आफताब हो या अकरम… हर श्रद्धा क्यों काट डाली जाती है: एक ने काट कर जानवरों के लिए फेंका, दूसरे ने दोस्तों को ‘दावत’ का दिया न्योता

आफ़ताब (दाएँ) और अकरम जैसों के लिए हिंदू लड़की बस शिकार

एक आफताब अमीन पूनावाला। दूसरा मोहम्मद अकरम। इनके बीच एक समानता है। इनके ‘प्रेम’ की जो शिकार बनी, उसकी पहचान हिंदू है। एक ने हिंदू लड़की के टुकड़े-टुकड़े कर जंगल में जानवरों के लिए फेंक दिया। दूसरे ने हिंदू लड़की को खाने की ‘दावत’ सोशल मीडिया के जरिए अपने यारों को दी। दोनों ने अपनी तरफ से यह बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि हर अब्दुल आखिर में अब्दुल ही होता है, भले हिंदू लड़कियों को अपना अब्दुल अलग लगता हो।

श्रद्धा को भी तो अपना आफताब सबसे अलग लगता होगा। ऐसा नहीं होता तो मुंबई के कॉल सेंटर में साथ काम करते हुए वह उसके साथ लिव इन रिलेनशिप में क्यों रहने लगती? क्यों उसके जाल में फँसती हुई दिल्ली तक आती? जाहिर है उसे आफताब पर पूरा भरोसा रहा होगा। इस भरोसे की कीमत उसकी लाश ने 35 टुकड़े होकर चुकाई।

यदि उसकी पहचान हिंदू न होती तो शायद गला दबाकर मारने के बाद ही आफताब उसे छोड़ देता। लेकिन आफताब की हिंदू घृणा देखिए, हत्या के बाद उसने शव को काटकर 35 टुकड़े किए। 18 दिन तक रोज उन टुकड़ों को लेकर जंगल में जानवरों के लिए फेंकता रहा। मानो मुनादी कर रहा हो एक हिंदू लड़की के शरीर को पहले नोच-खसोट कर मैंने अपना मजहब साबित किया, अब उसकी लाश को नोच-खसोट कर तुम अपना जानवरपन साबित करो।

न शिकारी आफताब अकेला है। न श्रद्धा अकेली शिकार है। रोज ऐसी कई कहानियाँ सामने आती ही रहती है। फिर भी ‘मेरा अब्दुल वैसा नहीं’ वाला कीड़ा कुलबुलाना बंद नहीं होता। इसी कीड़े ने इंदौर की उस महिला को अपने चार साल के बच्चे के साथ अकरम के प्यार में फरार होने को मजबूर किया होगा। अकरम ने शादी कर वीडियो सोशल मीडिया में डाला। अपने प्यार की मुनादी करने को नहीं। यार दोस्तों को ‘दावत’ देने के लिए।

हिस्ट्रीशीटर अकरम ने वीडियो डाल लिखा, “भाई लोग, मैंने शादी कर ली है। सभी को पर्सनल में एक एक कर दावत दूँगा। यह कोडवर्ड है। मेरी बात समझ जाना।”

वो तो इस वीडियो पर हिंदूवादी संगठनों की नजर पड़ गई। पुलिस महिला की तलाश कर रही थी। इसलिए अकरम की ‘दावत’ देने की ख्वाहिश पूरी न हुई। संभव है जैसे छह महीने बाद श्रद्धा की निर्ममता से हत्या की खबर दुनिया को पता चली है, वैसे ही ‘दावत’ पूरी होने के बाद कभी इस महिला की खबर भी दुनिया को लगती। या शायद न भी लगती, क्योंकि हम जानते हैं कि ऐसी कई पीड़िताओं की कहानी हम तक पहुँच भी नहीं पाती है।

अकरम और आफताब ऐसा इसलिए करते हैं कि क्योंकि काफिर लड़कियाँ, उनके लिए मेडल के समान होती है, जिसे वे अपनी सोच वालों के सामने बड़ी शान से बघारते हैं। यह सिलिसिला तब तक बंद नहीं होगा जब तक काफिर लड़कियों के भीतर ‘मेरा अब्दुल वैसा नहीं’ वाला कीड़ा कुलबुलाना बंद नहीं होता। इस कीड़े के मरे बिना श्रद्धा कभी नहीं समझ पाएगी कि जिसे वह आफताब का ‘प्रेम’ समझ रही वह, उसके शरीर के टुकड़े करने वाली आरी है।

राहुल पाण्डेय: धर्म और राष्ट्र की रक्षा को जीवन की प्राथमिकता मानते हुए पत्रकारिता के पथ पर अग्रसर एक प्रशिक्षु। सैनिक व किसान परिवार से संबंधित।