कॉन्ग्रेसी CM और नेहरू के मंत्री हुमायूँ कबीर ने लगाया अड़ंगा, लेकिन एक संघी ने कर दिखाया… वो शख्स, जो न होता तो विवेकानंद शिला स्मारक होता मिशनरी जेवियर का मेमोरियल

RSS के सरकार्यवाह रहे एकनाथ रानडे की वजह से अस्तित्व में आया विवेकानंद शिला स्मारक

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गुरुवार (30 मई, 2024) की शाम को लोकसभा चुनाव 2024 के अंतिम व 7वें चरण के लिए चुनाव प्रचार का शोर थमने के साथ ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तमिलनाडु के कन्याकुमारी स्थित विवेकानंद रॉक मेमोरियल पहुँच रहे हैं, जहाँ 2 दिनों तक वो साधना में मगन रहेंगे। वो उसी जगह पर ध्यान धरेंगे, जहाँ कभी माँ पार्वती ने तपस्या की थी और जहाँ तैर कर पहुँचे स्वामी विवेकानंद ने अपने ‘स्व’ को जागृत किया था। वहीं उनके मन में ‘भारत माता’ का भी विचार आया, जिसने देश को एक किया।

विवेकानंद रॉक मेमोरियल के बारे में बता दें कि भारत की मुख्य भूमि से आधे किलोमीटर की दूरी पर समुद्र में स्थित है। जहाँ विवेकानंद को ज्ञान प्राप्त हुआ, उसी जगह पर 1970 में ये मेमोरियल बनाया गया। उसी शिला पर जहाँ माँ कन्याकुमारी (पार्वती) ने तपस्या की थी, मान्यता है कि आज भी वहाँ उनके चरणों के निशान हैं। कन्याकुमारी ही वो जगह है जहाँ बंगाल की खाड़ी, अरब सागर और हिन्द महासागर का मिलन होता है। इस जगह का अपना एक आध्यात्मिक महत्व है।

क्या आपको पता है आज जो विवेकानंद रॉक मेमोरियल कन्याकुमारी का मुख्य आकर्षण है, उसका निर्माण RSS के सर-कार्यवाह (General Secratary) रहे एकनाथ रानडे ने करवाया था। एकनाथ रानडे ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख भी रहे। उन्होंने ‘विवेकानंद केंद्र’ नामक संस्था की भी स्थापना की। 19 नवंबर, 1914 को जन्मे एकनाथ रानडे का निधन 22 अगस्त, 1982 को हुआ था – अंतिम संस्कार भी कन्याकुमारी के विवेकानंदपुरम में ही किया गया।

एकनाथ रानडे: मानव-निर्माण और राष्ट्र-पुनरुत्थान के नेता

आइए, आपको एकनाथ रानडे और विवेकानंद रॉक मेमोरियल के बारे में और जानकारी देते हैं। एकनाथ रानडे त्याग और सेवा पर बल देते हुए मनुष्य-निर्माण एवं राष्ट्र-पुनरुत्थान के लिए प्रयासरत थे। जब उनका हार्ट अटैक के कारण निधन हुआ, तब वो तब वो मद्रास स्थित अपने दफ्तर में थे और कन्याकुमारी स्थित विवेकानंद केंद्र जाने वाले थे। वो उस दौरान कश्मीर, दिल्ली, अजमेर, मुंबई, अहमदाबाद, नागपुर, पुणे और शोलापुर का दौरा कर के लौटे थे।

इस दौरान वो विवेकानंद केंद्र के शाखाओं का दौरा करते और वहाँ के लोगों से मिलजुल कर उन्हें प्रशिक्षित करते थे। आज पोर्ट ब्लेयर में विवेकानंद केंद्र विद्यालय संचालित हो रहा है, जो उन्हीं की देन है। उत्तर-पूर्व में उन्होंने जनजातीय समाज के उत्थान के लिए काम किया। अरुणाचल प्रदेश के लोहित जिले में स्थित सुदूर तफरागाम तक में उन्होंने विद्यालय खोला। स्वामी विवेकानंद रॉक मेमोरियल के निर्माण में 6 साल लगे। इसका काम 1964 में शुरू हुआ था, जो 1970 तक चला।

11 सितंबर, 1970 को इसका उद्घाटन हुआ। अप्रैल 1980 में एकनाथ रानडे को हार्ट अटैक आया था, लेकिन वो किसी तरह मौत से जूझते हुए इससे बाहर निकले, जिसे डॉक्टरों तक ने चमत्कार बताया। वो इसे अपने दूसरा जीवन मानते थे। उनका जन्म महाराष्ट्र के अमरावती के तिम्ताला में हुआ था। उनके पिता रामकृष्ण स्टेशन मास्टर हुआ करते थे। नागपुर में उनके बड़े भाई काशीनाथ छोटे-मोटे कारोबार करते थे, वहीं उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई।

एकनाथ रानडे का जीवन, विवेकानंद रॉक मेमोरियल के लिए दान संग्रह

मध्य प्रदेश के सागर यूनिवर्सिटी से उन्होंने कानून की परीक्षा पास की थी। 1938 में नागपुर में रहने के दौरान ही वो RSS के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार के संपर्क में आए और उन्हें संघ में बतौर प्रचारक चुना गया। जब पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) से पश्चिमी बंगाल में पलायन का दौर था, उस दौरान एकनाथ रानडे रामकृष्ण मिशन के संपर्क में आए। उन्होंने बंगाली भी सीखी। उस दौरान उन्होंने पूर्वी बंगाल से आए शरणार्थियों की सेवा की।

एकनाथ रानाडे के जीवन की संक्षिप्त में बात करें तो उन्होंने 1920 में नागपुर के फड़णवीसपुरा विद्यालय से प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा हासिल की। 1926 में RSS से जुड़े। 1932 में न्यू इंग्लिश हाईस्कूल से 10वीं की परीक्षा उत्तीर्ण की। 1938 में दर्शनशास्त्र से BA किया। पहले वो जबलपुर में प्रचारक बने, फिर महाकौशल और मध्य प्रदेश में प्रान्त प्रचारक। 1953 में RSS के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख और 1955 में सरकार्यवाह। 1962 में उन्हें संघ का अखिल भारतीय बौद्धिक प्रमुख नियुक्त किया गया।

1963 में उन्होंने स्वामी विवेकानंद की जन्म शताब्दी पर ‘हे हिन्दू राष्ट्र उतिष्ठत! जाग्रत!!’ नामक पुस्तक की रचना की, जिसमें स्वामीजी के विचारों का संकलन था। विवेकानंद रॉक मेमोरियल की स्थापना के लिए किया गया उनका मैराथन प्रयास भी जानने लायक है। उन्होंने देश भर में घूम कर सबसे एक-एक रुपए इकट्ठे करने का अभियान चलाया। जब उनसे किसी ने कहा कि कई लोग हजारों रुपए भी देना चाहते हैं तो उन्होंने कहा कि ये मेमोरियल तो एक अकेला धनी-दानी व्यक्ति भी बनवा सकता है, लेकिन इसका उद्देश्य है अधिकाधिक लोगों तक स्वामी विवेकानंद का सन्देश पहुँचाना।

उनका कहना था कि काम तभी बनेगा जब लोग सिर्फ दान के लिए दान न करें, बल्कि सउद्देश्य की सिद्धि के लिए दान करें। उनका स्पष्ट कहना था कि एक व्यक्ति से सिर्फ एक रुपया ही लिया जाए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज से ही एकनाथ रानडे से परिचित नहीं हैं, बल्कि उन्हें 70 के दशक में उनके साथ काम करने का अनुभव प्राप्त है। उन्होंने 9 नवंबर, 1914 को नई दिल्ली स्थित विज्ञान भवन में एकनाथ रानडे के जन्मशती समारोह में संबोधन देते हुए बताया था कि कैसे विवेकानंद की प्रतिमा की एक-एक डिटेल का उन्होंने ध्यान रखा था।

मसलन, कौन से पत्थर का इस्तेमाल किया जाए जिससे समुद्री हवाओं के बावजूद प्रतिमा लंबे समय तक टिकी रहे, विवेकानंद की आँखें कैसी होनी चाहिए और उनमें क्या दिखना चाहिए, प्रतिमा को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए कौन से केमिकल का इस्तेमाल किया जाए। पीएम मोदी ने बताया था कि उन्होंने हिंदुस्तान के हर कोने के लोगों में ये भावना जगाई कि उन्होंने विवेकानंद रॉक मेमोरियल के लिए योगदान किया है। एकनाथ रानडे विवेकानंद जैसे कई ऊर्जावान युवक तैयार करना चाहते थे।

विवेकानंद रॉक मेमोरियल के पहले चरण का काम 1.20 करोड़ रुपए में पूरा किया गया था। ‘विवेकानंद मंडपम’ के भीतर सभा मंडपम और ध्यान मंडपम हैं। वहीं दक्षिण भारतीय संरचना श्रीपद मंडपम अलग से बनाया गया। एकनाथ रानडे के बारे में एक और बात जानने लायक है कि जब RSS पर महात्मा गाँधी की हत्या के बाद प्रतिबंध लगा था, तो प्रतिबंध हटाने के लिए तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल के साथ गुप्त बातचीत का भी वो हिस्सा थे।

कॉन्ग्रेस नेताओं और मिशनरियों ने डाला व्यवधान

RSS नेता HV शेषाद्रि ने अपनी पुस्तक ‘कृतिरूप संघ-दर्शन‘ में स्वामी विवेकानंद शिला स्मारक के निर्माण के दौरान आए व्यवधानों का जिक्र किया है। उन्होंने लिखा है कि 1963 में जब तमिलनाडु सरकार ने विवेकानंद शिला स्मारक समिति को ये जमीन सौंप दी, उसके बाद वहाँ एक पट्टिका लगाई गई। लेकिन, मिशनरियों ने उसे तोड़ कर उसकी जगह कंक्रीट का बड़ा सा क्रॉस खड़ा कर दिया और गोवा में हिन्दुओं पर अत्याचार करने वाले पुर्तगाल के पादरी जेवियर का स्मारक बनाने की चेष्टा की।

कुछ निडर स्वयंसेवकों ने समुद्र तैर कर पार करने के बाद उस क्रॉस को हटाया। सरकार को वहाँ आसपास धारा-144 लागू करनी पड़ी। मन्नत पद्मनाभन को राष्ट्रीय स्मारक समिति का अध्यक्ष बनाया गया। एक तरह से 1962 ये युद्ध में चीन से हारे भारत के लिए ये विवेकानंद रॉक मेमोरियल संजीवनी बन कर आया। लाखों युवाओं तक स्वामी विवेकानंद की पुस्तकों को पहुँचाया गया। 2 सितंबर, 1970 को तत्कालीन राष्ट्रपति VV गिरी उद्घाटन के दौरान मुख्य अतिथि थे।

ये एकनाथ रानडे का ही कमाल था कि हर विचारधारा के लोग इससे जुड़े और उस कार्यक्रम की अध्यक्षता M करुणानिधि ने की। उस समय हिन्दू विरोधी पेरियार जीवित ही था। अगर एकनाथ रानडे और RSS नहीं होता तो शायद आज उसे कम ‘सेंट जेवियर रॉक’ कह रहे होते और वहाँ जेवियर का स्मारक होता। उस समय भारत के संस्कृति मंत्री रहे हुमायूँ कबीर का कहना था कि इस मेमोरियल के निर्माण से उस जगह की सुंदरता खत्म हो जाएगी।

उस दौरान ईसाई मिशनरियों ने 22 फ़ीट का पत्थर, जिसे स्वामी विवेकानंद से जुड़े कार्यों के लिए लाया गया था, उसे भी तोड़ कर फेंक डाला था। तत्कालीन मुख्यमंत्री भक्तवत्सलम ने भी स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा वहाँ लगाने की अनुमति देने से शुरू में इनकार कर दिया था। एकनाथ रानाडे ने हुमायूँ कबीर से मुलाकात कर के उन्हें मनाया और उनसे CM को पत्र लिखवाया, तब जाकर ये कार्य संपन्न हुआ। इसके लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को 323 सांसदों के हस्ताक्षर भी सौंपने पड़े थे।

अनुपम कुमार सिंह: भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।