‘आरोपित को है चुप रहने का अधिकार, बोलने के लिए नहीं बना सकते दबाव’: सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी, कहा – चुप रहने का मतलब जाँच में असहयोग नहीं

सुप्रीम कोर्ट ने कहा - आरोपित को चुप रहने का अधिकार (फाइल फोटो)

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि एक आरोपित को चुप रहने का अधिकार होता है और जाँचकर्ता उस पर दबाव नहीं बना सकते कि वो बोले या फिर अपने अपराध को कबूल करे। सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार (13 जुलाई, 2023) को एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि संविधान हर एक व्यक्ति को अधिकार देता है कि वो खुद को अपराधी साबित किए जाने का विरोध करे। जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस दीपांकर दत्ता ने इस मामले की सुनवाई करते हुए ये फैसला सुनाया।

दोनों जजों ने कहा कि जाँच में सहयोग करने का ये अर्थ नहीं होता है कि अपराध को कबूल कर लेना। साथ ही सवाल दागा कि भला आरोपित चुप क्यों नहीं रह सकता? उन्होंने कहा कि जाँच एजेंसियाँ सिर्फ इसीलिए किसी आरोपित के विरुद्ध मामले नहीं चला सकती, क्योंकि वो जाँच के दौरान चुप रहता है। जजों ने सवाल किया कि इस बर्ताव को असहयोग कैसे कहा जा सकता है? ये अपराधी मामला उत्तर प्रदेश का है, जिस पर सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई हुई।

सुप्रीम कोर्ट ने इस दौरान अनुच्छेद 20(3) का जिक्र किया। बता दें कि इसके तहत एक आरोपित को अधिकार मिलता है कि अगर वो चाहे तो खुद पर चल रहे आपराधिक मामले में खुद गवाह नहीं बन सकता और जाँच के दौरान चुप्पी साधे रख सकता है और बचाव में भी कुछ नहीं कह सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने इसे मूलभूत कानून बताया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ये अभियोजन पक्ष का दायित्व है कि वो शक के आधार से आगे निकल कर आरोपित को दोषी साबित करे।

सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि दोष साबित होने तक आरोपित निर्दोष होता है। ये मामले दहेज़ का है। पति-पत्नी दोनों डॉक्टर हैं। पत्नी ने अपने पति पर दहेज़ उत्पीड़न का मामला दर्ज कराया था। साथ ही आरोप लगाया था कि उसके साथ मारपीट की गई। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने फरवरी में गिरफ़्तारी से पहले दायर जमानत याचिका ख़ारिज कर दी थी। हालाँकि, सुप्रीम कोर्ट ने मई में उसे गिरफ़्तारी से राहत प्रदान की। महिला के वकील ने आरोप लगाया था कि आरोपित जाँच में सहयोग नहीं कर रहा है।

ऑपइंडिया स्टाफ़: कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया