कॉलेजियम सिस्टम के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका भी नहीं हुई दर्ज… सुनवाई तो दूर की बात: हजारों वकीलों को समान अवसर मिलने की बात अब कौन सुनेगा?

सुप्रीम कोर्ट (चित्र साभार: Millenium Post)

हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति करने वाली कॉलेजियम सिस्टम में किसी तरह की दखल सुप्रीम कोर्ट नहीं चाहता है। कॉलेजियम प्रणाली पर सवाल उठाने वाली एक रिट याचिका को सुप्रीम कोर्ट की रजिस्ट्री ने दर्ज करने से इनकार कर दिया है। रजिस्ट्री का कहना है कि साल 2016 में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम 2014 को संविधान पीठ पहले ही फैसला दे चुकी है।

याचिकाकर्ता एडवोकेट मैथ्यूज जे नेदुमपारा को जवाब देते हुए सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार ने कहा कि इस मामले से संबंधित सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन एवं अन्य बनाम भारत संघ केस में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ द्वारा पहले ही फैसला किया जा चुका है। इस निर्णय में संविधान पीठ ने 2015 में राष्ट्रीय न्यायिक आयोग (NJAC) को असंवैधानिक और शून्य घोषित कर दिया था।

रजिस्ट्रार ने कहा कि NJAC संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन करता था, इसलिए असंवैधानिक घोषित किया जा चुका है। वर्तमान याचिका उन्हीं मुद्दों से संबंधित है, जिन्हें पूर्व के फैसले द्वारा खत्म किया जा चुका है। रजिस्ट्रार ने यह भी कहा कि ऐसा प्रतीत होता है कि वर्तमान याचिका स्थापित सिद्धांतों को ‘अतिक्रमण’ करने के लिए या ‘किसी गुप्त उद्देश्य से’ दायर की गई है।

रजिस्ट्रार ने कहा कि एनजेएसी पर फैसले के खिलाफ 2018 में दायर एक समीक्षा याचिका को भी संविधान पीठ ने खारिज कर दिया था। बेंच ने याचिका को ध्यान से देखा और उसमें कोई योग्यता नहीं पाई।याचिकाकर्ता संविधान के अनुच्छेद 32 की आड़ में 2015 के फैसले की समीक्षा की माँग कर रहे हैं। इन मुद्दों को ‘कानूनी रूप से दोबारा उठाने की अनुमति’ नहीं दी जा सकती।

इसके आधार पर रजिस्ट्रार ने सुप्रीम कोर्ट नियम 2013 के आदेश XV नियम 5 के आलोक में याचिका लेने से इनकार कर दिया। आदेश XV नियम 5 इस प्रकार है: “रजिस्ट्रार इस आधार पर याचिका प्राप्त करने से इनकार कर सकता है कि यह किसी उचित कारण का खुलासा नहीं करता है या तुच्छ है या इसमें घोटाला है।”

याचिकाकर्ताओं ने अपनी याचिका में कहा कि कॉलेजियम प्रणाली के कारण ‘याचिकाकर्ताओं और हजारों वकीलों को समान अवसर से वंचित’ कर दिया गया है। इसके अलावा, याचिका में यह घोषित करने की माँग की गई कि एनजेएसी ‘लोगों की इच्छा’ है और सुप्रीम कोर्ट एवं उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण ‘विधायी और कार्यकारी नीति के विशेष क्षेत्र’ में आता है।

बताते चलें कि कॉलेजियम सिस्टम भाई-भतीजावाद और जातिवाद का ऐसा मिश्रण है कि न्यायिक क्षेत्र में इसे ‘अंकल कल्चर’ कहा जाने लगा है। अन्य क्षेत्रों की तरह केंद्र की मोदी सरकार ने इसमें आवश्यक सुधार करने की कोशिश की, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने खुद को सर्वोच्च ऑथरिटी बताते हुए संसद में बने इस कानून को ही खारिज कर दिया। इसके कारण जनता में पहले से ही बैठी आशंका और मजबूत हो गई कि सुप्रीम कोर्ट आखिर कॉलेजियम में पारदर्शिता तक क्यों नहीं लाना चाहता है।

क्या है कॉलेजियम सिस्टम

कॉलेजियम सिस्टम सुप्रीम कोर्ट द्वारा खुद से विकसित किया हुआ एक सिस्टम है, जिसके तहत सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति की जाती है। यह नियुक्ति फिलहाल सुप्रीम कोर्ट के पाँच वरिष्ठ जजों की अनुशंसा पर ही की जाती है। हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति भी कॉलेजियम की सलाह पर होती है। इसमें सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, संबंधित हाईकोर्ट के चीफ़ जस्टिस और उस राज्य के राज्यपाल शामिल होते हैं।

कॉलेजियम सिस्टम कोई संवैधानिक अवधारणा नहीं है, बल्कि यह सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपने तीन फैसलों के आधार पर विकसित किया गया है। इसे ‘जजेस केस’ के नाम से जाना जाता है। पहला केस 1981, दूसरा 1993 और तीसरा 1998 के केस से जुड़ा है। 1981 के पहले केस को एसपी गुप्ता केस के नाम से भी जाना जाता है।

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि जजों की नियुक्ति के लिए चीफ़ जस्टिस के पास एकाधिकार नहीं होना चाहिए, बल्कि इसमें सरकार की भी भूमिका होनी चाहिए। 1993 में दूसरे केस में 9 जजों की एक बेंच ने कहा कि जजों की नियुक्तियों में मुख्य न्यायाधीश की ‘राय’ को बाकी लोगों की राय के ऊपर तरजीह दी जाए। इस तरह 1998 के तीसरे केस में सुप्रीम कोर्ट ने कॉलेजियम का आकार बड़ा करते हुए इसे पाँच जजों का एक समूह बना दिया।

इन तीन केसों के आधार पर कॉलेजियम सिस्टम को विकसित किया गया और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के साथ-साथ चार अन्य वरिष्ठ न्यायाधीशों की राय को अनिवार्य बना दिया गया। इनकी राय के बिना सुप्रीम कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में किसी भी न्यायाधीश की नियुक्ति नहीं की जा सकती।

जजों की नियुक्ति को लेकर क्या कहता है संविधान

सारा काम इसी ‘राय’ को ‘सहमति’ बनाने को लेकर है। संविधान में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के वरिष्ठ जजों से विचार-विमर्श करके ही राष्ट्रपति करेंगे। संविधान के अनुच्छेद 124 में सुप्रीम कोर्ट और उसमें जजों की नियुक्ति और अनुच्छेद 217 में हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति से संबंधित प्रावधान है।

संविधान के अनुच्छेद 217 में कहा गया है कि राष्ट्रपति हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति के लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश, राज्य के राज्यपाल और उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से विचार-विमर्श करने के बाद निर्णय लेंगे।

हालाँकि, सुप्रीम कोर्ट ने ‘जजेज केसेस’ में संविधान में उल्लेखित शब्द ‘कंसल्टेशन’ की व्याख्या करके ‘सहमति’ कर दी। यानी विचार-विमर्श को सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की ‘सहमति’ के रूप में संदर्भित कर दिया।

मोदी सरकार का न्यायिक सुधार और सुप्रीम कोर्ट का अड़ंगा

साल 2014 में केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद अन्य क्षेत्रों की तरह न्यायिक क्षेत्रों में भी सुधार करने की कोशिश की। मोदी सरकार ने साल 2014 में संविधान में 99वाँ संशोधन करके नेशनल ज्यूडिशियल अप्वाइंटमेंट कमीशन (NJAC) अधिनियम लेकर आई। इसमें सरकार ने कॉलेजियम की जगह जजों की नियुक्ति के लिए NJAC के प्रावधानों को शामिल किया था।

NJAC में 6 सदस्यों का प्रावधान किया है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, सुप्रीम कोर्ट के दो वरिष्ठ जज, केंद्रीय कानून मंत्री और दो अन्य विशेषज्ञ शामिल हैं। इन दो विशेषज्ञों का चयन प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश मिलकर करेंगे। इसमें यह भी प्रावधान है कि ये दो विशेषज्ञ हर तीन साल पर बदलते रहेंगे।

इसके साथ ही साल 2014 में संविधान संशोधन करके केंद्र सरकार ने जजों की नियुक्ति के मामले में बड़ा बदलाव किया। इस संशोधन में संसद को यह अधिकार दिया गया कि भविष्य में सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति से जुड़े नियमों को बना सकता है और जरूरत पड़ी तो उसमें बदलाव भी कर सकता है।

केंद्र सरकार द्वारा इस कानून को बनाने के बाद साल 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने नेशनल ज्युडिशियल अप्वाइंटमेंट्स कमीशन अधिनियम को रद्द कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने इसे ‘संविधान के आधारभूत ढाँचे से छेड़छाड़’ बताते हुए रद्द कर दिया। बता दें कि संविधान में सुप्रीम कोर्ट को मौलिक अधिकारों के संरक्षक के रूप में बताया गया है, जबकि देश में कानून बनाने का अधिकार सरकार और संसद के पास ही है।

कॉलेजियम पर भाई-भतीजावाद और गुटबाजी का आरोप

कॉलेजियम सिस्टम पर जजों की नियुक्ति के मामले में अक्सर भाई-भतीजावाद का आरोप लगता है। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में भयानक भाई-भतीजावाद और जातिवाद का आरोप लगता है। इतना ही नहीं इस प्रक्रिया में गुटबाजी के कारण केसों के प्रभावित होने के आरोप लगते हैं।

न्यायपालिका में ‘अंकल कल्चर’ कहते है। इसके तहत अधिकांश ऐसे जजों को ही चुना जाता है, जिनके परिवार से कोई जज रह चुका होता है या जिनकी न्यायपालिका में ऊँचे पदों पर जान-पहचान है। कहा जाता है कि देश की न्यायिक व्यवस्था सिर्फ 300 परिवारों के इर्द-गिर्द घुमती है।

यह भी कहा जाता है कि कॉलेजियम सिस्टम के कारण जजों के बीच आपसी पॉलिटिक्स और गुटबाजी होती रहती है। इसके कारण जज फैसला लिखने से ज्यादा ध्यान इस बात पर लगाते हैं कि कौन जज बने। इससे न्यायिक व्यवस्था प्रभावित होती है। बताते चलें कि इस समय देश में लगभग 5 करोड़ केस विभिन्न न्यायालयों में पेंडिंग हैं।

पूर्व कानून मंत्री का कॉलेजिम सिस्टम पर वार

इस कानून को नकारने के बाद सुप्रीम कोर्ट और केंद्र के बीच पिछले दिनोें तानातानी बढ़ गई थी। पूर्व केंद्रीय कानून एवं न्याय मंत्री किरेन रिजिजू ने अक्टूबर 2022 को कहा कि देश के लोग कॉलेजियम सिस्टम से खुश नहीं हैं और संविधान की भावना के मुताबिक जजों की नियुक्ति करना सरकार का काम है। केंद्र ने तो यहाँ तक कह दिया कि जज इस सिस्टम के जरिए अधिकतर समय राजनीति और गुटबाजी में व्यस्त रहते हैं।

उन्होंने कहा था कि आधे समय न्यायाधीश नियुक्तियों को तय करने में व्यस्त होते हैं, जिसके कारण उनका जो प्राथमिक काम न्याय प्रदान करना होता है, वह प्रभावित होता है। उन्होंने कहा कि संविधान में पूरी तरह स्पष्टता है कि भारत के राष्ट्रपति न्यायाधीशों की नियुक्ति करेंगे। इसका मतलब है कि कानून मंत्रालय भारत के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से न्यायाधीशों की नियुक्ति करेगा। 

25 नवंबर 2022 को केंद्रीय क़ानून मंत्री किरेन रिजिजू ने कॉलेजियम द्वारा जजों की नियुक्ति को ‘संविधान से परे’ और एलियन बता दिया। उन्होंने कहा कि कॉलेजियम प्रणाली में कई खामियाँ हैं और लोग आवाज उठा रहे हैं कि यह पारदर्शी नहीं है और ना ही इसमें जवाबदेही है। 

किरेन रिजीजू ने कहा, “भारत का संविधान जनता और सरकार के लिए ‘धार्मिक दस्तावेज’ है। कोई चीज जो संविधान से अलग है, उसे सिर्फ अदालत के कुछ जजों ने तय किए जाने के कारण आप कैसे माना सकता है कि उसका पूरा देश समर्थन करता है। आप बताएँ कि कॉलेजियम प्रणाली किस प्रावधान के तहत निर्धारित की गई है।”

केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने आगे कहा कि जिस प्रकार मीडिया पर निगरानी के लिए भारतीय प्रेस परिषद है, उसी प्रकार न्यायपालिका पर निगरानी की भी व्यवस्था होनी चाहिए। लोकतंत्र में कार्यपालिका और विधायिका पर निगरानी की व्यवस्था मौजूद है, लेकिन न्यायपालिका के भीतर ऐसा कोई तंत्र नहीं है।

उन्होंने कहा, “हमारे कार्यपालिका और विधायिका अपने दायरे में बिल्कुल बँधे हुए हैं। अगर वे इधर-उधर भटकते हैं तो न्यायपालिका उन्हें सुधारती है। समस्या यह है कि जब न्यायपालिका भटकती है तो उसको सुधारने का व्यवस्था नहीं है।” उन्होंने कहा था कि अगर न्यायपालिका यह काम खुद करे तो अच्छा है।

ऑपइंडिया स्टाफ़: कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया