सड़े हुए सिस्टम से लड़ो नामर्दों, 73 साल के डॉ. देबेन दत्ता की मॉब लिंचिंग से खाक मिलेगा

लाचार और सिस्टम के मारे डॉक्टर निशाने पर क्यों?

“कोई भी फिज़िशियन, कितना भी कर्मवीर या ध्यान से काम करने वाला क्यों न हो, यह नहीं बता सकता कि किस घड़ी या किस दिन उसके ऊपर अकारण हमला हो सकता है, दुर्भावनापूर्ण आरोप लगाए जा सकते हैं, ब्लैकमेल किया जा सकता है या फिर क्षतिपूर्ति का मुक़दमा किया जा सकता है।”

यह अंश 136 साल पुराने ‘द जर्नल आफ द अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन (जेएएमए) के 10 जून 1992 को प्रकाशित अंक ‘असॉल्ट अपॉन मेडिकल मेन’ से लिया गया है। 73 साल के डॉ. देबेन दत्ता की मॉब लिंचिंग बताती है कि 27 साल में मेडिकल जगत ने भले बहुत तरक्की कर ली हो, लेकिन डॉक्टरों पर वही खतरा आज भी मॅंडरा रहा है, जिसके बारे में करीब तीन दशक पहले जिक्र किया गया था।

असम के एक चाय बागान के अस्पताल में इलाज के दौरान एक मजदूर की मौत हो गई। उसके नाराज रिश्तेदारों और अन्य मजदूरों ने डॉ. दत्ता के साथ मारपीट की। बाद में दत्ता की जान चली गई। इसी साल जून में देश के करीब आठ लाख डॉक्टरों के हड़ताल पर जाने से स्वास्थ्य व्यवस्था चरमरा गई थी। हड़ताल कोलकाता के एक अस्पताल में मोहम्मद सईद की मौत के बाद उनके परिजनों द्वारा जूनियर डॉक्टरों की पिटाई के विरोध में था। जिन डॉक्टरों को निशाना बनाया गया वे सईद के इलाज में शामिल तक नहीं थे।

देश के हर कोने में मरीज की मौत के बाद डॉक्टर या अस्पताल के कर्मचारियों के साथ मारपीट की घटना सामान्य होती जा रही है। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) के प्रेसीडेंट डॉ. राजन शर्मा ने कोलकाता की घटना के बाद कहा था, “यह सिलसिला अरसे से चला आ रहा। किसी भी सभ्य समाज में डॉक्टरों के खिलाफ ऐसी हिंसा बर्दाश्त नहीं की जा सकती।” डॉक्टरों को भगवान माने जाने को लेकर पूछे जाने पर उन्होंने कहा था, “भगवान हड़ताल पर नहीं जाते, लेकिन भगवान पर हमले भी नहीं होते हैं।”

यूएस नेशनल इंस्टीट्यूट्स आफ हेल्थस नेशनल लाइब्रेरी आफ मेडिसिन (NIH/NLM) के जर्नल पबमेड सेंट्रल (PMC) की अगस्त 2018 की रिपोर्ट बताती है कि पश्चिमी देशों में बीते 40 साल में इस खतरे का दायरा सीमित हुआ है। इसके उलट डॉक्टरों को भगवान मानने वाले देश भारत में यह खतरा रोज बढ़ता जा रहा है।

पीएमसी की रिपोर्ट बताती है कि पश्चिमी देशों में इस खतरे के सीमित होने का मुख्य कारण इलाज की समुचित और बेहतर सरकारी चिकित्सा व्यवस्था है। ज्यादातर यूरोपीय देशों में इलाज पर होने वाला खर्च सरकार उठाती है। भारत में हालात इसके ठीक उलट हैं।

अमेरिकी संस्था सेंटर फॉर डिजीज डाइनेमिक्स, इकोनॉमिक्स एन्ड पॉलिसी का अध्ययन बताता है कि भारत में 65 फीसदी लोग इलाज के लिए अपने जेब से खर्च करते हैं। इसके कारण हर साल 5.70 करोड़ लोग गरीबी के दलदल में धँस जाते हैं। इस अध्ययन के अनुसार देश में 6 लाख डॉक्टर और 20 लाख नर्सों की कमी है। 10,189 लोगों पर एक सरकारी डॉक्टर हैं, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार 1,000 लोगों पर एक डॉक्टर होना चाहिए।

सामाजिक कार्यकर्ता और सुप्रीम कोर्ट के वकील अशोक अग्रवाल ने ऑप इंडिया को बताया, “देश की 70 फीसदी आबादी इलाज के लिए सरकारी अस्पतालों पर आश्रित है। निजी अस्पतालों के मुकाबले संख्या और संसाधन के लिहाज से सरकारी अस्पताल मुश्किल से 10 फीसदी होंगे। इलाज के लिए आश्रित आबादी और सरकारी अस्पतालों के बीच का असंतुलन इस खतरे का एक बड़ा कारण है। सरकारी अस्पतालों को बेहतर बनाने में सरकारों की भी रूचि नहीं है। यहॉं तक कि सरकारी अस्पताल मुफ्त में उपचार नहीं मुहैया कराते। ऐसे में गरीब भला क्या करे, कहॉं जाए?”

अग्रवाल सोशल ज्यूरिस्ट नामक संस्था चलाते हैं। निजी अस्पतालों में आर्थिक तौर पर कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के लिए कोटा पाने की लड़ाई सुप्रीम कोर्ट में इसी संस्था ने लड़ी थी। वे बताते हैं, “कोई संदेह नहीं कि सरकारी अस्पतालों के डॉक्टरों पर बोझ बहुत ज्यादा है। ओपीडी में कभी-कभी एक डॉक्टर 300 मरीजों का इलाज करते हैं। डॉक्टरों के साथ मारपीट की घटना भी अमूमन सरकारी अस्पतालों में ही होती है। ज्यादातर मामलों में इसका कारण सुविधाओं की कमी है, जिसे पूरा करना डॉक्टरों के वश में नहीं है। अस्पताल के कर्मचारियों और मरीजों के परिजनों के बीच बढ़ता अविश्वास इसका एक और कारण है।”

आईएमए का एक सर्वे बताता है कि 75 फीसदी डॉक्टरों को जुबानी और 12 फीसदी को शारीरिक हिंसा का शिकार होना पड़ता है। इस ट्रेंड से डॉक्टर इतने भयभीत हैं कि देश के शीर्ष मेडिकल संस्थान ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट आफ मेडिकल साइंसेज (एम्स) दिल्ली के रेजीडेंट डॉक्टरों के एसोसिएशन ने 2017 में सदस्यों के लिए सेल्फ डिफेंस क्लासेज की शुरुआत तक कर डाली।

जून में हुए हड़ताल को लेकर इसी साल जुलाई में लोकसभा में पूछे गए सवाल के जवाब में सरकार ने कहा था कि स्वास्थ्य राज्य का विषय है, इसलिए मरीजों के परिजनों और डॉक्टरों के बीच विवाद का केंद्र सरकार ब्यौरा नहीं रखती। इसी जवाब में बताया गया है कि इस कारण से इस साल 12 जुलाई तक दिल्ली स्थित केंद्रीय अस्पतालों सफदरजंग, लेडी हार्डिंग और राम मनोहर लोहिया में क्रमश: 4, 1 और 2 दिनों की हड़ताल हो चुकी थी।

इस हिंसा के मूल में है डॉक्टरों, अस्पतालों, उपकरणों और संरचना की कमी। खासकर, सरकारी क्षेत्र में। देश के ज्यादातर सरकारी अस्पतालों में पीने के पानी और शौचालय की तरीके से व्यवस्था नहीं है। हर अस्पताल में लंबी लाइन तो दिख जाती है, लेकिन बैठने की जगह कहीं नहीं होती।

इन अस्पतालों में डॉक्टर भी मरीजों की लंबी कतार से जूझ रहे होते हैं। लम्बे समय तक उन्हें काम करना पड़ता है। उनके लिए भी अस्पतालों में थोड़ी देर बैठकर सॉंस लेने की जगह नहीं होती। गिनती के सरकारी अस्पतालों को छोड़ दें तो डॉक्टरों को बैठने के लिए कायदे की कुर्सी भी नसीब नहीं होती। मरीज के साथ-साथ उनके 20-30 परिजन और दोस्तों से भी उन्हें जूझना पड़ता है।

यानी, संकट दोनों तरफ है। इस तरह के हालात में जब बेड, डायलिसिस मशीन, वेंटिलेटर या अन्य किसी कारण से मरीज को दूसरे अस्पताल ले जाने के लिए उनके परिजनों या दोस्तों से कहा जाता है तो भावनाओं पर काबू नहीं रहता और गुस्सा फूट पड़ता है।

लेकिन, इसमें डॉक्टरों का क्या दोष? फिर सरकारों की नाकामी का खीझ हम उन पर क्यों निकालते हैं?

सरकारें कितनी गंभीर

कोलकाता की घटना के बाद जब डॉक्टर हड़ताल पर गए तो वहॉं की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सुरक्षा का भरोसा दिलाने की बजाए उन्हें काम पर लौटने के लिए धमकाया। जब हड़ताल देशव्यापी हो गया तो पश्चिम बंगाल की सरकार मजबूरी में बातचीत के लिए राजी हुई। हालॉंकि, ड्यूटी पर तैनात डॉक्टरों और चिकित्सा व्यवस्था से जुड़े अन्य लोगों पर बढ़ते हमलों को देख केंद्र सरकार नया कानून लाने जा रही है। इसके मसौदे के मुताबिक हिंसा में शामिल लोगों को 10 साल तक की जेल हो सकती है और 10 लाख रुपए तक जुर्माना देना पड़ सकता है।

आँकड़ों की ये कैसी बाजीगरी

एक तरफ सरकार डॉक्टरों की कमी दूर करने वादा करती है, दूसरी तरफ दावा करती है कि देश में डॉक्टर-मरीज का अनुपात डब्ल्यूएचओ के मानदंड से बेहतर है। केंद्र सरकार ने इसी साल जुलाई में लोकसभा में बताया था कि डॉक्टरों की कमी दूर करने के लिए 2017-18 से लेकर 2019-20 के बीच अंडर ग्रेजुएट की 15,815 और पोस्ट ग्रेजुएट की 8,883 सीटें बढ़ाई गई हैं। उससे पहले 28 जूून को लोकसभा में बताया था कि मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) के अनुसार 31 जनवरी 2019 तक देश में 11,57,771 डॉक्टर स्टेट मेडिकल काउंसिल और एमसीआई के तहत पंजीकृत थे। सरकार का अनुमान है कि इनमें से 9.26 लाख डॉक्टर सेवा के लिए उपलब्ध हैं। इस आधार पर 1,457 मरीज पर 1 डॉक्टर का अनुपात बैठता है। लेकिन, इसी जवाब में सरकार आयुर्वेदिक, यूनानी और होम्योपैथिक चिकित्सकों की संख्या बता कर यह दावा भी करती है कि 867 मरीज पर 1 डॉक्टर हैं।

हकीकत कुछ ऐसी है

सच्चाई यह है कि ज्यादातर डॉक्टर प्राइवेट प्रैक्टिस कर रहे या प्राइवेट हॉस्पिटल में काम करते हैं। सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों की कितनी घोर कमी है, इसका अंदाजा देश के शीर्ष संस्थान एम्स की स्थिति से लगाया जा सकता है। एम्स दिल्ली में ​संकाय और गैर संकाय चिकित्सकों को 2,200 से ज्यादा पद खाली हैं। 10 नए एम्स में जूनियर और रेजीडेंट डॉक्टरों के 1,350 से ज्यादा तो संकाय चिकित्सकों के आधे से ज्यादा यानी 2,395 सृजित पदों में से 1,364 खाली हैं। जबकि एम्स दिल्ली की वार्षिक रिपोर्ट बताती है कि साल भर में मरीजों की संख्या 17 फीसदी बढ़ी है। उसके ओपीडी में औसतन 9,300 मरीज रोज इलाज कराते हैं। वेटिंग पीरियड छह महीने से दो साल तक का है। हालत यह है कि इस साल मार्च में एम्स ने बिहार से आए 66 साल के बहादुर राम को हार्ट सर्जरी के 13 जनवरी 2021 को आने के लिए कहा।

नीति आयोग की इस साल ‘स्वस्थ राज्य, प्रगतिशील भारत’ शीर्षक से जारी दूसरी स्वास्थ्य सूचकांक से पता चलता है कि उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों की स्वास्थ्य सेवा देश में सबसे खराब है। देश के ज्यादातर राज्यों में सालों से डॉक्टरों की बहाली नहीं हुई है या वे अनुबंध पर काम कर रहे हैं। जब इलाज करने वालों की ऐसी कमी हो, एम्स जैसे संस्थानों के पास पर्याप्त संसाधन ना हो तो अन्य अस्पतालों में उपकरणों, इलाज की अन्य सुविधाओं और संसाधनों की कमी का अंदाजा लगाया ही जा सकता है।

क्यूँ ऐसे हालात

मौजूदा हालात का सबसे बड़ा कारण केंद्र और राज्य सरकारों के बजट में स्वास्थ्य के लिए बेहद कम आवंटन का होना है। नेशनल हेल्थ पॉलिसी में 2025 तक स्वास्थ्य बजट जीडीपी का 2.5 फीसदी करने का लक्ष्य तय किया गया है। फिलहाल यह 1.7 फीसदी है। विकसित देशों में यह 6 फीसदी है।

चाहे किसी दल की सरकार हो, किसी भी प्रदेश की बात हो स्वास्थ्य पर खर्च कमोबेश ऐसा ही है। यह स्वास्थ्य को लेकर हमारे राजनीतिक दलों की गंभीरता को बयॉं करने के लिए काफी है। इसलिए, अगली बार जब भी भावनात्मक रूप से टूटे तो गुस्सा बचाकर रखिएगा। सिस्टम से, जिम्मेदारों से सवाल करने के लिए। उन नामर्दों की भीड़ में मत शामिल हो जाइएगा जिसका गुस्सा लाचार डॉक्टरों को निशाना बना शांत हो जाता है। आप की तरह डॉक्टर भी सिस्टम के ही मारे हैं। बेबसी और लाचारी ही उनका भी सत्य है।

अजीत झा: देसिल बयना सब जन मिट्ठा