रंजन नंदा ने लिखा है। मूल लेख पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक कर सकते हैं। इसका हिंदी अनुवाद रचना वर्मा ने किया है)

Nihar Ranjan Nanda: Author of the book: Gajapati Kapilendra Deva, The history of the greatest Hindu conqueror of 15th century India