दिल्ली यूनिवर्सिटी में ‘रामपंथ’ की ‘वामपंथ’ पर विजय: DUTA अध्यक्ष पद पर NDTF की जीत के बाद बोले प्रोफेसर एके भागी

DUTA के नए अध्यक्ष प्रोफेसर अजय कुमार भागी (बीच में, माला पहने हुए)

दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ (डूटा, DUTA) का चुनाव हुआ। विश्वविद्यालय के शिक्षकों ने नई लकीर खींची, नए अध्यक्ष के रूप में प्रोफेसर अजय कुमार भागी को चुना। नेशनल डेमोक्रेटिक टीचर्स फ्रंट (NDTF: National Democratic Teachers Front) से जुड़े डॉक्टर एके भागी दिल्ली विश्वविद्यालय के दयाल सिंह कॉलेज में प्रोफेसर हैं।

आखिर वो पुरानी लकीर थी क्या? पुरानी लकीर थी वामपंथी या कॉन्ग्रेसी या इन दोनों की गुटबाजी से डूटा के अध्यक्ष पद पर कब्जा जमाना। इस बार वो लकीर मिटा दी गई, अच्छी-खासी मार्जिन से। 24 साल बाद नेशनल डेमोक्रेटिक टीचर्स फ्रंट के खाते में डूटा का अध्यक्ष पद आया। 2021 से पहले डूटा के अध्यक्ष पद पर NDTF की जीत 1997 में हुई थी।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ी NDTF की यह जीत क्यों मायने रखती है? कॉलेज स्तरीय शिक्षा और शिक्षकों के लिए यह जीत क्या संदेश लेकर आई है? स्नातक और उच्चतर शिक्षा की पहुँच कैसे और किन वर्गों के विद्यार्थियों तक सहज-सुलभ हो, इसको लेकर NDTF का विजन क्या है? कुछ ऐसे ही सवालों को लेकर डूटा के नए अध्यक्ष प्रोफेसर अजय कुमार भागी से ऑपइंडिया ने बातचीत की। इस दौरान कुछ दिलचस्प किस्से भी आए, शिक्षा को लेकर वामपंथियों-कॉन्ग्रेसियों के साथ-साथ AAP की राजनीति पर से भी पर्दा हटा… पढ़ा जाए।

ऑपइंडिया सवाल: 1997 के बाद 2021; 24 वर्षों के बाद NDTF ने DUTA का चुनाव जीता। इसे आप कैसे देखते हैं?

प्रोफेसर एके भागी: 1997 में हम लोगों ने डूटा अध्यक्ष पद का चुनाव जीता था। दिल्ली यूनिवर्सिटी में डूटा के अध्यक्ष पद के चुनाव के अलावे और भी बहुत से चुनाव होते हैं। 1997 से लेकर 2021 तक इन चुनावों में NDTF ने एग्जिक्यूटिव काउंसिल (कार्यकारी परिषद) का चुनाव पाँच बार जीता है। इन पाँच बार में पिछले चार बार की बात करें तो जितने भी कैंडिडेट NDTF ने खड़े किए, सभी की जीत हुई है।

डूटा की एग्जिक्यूटिव काउंसिल के अलावे पिछले चार बार के अकेडेमिक काउंसिल में हमने जीतने भी कैंडिडेट चुनाव में उतारे, सभी की जीत हुई है। दिल्ली विश्वविद्यालय की एग्जिक्यूटिव काउंसिल की बात करें या अकेडेमिक काउंसिल की, दोनों ही एक महत्वपूर्ण सांविधिक निकाय (statutory body) है।

दिल्ली यूनिवर्सिटी कोर्ट की एग्जिक्यूटिव काउंसिल का जो चुनाव इस साल मार्च में हुआ, उसमें NDTF की मोनिका अरोड़ा ने सबसे ज्यादा वोटों से जीत दर्ज की थी। इससे पहले दिल्ली यूनिवर्सिटी कोर्ट की एग्जिक्यूटिव काउंसिल के चुनाव में राजेश गोगना, नरेश बेनीवाल, सूर्यप्रकाश खत्री – सभी कैंडिडेट जीतते रहे हैं, कभी कोई हारे नहीं हैं।

कुल मिलाकर दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षकों के प्रतिनिधित्व की जो राजनीति है, उसमें नेशनल डेमोक्रेटिक टीचर्स फ्रंट हमेशा से मजबूत खंभा रहा है। कोर्ट के माध्यम से या कोर्ट की मेंबरशीप के लिए जो एग्जिक्यूटिव काउंसिल के चुनाव हुए हैं, वो सभी चुनाव NDTF के कैंडिडेट या उनके समर्थन वाले कैंडिडेट जीते हैं।

1997 से लेकर 2021 तक केवल अध्यक्ष पद की बात की जाए, जो आपका सवाल है तो यह NDTF के खाते में पहली बार आई है। आँकड़ों की बात करें तो अध्यक्ष पद वाला चुनाव भी NDTF कई बार बहुत ही कम मार्जिन से चूका है। हालाँकि इसके पीछे की राजनीति भी दिलचस्प है। बाकी गुट गठबंधन/समर्थन की राजनीति करके अध्यक्ष पद कब्जाते रहे हैं जबकि एक बार को छोड़ कर NDTF ने हमेशा अध्यक्ष पद का चुनाव अकेले के बूते लड़ा।

NDTF के खिलाफ गठजोड़ की राजनीति

ऑपइंडिया सवाल: बाकी के गुट जब विश्वविद्यालय के स्तर पर होने वाले चुनाव में भी गठबंधन की राजनीति करते हैं तो उनका मुख्य विरोधी कौन होता है?

प्रोफेसर एके भागी: NDTF हमेशा से अकेले चुनाव लड़ता आया है। इसके उलट लगभग सभी गुटों का एक ही लक्ष्य होता है NDTF के खिलाफ किसी को जीत दिलवाना। इसको आप 2019 के डूटा अध्यक्ष पद के चुनाव से समझ सकते हैं।

2019 के डूटा चुनाव में कॉन्ग्रेस समर्थित इनटेक (INTEC: Indian National Teachers Congress) और कॉन्ग्रेस की विचारधारा को समर्थन देने वाले आड (AAD: Academics for Action and Development) दोनों ने ही अपना कोई कैंडिडेट खड़ा नहीं किया था। सबने एक ही वामपंथी कैंडिडेट को समर्थन किया था। उन्हें मालूम था कि उन सबके अकेले के बूते की बात नहीं थी। 2017 में भी कॉन्ग्रेस ने ऐसा ही किया था।

वामपंथी या कॉन्ग्रेसी गुटों द्वारा डूटा के अध्यक्ष पद को गठजोड़ की राजनीति से पाने के पीछे के समीकरण को समझिए। दिल्ली विश्वविद्यालय की एक महत्वपूर्ण सांविधिक निकाय (statutory body) है एग्जिक्यूटिव काउंसिल। फरवरी 2021 में डूटा की एग्जिक्यूटिव काउंसिल के चुनाव को NDTF ने अब तक के सर्वाधिक मार्जिन के अंतर से जीता है। और यह बात सिर्फ 2021 की नहीं है। 2015, 2017, 2019 और 2021 – लगातार चार बार NDTF की जीत डूटा एग्जिक्यूटिव काउंसिल के चुनावों में हुई है। इससे भी ज्यादा दिलचस्प यह है कि इन चार बार में तीन बार वामपंथी गुटों की हार हुई है जबकि एक बार कॉन्ग्रेसियों की।

डूटा अध्यक्ष पद पर NDTF की जीत निश्चित ही एक खबर है। लेकिन एग्जिक्यूटिव काउंसिल के चुनाव में बार-बार (2017, 2019 और 2021) हार रहे वामपंथी इस बार अध्यक्ष पद का भी चुनाव हार गए – असली खबर यह है। ध्यान देने लायक बात यह भी है कि 2019 का डूटा अध्यक्ष पद वामपंथियों ने कॉन्ग्रेस सहित तमाम दलों के समर्थित गुटों के सहयोग से जीता था।

दकियानूसी और फासिस्ट होते हैं वामपंथी

ऑपइंडिया सवाल: वामपंथी झुकाव वाले कथित लिबरल मीडिया समूह डूटा अध्यक्ष पद की जीत को ‘राष्ट्रवादी’ NDTF की जीत बता कर परोस रही है। बिना कहे, शब्दों के साथ खेल कर, वो एक तरह से फासिस्ट वाली छवि बनाती है। आपकी प्रतिक्रिया।

प्रोफेसर एके भागी: वो हमारे लिए “राइट विंगर” शब्द लिख कर पश्चिम (वेस्टर्न, अंग्रेजीयत) की परिभाषा के तहत हमें फासिस्ट या दकियानूसी बताना चाहते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि वामपंथी खुद दकियानूसी हैं, फासिस्ट हैं, अलोकतांत्रिक हैं। पश्चिमी विचारधारा की समझ के उलट धरातल पर देखें तो वामपंथी ही असल मायने में लोकतंत्र विरोधी हैं। वो जहाँ-जहाँ राज कर रहे, सब जगह एक पार्टी वाली सरकार है, लोकतंत्र का दमन किया जा रहा है। ये जिन्हें दक्षिणपंथी या राष्ट्रवादी या दकियानूसी कह कर खारिज करने की कोशिश करते हैं, असल मायने में वो ही लोकतंत्र के असली प्रहरी हैं।

पश्चिमी विचारधारा के उलट हमारी पूरब की जो विचारधारा है और जो दिखती भी है, वो यह है कि वामपंथी बिल्कुल ही सहिष्णु नहीं होते हैं। किसी भी विचार को पढ़ने-समझने या उस पर खुल कर बहस करने की शक्ति वामपंथियों के पास नहीं है। ये समाज में खुद को ऐसा दिखाते हैं कि वामपंथी लोग पश्चिमी विचारधारा के साथ चलते हैं, स्व-घोषित तौर पर सहिष्णु बता देते हैं। जबकि सच्चाई क्या है? इनकी सच्चाई यह है कि जो इनके विचार से परे है, अलग है… वो सब बेकार है, फासिस्ट है।

वामपंथी लोगों की मानसिकता आप ऐसे समझ सकते हैं कि ये लोग अपनी बात मनवाने के लिए अपने देश के खिलाफ जाकर भी धरना-प्रदर्शन करते हैं। इसके उलट हम अपनी माँगों (वो भी मुद्दे के साथ) के लिए एक सीमा में रह कर धरना-प्रदर्शन करते हैं, देश के खिलाफ जाकर कभी नहीं।

न्यू एजुकेशन पॉलिसी 1986 Vs राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020

ऑपइंडिया सवाल: केंद्रीय वित्त पोषित और केंद्रीय विश्वविद्यालयों से संबद्ध कॉलेज देश के हर जिले में हो। यह आपका विजन है। इसके पीछे क्या सोच है?

प्रोफेसर एके भागी: 1986 में न्यू एजुकेशन पॉलिसी (कानून नहीं, गाइडलाइंस) आई थी। इसका क्रियान्वयन 1992 में किया गया था। उस पॉलिसी के अंदर GDP के 6% तक खर्चे की बात का जिक्र किया गया। लेकिन वो अब तक जाकर 4.3% के स्तर तक पहुँचा है। उसी में यह विजन भी रखा गया था कि केंद्र सरकार को विश्वविद्यालयों की स्थापना करनी चाहिए। इन विश्वविद्यालयों में दो तरह के कॉलेजों के होने की बात की गई – 1. संबद्ध कॉलेज (affiliated college), जो राज्य या केंद्रीय किसी भी यूनिवर्सिटी से संबद्ध हों; 2. स्वशासी कॉलेज (autonomous college) और जो उस समय के अन्य कॉलेज थे, उनको धीरे-धीरे स्वशासी कॉलेजों की तरफ जाने की वकालत की गई थी। इस कारण से उस समय देश में जो 20 स्वशासी कॉलेज थे, उनकी संख्या बढ़ कर 600 हो गई।

स्वशासी कॉलेजों की बढ़ती संख्या का विरोध डूटा से लेकर अन्य शिक्षक संगठनों द्वारा भी किया गया। इस विरोध की वजह भी थी। वजह थी स्वशासी कॉलेजों के स्व-वित्त पोषित मॉडल की ओर आगे बढ़ना। लेकिन क्या भारत जैसे देश में उच्चतर शिक्षा के लिए स्व-वित्त पोषित मॉडल सही है? ऐसा देश जहाँ उच्चतर शिक्षा में पहली पीढ़ी के लोग ज्यादा संख्या में आते हैं, क्या यह मॉडल बेहतरी के लिए साबित हो पाएगा? पूरे विरोध की वजह यही थी।

संबद्ध कॉलेज (affiliated college) का जो आइडिया 1986 वाली न्यू एजुकेशन पॉलिसी से आया, उसके कारण पूरे देश भर में हजारों-हजार प्राइवेट कॉलेज खुल गए। इन प्राइवेट कॉलेजों में इंजीनियरिंग से लेकर प्रोफेशनल और मेडिकल कॉलेज तक खुलते चले गए। कई प्राइवेट यूनिवर्सिटी तक खुल गए। कई यूनिवर्सिटी तो सिर्फ और सिर्फ संबद्ध यूनिवर्सिटी बन कर ही रह गई, जिनका काम था सिर्फ डिग्री बाँटना। यूनिवर्सिटी जिसका कॉन्सेप्ट होता है रिसर्च एवं शिक्षा… वो इन यूनिवर्सिटियों में बिल्कुल खत्म हो गया।

1986 वाली न्यू एजुकेशन पॉलिसी ने संबद्ध कॉलेज/संबद्ध यूनिवर्सिटी/स्व-वित्त पोषित मॉडल को बढ़ावा दिया। उसके पहले कॉन्स्टिचूएंट कॉलेज (constituent college) हुआ करते थे। वो केंद्रीय विश्वविद्यालयों के साथ जुड़े होते थे और केंद्र सरकार द्वारा ही वित्त पोषित होते थे। 1986 से पहले के ऐसे जितने भी कॉन्स्टिचूएंट कॉलेज थे, वो तो बरकरार रह गए लेकिन उसके बाद कॉन्स्टिचूएंट कॉलेज खुलने बंद हो गए। इसके अलावा राज्य सरकार अगर अपने स्तर पर किसी कॉलेज को खोलना या किसी विश्वविद्यालय से संबद्ध करवाना चाहती है तो उसकी फंडिंग उसे खुद करनी होगी।

इस पॉलिसी में यह भी कहा गया था कि केंद्र सरकार का काम स्नातक स्तर के कॉलेज खोलना या उसका वित्त पोषण करना नहीं है। सिर्फ विश्वविद्यालय (परा-स्नातक, पीएचडी, एमफिल, रिसर्च सेंटर आदि) खोलने और उसकी फंडिंग तक केंद्र सरकार को सीमित करने की बात उस पॉलिसी में कही गई थी।

यही वो तकनीकी कारण है कि 1986 के बाद जितने भी स्नातक स्तर के कॉलेज (लिबरल आर्ट्स, जनरल साइंस, कॉमर्स आदि) किसी भी राज्य में खुले हैं, वो या तो राज्य सरकार द्वारा वित्त पोषित हैं या प्राइवेट हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय में भी 1986 के बाद 12 ऐसे कॉलेज खुले हैं, जो शत-प्रतिशत दिल्ली सरकार द्वारा वित्त पोषित हैं। और यह भी 1998 के बाद खुलने बंद हो गए। इसका कारण यह रहा कि राज्य सरकार किसी भी केंद्रीय विश्वविद्यालय के अंदर अपने खर्चे पर कोई संस्थान खोलने से हिचकने लगी।

साल 2020 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति जो आई, इसमें कॉन्स्टिचूएंट कॉलेज के कॉन्सेप्ट को वापस लाया गया। इसमें यह भी कहा गया है कि जो एकल विषय वाले कॉलेज (बीएड, एलएलबी की डिग्री बाँटने वाले) हैं, इनको खत्म किया जाएगा और इन्हें बहु-विषयों वाले कॉलेजों में तब्दील किया जाएगा।

केंद्र सरकार अगर राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के तहत कॉन्स्टिचूएंट कॉलेज के कॉन्सेप्ट पर काम करती है तो देश के पास एक बेहतर विकल्प होगा। केंद्रीय विश्वविद्यालय जगह-जगह पर हैं ही। ऐसे में अगर हर केंद्रीय विश्वविद्यालय के साथ 4-5 केंद्रीय वित्त पोषित कॉलेज (स्नातक स्तर के – लिबरल आर्ट्स, जनरल साइंस, कॉमर्स आदि की पढ़ाई के लिए) खोले जाएँ तो विद्यार्थियों को दिल्ली की तरफ भागने की आवश्यकता नहीं होगी। और यही केंद्रीय वित्त पोषित कॉलेजों का मॉडल पूरे देश में बने। इसी मॉडल पर राज्य सरकार भी अपने द्वारा वित्त पोषित कॉलेजों को खोले। पहले केंद्र के द्वारा, फिर राज्य के द्वारा… और धीरे-धीरे इनकी संख्या भी बढ़े। ताकि लक्ष्य हो देश के हर जिले में ऐसे कॉलेजों का होना। उच्चतर शिक्षा की पहुँच व्यापक स्तर तक हो, यही मेरा विजन है।

AAP का मतलब – शिक्षा को बाजार बनाना, झूठे वादे करना

ऑपइंडिया सवाल: यह सवाल अकादमिक न होकर राजनीतिक है। डूटा के चुनाव में आम आदमी पार्टी समर्थित शिक्षक संगठन के हर एक कैंडिडेट को हार का सामना करना पड़ा। इसका कारण?

प्रोफेसर एके भागी: आम आदमी पार्टी की उच्चतर शिक्षा को लेकर जो पॉलिसी है, वो साफ नहीं है। दिल्ली की सरकार ने 20 नए सरकारी कॉलेज खोलने का वादा किया था, मतलब ऐसे कॉलेज जिनके फीस कम होते – खोला एक भी नहीं। यानी AAP की पॉलिसी साफ नहीं है, का पहला पॉइंट – वादा 20 कॉलेज खोलने का… लेकिन उन्होंने एक भी कॉलेज नहीं खोला।

दूसरा पॉइंट – दिल्ली विश्वविद्यालय के पहले से चल रहे कॉलेजों के वित्त पोषण का जो मॉडल था, उसे भी आम आदमी पार्टी ने बदलने की कोशिश की। इन कॉलेजों को कहा गया कि वो स्व-वित्त पोषण मॉडल की ओर जाएँ। बार-बार इन कॉलेजों के फंड कट किए गए। विद्यार्थियों के फीस के साथ सैलरी को जोड़ने का AAP का प्लान है। इन बातों को दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक अच्छे से समझते हैं।

तीसरा पॉइंट – AAP की सरकार कॉलेज ऑफ आर्ट्स को दिल्ली यूनिवर्सिटी से अलग करने की कोशिश कर रही है। उसे आंबेडकर यूनिवर्सिटी से जोड़ने की कवायद उनके द्वारा चल रही है। यूनिवर्सिटी को तोड़ने की उनकी कोशिश को दिल्ली यूनिवर्सिटी के शिक्षकों ने नकार दिया है। क्योंकि इस तरह की उनकी पहली कोशिश नहीं है यह। इससे पहले वो NSIT को NSUT में कंवर्ट किया था। मतलब जो एक इंजीनियरिंग कॉलेज था दिल्ली यूनिवर्सिटी का, वो AAP की सरकार ने छीन लिया। और अब उसी ढर्रे पर ये कॉलेज ऑफ आर्ट्स पर अटैक कर रहे हैं। इससे लोगों में इनके प्रति संदेह गहरा गया है।

यह संदेह इतना गहरा है कि शिक्षक सोचने पर मजबूर हैं कि दिल्ली सरकार द्वारा शत-प्रतिशत वित्त पोषित दिल्ली विश्वविद्यालय के 12 कॉलेजों को भी कहीं ये अलग करने की कोशिश न करें। हालाँकि ये 12 कॉलेज कॉन्स्टिचूएंट कॉलेज हैं, तो जैसा कि इन्होंने संबद्ध कॉलेज (affiliated college) NSIT के साथ किया और कॉलेज ऑफ आर्ट्स के साथ करना चाहते हैं, वैसा इन 12 कॉन्स्टिचूएंट कॉलेजों के साथ तकनीकी तौर पर नहीं कर पाएँगे।

चौथा पॉइंट – दिल्ली के देहात इलाके में 2 गर्ल्स कॉलेज (भगिनी निवेदिता कॉलेज और अदिति कॉलेज) हैं। इनकी नई बिल्डिंग बनाने की बात की गई थी। उनमें सुविधाएँ बेहतर करने की बात थी। इन वादों को भी AAP की सरकार ने भुला दिया है। दिल्ली सरकार द्वारा वित्त पोषित 12 कॉलेजों की बिल्डिंग भी इनके 2014 में सत्ता में आने के पहले जैसी थी, आज भी वैसी ही हैं। ये सारे पुरानी बिल्डिंग में चल रहे हैं, इनका किसी भी ढंग से विकास नहीं किया गया। और तो और, इन कॉलेजों की सैलरी कट और फंड कट कर दिया गया। यहाँ के शिक्षकों को देरी से सैलरी मिलती है। इन बातों को लेकर दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक बेहद परेशान हैं। यही कारण है कि AAP समर्थित शिक्षक संगठन को सिरे से DUTA चुनाव में नकार दिया गया।

DUTA अध्यक्ष और NDTF के उद्देश्य

ऑपइंडिया सवाल: आखिरी सवाल विचारधारा से। NDTF के वेबसाइट पर कुछ उद्देश्यों का जिक्र है, जिनमें हैं – (i) बौद्धिक वातावरण का निर्माण (ii) राष्ट्रीय महत्व के विषयों पर मुक्त चर्चा (iii) विश्वविद्यालय समुदाय में राष्ट्रवाद, लोकतंत्र और देशभक्ति की भावना को प्रोत्साहन। DUTA अध्यक्ष के तौर पर इन उद्देश्यों के लिए आपके प्लान क्या हैं?

प्रोफेसर एके भागी: ये सभी मुद्दे तो भारत के हर एक नागरिक के लिए महत्वपूर्ण है। एक शिक्षाविद के तौर पर जब हम लोगों के बीच जाते हैं, तो पाते हैं कि इन बिंदुओं की स्वीकार्यता हर वर्ग के बीच बढ़ रही है। NDTF शिक्षाविदों की एक संस्था है, जो शिक्षक-हितों के लिए तो कार्य कर ही रही है, साथ ही साथ विचारधारा के स्तर पर भी हम समान रूप से काम कर रहे हैं, DUTA का चुनाव लड़ना इनमें से एक है।

DUTA अध्यक्ष के तौर पर दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षकों की समस्याएँ, उनके हितों की रक्षा करना, शिक्षा का कल्याण, उसके प्रसार-प्रचार, व्यापक स्तर तक पहुँच… मतलब डूटा के जो लक्ष्य और उद्देश्य हैं, उन पर काम करना मेरी प्राथमिकता होगी। इसके साथ यह भी जरूर ध्यान रखा जाएगा कि डूटा के प्लेटफॉर्म का दुरुपयोग जिस तरह से वामपंथियों के द्वारा उनकी विचारधारा और राजनीति के लिए किया जाता रहा है, वो नहीं होने दिया जाएगा।

दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षकों को डूटा के प्लेटफॉर्म का वामपंथियों द्वारा दुरुपयोग वाली बात समझ में आ गई थी। NDTF की जीत इसका सबूत है। अब इस प्लेटफॉर्म का प्रयोग DUTA की संवैधानिक भावना के साथ ही किया जाएगा, दुरुपयोग का सवाल ही नहीं उठता है। यह एक बड़ा चेंज देखने को मिलेगा। इस प्लेटफॉर्म को शिक्षा और शिक्षक के मुद्दों के लिए प्रयोग किया जाएगा।

शिक्षा का मुद्दा हमेशा राष्ट्र से जुड़ा मुद्दा होगा। सरकारी वित्त पोषित संस्थानों के बचाने के मुद्दे से आगे बढ़ कर हम उसके विस्तार की बात करेंगे। इसका कारण है उच्चतर शिक्षा में पहली पीढ़ी से आने वाले 50% से ज्यादा विद्यार्थियों का सामाजिक-वित्तीय रूप से पिछड़े वर्ग से आने का। इसलिए स्व-वित्त पोषित संस्थानों की ओर बढ़ने वाले कदमों का विरोध किया जाएगा। शिक्षा से इतर शिक्षकों का मुद्दा नागरिक हितों से जुड़ा होगा। उनके अधिकारों से जुड़ा होगा। न्याय मिलना चाहिए शिक्षक हितों से जुड़े मामले पर, हनन नहीं होना चाहिए।

चंदन कुमार: परफेक्शन को कैसे इम्प्रूव करें :)