‘लिंग परिवर्तन संवैधानिक अधिकार’: यूपी पुलिस की महिला कॉन्स्टेबल को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने दी राहत, बोला- DGP एप्लिकेशन पर तुरंत लें निर्णय

इलाहाबाद हाईकोर्ट और जस्टिस अजीत कुमार (फोटो साभार-लाइव लॉ)

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश पुलिस की एक महिला कॉन्स्टेबल के जेंडर बदलने की राह आसान कर दी है। हाईकोर्ट ने बीते सप्ताह कहा है कि हर शख्स को, चाहे वो महिला हो या पुरुष, संविधान की तरफ से सर्जरी के जरिए अपने लिंग को बदलने (Changing Gender) का अधिकार प्राप्त है। दरअसल, कॉन्स्टेबल ने इसको लेकर कोर्ट में याचिका दायर की थी।

जस्टिस अजीत कुमार की बेंच ने कॉन्स्टेबल नेहा की याचिका पर राज्य के पुलिस महानिदेशक (DGP) को उसकी सेक्स रिअसाइनमेंट सर्जरी (SRS) यानी सेक्स चेंज कराने संबंधी एप्लिकेशन का निपटारा करने का निर्देश दिया है। इसके साथ ही कोर्ट ने यूपी सरकार और डीजीपी को चार हफ्ते में इस पर जवाब देने के लिए कहा है। इस मामले में अगली सुनवाई 21 सितंबर 2023 को होगी।

जेंडर डिस्फोरिया से पीड़ित है महिला कॉन्स्टेबल

लाइव लॉ के मुताबिक, इस केस में जस्टिस अजीत कुमार की बेंच ने कहा, “यदि आधुनिक समाज में भी हम अपनी पहचान बदलने के किसी शख्स के इस अधिकार को स्वीकार नहीं करते हैं तो इससे हम लिंग पहचान के विकार सिंड्रोम को बढ़ावा देंगे।” बेंच ने ये टिप्पणी यूपी पुलिस की एक अविवाहित महिला कॉन्स्टेबल की दायर रिट याचिका पर सुनवाई करते हुए की।

याचिकाकर्ता का कहना है कि वह जेंडर डिस्फोरिया (Gender Dysphoria) से पीड़ित है और यौन संबंध बनाने के लिए उसे सेक्स रीअसाइनमेंट सर्जरी (एसआरएस) कराने की जरूरत है, ताकि वो खुद को पुरुष की शारीरिक संरचना और पहचान में ढाल सके।

दरअसल, जेंडर डिस्फोरिया वो शारीरिक स्थिति है जिसमें व्यक्ति को यह महसूस होता है कि उसका प्राकृतिक लिंग उसकी लैंगिक पहचान से मेल नहीं खाता है। इस वजह से ही कॉन्स्टेबल नेहा सिंह को भी खुद के महिला के शरीर में पुरुष होने का एहसास होता है।

इसको लेकर कोर्ट में याचिकाकर्ता के वकील ने कहा कि उसकी मुवक्किल ने यूपी पुलिस महानिदेशक लखनऊ को 11 मार्च 2023 को एप्लिकेशन दी थी। इसमें उसने सेक्स चेंज सर्जरी के लिए आवश्यक मंजूरी देने के लिए कहा था, लेकिन उस बारे में कोई फैसला नहीं लिया गया। इस वजह से उसे कोर्ट में याचिका दायर करनी पड़ी।

सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का दिया हवाला

याचिकाकर्ता के वकील ने कोर्ट में सुप्रीम कोर्ट के राष्ट्रीय कानूनी सेवा प्राधिकरण बनाम भारत संघ और अन्य, 2014 5 एससीसी 438 के फैसले का हवाला दिया। इस फैसले में लिंग पहचान को व्यक्ति की गरिमा का अनिवार्य अंग माना गया है। उन्होंने कहा कि इसके मुताबिक याचिकाकर्ता के आवेदन को रोकना पुलिस विभाग के लिए सही नहीं था।

आखिर में, अदालत ने राजस्थान हाईकोर्ट के हालिया फैसले का भी हवाला दिया, जिसमें कोर्ट ने एक फिजिकल ट्रेनिंग इंस्ट्रक्टर को लिंग बदलने की सर्जरी के बाद सेवा रिकॉर्ड में अपना नाम और लिंग बदलवाने की मंजूरी दी थी।

इन सब बातों पर गौर करते हुए कोर्ट ने कहा कि यदि किसी को लिंग डिस्फोरिया है और उसकी शारीरिक बनावट को छोड़कर उसमें विपरीत लिंग की भावना और लक्षण इतने अधिक हैं कि वो शरीर के साथ-साथ अपने व्यक्तित्व का गलत तरीके आकलन करता है। ऐसे हालातों में व्यक्ति के पास “सर्जिकल हस्तक्षेप के जरिए अपना लिंग बदलवाने का संवैधानिक तौर पर मान्यता प्राप्त अधिकार” होता है।

कोर्ट ने इस केस में सभी बातों को ध्यान में रखते हुए याचिकाकर्ता के आवेदन को रोकने के लिए पुलिस महानिदेशक की ओर से कोई आधार नहीं पाया। इसे देखते हुए कोर्ट ने सख्ती के साथ डीजीपी को याचिकाकर्ता महिला कॉन्स्टेबल के लंबित आवेदन को सुनवाई के दौरान जिक्र किए फैसलों को नजर में रखते हुए निपटाने का निर्देश दिया।

इसके साथ ही हाईकोर्ट ने राज्य सरकार से एक उचित हलफनामा दाखिल करने को भी कहा है। कोर्ट ने कहा कि हलफनामे में राज्य सरकार बताए कि क्या उसने एनएएलएसए मामले में सुप्रीम कोर्ट के जारी निर्देशों के अनुपालन में ऐसा कोई एक्ट बनाया है और यदि ऐसा है तो उसे रिकॉर्ड पर भी लाया जा सकता है।

ऑपइंडिया स्टाफ़: कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया