6 महीने में आग लगने की 565 घटनाएँ, 690 हेक्टेयर वन क्षेत्र प्रभावित: उत्तराखंड में इस साल भी गर्मियों में वही समस्या, काफी ज्वलनशील होती है चीड़ की पत्तियाँ

उत्तराखंड में आग लगने की घटनाओं पर काबू पाने के लिए लगाए गए हेलीकॉप्टर

उत्तराखंड सुलग रहा है। कारण – गर्मियों में आग की समस्या फिर से उठ खड़ी हुई है। अब नैनीताल के भवाली रोड पर पाइन्स के जंगलों में भीषण आग लग गई है। सिर्फ जंगल का एक बड़ा हिस्सा ही नहीं, बल्कि ITI भवन भी इसकी चपेट में आ गया। नैनीताल में ही लड़ियाकाँटा क्षेत्र के जंगलों में भी आग फैली हुई है। भवाली जाने वाली सड़क पर धुआँ छाया हुआ है। वाहनों की आवाजाही रुक गई है। दमकल विभाग को आग को काबू करने के लिए लगाया गया है, लेकिन तेज़ हवाओं के कारण इसमें भी मुश्किलें आ रही हैं।

भारतीय सेना जहाँ तैनात है, वहाँ भी आग की लपटें पहुँच सकती हैं। सेना के जवान तत्परता से आग बुझाने के काम में लग गए हैं। नैनीताल और भीमताल झील से पानी लेकर हेलीकॉप्टर के जरिए आग बुझाने की कोशिश की जा रही है। कुमाऊँ के जंगल भी अछूते नहीं हैं। बलदियाखान, ज्योलिकोट, मंगोली, खुरपाताल, देवीधुरा, भवाली, पाईनस और भीमताल मुक्तेश्वर समेत कई इलाके इसकी चपेट में आ गए हैं। बड़ी बात ये है कि पाइन्स क्षेत्र स्थित हाईकोर्ट कॉलोनी के लोगों को भी खतरा है।

चूँकि आग जिला मुख्यालय के पास ही लगी है, शहर में यातायात बाधित है। ‘द पाइन्स’ के पास स्थित एक घर भी जल गया। वो घर खाली पड़ा हुआ था। हालाँकि, हाईकोर्ट कॉलोनी को फ़िलहाल कोई नुकसान नहीं हुआ है। नैनी झील में फ़िलहाल नौकायन पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया है। नैनीताल के प्रभागीय वन अधिकारी चन्द्रशेखर जोशी ने बताया कि आग बुझाने के लिए मनोरा रेंज के 40 कर्मियों एवं 2 वन रेंजरों को भी तैनात किया गया है।

पिछले 24 घंटों में कुमाऊँ क्षेत्र में आग लगने की 26 घटनाएँ हुई हैं। गढ़वाल के 5 इलाके भी इसका शिकार बने हैं। वहाँ 33.34 हेक्टेयर वन क्षेत्र प्रभावित हुआ है। अगर 1 नवंबर, 2023 से अब तक की घटनाओं को लें तो 6 महीने से भी कम समय में आग लगने की 565 घटनाओं ने उत्तराखंड को दहलाया है। 689.89 हेक्टेयर क्षेत्र के जंगल प्रभावित हुए हैं। राज्य को 14 लाख रुपए से भी अधिक का नुकसान हुआ है। जखोली और रुद्रप्रयाग में 2 अलग-अलग क्षेत्रों में जंगल में आग लगाने के आरोप में 3 लोग गिरफ्तार हुए हैं।

उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने अधिकारियों को अलर्ट रहने के लिए कहा है, साथ ही विभिन्न विभागों को आपस में समन्वय कर के आग बुझाने का निर्देश दिया है। कुछ लोगों ने अपने भेड़ों को चराने के लिए घास उगाने हेतु भी जंगल में आग लगाई थी। ताज़ा आग के कारण 2 लोगों के झुलसने की भी खबर है। कालागढ़ टाइगर रिजर्व, राजाजी टाइगर रिजर्व और नंदा देवी राष्ट्रीय पार्क में आग लगने से जंगली जानवरों की सुरक्षा को लेकर भी चिंता खड़ी हो गई है।

वन विभाग ने अपने मुख्यालय में इन घटनाओं पर काबू पाने के लिए कंट्रोल रूम स्थापित किया है। आग लगने की सूचना देने के लिए 18001804141 और 01352744558 फोन नंबर भी जारी किए गए हैं। 9389337488 व 7668304788 पर व्हाट्सएप्प भी किया जा सकता है। देहरादून स्थित आपदा कंट्रोल रूम के नंबर 9557444486 और पुलिस के 112 पर भी ऐसी घटनाओं को लेकर आमजन सूचित कर सकते हैं। देहरादून की डीएम ने विभिन्न विभागों की बैठक की है।

आग लगने की घटनाओं को लेकर लोगों को जागरूक भी किया जाएगा। मॉनसून को देखते हुए नगर निकायों को नालियों की सफाई का निर्देश दिया गया है। बारिश के मौसम से पहले रिवर ड्रेजिंग, चैनलाइजेशन व ड्रेनेज कार्य पूरा करने का निर्देश दिया गया। बिजली विभाग को जर्जर विद्युत पोलों को चिह्नित कर बदलने के लिए कहा गया है। इन्स्युलेटर भी चेक करने को कहा गया है। पहाड़ी क्षेत्रों में सड़कों पर क्रैश बैरियर भी लगाए जाएँगे। अन्य तरह की भी तमाम तैयारियाँ की जा रही हैं।

वैसे उत्तराखंड में आग लगने की घटनाएँ कोई नई नहीं हैं। 2021 में भी ये समस्या भयावह हो गई थी। तब Mi-17 हेलीकॉप्टरों की मदद ली गई थी। वहाँ चीड़ के पेड़ ज्यादा हैं, उनकी पत्तियाँ ‘पिरूल’ अत्यधिक ज्वाललशील होती है, ऐसे में हिमालय की संपदा नष्ट होती है। 2021 में भी पहले साढ़े 3 महीनों में 1400 के करीब ऐसी घटनाएँ दर्ज हुई थीं। एक अध्ययन में पता चला था कि जंगल की आग से निकला स्मॉग और राख ‘ब्लैक कार्बन’ बना रहा है, जो ग्लेशियरों को कवर कर रहा है, जिससे उन्हें पिघलने का खतरा है।

गंगोत्री, मिलम, सुंदरडुंगा, नयाला और चेपा जैसे अपेक्षाकृत कम ऊँचाई पर स्थित ग्लेशियर सबसे अधिक खतरे में हैं और यही ग्लेशियर बहुत सी नदियों के स्रोत भी हैं। चीड़ के पेड़ औषधीय गुण रखते हैं, उन्हें काट देना समाधान नहीं है। उससे कोयला बनता है, बिजली उत्पादन होता है। ये भी माँग की जा रही है कि वन विभाग से लेकर जंगली क्षेत्रों का नियंत्रण वापस लेकर वन पंचायतों को अधिक सदृश किया जाए। अक्सर जनजातीय समाज जंगलों का संरक्षण करता रहा है।

ऑपइंडिया स्टाफ़: कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया