वो चेहरे, जिन्होंने नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ विरोध प्रदर्शन को ‘दिल्ली दंगों’ में बदलने का काम किया

कुछ लोगों के भड़काऊ बयानों की बदौलत राजधानी जल पड़ी (प्रतीकात्मक चित्र)

नागरिकता कानून के नाम पर शुरू हुए विरोध प्रदर्शन देखते ही देखते दिल्ली हिंसा में तब्दील हो गए। नागरिकता कानून से शुरू हुई दिल्ली हिंसा पर ऐसे दस्तावेज़ कम ही मिलते हैं, जिनके सहारे पूरा घटनाक्रम समझा जा सके। इतनी संवेदनशील घटनाओं से जुड़ी किसी भी बहस में दलीलें कई तरह की होती हैं, लेकिन दलीलों पर भरोसा करना उतना ही मुश्किल है।

जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय, दिल्ली के कुछ पूर्व छात्रों का एक समूह है ‘स्वतीर्थ’। छात्रों के इस समूह ने मुद्दे पर शोध किया और उस शोध के आधार पर एक ग्राउंड रिपोर्ट तैयार की। रिपोर्ट दिल्ली में हुए दंगों की सीधी लकीर खींचती है – असल में दंगों के लिए कौन लोग ज़िम्मेदार थे और परदे पर नज़र आने वाला घटनाक्रम हकीक़त में कैसा था?   

11 दिसंबर के दिन नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) संसद में पारित हुआ। इस क़ानून को लेकर शुरुआती विरोध नज़र आया संसद के भीतर! उसके बाद विरोध का दायरा सड़कों तक बढ़ा, देश की पढ़ने लिखने वाली युवा पीढ़ी से लेकर उपद्रवी और अराजक तत्व भी इस विरोध में सड़क पर नज़र आए।

इसके बाद विरोध दंगों में तब्दील हुआ ही लेकिन इसके अलावा देश की राजधानी की शक्ल भी खराब हुई। लेकिन यह तो फिर भी आम लोग थे। इनके अलावा कुछ नाम ऐसे हैं, जिन्हें एक बड़ी आबादी जानती है। ऐसे लोग, जो अपने-अपने क्षेत्र में सुने और समझे जाते हैं। जिनके चलते हालात सुधर सकते थे लेकिन हालात सुधारना तो दूर इन लोगों की बातों के बाद स्थितियाँ और बदतर ही हुईं। 

सोनिया गाँधी

इस कड़ी में सबसे पहला नाम है, भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस की मुखिया सोनिया गाँधी का। सोनिया गाँधी ने राजधानी में जारी विरोध प्रदर्शन के दौरान एक वाक्य कहा, जिसका असर बेहद नकारात्मक पड़ा। दिसंबर 14, 2019 के दिन नागरिकता संशोधन अधिनियम के विरोध में ‘भारत बचाओ रैली’ हो रही थी, इस दौरान सोनिया गाँधी ने कहा, “यह आर पार की लड़ाई है।”

एक विरोध को दंगे की सूरत देने के लिए यह बात पर्याप्त थी। देश के विपक्षी दल की मुखिया होने के नाते उनसे इस बात की आशा करना गलत नहीं होता कि वह ऐसी बात कहें, जिससे स्थितियाँ सामान्य हों। वैसे कठिन परिस्थितियों में नेताओं के ऊपर यह ज़िम्मेदारी सबसे पहले आती है कि वह लोगों की सुरक्षा और शांति को तरजीह दें। अफसोस कि विपक्ष की सबसे दिग्गज नेता ने लोगों को उकसाना बेहतर समझा। 

हर्ष मंदर

हर्ष मंदर, ऐसा नाम जिसने विरोध के दौरान ऐसी बातों का ज़िक्र किया, जिनका प्रदर्शन से कोई लेना-देना ही नहीं था। इनकी बातों का एक मतलब यह भी था कि इन लोगों के लिए संसद और अदालत, लोकतंत्र के दो सबसे अहम पहलू बेमतलब हैं। इनका कहना था, “अब फैसला संसद में या सुप्रीम कोर्ट में नहीं होगा, सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या और कश्मीर के मामले में सेक्युलरिज्म की रक्षा नहीं की। इसलिए अब फैसला सड़कों पर होगा।”

