कलयुग का पहला अश्वमेध यज्ञ करवाकर ‘धर्मराज युधिष्ठिर’ के अवतार कहलाए थे ये राजा, 3 करोड़ लोगों को कराया था भोज

जयपुर की स्थापना पर जय सिंह ने करवाया था अश्वमेध यज्ञ

भारत में पिंक सिटी के नाम से मशहूर जयपुर आज 294 साल का हो गया। 18 नवंबर 1727 में इस शहर को शतरंज के आकार में नौचौकड़ियों में बसाया गया था। इसकी सीमा 9 मील थी। नौ ग्रहों के नवनिधि सिद्धांत पर वास्तुकला को ध्यान में रखते हुए इसे बनाया गया था। शहर की स्थापना के लिए कई विद्धान आए थे। उस समय सवाई जयसिंह (द्वितीय) ने अश्वमेध यज्ञ भी करवाया था। ये यज्ञ कलयुग का पहला और संसार का आखिरी अश्वमेध यज्ञ कहलाया और इस वजह से राजा को धर्मराज युधिष्ठिर का अवतार कहा जाने लगा ।

दैनिक भास्कर की रिपोर्ट के मुताबिक जयपुर फाउंडेशन के संस्थापक सियाशरण लश्करी बताते हैं कि करीब 5000 साल पहले महाभारत काल में पांडवों ने अंतिम अश्वमेध यज्ञ करवाया था। बाद में सवाई जयसिंह ने यज्ञ करवाने के लिए गुजरात के विशेष पंडितों को यहाँ बुलाया और इन्हीं पंडितों को हवेली, कुआं और गाय भेंट करके ब्रह्मपुरी में बसाया गया। शहर की नींव रखने में आमेर खजाने के करीब 1084 रुपए खर्च हुए थे। वहीं जिन सम्राट जगन्नाथ ने जयपुर की नींव रखी थी उनको खुशी में 8 बीघा जमीन दी गई थी। वर्तमान समय में ये जगह अजमेर रोड के पास हथरोई गढ़ी के नाम से जानी जाती है।

कलयुग में हुए इस महायज्ञ को लेकर ये बात कही जाती है कि जयपुर की नींव लगाने के 7 साल बाद 18 अप्रैल 1734 को यज्ञ कराने के लिए काशी सहित देश के विद्वानों ने यज्ञ की व्यवस्था में 5 साल लगा दिए थे। परशुरामद्वार के पीछे डूँगरी पर विष्णु स्वरूप बिरद भगवान की स्थापना के बाद ढोल नगाड़ों से ढूँढाड़ राज्य में घोषणा हुई थी कि आमेर नरेश विष्णुसिंह के पुत्र जयसिंह द्वितीय अश्वमेध करवा रहे हैं।

इस यज्ञ के लिए जयसिंह ने स्वर्ण व रत्नों की ढेरियाँ लगाने के साथ यज्ञ सामग्री एकत्रित करवाई। फिर यज्ञ मंडपों को चांदी के पत्तरों से ढका गया। पूर्णाहुति के बाद करीब 250 पशु-पक्षी आजाद किए गए। फिर यज्ञ से पहले परशुराम द्वारा, काला हनुमानजी, शाहपुरा बाग, काला महादेवजी व यज्ञशाला की बावड़ियाँ बनीं। कांचीपुरम से हीदा मीणा द्वारा बिरदराज विष्णु मूर्ति को लाया गया और उन्हें प्रथम पुरूष मानकर डूंगरी में स्थापित किया गया। इस यज्ञ के लिए महाराजा ने तीन करोड़ ब्राह्मणों को भोजन कराने का संकल्प किया और कुरुक्षेत्र में सप्त स्वर्ण सागर और काशी में हाथी घोड़े दान किए। मथुरा में चांदी का तुला दान कर करीब 33 करोड़ रुपए पुण्य में खर्च किए।

सियाशरण लश्करी कहते हैं कि यज्ञ करीब सवा साल चला था और अपने संकल्प के मुताबिक राजा ने इस यज्ञ के पूरे होने तक लोगों को भोजन करवाया। यज्ञ में जो मिट्टी के गणेश बनाए गए उन्हें बाद में किला बनाकर स्थापित किया गया और आज सब उन्हें गढ़ गणेश के नाम से जानते हैं। ऐसे ही यज्ञ में भगवान विष्णु की मूर्ति की पूजा हुआ वो जलमहल के सामने स्थित है। शिव जी की मूर्ति ब्रह्मपुरी में है और जलमहल के सामने काले हनुमान जी का मंदिर है। यज्ञ के लिए नाहरगढ़ किले के नीचे एक प्रधानकुंड बना और वहीं एक बावड़ी बनी। यज्ञ के लिए इस बावड़ी को घी से भरा गया। इस जगह को आज यज्ञ शाला की बावड़ी के नाम से जाना जाता है।

ऑपइंडिया स्टाफ़: कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया