फण्ड की कमी से जूझते बिहार के 5000+ पुस्तकालय बंद: जानें National Library Day पर लाइब्रेरियों का हाल

फण्ड की कमी से जूझते बिहार के 5000 से ज्यादा पुस्तकालय बंद (प्रतीकात्मक तस्वीर)

बिहार की गिनती शायद भारत के सबसे कम साक्षरता दर वाले राज्यों में होगी। इसके वाबजूद भी यहाँ अख़बारों की रीडरशिप भारत में शायद सबसे ऊँची होगी। लोगों के पढ़ने के शौक के बाद भी अगर आप बिहार के किसी छोटे कस्बे में हैं तो किताब खरीदना या जुटाना बड़ा ही मुश्किल काम है। यहाँ लाइब्रेरी तो बस गिनती के दिखेंगे, किताबों की दुकानें भी कस्बों में कम ही है। अब आप सोचेंगे की फिर ये हिंदी पट्टी के लोग हिंदी की किताबें पढ़ते कैसे हैं? तो उसका तरीका ये है कि स्टेशन पर मौजूद A.H.W. Wheeler वाली दुकानों से हमारी किताबों की जरूरत पूरी होती है। वैसे तो यहाँ सबसे आसानी से नेपोलियन हिल की किताबें मिलेंगी आपको लेकिन साहित्य भी थोड़ा मिल जाता है।

पुस्तकालयों की कमी की वजह देखें तो फण्ड की कमी से बिहार के 5000 से ज्यादा पुस्तकालय बंद हो चुके हैं। करीब दस करोड़ की आबादी वाला बिहार पुस्तकालयों में किताबों की खरीद के लिए प्रति वर्ष मात्र दस लाख देता है। प्रति व्यक्ति किताबों पर खर्च जहाँ ज्यादातर राज्यों में 7 पैसे प्रति व्यक्ति है, वहीं बिहार में ये एक पैसा प्रति व्यक्ति हो जाएगा। अगर कर्मचारियों की बहाली और उनकी तनख्वाह का मामला देखें तो स्थिति और भी बुरी है। जब बिहार में पाँच हज़ार पुस्तकालय बंद हो रहे थे तो तुलनात्मक रूप से कर्नाटक राज्य में 7000 पुस्तकालय हैं।

ये दुर्दशा केवल सार्वजनिक पुस्तकालयों की ही है। यूपीएससी की तैयारी करने वाले कई छात्र पटना में निजी पुस्तकालयों में पढ़ते हैं। अधिकतर ये निजी पुस्तकालय कोचिंग संस्थान चला रहे होते हैं और इनके बोर्ड न चाहते हुए भी दिखेंगे। बिहार से जहाँ इतने छात्र ऐसी प्रतियोगिता परीक्षाओं में कामयाब होते हैं, वहाँ बिहार सरकार पुस्तकालय क्यों नहीं बनवाती ये पता नहीं। राज्य सरकार क्यों जिम्मेदार है? क्योंकि पुस्तकालय नियम-कानूनों के हिसाब से राज्य का मसला होता है।

केंद्र सरकार ने इसके लिए एक राजा राम मोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन बनाया है जो करीब 15-16 हज़ार पुस्तकालयों को फंड देती है। बिहार के पुस्तकालयों में लोग नहीं हैं, इसलिए यहाँ से फंड लेने के लिए जरूरी कागज़ भी नहीं भेजे जा सके। ऐसी स्थिति के बाद भी देखें तो सिन्हा लाइब्रेरी के वाचनालय (रीडिंग रूम) में बैठकर अपनी किताबों से पढ़ते कई नौजवान नजर आ जाएँगे। जबतक तैयारी चल रही है, तबतक तो दिखेंगे ही। फिर बाद में अफसर बनने पर नियमों को सुधारना याद न रह पाए तो और बात है।

आज के भारतीय पुस्तकालयों में जाएँ तो वहाँ बच्चों के लिए क्या होता है? पुस्तकालयों में जाना अगर बचपन में सिखाया नहीं गया हो, तो वयस्क को पुस्तकालय जाना कहना काफी कुछ हिन्दी कहावत जैसा “बूढ़े तोते को राम राम रटाना” ही होगा। ये पुस्तकालय की इकलौती समस्या है ऐसा भी नहीं है। यहाँ पुस्तकालय का सदस्य बनने के नियम भी किसी पुराने दौर के ही हैं। अभी के पटना के सिन्हा लाइब्रेरी (आखरी बची हुई पब्लिक लाइब्रेरी) के नियम किस दौर के हैं पता नहीं।

यहाँ एक चिट्ठी/फॉर्म पर किसी गेज्जेटेड ऑफिसर का ऑफिस का पता लिखकर पुस्तकालय में देना होता है। जिसे पुस्तकालय वाले पोस्टकार्ड की तरह डाक से उस अधिकारी के दफ्तर भेजेंगे। जब वो अधिकारी उस चिट्ठी/फॉर्म पर अपने दस्तखत करके और मुहर लगाकर दे तब आप सिन्हा लाइब्रेरी के सदस्य हो सकते हैं। साधारण डाक से वो पोस्टकार्ड जैसा फॉर्म कितना पहुँचता होगा और आईएएस अफसरों से गारंटर के तौर पर हस्ताक्षर करवा सकने वाले लोग ऐसी मेहनत कितनी करेंगे ये अंदाजा लगाना बिलकुल भी मुश्किल नहीं। पुस्तकालयों की दशा पर कुछ अध्ययन हुए थे, लेकिन फिर आगे उनपर क्या काम हुआ, मालूम नहीं।

ऐसी हालत में विपत्ति भी बिहार के लिए एक वरदान बनकर आई। कोरोना की वजह से जब लॉकडाउन लगा, तो दिल्ली जैसी जगहों पर केजरीवाल जैसे लोगों ने बिहार के प्रवासियों को कोई मदद नहीं दी। नतीजा ये हुआ कि उन्हें पैदल ही बिहार की ओर लौटते हुए सभी ने देखा। जब ये लोग गाँव पहुँचे, और लम्बे समय तक वहाँ निवासियों की तरह रहे, अतिथियों की तरह नहीं, तो उनका ध्यान गाँव की अवस्था पर भी गया। नब्बे के दशक के आस पास शुरू हुए पलायनों ने गाँव को काफी बदल डाला था। जिन पुस्तकालयों पर कभी शाम में पूरे इलाके के बुद्धिजीवी बैठते चर्चाएँ होतीं, छात्रों को जिनके जरिए छात्रवृति वगैरह भी मिलती थी वो सभी बंद हो चुके थे। सरकार की अनदेखी तो इसका कारण थी ही, गाँव के लोगों को अपना कर्तव्य भी याद आया।

मिथिलांचल के कई ग्राम अब अपने पुस्तकालयों को पुनःजीवित करने में जुट गए। ऐसा नहीं था कि ये प्रयास पहले शुरू नहीं हुए थे। इधर के वर्षों में जबसे हालात सुधरे थे, तभी से इसपर लोगों का ध्यान जा रहा था। अब जब लोग इकठ्ठा हुए तो इसमें गति आई। लालगंज के पुस्तकालय की स्थापना 7 नवम्बर 1950 में हुई थी। ये पुस्तकालय 1980 तक गाँव की कई सामुदायिक गतिविधियों का केंद्र रहा था। 1984-85 में बाढ़ और फिर रोजगार के लिए, अपराधों के कारण जब पलायन होने लगा तो युवा पीढ़ी इसे भूलने लगी। तीन दशक बीतते बीतते ये पुस्तकालय बंद हो गया था। गाँव के लोगों ने एक बार फिर से सामुदायिक प्रयास करके इसे जीवित कर दिया।

यदुनाथ सार्वजनिक पुस्तकालय के बारे में बात करते हुए संस्था के सचिव उदय जी और ग्रामीण निर्भय मिश्र बड़े चाव से बताते हैं। पुस्तकालय रुके नहीं, लगातार चलने के लिए धन उपलब्ध हो, इसकी व्यवस्था के बारे में उदय जी बताते हैं कि ये पूरी तरह चंदे से दोबारा शुरू हो पाया है। ग्रामीणों ने चंदा एक जगह इकठ्ठा करके उसे एक फिक्स्ड डिपाजिट में जमा किया जिसे संस्था के सदस्य निकाल नहीं सकते। उससे होने वाली ब्याज की आय से काम चलता है। पुराने दौर की याद करते हुए उदय जी बताते हैं कि न्याय दर्शन के प्रख्यात विद्वानों ने इसकी शुरुआत की थी और अपने दौर में जयप्रकाश नारायण भी इस पुस्तकालय को देखने आए थे। फ़िलहाल ये पुस्तकालय शाम में खुलता है। ग्रामीणों के सहयोग से अब यहाँ कई आयोजन होते हैं।

अब यहाँ 5000 के लगभग किताबें हैं। कर्मचारी बताते हैं कि धर्म और मैथिली साहित्य पढ़ने वालों की संख्या अच्छी खासी है, लेकिन अंग्रेजी की किताबें भी पढ़ी जाती हैं। किताबों के बारे में उन्होंने बताया कि इसमें से कुछ स्थानीय विधायक-सांसद इत्यादि ने दान में भी दी हैं। कुछ प्रकाशनों के सौजन्य से आईं। इसमें उन्होंने जोड़ा कि ग्रामीणों ने अपनी रूचि की पुस्तकें खरीदकर जमा की हैं। जो दान में मिली किताबें हैं, उनमें पाठकों की कभी उतनी रूचि नहीं दिखी। पाठकों और गाँव के लोगों का पुस्तकालय से जुड़ाव बना रहे, इसके लिए प्रश्नोत्तर और भाषण की प्रतियोगिताएँ छात्रों के लिए आयोजित की जाती हैं। सबसे ज्यादा किताबें पढ़ने वाले पाठक को “श्यामानंद झा सम्मान” और कुछ राशि भी इनाम में दी जाती है।

ऐसा ही एक और पुस्तकालय डॉ. सर गंगानाथ वाचनालय भी है। इस पुस्तकालय के सचिव नवीन झा भी बताते हैं कि उन्होंने ग्रामीण लोगों के व्हाट्स एप्प ग्रुप के साथ शुरुआत की थी। सरकारी मदद के अभाव और पलायन की वजह से ये 1956 में स्थापित वाचनालय भी बंद हो गया था। हालाँकि इस पुस्तकालय के पास एक भवन था लेकिन वो भी जर्जर स्थिति में था। ग्रामीणों से बात करके पुस्तकालय के लिए अलमारियाँ कुछ ही घंटों में इकठ्ठा हो गईं। नवीन झा ने बताया कि पाठकों का सम्मान, भाषण इत्यादि की प्रतियोगिताएँ वो भी आयोजित करते हैं। इसके साथ ही उन्होंने जोड़ा कि गाँव में हाई स्कूल करीब सवा सौ वर्षों से है, इसलिए पढ़े-लिखे, पुस्तकों का महत्व समझने वाले लोगों की कोई कमी नहीं थी। कमी थी तो केवल सामुदायिक प्रयासों की।

सामुदायिक प्रयासों के बारे में गाँव के ही मदन झा बताते हैं कि अगर शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े, प्रोफेसर इत्यादि गाँव लौटते हैं तो पाँच-सात दिनों के लिए वो बच्चों की कक्षाएँ भी लेते हैं जिससे ग्रामीण बच्चों का फायदा होता है।

पुस्तकालयों के लिए आयोजित होने वाले राष्ट्रीय पुस्तकालय दिवस को एसआर रंगनाथन जी के जन्मदिवस के अवसर पर प्रत्येक वर्ष 12 अगस्त को मनाया जाता है। ये दावे से नहीं कहा जा सकता कि इस दिन बिहार के पुस्तकालयों या देश भर के पुस्तकालयों के लिए कुछ विशेष होगा ही। हो सकता है कुछ जगहों पर राज्य सरकारों का इस मुद्दे पर ध्यान जाए।

संभावना है कि अधिकांश लोग इसे भुला ही देंगे। ऐसे में बिहार के इन ग्रामों से प्रेरणा ली जा सकती है। अगर सामुदायिक प्रयास हों, तो कम साधनसंपन्न ग्रामीण क्षेत्र के बच्चों को भी किताबें मिल सकेंगी। सामुदायिक प्रयास हों, तो ग्राम समाज भी आपस में एक दूसरे से और जुड़ा हुआ रहेगा। बाकी इस दिशा में राजनैतिक प्रयास भी हों तो और बेहतर, मगर जबतक ये नहीं होता, तबतक इंतज़ार और सही, इंतज़ार और सही!

Anand Kumar: Tread cautiously, here sentiments may get hurt!