थौलू-त्यार में अपनी तिबार से आज भी दिलबर के घर लौट आने का इन्तजार कर रहे हैं बूढ़े माँ-बाप

20 साल के दिलबर नेगी का इन्तजार उसका परिवार आज भी हर त्यौहार पर करता है

20 साल के दिलबर नेगी के बूढ़े माँ-बाप आज भी अपनी तिबार से अपने बेटे के दिल्ली से लौट आने का इन्तजार कर रहे हैं। दिलबर नेगी की दो बहनें हैं, जो किसी चमत्कार की उम्मीद लगाए बैठी हैं और यह मानने को तैयार नहीं हैं कि उनका भाई इस रक्षाबंधन पर घर नहीं लौट सकेगा।

दिलबर नेगी के छोटे भाई देवेन्द्र का कहना है कि उन्होंने समय से समझौता कर लिया है, लेकिन वह अपने माँ और पिता जी को यही बात समझा पाने में असमर्थ है। उनकी नजर बस ‘धार’ के उस तरफ ही टिकी है, जहाँ से गाँव वालों के बच्चे हर त्यौहार से ठीक पहले अपने-अपने घर लौट आया करते हैं। इस बार भी रक्षाबंधन और ‘थौलू’ (पारम्परिक मेला) में घर से बाहर रहने वाले सभी लोग अपने गाँव लौट आए, लेकिन उन लोगों में दिलबर नेगी का नाम शामिल नहीं है।

इस साल की शुरुआत में ही पूर्वोत्तर दिल्ली में हुए हिन्दू-विरोधी दंगों का शिकार हुए 20 साल के दिलबर नेगी उत्तराखंड के जिस गाँव से सम्बन्ध रखते हैं, वहाँ हर माह की संक्रांति पर त्यौहार और उत्सव मनाए जाते हैं। आषाढ़-सावन के माह गाँव से जब भी कोई आदमी शहर जाता है, तो माँ उसके पास खेतों में लगी ककड़ी और मक्की और खेतों में होने वाली लगभग हर चीज ये कहकर भेजा करती है कि उसके बेटे तक भी ये पहुँचा देना।

उत्तराखंड के लगभग हर जिले में ही हर संक्रान्ति पर त्यौहार की परम्परा है। इसमें कुछ गिने-चुने अवसर, जैसे- थौलू (मेला), जो कि बैशाखी के ही समय गाँवों में मनाया जाता है और लोग जहाँ कहीं भी हों, अपने कुल देवता के दर्शन के लिए अपने गाँव पहुँचते हैं।

दिलबर नेगी के भाई देवेन्द्र का कहना है कि उनका भाई घर से कुछ कमाने के लिए गया था, लेकिन वो यह नहीं जानता था कि वो ऐसी किसी सुनियोजित साजिश का शिकार हो जाएगा। फिर भी पूरा गाँव यही उम्मीद कर रहा है कि उनका दिलबर जहाँ कहीं भी हो, उसे न्याय जरूर मिलेगा।

तकरीबन एक माह पहले ही दिल्ली क्राइम ब्रांच द्वारा दिलबर नेगी के परिवार से दिल्ली दंगों की चार्ज शीट के सम्बन्ध में सम्पर्क किया गया था। हालाँकि, कोरोना वायरस की महामारी के कारण जारी लॉकडाउन के कारण उनके परिवार का कोई भी सदस्य दिल्ली जाने में असमर्थ था।

मुस्लिमों की उन्मादी भीड़ द्वारा दिल्ली दंगों में मारे गए 20 साल के दिलबर नेगी का सपना भारतीय सेना का हिस्सा बनने का था, लेकिन परिवार की आर्थिक हालत ठीक न होने के कारण उसने आजीविका के लिए दिल्ली जाने का फैसला किया था।

दिलबर नेगी के भाई देवेन्द्र का कहना है कि वो भी शुरू में अपने भाई के साथ रोजगार के लिए दिल्ली गया था लेकिन वह गाँव में अपने बूढ़े माँ-बाप के पास लौट गया था। अभी दिलबर नेगी को दिल्ली में रहते हुए लगभग 6 माह ही हुए थे, जब 24 फरवरी को एक दिन बृजपुरी-शिव विहार-मुस्तफाबाद चौराहे के पास इस्लामिक नारे लगाती मुस्लिम भीड़ ने हिंदुओं की दुकानों और संपत्तियों को निशाना बनाते हुए मिठाई की दुकान के गोदाम में दिलबर नेगी को जिंदा जला दिया

उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल क्षेत्र का निवासी, 20 वर्षीय नेगी बृजपुरी-शिव विहार-मुस्तफाबाद क्रॉसिंग पर स्थित अनिल स्वीट्स नामक मिठाई की दुकान पर काम करते थे। दंगों के भड़कने के दो दिन बाद ब्रजपुरी में दुकान के गोदाम की दूसरी मंजिल से उनका जला हुआ और कटा हुआ शरीर मिला था।

दरअसल, दंगाइयों की भीड़ से बचने के लिए गोदाम से भागने की कोशिश कर रहे दिलबर नेगी का दंगाइयों ने पहले हाथ-पैर काटा और फिर शरीर के बाकी हिस्से को आग में झोंक दिया था।

वहाँ से किसी तरह जान बचाकर भागने में सफल रहे दिलबर नेगी के साथियों ने जब ऑपइंडिया से सम्पर्क किया तो उन्होंने बताया था कि मुस्तफाबाद की ओर से लगभग 250-300 मुस्लिमों की भीड़ लाठियों, खाली बोतलों और इस तरह के हथियारों के साथ इकट्ठा होने लगी थी।

भीड़ से घबराकर दुकान के मालिक ने एक घंटे के लिए अपने कर्मचारियों के साथ शटर को बंद कर दिया और अंदर छिप गया था। 24 फरवरी, शाम 4:00- 4.30 बजे दुकान मालिक अनिल और उसके कर्मचारी वहाँ से बाख निकलने में कामयाब रहे और गोदाम के सामने वाली गली में स्थित एक डेयरी की दुकान की छत पर चले गए।

इस छत से ही मिठाई कि दुकान के मालिक अनिल और उनके भतीजे अंकित ने मिठाई की दुकान के गोदाम और राजधानी पब्लिक स्कूल के वीडियो और तस्वीरें कैप्चर की। दिलबर नेगी के साथी श्याम ने ऑपइंडिया को बताया कि भीड़ चुनिंदा हिंदू घरों में आग लगा रही थी, जो कि मिठाई की दुकान के गोदाम से सटे हुए थे और अब धुआँ उस बिल्डिंग तक पहुँच गया था जहाँ दिलबर नेगी फँस गए थे।

दुकान मालिक अनिल ने पुलिस से कहा था कि उन्होंने भीड़ को अपने गोदाम में पत्थर और पेट्रोल बम के साथ घुसते देखा। अनिल उस भीड़ में शाहनवाज उर्फ ​​शानू (एक स्थानीय बीड़ी की दुकान के मालिक) को पहचान पाया था। इसके बाद श्याम और अनिल ने जब दिलबर के गोदाम में ही फँसे होने की बात कही तो दिलबर ने उन्हें फ़ोन पर बताया कि वो गोदाम में ही छुप गया है। दिलबर ने उनसे बताया कि वो बहुत डरा हुआ है।

इसके बाद जब अनिल, श्याम और उसके साथियों ने दिलबर नेगी को दोबारा उसका हाल जानने के लिए फ़ोन किया तो उसका नम्बर बंद आ रहा था। इस घटना के बाद दिलबर नेगी का जला हुआ आधा शरीर ही लोगों को मिल पाया था। शरीर एक राख के ढेर में तब्दील हो चुका था, जिसके हाथ और पैर गायब थे। उसके साथी दिलबर नेगी के शरीर की बनावट के आधार पर उसे पहचान पाए थे।

चार्जशीट के मुताबिक, दिलबर नेगी की हत्या का मुख्य आरोपित शाहनवाज है क्योंकि उसने ही उस दिन भीड़ का नेतृत्व किया था। शाहनवाज के साथ ही अन्य आरोपितों पर हत्या, आपराधिक साजिश, दंगा करने और समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देने का आरोप लगाया गया है। फिलहाल, वे न्यायिक हिरासत में हैं।

दिल्ली दंगों की भयावह याद को लोग भुला देना चाहते हैं लेकिन महज बीस साल के दिलबर नेगी के परिवार के लिए यह कितना कठिन होगा इस बात का अंदाजा लगा पाना मुश्किल है। उत्तराखंड के दूरस्थ ग्रामीण इलाके से एक बीस साल का बच्चा जब अपनी खेती, पशु सम्पदा और अपने बूढ़े माँ-बाप को घर छोड़कर दिल्ली या अन्य किसी बड़े शहर आजीविका तलाशने निकलता है तो उसकी आर्थिक मजबूरी का अंदाजा लगाया जाना चाहिए। ऐसे में, उसे एक दिन हिन्दू-विरोधी षड्यंत्र का हिस्सा बनना पड़ा, दिलबर नेगी के हिस्से का बस यही एकमात्र सत्य है।

करीब पाँच माह बीत जाने के बाद भी, यही कहानी IB के कर्मचारी अंकित शर्मा और उन सभी मृतकों के परिवार वालों की है, जिन्हें एक योजनाबद्ध तरीके से सिर्फ एक विचारधारा की संतुष्टि की खातिर निर्ममता से मार दिया गया। ये सभी अपना फर्ज और अपने परिवार की जिम्मेदारियों के लिए उस दिन अपने घर से बाहर तो निकले थे, लेकिन मजहबी उन्मादियों के कारण वो वापस कभी फिर अपने घर नहीं लौट सके और बदले में एक उम्र भर का इन्तजार अपने घरवालों के लिए पीछे छोड़ गए।

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