इतना कुछ सैकड़ों-हजारों की भीड़ के सामने कहा गया, जिससे इस बात का अंदाज़ा लगा पाना आसान है कि राजधानी का माहौल बिगाड़ने में ऐसी बातों और ऐसे लोगों का हाथ कितना ज़्यादा रहा होगा। बेशक विरोध लोकतंत्र का सबसे मज़बूत पक्ष है, लेकिन अदालत और संसद को दोषी बता कर विरोध करना कैसे सही हो सकता है!

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विरोध कर रहे छात्रों के साथ आईशी घोष

आईशी घोष, JNU की छात्रसंघ अध्यक्ष। जैसा कि यह देश के सबसे चर्चित संस्थान से आती हैं, ठीक वैसे ही इन्होंने अपने हिस्से की बात कहने के लिए पढ़े-लिखे लोगों की तरह सन्दर्भों का उपयोग किया। आईशी ने उकसाते हुए गृहमंत्री अमित शाह की बात के संदर्भ में कहा, “गृहमंत्री ने कहा था कि मुस्लिम महिलाओं को स्वतंत्र भाव से नहीं रहने दिया जाता है। अब आप लोगों ने गृहमंत्री को दिखाना है कि आप कितने ताक़तवर हैं।”

लेकिन संदर्भ गलत देने की वजह से आईशी का मकसद कुत्सित था क्योंकि गृहमंत्री ने तीन तलाक के कारण मुस्लिम महिलाओं को होने वाली परेशानी का उल्लेख किया था। आईशी ने लोगों के सामने कुछ इस तरह बात रखी जैसे गृहमंत्री ने कहा हो, ‘मुस्लिम महिलाएँ कमज़ोर हैं।’

इसके अलावा आईशी ने कहा, “हम कश्मीर वालों का दर्द नहीं भूल सकते हैं।” जिसका एक मतलब यह भी है कि उनका विरोध सीएए और एनआरसी तक ही सीमित नहीं था बल्कि कश्मीर से अनुच्छेद 370 के प्रावधानों को निष्क्रीय करने को लेकर भी था। 

शरजील इमाम

शरजील इमाम, दिल्ली दंगों के दौरान निकल कर आया सबसे नया नाम। कहना गलत नहीं होगा कि राजधानी में हुए दंगों से पहले शरजील इमाम का नाम शायद ही किसी ने सुना होगा। प्रदर्शन के दौरान शरजील की कुछ बातें ऐसी थीं, जिससे विरोध करने वालों का एक नज़रिया साफ़ हो गया।

एक वायरल वीडियो में शरजील ने कहा कि हर गैर-मुस्लिम को अल्लाह ओ अकबर कहना पड़ेगा और मुस्लिमों के तय किए गए नियमों के हिसाब से चलना होगा। इसके बाद शरजील ने कहा कि अगर वो अपने समुदाय की एक बड़ी आबादी को समझा पाए तो देश के पूर्वोत्तर हिस्से को भारत से अलग कर सकते हैं।

इतना ही नहीं, शरजील का कहना था कि असम को काटना समुदाय के सभी लोगों की ज़िम्मेदारी है। उसने यहाँ तक कहा कि असम में सीएए लागू हो चुका है, लोग डिटेंशन कैम्प में डाले जा रहे हैं और कुछ महीनों में पता चलेगा कि सारे बंगालियों को मार दिया गया है।

हैरान करने वाली बात यह थी कि इस तरह की बातों के बावजूद तमाम लोगों ने शरजील इमाम का बचाव किया। जबकि उससे जुड़े जितने भी पहलू सामने आए, उन सभी में शरजील की बातें देश की एकता पर चोट करती हैं। 

वारिस पठान

वारिस पठान, एआईएमआईएम के इस जाने-माने नाम ने भी देश में जारी विरोध को बढ़ावा देने का मौक़ा नहीं छोड़ा। कर्नाटक के गुलबर्ग में 20 फरवरी के दिन एक जन सभा हुई, जिसका मुख्य कारण था सीएबी, एनपीआर और एनआरसी का विरोध। यहाँ हज़ारों की भीड़ के सामने वारिस पठान ने कहा देश के 15 करोड़ मुस्लिम 100 करोड़ हिंदुओं पर भारी पड़ेंगे।

इस बात का सीधा मतलब था, समुदाय विशेष के लोगों को क़ानून अपने हाथ में लेने के लिए भड़काने की कोशिश। जिस तरह के वक्त में समुदाय के लोग अपने नेता से इस बात की उम्मीद करते हैं कि उनके लिए सकारात्मक माहौल तैयार करें, ऐसे में ये नेता खुद माहौल बिगाड़ने में लग जाएँ, तब लोगों पर इसका असर भयावह ही होगा। 

उमर खालिद

उमर ख़ालिद, इस नाम से जुड़े जितने भी तथ्य सामने लाए जाएँ, लगभग सारे ही कम पड़ जाएँगे। उमर ख़ालिद शुरुआती लोगों में शामिल था, जिसने जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय जाकर छात्रों के बीच भड़काऊ भाषण दिया।

दिसंबर के दूसरे हफ्ते में जब विरोध प्रदर्शन तेज हुआ तब उमर ख़ालिद के मुताबिक़ देश का बहुसंख्यक समाज दूसरे समुदाय की आबादी के लिए पूर्वग्रहों से ग्रस्त था। इतना ही नहीं, उमर ने आज़ादी के लिए लड़ने वाले क्रांतिकारियों का मज़ाक उड़ाया और उन्हें कायर भी बताया।

उमर जैसे युवा वो हैं, जो देश के विश्वसनीय और प्रतिष्ठित संस्थान से आते हैं, आने वाले कल का अच्छा या बुरा होना काफी हद तक इन पर निर्भर करता है। इन सारी बातों के बावजूद यह अक्सर गलत उदाहरण ही पेश करता है।  

प्रदर्शन के दौरान स्वरा भास्कर

स्वरा भास्कर, एक ऐसा नाम जिसके सामने आते ही लोगों का एक ही सवाल होता था, एक अभिनेत्री का विरोध प्रदर्शन से क्या संबंध? हालाँकि, स्वरा भास्कर ने राजधानी में हो रहे विरोध प्रदर्शन के दौरान भाषण कम ही मौक़ों पर दिए। लेकिन मीडिया वालों से होने वाली हर बातचीत में स्वरा भास्कर का मत साफ़ हो जाता।

बेशक स्वरा भास्कर जैसे चर्चित नामों के पास एक मौक़ा था हालात सुधारने में अपनी ज़िम्मेदारी निभाने का। लेकिन इसके ठीक उलट उन्होंने छात्रों को भड़काने की कोशिश करना और भीड़ को हिंसक बनाने में अपना योगदान देना ज़्यादा बेहतर समझा।

परदे पर नज़र आने वालों के लिए दर्शक का नज़रिया पहले ही सुलझा हुआ होता है, लोग उन्हें पसंद करते हैं, उनके काम की तारीफ करते हैं। जब नायक और नायिकाएँ ही गलत मिसाल पेश करने लगें तब परेशानियों का समाधान कैसे निकाला जा सकता है।  

यह तो फिर भी चंद नाम हैं, जिनके चलते देश की राजधानी दिल्ली का माहौल खराब हुआ। बहुत से नाम ऐसे भी थे, जिनकी कल्पना करना तक मुश्किल है, इन सभी नामों के चलते एक विरोध प्रदर्शन कब दंगों में बदल गया पता ही नहीं चला।

ऑपइंडिया स्टाफ़: कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया