‘भागो गोलियाँ मार रहे’: जब 7 मार्च को खालिस्तानियों ने सदर बाजार में बिछा दी लाशें, फायरिंग-बमबाजी में 32 की हुई थी मौत

अबोहर गोली कांड

खालिस्तान की बढ़ती माँग और उसे मिलता समर्थन समय के साथ काफी डराने वाला है। खालिस्तानियों को शह देना किसी को कितना महंगा पड़ सकता है, इसका अंदाजा अबोहर गोलीकांड के बारे में पढ़कर लगता है। आज से ठीक 33 साल पहले पंजाब के अबोहर में वो काला दिन आया था जब 32 परिवारों के खून से खालिस्तानियों ने होली खेली थी।

अबोहर का खूनी होली

7 मार्च 1990। समय-शाम के 6:30 बजे। अचानक सड़कों पर तेज धमाके की आवाजें सुनाई दीं। दुकानदारों को लगा बच्चे पटाखे जला रहे होंगे। कुछ देर बाद लोगों की भीड़ सड़कों पर भागती नजर आई। ये भीड़ चिल्ला रही थी- “भाजो गोलियाँ मार रहे (भाग लो, वो लोगों को मार रहे हैं)”, “बंदे मार ते, बंदे मार ते (वह मार रहे हैं)”, “अपनी जान बचाओ भाजो (भागो और अपनी जान बचाओ)।”

कुछ देर में सड़कों पर खालिस्तान कमांडो फोर्स के 10 आतंकी बाजार के हर कोने पर थे। ये बिना देखे किसी भी दिशा में लोगों को मार रहे थे। इन्होंने उस भीड़ को भी नहीं छोड़ा था, जो इनसे जान बचाकर आगे भाग रही थी। देखते ही देखते लाशों के ढेर बिछ गए। कई घायल हो गए। आतंकी इसके बाद भी फाजिलका रोड (भारत-पाक बॉर्डर के पास) की ओर बढ़ रहे थे।

इतिहास के झरोखे से अबोहार किताब से लिए गए अंश

कहा जाता है कि पहले तो जब आतंकियों ने गोलियों की बौछार की, तब पुलिस कहीं नजर नहीं आई, बाद में वह घरों में छिप गए। काफी देर पुलिस ने उन्हें ढूँढा, लेकिन वह घर से नहीं निकले। पुलिस के जाने के बाद यह आतंकी वहाँ से निकल गए और न जाने कहाँ खेतों से गायब हो गए। दुखद यह था कि अबोहर के पुलिस थाने में जब सड़कों पर हुए हमले की सूचना मिली तो उन्होंने अपना दरवाजा बंद कर दिया।

सदर बाजार की घटना थी और उससे थोड़ी दूर पर थाना था। पुलिस वाले चाहते तो इतना मुश्किल नहीं था बेसहायों की मदद के लिए पहुँचना, लेकिन उन्होंने खालिस्तानियों का नाम सुन कर अपने दरवाजे बंद कर लिए और मदद की आवाज आने पर भी कोई सुनवाई नहीं की। घटना के 40 मिनट बाद पुलिस निकली और ऐसे आतंकियों की छानबीन शुरू की, जो घटनास्थल से गायब हो चुके थे।

सिविल अस्पताल की स्थिति

उधर अबोहर के सिविल अस्पताल की हालत दयनीय हो चुकी थी। प्रशासन ऐसी किसी आपातकाल स्थिति से निपटने को तैयार नहीं था। मगर, तब भी आतंकियों के जाते ही अपने दरवाजे खोल कर घायलों की किसी तरह मदद कर रहा था। उस समय कोई एंबुलेंस सर्विस नहीं थी। घायलों को हाथ से खींचने वाले ठेलों पर अस्पताल पहुँचाया गया।

सीमित प्रशासन के साथ अस्पताल जुटा था कि किसी तरह आतंकी हमले के शिकार लोगों को जीवनदान दे सकें। मगर, प्रशासन भी क्या करता? मरीजों की संख्या इतनी बढ़ गई कि कुछ देर बाद दवाइयों और सर्जिकल उपकरण कम पड़ने लगे। पट्टियाँ भी इतनी नहीं थीं कि हर घाव पर उसे बाँधा जा सके।

खालिस्तानी अपना आतंक मचा कर जा चुके थे। पीछे रह गए थे घायल और उनके रोते-बिलखते परिजन। अस्पताल एक ओर जहाँ अपने संसाधनों को खत्म होता देख रहा था, वहीं थोड़ी देर में अस्पताल का नजारा कुछ और था। बाजार के कई लोग ज्यादा से ज्यादा तादाद में घायलों को खून देने के लिए उमड़ पड़े।

इतिहास के झरोखे से अबोहार किताब से लिए गए अंश

गोलीबारी खालिस्तानियों के लिए शायद कम थी, उन्होंने दो बम ब्लास्ट कर के शहर को फिर दहला दिया। पूरी घटना में 22 लोग मौके पर खत्म हो गए, 10 ने अस्पताल में दम तोड़ा, कइयों ने पसलियाँ गँवा दीं, कुछ की अंतड़ियाँ बाहर आ गईं, किसी के पाँव अलग हो गए और कई को अन्य बुरी चोटें आईं। रिकॉर्ड कहते हैं कि इस बम ब्लास्ट में 45 घायल हुए थे।

हमले में मारे गए लोग

इस हमले के बाद पुलिस की कायरता और आपात स्थिति को लेकर स्वास्थ्य तैयारियों ने स्थानीयों के मन में गुबार भर दिया। कई जगह ऐसे मामले सामने आए, जब प्रशासन और पुलिस के खिलाफ प्रदर्शन हुए। 10 मार्च 1990 को बड़ी तादाद में थाने की ओर मार्च निकाला गया। गुस्साए लोगों ने पुलिस की मोटरसाइकिल फूँक दी। पुलिसकर्मियों पर पत्थर फेंके गए और बाद में जाकर जिलाधिकारी राकेश सिंह ने किसी तरह भीड़ को शांत कराने का प्रयास किया, तो लोगों ने उनकी गाड़ी पर भी बेकाबू होकर पत्थर फेंके।

इतिहास के झरोखे से अबोहार किताब से लिए गए अंश

इसके बाद बिना चेतावनी के जनता पर पुलिस ने ओपन फायर कर दिया। इस फायरिंग में 18 साल के नवीन और 20 साल के राजेंद्र मारे गए। नियम के अनुसार, पुलिस चेतावनी देकर फायरिंग करती है, लेकिन नियमों को दरकिनार रख कर लिए गए फैसले के कारण 2 लोगों की जान चली गई।

बदले वाला दिन- 12 मार्च 1993

घटना को देखते ही देखते दो ढाई साल बीते, लेकिन स्थानीयों में गुस्सा कम नहीं हुआ। 17 अक्टूबर 1992 में डीएसपी सुरजीत सिंह ग्रेवाल अबोहार में तैनात किए गए। अपनी तैनाती के पहले दिन ही उन्होंने आतंकी हमले में मारे गए लोगों को न्याय दिलाने के लिए हमले के मास्टरमाइंड (चानन सिंह- Chanan Singh) को लाने का फैसला किया। उन्होंने गुरमुख सिंह (चानन सिंह के दामाद) की मदद की और मामले को शांत कराने का आश्वासन दिया। उन्होंने गुरमुख से निजी रिश्ते बनाए और उसे पूर्ण रूप से आश्वस्त कर दिया।

कुछ दिन बाद चानन सिंह ने अपने दामाद के घर में आना-जाना शुरू कर दिया। हालाँकि शुरू में वह काफी सतर्क रहता, लेकिन ग्रेवाल के खूफिया सूत्रों ने जानकारी दे दी कि चानन गुरमुख की बेटी की शादी और बेटे की शगुन समारोह में आने वाला है। ग्रेवाल ने फौरन एक टीम बनाई। सबको मजदूरों के कपड़े पहनाए और खुद सिख स्टूडेंट फेडरेशन के मुखिया दलजीत सिंह उर्फ बिट्टू बन गए।

डीएसपी ग्रेवाल (साभार: इतिहास के झरोखे से अबोहार)

वेन्यू पर पहुँचते ही उन्होंने गुरमुख के बेटे को अपनी पहचान बिट्टू बताई। इसके बाद वह उन्हें चानन के पास ले गया। 55 साल का चानन चरपाई पर बैठा था। उसे मालूम हो गया कि ये बिट्टू नहीं है और उसने ग्रेवाल पर गोली चला दी। खुशकिस्मती बस ये थी कि ग्रेवाल पूरी तैयारी के साथ उसको पकड़ने गए थे। कुछ ही सेकेंड में चानन का शव उनके हाथ में था। 

डीएसपी के इस प्रयास ने उन पीड़ित परिवारों को थोड़ी राहत जरूर दी, जिन्होंने 1990 में अपने परिजनों को खो दिया था। लेकिन ये कहना कि घाव पूरी तरह भर गए, हमेशा असंभव होगा।

अबोहर की कहानी सामने लाने वाले मथुरा दास हितैषी

उक्त सारी कहानी और उसका अहम भाग, दिवंगत मथुरा दास हितैषी की किताब- ‘इतिहास के झरोखे से अबोहर’ से लिया गया है। उनकी किताब के कारण आज अबोहर की कहानी लोगों तक पहुँचने में सफल हुई। एक स्वतंत्रता सेनानी, हितैषी को उनका सरनेम उनके सामाजिक कार्यों के कारण मिला था। इसका अर्थ सबका भला करने वाला होता है। पीएनबी में बैंक मैनेजर रहते हुए और बाद में इंप्रूवमेंट ट्रस्ट का अध्यक्ष बनने के बाद भी उन्होंने कई लोगों की मदद की।

स्वर्गीय मथुरा दास हितैषी
Anurag: B.Sc. Multimedia, a journalist by profession.